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Magazine - Year 1988 - Version 2

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प्रभाव का ज्वलंत उदाहरण

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अखंड-ज्योति का प्रधान लक्ष्य है- ऋषि परम्पराओं का पुनर्जीवन’। इसी को आधुनिक परिवेश में ‘अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय भी कह सकते है। इस प्रयास की प्रत्यक्ष परिणति दो स्वरूपों में सामने आ रहीं है- एक है जनमानस का परिष्कार व्यक्तित्व का निखार, प्रतिभा का प्रखरीकरण। दूसरा है-सत्प्रवृत्ति संवर्धन, पुण्य-परमार्थ का विवेकपूर्ण अवलम्बन के साथ-साथ किया गया क्रियान्वयन।

इस प्रयास की परिणति दार्शनिक क्रान्ति के-दृष्टिकोण के उदारीकरण रूप में हाथों हाथ उपलब्ध होती देखी जा सकती है। जिस क्षेत्र में इस युग-चेतना को प्रवेश करने का अवसर मिला है वहाँ आदर्शवाद का संस्थापन, उत्कृष्टता का अभिवर्धन निखर कर सामने आया है।

प्रयास की गतिविधियों को लेखन, वाचन, पठन, श्रवण तक सीमित नहीं रखा गया है। यह तो अनेक लेखक उपदेशक सरलतापूर्वक करते भी रहते है, साथ ही अपनी आजीविका तथा प्रशंसा भी लगे हाथों प्राप्त कर लेते है। इतने भर से कुछ सुनने पढ़ने का मसाला तो जन-साधारण को मिलता है पर प्रत्यक्ष क्रियाशीलता के अभाव में ऐसा कुछ बन नहीं पड़ता जिससे लोगों को अपने में प्रगतिशीलता लोन के लिए प्राणवान प्रेरणा मिल सके। इसके लिए ऐसा कुछ चाहिए जिससे क्रियाशीलता को उभरने का अवसर मिले। प्रेरणाप्रद वातावरण से उभरने वाली उमंग उमगे।

यह असमंजस चिन्तन और कर्म का सघन समन्वय न होने के कारण ही उत्पन्न होता है। ज्ञान और कर्म दोनों का संबंध घनिष्टतापूर्वक जुड़ पड़ने पर ही ऐसा कुछ बन पड़ता है जिसे आदर्शवाद का पक्षधर समग्र परिवर्तन कहा जा सके। इस स्तर का सर्वांगपूर्ण प्रयास गंभीरतापूर्वक कुछ उँगलियों पर गिनने लायक स्थानों पर ही हुआ है। इस दिशा में राजा महेन्द्र प्रताप का प्रेम महा विद्यालय अरविन्द घोष का नेशनल कालेज, कन्याकुमारी का विवेकानन्द पीछ रामकृष्ण मिशन जैसे ज्ञान और कर्म का समन्वय करने वाले आधार खड़े करने में अन्य सुधारवादी व्रतरत रहें है। उनने स्कूल कालेज गुरुकुल जैसे शिक्षा संस्थान तो खोले पर यह नहीं सोचा कि पढ़ने के उपरान्त शिक्षार्थी आजीविका उपार्जन में लग जाने के लिए अतिरिक्त और भी कुछ सोचेंगे करेंगे क्या?

हो सकता है कि देश को लोकसेवी देने की कल्पना इन ज्ञानपीठों के निर्माता अपने मनों में संजोयें रहें हों पर उतने भर से न कुछ बनने वाला था न बन सका। सरकारी मशीन, कर्मचारी-अफसर तो बड़ी संख्या में प्रशिक्षित करती है, पर उस प्रशिक्षण के पीछे ऐसा कुछ नहीं होता जिसके आधार पर इन उत्तीर्ण लोगों में कर्मनिष्ठा का, ईमानदारी-जिम्मेदारी का भाव कूट-कूट कर भरा गया हो। इसी अभाव के कारण लापरवाही और बेईमानी का माहौल बनता है। सुविधा और सम्पदा हर किसी के गले चिपकती है। ऐसे नररत्न निकालने वाली कोई खदान खुली हुई नहीं है जिसने से लोक मंगल के लिए अपना उत्कर्ष करने वाले भावनाशील उभरे और स्वयंसेवक स्तर का जीवनक्रम अपनाकर जन साधारण पर छाप छोड़े। अन्यान्यों को भी अपनी ही तरह साहस प्रदर्शित करे। देवमानवों की बिरादरी का विस्तृतीकरण एवं नवयुग का अवतरण कहा जा सकता है।

इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए आवश्यक समझा गया कि सभी विचारशीलों को निजी कामों में कटौती करके परमार्थ प्रयोजनों में रुचि लेने योगदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाये। जो समयदान दे सके उन्हें लोकमंगल के रचनात्मक कामों में जुटाया जाय। भावनायें क्रियाशीलता के सहारे ही जीवित रहती है अन्यथा वे भी पानी के बुलबुले की तरह उठती है और विलीन हो जाती हैं। डायनुमा चलती है तो बैटरी चार्ज होती रहती हैं। लोक सेवा का कार्यक्रम अपनाकर ही कोई अपनी बढ़ी हुई श्रद्धा एवं भावना को जीवन्त रख सकता है। निष्क्रियता की स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां भर जीवित रह सकती है। सत्प्रवृत्तियों को तो सेवा साधना का खाद पानी नियमित रूप से मिलना चाहिए। अखण्ड-ज्योति जहाँ दार्शनिक स्तर पर पुण्य-परमार्थ के पक्षधर तर्क तथ्य, प्रमाण उपस्थित करती रहीं है वहाँ उसने “अपनों से अपनी बात” शीर्षक के अंतर्गत प्रत्येक संबंधित व्यक्ति का इस हेतु भी उकसाया गया है कि वह समयदान अंशदान को आवश्यक नित्य कर्मों में सम्मिलित करे ओर जनमानस के परिष्कार को-सत्प्रवृत्ति संवर्धन को अनिवार्य धर्म कर्तव्यों की तरह जीवन-चर्या में सम्मिलित करे। शरीर और परिवार तक ही सीमित न रह कर समाज की हित साधना में भी बढ़-चढ़ कर योगदान दे।

यह मात्र प्रतिपादन या उपदेश भर नहीं था। जिस प्रकार किसी को समीप बिठाकर विचार-विनिमय द्वारा मार्गदर्शन किया जाता है ठीक उसी प्रकार छपे कागजों में प्राण प्रेरणा लपेट कर दूरवर्ती पाठकों के घरों में नवजीवन का संदेश विगत दर्शकों में पहुँचाया गया। प्रसन्नता की बात है कि उच्चस्तरीय प्रेरणा काम आई। उसने वही काम किया जो निकटवर्ती लोगों तक कोई प्राणवान अपनी प्राण चेतना से लाभान्वित करके करना है।

पत्र व्यवहार की आवश्यकता और क्षमता सभी लोग जानते हैं, लिखने वाला अपने भाव कागजों पर उड़ेल देता है और मन हल्का करता है। उसी प्रकार पान वाला भी प्रतीक्षा में बैठा रहता है। दरवाजे पर खड़ा पोस्टमैन का इन्तजार करता रहता है। अखण्ड-ज्योति ने यही भूमिका निभाई है। इसकी पंक्तियों में इतना सारगर्भित भावना भरा और प्राण चेतना से परिपूर्ण अंकन रहा है कि लिखने वाले की लेखनी उतनी ही तृप्त रही है जितनी की गाय अपने बच्चे को दूध पिलाकर राहत अनुभव करती है। पाठकों ने भी वस्तुस्थिति के अनुरूप प्रतिक्रिया व्यक्त की है उनने उसे दैवी वरदान का अवतरण समझा है और एक ++++ को अनेक-अनेक बार पढ़ा है। घर वालों को सुनाया है पड़ोसियों का पढ़ाया है मित्र-संबंधियों तक पहुँचाया है मित्र मण्डली में समय-समय पर उसका भरपूर गुणगान किया है। यही कारण है कि आरम्भ में 500 की संख्या में छपी अखंड-ज्योति अब ढाई लाख तक जा पहुँची है। धार्मिक पत्रों में उसे सबसे अधिक संख्या में प्रकाशित होने वाला माना जाता है। इसका कारण उसके मूल्यवान पाठ्य सामग्री वाले पृष्ठों को देखते हुए चरम सीमा तक सस्ता होना ही नहीं है वरन यह है कि जो पढ़ता है वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। इसका प्रमाण यह है कि व्यक्तिगत निर्माण की परमार्थ परायणता में संलग्न व्यक्ति भी लाखों की संख्या में सृजन प्रयोजनों में संलग्न देखे जाते है। संगठित अनुयायियों के क्षेत्र में यह एक अद्भुत उदाहरण है। किसी पत्रिका के पाठक तो अनेक हो सकते है, पर उसके परामर्श के अनुरूप अपना जीवनक्रम ढाल लेने वाले इतनी बड़ी संख्या में कदाचित हीं कहीं देखे गये है।

पाठकों को कार्यक्रम में दिये गये है। उन्हें आत्मनिर्माण परिवार निर्माण समाजनिर्माण, के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप कार्यक्रम अपनाने के लिए कहा गया है जो कहा गया है उसे अपनाया गया है। यही कारण है कि नीति-निष्ठा अपनाने वाले जितने व्यक्ति अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों में दीख पड़ते हैं उतने अन्यत्र कहीं नहीं। परिवारों में शालीनता का परिवार के पंचशीलों का समावेश जितनी मात्रा में हुआ है उतना अन्यत्र कदाचित हीं कहीं देखा जा सके। समाज-निर्माण के निमित्त भी इस समुदाय ने जितना काम किया है उसी बूँद-बूँद को एकत्रित किया जाये, तो वे घड़ा भरने जितनी ही जाती है। समाज सुधार के कितने ही आन्दोलन बड़े-बड़े मंचों से चल रहें हैं। धूम-धड़ाके समारोह जुलूस, प्रदर्शन गायन भाषण तो अन्य मंचों से भी होते देखे जाते है पर उनका प्रभाव प्रदर्शन तक ही सीमित रह जाता है। धूम-धाम सिमटते ही मूल प्रयोजन भी हवा में तिरोहित हो जाता है, पर अखंड-ज्योति परिवार के संबंध में यह बात नहीं हैं। उसके सदस्यों को विज्ञापनबाजी से दूर रहने के लिए कहा गया है, क्योंकि इससे व्यर्थ अहंकार बढ़ता है ललक को पूरा करने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा का विषवृक्ष उगता है। सेवा को धर्म के रूप में समझा गया है। उसे लोकेषणा की पूर्ति का भौंड़ा आधार न बनने देने के लिए कहा गया है। यही कारण है कि परखे हुए, तपे हुये लोकसेवी चरित्रवान प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति इस परिकर में असाधारण अनुपात में देखे जा सकते है। सद्गुणों की सम्पदा न केवल देश धर्म समाज, संस्कृति की समर्थ सेवा करती है वरन व्यक्ति के निजी जीवन को भी सुख-शान्तिमय बनाती है, प्रसन्नता सम्पन्नता सफलता से भरती है। सज्जन स्तर के मित्रों का घनिष्ठ भाव और गहरा सहयोग मिलते जाना भी सफलता का कम महत्वपूर्ण अवलम्बन नहीं है। इन लाभों से अखंड-ज्योति परिवार के अधिकाँश सदस्य लाभान्वित हुए हैं। उनने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में युग चेतना का विकास, विस्तार करने में भी कोई कसर रहने नहीं दी है।

देश के कोने-कोने में प्राय चौबीस सौ सद्ज्ञान संवर्धन केन्द्र अपनी निजी इमारतों में चल रहें है। इन्हें गायत्री शक्तिपीठ और प्रज्ञापीठों के नाम से जाना जाता है। इनमें से प्रत्येक के साथ प्रायः पाँच कर्मठ कार्यकर्ता जुड़े रहते है और अपने प्रभाव क्षेत्र में सत्प्रवृत्ति संवर्धन का दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का कार्य करने में निरन्तर जुटे रहते है। इस प्रकार 12 हजार कार्यकर्ता युग अवतरण के आगमन की आरती उतारने के लिए भावभरी भूमिका निभाते रहते है।

हर संस्था अर्थ चिन्ता में डूबी रहती है या अपनी सम्पन्नता बढ़ाने के लिए दौड़-धूप करती रहती है। युगसृजेता जीवनदानियों को ऐसी किसी भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है। हर घर में उनके आगमन की प्रतीक्षा होती रहती है ओर भोजन के समय क्षुधा निवारण की व्यवस्था सहज ही बन जाती हैं। इसके लिए घरों में रखे अन्नघट सहज ही उस आवश्यकता को पूरा कर देते है। वस्त्र मार्ग व्यय प्रचार उपकरण आदि की आवश्यकता दस पैसा नित्य जमा करने वाले श्रद्धालुओं के ज्ञानघट से पूरी हो जाती है।

विनोबा कहते रहते थे कि “किसी संस्था को तभी तक जीवित रहना चाहिए जब तक उसके कार्यकर्ता निस्पृह और सच्चे सेवाभावी हों। वे न रहे घट जाये तो उन्हें विलासी प्रलोभन के सहारे रोके रहना व्यर्थ है” इस कसौटी पर अखण्ड-ज्योति के प्रज्ञा परिजन अब तक निरन्तर खुद उतरते रहें है और उनके सेवा कार्यों से संतुष्ट जनता उन्हें इतना सम्मान और सहयोग प्रदान करती है कि उनकी ब्राह्मणोचित निर्वाह आवश्यकताएँ निरन्तर पूरी होती रहती है साथ ही इस परमार्थी वर्ग की संख्या भी बढ़ती रहती है। आमतौर से सादगी का ब्राह्मणोचित जीवन लोगों को रास नहीं आता। सभी आलसी और विलासी रहना चाहते है। समय-प्रवाह के सर्वथा विपरीत शक्ति केन्द्र के साथ जुड़े हुए और निजी जीवन में बढ़-चढ़ कर आदर्श उपस्थित करने वाले सद्गृहस्थ घर रहकर भी पुरातन काल के ब्राह्मणों जैसी जीवनचर्या अपनाते है। जो गड़बड़ करते रहते है मार्ग भ्रष्ट होते है वे या तो हट जाते हैं या हटा दिये जाते है। जन-समुदाय ऐसे व्यक्तियों को किसी भी स्थिति में बर्दाश्त नहीं करता व लोकेषणा में उलझा व्यक्ति स्वयं अपने पैरों कुल्हाड़ी मार कर ग्लानि भरा भारभूत जीवन जीता देखा जाता है।

आज जबकि सर्वत्र कर्मठ लोकसेवियों की भारी कमी अनुभव की जाती है तब .... बाहुल्य क्यों है? इसका एक ही कारण नहीं है-पत्रिका के पृष्ठों पर अंकित सजीव प्रतिपादन वरन् दूसरा गहरा और ठोस कारण है-उसके सूत्र–संचालकों की कथनी और करनी की एकता वाला ज्वलन्त जीवन अनुकरणीय अभिनन्दनीय स्तर का जीवनयापन जिसे खुली पुस्तक की तरह हर कोई देखता और पढ़ता रहता है।

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