Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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सत्रों की रूपरेखा और प्रक्रिया
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जीवन साधना, सत्रों की विधि-व्यवस्था, कार्यपद्धति एवं अनुशासन प्रक्रिया ऐसी है, जिसमें जकड़ जाने पर प्रत्येक शिक्षार्थी को वर्तमान को बदलने और भविष्य को उज्ज्वल बनाने में भारी सहायता मिलती है। कारण कि उसमें प्रवचन-सत्संग मात्र नहीं है, वरन ऐसी ऊर्जा जुड़ी है, जो बदलने और सुधारने के दोनों कार्य साथ-साथ सम्पन्न करती चलती है।
अन्तराल की गहराई तक पहुँचने के लिए साधना-विधान को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। उससे कषाय-कल्मष धुलते हैं और प्रसुप्त प्रखरता को उजागर होने का अवसर मिलता है।
इस हेतु नौ दिन का गायत्री पुरश्चरण हर किसी के लिए अनिवार्य है। इसमें प्रायः ढाई घण्टे जप करना पड़ता है। यह कई बार में भी थोड़ा-थोड़ा करके पूरा किया जा सकता है। ज पके साथ सूर्य का ध्यान भी जुड़ा हुआ है, जिसके कारण नाभिचक्र, हृदयचक्र, और ब्रह्मचक्र में दिव्य स्पन्दन होते है। मस्तिष्क और अन्तःकरण में प्रकाश प्रेरणा भरने का सुयोग बनता है। ध्यान-साधना इसके अतिरिक्त है। नित्य यज्ञ करना भी अन्तराल के विकास से सम्बन्धित है। इन सभी को अध्यात्म-साधना के रूप में जीवन साधना का एक अंग माना गया है। इससे अचेतन मन की गतिविधियों को ऊर्ध्वगामी बनने का अवसर मिलता है।
मानसिक परिष्कार के लिए संयम-साधना की तपश्चर्या की निर्धारण है। इस हेतु एक समय भोजन किया जाता है। भोजन आश्रम के भोजनालय में ही बनता है। यह परम सात्विक होता है। जिह्वा पर अंकुश रखने से इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का द्वार खुलता है। जो एक समय भोजन से संतुष्ट नहीं हो सकते, उन्हें दूध, फल आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। ऐसी फलाहारी वस्तुएँ भी समीप ही उपलब्ध हो जाती है। साथ ही प्रज्ञा कल्क सभी के लिए उपलब्ध है। इसमें दूरदर्शी विवेकशीलता जगाने वाली दिव्य वनौषधियों का सम्मिश्रण रहता है।
प्रायश्चित में अपने कुकृत्यों का विवरण संचालक को बताना पड़ता हैं। उसी के अनुरूप यह निर्धारण होता है कि इस पातक के बराबर पुण्य अर्जित किस प्रकार किया जाय, जिससे खोदी खाई पट सके। मन पर चढ़े बोझ को उतारने के लिए यह आवश्यक है। इसी आधार पर बोझ मुक्त होकर प्रगति के पर्वत पर ऊँचा चढ़ सकना सम्भव होता है। यह विधान ऐसा रहता है, जिसे स्थिति के अनुरूप वहन करने में असमंजस ने अड़े।
वातावरण का प्रभाव तो सहज ही हर किसी पर पड़ता है। तीर्थभूमि अपनी विशिष्टता अनुभव कराती है। इसके साथ-साथ संचित तप-साधना के भण्डार से इतना अनुदान मिलता है, कि परिष्कृत जीवन जी सकने के लिए आवश्यक बल और साहस मिल सके। यह शुभारम्भ ऐसा है, जिससे अतीन्द्रिय क्षमता का अवरुद्ध द्वार खुलता है, मूर्च्छित विभूतियों का जागरण सम्भव होता है, अपेक्षाकृत अधिक दूरदर्शी, अधिक विवेकशील बनने का सुयोग उपलब्ध होता है। नित्य गंगा स्नान बन पड़े, तो गंगा तट के पुण्य वातावरण में टहलने, बैठने, आचमन करने में कुछ अड़चन रहती ही नहीं। हिमालय के रूप में प्रकृति शिव का दर्शन तो आँखों के सामने घूमता ही रहता है। ऐसे स्थान पर ही बना है- शान्ति कुंज आश्रम। नित्य अखण्ड दीपक के दर्शन। भाव भरे संगीत का प्रभाती श्रवण। यह सभी मिलकर बिना शिक्षण के भी व्यक्तित्व के हर स्तर को झंकृत करते है।
प्रातः कालीन उपासना कृत्य से निवृत्त होने पर भोजन से पूर्व बौद्धिक प्रशिक्षण का क्रम चलता है। आरम्भ में संगीत, तत्पश्चात प्रवचन। इसमें प्रायः दो घण्टे लगते है। इन बौद्धिक कक्षाओं का विषय होता है- जीवन-साधना।
पेट प्रजनन के लिए तो कृमि−कीटक जीते है। मनुष्य जीवन बहु आयामी है। उसके साथ अनेकानेक कर्तव्य और उत्तरदायित्व जुड़े हुए है। उन्हें समझे और निबाहे बिना मानवी गरिमा को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता। उसका काम निर्वाह भर के साधन जुटाने से ही नहीं चलता, वरन आगे बढ़ने ऊँचा उठने का उपक्रम बनाने की भी आवश्यकता पड़ती है। यह सब अपने आपे तक ही सीमित नहीं है। अपने परिवार, समुदाय, समाज को भी साथ लेकर अवगति से उबारना और प्रगति पथ पर आगे बढ़ना होता है। इसकी पृष्ठभूमि बनाने के लिए क्या सोचना और क्या करना चाहिए, यह एक ऐसा प्रसंग है जिसे देश की पंचवर्षीय योजना से भी अधिक महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। उसके लिए गम्भीरतापूर्वक सोचना और निर्धारण करना चाहिए। यही सब कुछ जीवन साधना-सत्रों के बौद्धिक प्रशिक्षण में समाविष्ट किया गया है।
कथा पुराणों की तोता रटंत दुहरा देना सुगम है किन्तु समय के अनुरूप व्यावहारिक मार्गदर्शन करना कठिन। आज का व्यक्ति और समाज बुरी तरह कुरीतियों, अवांछनीयताओं से घिरा हुआ है। उस दल-दल से कैसे उबरा जाये? समग्र प्रगति का आदर्शवादी मार्ग कैसे अपनाया जाय। इसका ढाँचा और खाका प्रस्तुत कर सकना किस आधार पर सम्भव हो?
व्यावहारिक जीवन की कुछ समस्याएँ प्रमुख है जैसे शरीर को स्वस्थ कैसे रखा जाय? मन को किन सिद्धान्तों के धारण करने पर संतुलित प्रसन्न एवं उत्साह की स्थिति में रखे रहा जाय? उत्तेजना आशंका, भय, चिन्ता, उद्विग्नता से किस आधार पर बच सकना सम्भव हो? परिवार को किस प्रकार छोटा, स्वावलम्बी, सुसंस्कृत एवं समुन्नत बनाया जाय? सीमित आजीविका में भी किस प्रकार अभावग्रस्तता के कष्ट से बचे रहना सम्भव हो? शत्रुता का दबाव कैसे घटाया और मित्रता का परिकर कैसे बढ़ाया जाये? संकटों, उलझनों और विपत्तियों के झंझावात में अपनी सुरक्षा और सुव्यवस्था कैसे अक्षुण्ण रखी जाय? जीवन की दिशा धारा क्या हो? हँसती-हँसाती खिलती-खिलाती जिन्दगी किस प्रकार जियी जा सके? पारिवारिक स्नेह-सद्भाव बनाये रहकर आँगन में स्वर्ग कैसे उतारा जाय? विरोधी चिंतन और विरोधियों का सामना कैसे किया जाय? प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में कैसे बदला जाय? आत्म सुधार और आत्म विकास का उभय-पक्षीय क्रम किस प्रकार द्रुतगति से चल पड़े? चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश कैसे किया जाय? शान्ति से रहने और रहने देने के लिए क्या उपाय अपनाया जाय? देश, धर्म, समाज, संस्कृति एवं विश्व मानवता की सेवा साधना किस प्रकार बन पड़े? आदि आदि।
बौद्धिक प्रशिक्षण में इन्हीं समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया जाता रहेगा। साथ ही यह भी बताया जाता रहेगा कि शिविरार्थियों में से कौन अपनी वर्तमान स्थिति में उज्ज्वल भविष्य के निकट पहुँचने के लिए किस प्रकार क्या क्रमिक कदम बढ़ाये?
हर व्यक्ति की अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति होती है। उसकी कठिनाइयों और आवश्यकताओं की स्वरूप भी अपने-अपने ढंग का होता है। इसलिए हर किसी से उसे पूछा या लिखा कर लिया जाता है। साथ ही यह बताया जाता है कि उसे स्वयं क्या करना चाहिए और परोक्ष सहायता की कितनी आशा करनी चाहिए?
एक शब्द में इस प्रशिक्षण को व्यक्तित्व का विकास और प्रतिभा का विस्तार कहा जा सकता है। जीवन कला पर संजीवनी विद्या इसी तथ्य के इर्द-गिर्द घूमती और हर व्यक्ति को उसकी स्थिति के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करती है। यही प्रस्तुतीकरण इन सत्रों में होता है।
कुछ बातें ऐसी है, जिन्हें अपने से सम्बन्धित होते हुए भी स्वयं अनभिज्ञता रहती है। जैसे शारीरिक-मानसिक रोगों के सम्बन्ध में व्यक्ति स्वयं अधिक नहीं जानता। मात्र उनके कारण होने वाले कष्ट को ही समझता है। निदान और उपचार के लिए किसी अनुभवी चिकित्सक या विशेषज्ञ के पास जाना पड़ता है। स्थल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में विद्यमान अपूर्णताओं, विकृतियों एवं रहस्यमयी स्थिति के सम्बन्ध में भी यही बात है। जीवन साधना सत्रों का एक विभाग ऐसा भी है जिसमें विशेषज्ञों द्वारा शिविरार्थियों की अंतरंग स्थिति को बहुमूल्य उपकरणों द्वारा जाँचा परखा जाता है। उसी जानकारी के आधार पर उसे यह बताया जाता है कि अमुक से छुटकारा पाने के लिए उसे क्या करना चाहिए। उपचार की दृष्टि से क्या उपाय अपनाना ठीक रहेगा?
सत्रों में सम्मिलित होने के लिए इच्छुकों को आवेदन पत्र भेजना पड़ता है और स्वीकृति के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आश्रम में स्थान सीमित है। उसमें सीमित लोग ही ठहराये जा सकते है। सीमितों के लिए ही भोजन व्यवस्था एवं शौचालय स्नानगृह आदि की गुँजाइश है। किन्तु इच्छुकों की संख्या सदा सुविधा की अपेक्षा कहीं अधिक रहती है। सम्मिलित होकर वापस लौटने वाले अपनी उपलब्धियों की दूसरों से चर्चा करते है। फलतः पत्रिकाओं के सदस्यों से बाहर के लोग भी आने की उत्कंठा प्रकट करते है। विवशता की स्थिति में प्राथमिकता उन्हीं को दी जाती है जो मिशन के साथ पहले से ही जुड़े रहे है। जिन्होंने अपनी जानकारी इस संदर्भ में अखण्ड-ज्योति युग निर्माण या युग शक्ति पत्रिकाएँ पढ़ते रहकर इस स्तर की बना ली है कि उन्हें निर्धारित विषयों के सम्बन्ध में अधिकाधिक जानकारी पहले से ही उपलब्ध रहे और शिक्षकों को प्रशिक्षण देने तथा साधना कराने में किसी प्रकार के असमंजस का सामना न करना पड़े।
शिक्षार्थियों को अपने सादे कागज पर लिखे आवेदन पत्र में निम्न बातों का उल्लेख करना चाहिए और उसे शान्ति-कुंज हरिद्वार के पते पर स्वीकृति के लिए भेजना चाहिए।
(1) किस मास के किस तारीख से चलने वाले 9 दिवसीय सत्र में आना चाहते है। (2) नाम एवं पूरा पता। (3) आयु (4) शिक्षा (5) व्यवसाय (6) सत्र के अनुशासन को पूरी तरह पालने का आश्वासन। (7) कोई छूत का रोग, असाध्य रोग या दूसरों को असुविधा उत्पन्न न होने का स्पष्ट उल्लेख।
सभी आगन्तुकों को अपने साथ मौसम के अनुरूप वस्त्र लेकर चलना चाहिए। अनपढ़, अनगढ़ भीड़ को तीर्थ यात्रा कराने के बहाने लेकर न चलें। बिना स्वीकृति के कोई भी न आवे। जिनका उद्देश्य पर्यटन है, वे न स्वयं चैन से बैठते है और न जो साथ लाये है उन्हें शिविर का उपक्रम पूरा करने देते है। अतएव ऐसे लोगों को साथ लेकर न चलने का प्रतिबन्ध ठीक ही लगाया गया है और आशा की गई है कि शिविरार्थी उसे समुचित महत्व देंगे और निर्धारण का पालन करेंगे।
अखण्ड-ज्योति जिन तथ्यों को लेख रूप में स्वाध्याय के लिए प्रस्तुत करती रही है, उन्हीं को क्रियात्मक रूप से अभ्यास से उतारने के लिए इन जीवन सत्रों की व्यवस्था की गई है। इसे प्रस्तुतीकरण का व्यवहार पक्ष भी कह सकते है और उच्चस्तरीय सत्संग भी। इनका लाभ उठाने के लिए अखण्ड-ज्योति के परिजनों को समय रहते लाभ उठाना चाहिए। सूत्र संचालकों की प्रत्यक्ष उपस्थिति न रहने पर शिविरों की प्रशिक्षण प्रक्रिया में कुछ तो कमी आवेगी ही।