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Magazine - Year 1988 - Version 2

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ज्योतिर्विज्ञान का दृश्य गणित

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पृथ्वी अपने आप में जितनी सुन्दर है उसकी गरिमा और महता से इन्कार नहीं किया जा सकता। किन्तु साथ ही यह भी समझा जाना चाहिए कि उसकी समुन्नत स्थिति में अन्यान्य ग्रहों का भी कम योगदान नहीं है विशेषतया सौरमण्डल के सदस्यों का अनुदान तो उसे असाधारण रूप से मिलता रहता हैं।

सूर्य के अनुदानों को ही ले तो प्रतीत होता है कि उसकी संतुलित दूरी के कारण नपी-तुली मात्रा से इतना प्रकाश और ताप अवतरित होता है, जिससे प्राणी जीवित रह सकें वनस्पतियाँ उग सके और पदार्थों में अभीष्ट हलचलें संतुलित ढंग से होती रहे। यदि यह तापमान अधिक होता, तो पृथ्वी जलते अंगारे की तरह एक अग्नि-पिंड बनकर रहती। यदि यह किरणें कम मात्रा में आती तो नेपच्यून-प्लूटो की तरह यहाँ भी असाधारण शीत होती सर्वत्र निस्तब्धता छाई होती। किसी प्रकार की हलचलों का यहाँ दर्शन भी न होता। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन उभरा है और वहीं उसका पोषण-परिवर्तन भी करता रहता है।

चन्द्रमा यों रात का निकलते दीखता है और न्यून ऊर्जा वाला भी दीखता है, पर उसी के कारण चाँदनी एवं चांदनी रातों का सौंदर्य धरती वालों को उपलब्ध होता है। समुद्र में ज्वार-भाटे उसी के कारण आते है। यदि वे न आते तो अचल समुद्र का पानी सड़ने लगता और उसकी विषाक्तता से प्राणियों को जीवित रहना कठिन पड़ जाता। चन्द्रमा को वनस्पतियों को राजा कहा गया है। उनसे जो असाधारण गुण और रसायन पाये जाते है यह उसी की देन है।

सूर्य-चन्द्र के प्रत्यक्ष प्रभावों से हम यत्किंचित परिचित है। हवा सूर्य की गर्मी से चलती है। बादल उसी की ऊर्जा से बनते दौड़ते और बरसते है। सात रंगों की सात किरणों में अपने-अपने ढंग की चमत्कारी विशेषतायें भरी पड़ी है। वे जड़ और चेतन जगत पर अद्भुत प्रभाव छोड़ती है और प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल देती है। अनेकानेक बहुमूल्य रसायनों का उत्पादन-अभिवर्धन इन्हीं सप्त किरणों के विभिन्न सम्मिश्रणों के द्वारा होता है। उसी से सृष्टि की सुन्दरता और सक्षमता बढ़ती है। पृथ्वी को सूर्य के गर्भ में पकता-विकसित होता हुआ एक अंडा बच्चा ही कहा जा सकता है। उसके अनुदानों का अवतरण यदि संतुलन से न्यूनाधिक हो जाये तो समझना चाहिए कि धरती की विकसित स्थिति का कहीं अता-पता भी न चलेगा। वह एक निर्जीव निस्तब्ध पिण्ड मात्र बनकर रह जायेगा।

सूर्य चन्द्र को पृथ्वी की प्राण धाराओं के रूप में हम प्रत्यक्ष देखते है। इसके अतिरिक्त सौरमण्डल के सभी ग्रह और उपग्रह अपना प्रभाव-अनुदान पृथ्वी को प्रदान करते है। साथ ही वे आदान-प्रदान के सिलसिले में बहुत कुछ लाभ भी देते है तथा अपनी उदारता बनाये रखते है। पृथ्वी का उतरी ध्रुव इन अन्तर्ग्रही-प्रभावों में से जो उपयोगी है उन्हें खींचता है और अपने भीतर उत्पन्न हुए कचरे को दक्षिण ध्रुव मार्ग से अनन्त आकाश में फेंक देता है। सौर मण्डल से बाहर का अन्तरिक्षीय प्रभाव पृथ्वी के साथ आदान-प्रदान का सम्बन्ध बनाये रहता है। इसी सिद्धांत के आधार पर न केवल पृथ्वी का वरन् अन्याय ग्रह गोलकों का भी व्यवस्था क्रम चलता रहता है।

इस अदृश्य प्रभाव से पृथ्वी का समस्त परिकर प्रभावित होता है। उसके प्राणी वनस्पति, जलाशय, पर्वत, पदार्थ आदि सभी को उस प्रभाव से लाभ भी मिलते है और हानि उठाने के भी अवसर आते है। तूफानों-बवन्डरों में उनका हाथ होता है। मौसम भी इस प्रवाह से प्रभावित होकर सही रूप से चलते या व्यतिक्रम करते रहते है। कई बार महामारियों के प्रकोप भी उतरते है। मनुष्य का संवेदनशील मस्तिष्क इस कारण विशेष रूप से प्रभावित होता है और उसके चिन्तन-स्वभाव में असाधारण अन्तर आ जाता है। युद्धोन्माद भड़क उठने वाले भयंकर मार-काट मचाने में भी यह अंतर्ग्रही बदलाव बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

आमतौर से इन अदृश्य परिवर्तनों की जानकारी सर्व-साधारण को नहीं होती, पर सूक्ष्मदर्शी उसे जान लेते है और परिवर्तनों के अनुरूप सुरक्षा का लाभ उठाने के लिए पूर्व सतर्कता बरतते है। इस अन्तरिक्ष विज्ञान को खगोल विद्या कहते हैं-ज्योतिष भी। खगोल विद्या की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करके मनुष्य राकेट छोड़ने और उस वाहन पर सवारी गाँठकर ग्रह-नक्षत्रों की खोज-खबर लेने निकला है। उन यानों को पृथ्वी से रेडियो तरंगें भेज कर नियन्त्रण रखा और निर्देशन दिया जाता है।

यदि इस विज्ञान की उस धारा का भी पता लगाया जा सके कि ग्रहों का पृथ्वी पर कितने प्रकार का कितना प्रभाव पड़ता है, तो उस पूर्व सूचना के अनुसार अनर्थों से समय रहते बचाव कर सकना सम्भव हो सकता है। अनुकूलताओं से भरपूर लाभ उठाया जा सकता है। ऐसी जानकारी न केवल मनुष्यों से संबंधित होती है, वरन् वातावरण में होने वाले परिवर्तनों तथा उनके प्रभाव को भी समझा जा सकता है।

यह ज्योतिर्विज्ञान के समूची पृथ्वी पर और उसके क्षेत्र विशेष पर पड़ने वाले प्रभाव की बात हुई। इससे भी सूक्ष्म बात यह है कि मनुष्य जब जन्म लेता है, तो उसकी सता अत्यन्त संवेदनशील होती है। वह पृथ्वी पर चल रहे अन्तर्ग्रही वातावरण द्वारा असाधारण रूप से प्रभावित होती है। उसकी मानवी व्यक्तित्व का स्वरूप बनाने-ढालने में महती भूमिका होती है। जन्म कुण्डलियाँ इसी आधार पर बनती है। उनके माध्यम से यह समझा जा सकता है कि शिशु के भविष्य का रुझान किस ओर है। यह सम्भावना भर होती है। यदि समय रहते उसे जाना, समझा जा सके, तो बचाव का सुधार का परिवर्तन का अभिवर्धन का उपाय भी किया जा सकता है। इस आधार पर सम्भावित परिस्थितियों की अनुकूलता का लाभ उठाना और प्रतिकूलताओं से लोहा ले सकना संभव होता है। यह बात सार्वभौम परिस्थितियों के संबंध में भी लागू होती है। मनुष्य की सम्मिलित इच्छा-शक्ति साधना माध्यम से एकत्रित करके उसे सशक्त तोप की तरह अनिष्ट को हटाने के लिए दागा जा सकता है। उसे चुम्बक स्वरूप में बदलकर उस अनुकूलता को आकर्षित भी किया जा सकता है।

ज्योतिष विद्या को तो आजकल बहुतों ने भविष्य कथन भाग्य निरूपण आदि के लिए प्रयुक्त करना शुरू कर दिया है और उस आधार पर लोगों को डरा कर उनसे उल्लू सीधा करने का धंधा भी पकड़ रखा है। इतने पर भी खगोल विज्ञान और उसके धरती पर पड़ने वाले प्रभावों का आधार पर अनर्थ से बचा और सुयोगों से जुड़ा जा सकता है। सुरक्षा की पूर्व तैयारी का अवसर मिल जाने पर सम्भावित अदृश्य अनिष्टों से बहुत सीमा तक बचा जा सकता है।

पुरातन काल में ज्योतिर्विज्ञान की प्रौढ़ता थी। तब हर पाँच हजार वर्ष बाद निर्धारित गणना में सुधार परिवर्तन दृश्य गणित के आधार पर कर लिया जाता था क्योंकि संसार की कालगणना बहुत स्थूल है। इससे ग्रहों की सही चाल की पटरी सम्भावित स्तर ही बैठती है, पूर्णतया सही नहीं। एक निर्धारण जब हुआ, उसके बाद ही अन्तर पड़ना शुरू हो जाता है और पाँच हजार वर्ष में स्थिति कही से कहीं जा पहुँचती है। इसका संशोधन दृश्य गणित के आधार पर ही करना होता है। वेधशालाओं को प्रामाणिक मानकर उनकी कसौटी पर कसते हुए ग्रह चाल में पड़े हुए अन्तर को सुधारा और नया निर्धारण किया जाता है। आवश्यक नहीं कि इस सुधार के लिए पाँच हजार वर्ष तक ही बड़ा अन्तर पड़ जाने तक की प्रतीक्षा की जाय। उस सुधार को हर महीने या हर दिन भी साथ-साथ करते रहा जा सकता है। इसके लिए वेधशालाओं के माध्यम से नित्य होने वाले परिवर्तनों-अन्तरों को समझा और सुधारा जा सकता है। इसके लिए खगोल विद्या के समस्त अनुमान खंडित हो जाते है। पंचांग झूठे पड़ जाते हैं। ग्रहों के उदय-अस्त तक में भारी अन्तर पड़ते देखा जा सकता है।

इन दिनों छपे पंचांगों के आधार पर सारी ज्योतिष गणना चलती है, जब कि होना यह चाहिए कि हर क्षेत्र की स्वतंत्र “पलमा” का ध्यान रखते हुए हर क्षेत्र का अपना स्वतंत्र पंचाँग बनना चाहिए। उसी आधार पर किया गया ग्रह-गणित सही हो सकता हैं पर कठिनाई यह है कि इतना कठिन परिश्रम कौन करे? इतनी बारीकियों में उतरने की विद्या समझने और उसे कार्यान्वित करने की विद्या को आरम्भ से अन्त तक कौन पढ़े? यह सब न बन पड़ने के कारण ज्योतिर्विज्ञान की धुरी ही लड़खड़ा गई है। इस स्थिति में उस विज्ञान के ऊपर ही अप्रामाणिकता का आक्षेप लगता है।

ज्योतिर्विज्ञान भारत का महान विज्ञान था। भाष्कराचार्य आर्यभट्ट तक के समय में उसकी स्थिति सही बनी रही। वेधशालायें बाद में भी बनी रही। अभी भी उन्हें उज्जैन जयपुर, वाराणसी, दिल्ली आदि स्थानों में किसी रूप में जीवित देखा जा सकता है। भले ही उनका रहस्य बताने वाले गणित सिखाने वाले पारंगतों का मार्गदर्शन वहाँ उपलब्ध न होता हो।

इस महती कमी को पूरा करने के लिए शान्तिकुँज में एक सुनियोजित वेधशाला बनाई गई हैं। उसमें पुरातन काल के प्राय सभी महत्वपूर्ण ढांचे खड़े किये गये और आधुनिक दूरबीनों का प्रबन्ध किया गया। इस आधार पर ग्रहों की स्थिति का निरीक्षण-परीक्षण निरन्तर चलता रहता है। दृश्य गणित का नियमित उपयोग करने वाली यह वेधशाला देख में अपने ढंग की अनोखी है। इस के द्वारा निकले हुए निष्कर्ष ही शान्तिकुँज से प्रकाशित होने वाले पंचाँग “दृश्य गणित पंचाँग” में हर वर्ष प्रकाशित होते रहते है। इसमें यह भी पाठ है कि हर स्थान का अपना स्वतंत्र पंचाँग किस प्रकार बनाया जा सकता है।

प्राचीन काल में खुली आँखों से सात ग्रह ही देखे गये थे। राहु केतु तो सूर्य पृथ्वी चन्द्रमा की चाल में आने वाले छाया केन्द्र भर है। चन्द्रमा उपग्रह हैं। इतनी भर की जानकारी के आधार पर पुरातन ज्योतिष का सारा ढाँचा खड़ा है। पर अब खगोलवेत्ताओं ने दूरवीक्षण यन्त्रों के सहारे अपने सौर-मण्डल के तीन सदस्य और ढूंढ़ निकालें है-प्लूटो नेपच्यून और यूरेनस। इन नए ग्रहों से भी सौर मण्डल प्रभावित होता रहा है। अब ही होता हैं। इसलिए आवश्यक है कि आधुनिक पंचाँगों में उनको भी स्थान मिले। उनसे भी गणित किया जाये। पर पुरातन आधार के मिलने पर और नए निर्धारण न कर पाने के कारण वह प्राय बन हीं नहीं पड़ता। इस प्रकार प्रचलित पंचाँग आज की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस कमी को पूरा करने के लिए मिशन ने “दृश्य गणित पंचाँग” में उपरोक्त नए ग्रहों का समग्र गणित भी उसी तरह सम्मिलित किया है जैसे पुरातन काल के नव ग्रहों का अंकित होता रहा है। इस प्रकार अपना पंचाँग समय की कसौटी पर सर्वांगपूर्ण सिद्ध होता है।

मुहूर्तवाद के निरर्थक जंजाल को इस पंचाँग में स्थान नहीं दिया गया हैं। व्यक्ति का भविष्य कथन जन्मपत्रियों के आधार पर तो नहीं किया जाता, पर जन्मस्थान और प्रसव का समय ठीक मालूम होने पर स्थानीय स्थिति के आधार पर ऐसी जन्म कुण्डली बन जाती है, जिसके आधार पर कोई विशेषज्ञ यदि गहन गणित के आधार पर विचार कर सके तो व्यक्ति विशेष के संबंध में कुछ उपयोगी परामर्श दिये जा सकते है।

पुरातन विद्याओं में ज्योतिर्विज्ञान का महत्वपूर्ण आधार है। उसका सही स्वरूप सामने रहने पर यह भी सम्भव है कि धरती के वातावरण में प्रस्तुत होने वाली सम्भावनाओं के संबंध में कुछ उपयोगी पूर्व सूचना दे सकें। उस आधार पर अनर्थ से बचने और सुयोग से लाभ उठाने का अवसर मिल सके।

अखण्ड ज्योति अध्यात्म और विज्ञान को परस्पर सहयोगी बनाने के निमित्त दार्शनिक स्तर पर हीं नहीं, अनेक आधारों को लेकर लक्ष्यपूर्ति के लिए प्रयत्नरत है। इन्हीं अनेकों में से एक ‘ज्योतिर्विज्ञान’ का पुनरुत्थान भी कहा समझा जा सकता है। इससे ऋषि परम्पराओं के आधार पर चलते रहे भूतकालीन प्रयासों की गरिमा को समझा जा सकता है और उसका आधुनिक विज्ञान सम्मत स्वरूप देखा जा सकता है। इस संदर्भ में शान्ति कुंज के ज्योतिर्विज्ञान खण्ड को अपने ढंग का अनोखा ही समझा जा सकता है। इस प्रयास के पीछे अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का कष्ट साध्य प्रयास भी काम करते देखा जा सकता है। यह प्रयास अभी आरम्भिक रूप में है। क्रम यथावत चलता रहा तो अन्तर्ग्रही परिवार के साथ वैसा ही आदान-प्रदान चल पड़ने की संभावना है जैसा कि कुटुम्बी पड़ोसियों के साथ आमतौर से चलता रहता है।

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