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Magazine - Year 1988 - Version 2

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पत्राचार विद्यालय भी

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पुरातन काल में डाक व्यवस्था न थी। तब किसी को किसी से मिलने के लिये स्वयं जाना पड़ता था। परामर्श विचार-विनिमय का तब कोई और रास्ता न था। वह समय चला गया। अब सम्पन्न लोग तार टेलीफोन से और गरीब लोग पोस्टकार्ड लिफाफों से अपना काम भली प्रकार चला लेते है। घर बैठ कहने पूछने की आवश्यकता पूरी कर लेते है।

स्कूली पढ़ाई का बहुत कुछ कार्य कुँजियों तथा गाइड बुकों ने हल कर दिया है। अब तो पत्राचार विद्यालय ही नहीं विश्व-विद्यालय तक खुल गये है। जिनके सहारे कोई भी उच्चशिक्षा प्राप्त करता है। रेडियो टेलीविजन नई प्रकार की जानकारियाँ अपने कार्यक्रमों में देते रहते है।

इस संचार सुविधा का लाभ शांतिकुंज द्वारा व्यक्तित्व विकास योजना को अग्रगामी बनाने के लिये भी किया जा रहा है। यह दो प्रकार से सम्पन्न हो रहा है। एक तो जन-जन को उनकी मन स्थिति के अनुरूप वहीं पत्र द्वारा मार्गदर्शन देकर दूसरा उन्हें वातावरण के प्रकम्पनों से लाभान्वित कराने हेतु गायत्री तीर्थ आने का आमंत्रण देकर। जिसकी जैसी स्थिति हो वैसा निर्धारण हो जाता है।

मिशन की पत्रिकाओं के ग्राहक अनुग्राहक पाठक–प्रपाठक मिलकर 50 लाख से भी अधिक व्यक्ति संपर्क क्षेत्र की परिधि में बँध गये है। इन सभी की अपनी-अपनी समस्यायें कठिनाईयाँ, एवं जिज्ञासायें होती है, जिनका समाधान वे किसी अनुभवी प्रामाणिक व्यक्ति या तंत्र से कराना चाहते है। इस हेतु लम्बी यात्रा करने में बहुत समय और धन खर्चने की स्थिति हर किसी की नहीं होती। फिर विचार विनिमय क्रम सुविधापूर्वक किस प्रकार चले? इसका एक ही उत्तर है- पत्र व्यवहार। कुछ परिजनों को मिशन के सूत्र संचालकों से पूछना होता है। साथ ही कुछ ऐसा भी रहता है। जिसके लिए मिशन की ओर से परिजनों को प्रोत्साहित किया जाये। उन्हें उपयुक्त समय पर उपयुक्त परामर्श पत्र-व्यवहार तंत्र को प्रखर बनाये बिना और किसी प्रकार होता ही नहीं।

सत्र-शिविरों में प्रशिक्षण के लिये सुविधा अनुसार थोड़े-थोड़े लोग ही आ पाते है। हर किसी से हर समय इतनी दूर यात्रा करके पूछताछ करने की सुविधा कहाँ होती है फिर हो भी तो वर्ष में कुछ हजार लोगों को ही आने की स्वीकृति मिल पाती है। आश्रम में स्थान भी तो सीमित है। फिर व्यक्तिगत परामर्शों के लिये उन सबके लिये सुविधा कहाँ से जुट पाये? भाषण, प्रवचन सुना देना एक बात है और उलझी गुत्थियों को सुलझाने के लिये उपयुक्त मार्गदर्शन करना उलझनों के स्तर के अनुरूप समाधान कर सकना सर्वथा दूसरी। इन कारणों को देखते हुए प्रधान मार्ग एक ही रह जाता है कि समाधान सुलझाने के लिए पत्र व्यवहार का ऐसा तंत्र खड़ा किया जाय, जिसके माध्यम से अनेकों को उनकी उलझनों से उबारा जा सके। प्रगति का व्यावहारिक मार्ग सुझाया जा सके।

शांतिकुंज में जीवन साधना सत्र और सरकारी कर्तव्य निष्ठा सत्र अपने-अपने ढंग से चलते रहते है। इन सब में मिलकर सीमित लोग ही तद्विषयक प्रशिक्षण प्राप्त कर पाते है। जो बच जाते है। उन्हें भी बहुत कुछ पूछना जानना होता है। कई बार पेचीदगियाँ इतनी विषम होती है कि उनके लिये सही निष्कर्ष तक पहुँचना कई-कई बार के पत्र व्यवहार से ही सम्भव होता है। यह प्रसंग ऐसा होता है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। उसे टाला भी नहीं जा सकता। जहाँ टालना हो वहाँ परिवार कैसा? स्वजनों तक की उपेक्षा करने पर तो सौजन्य तक की इतिश्री हो जाती है।

स्थिति का गम्भीरतापूर्वक विवेचन करने के उपरान्त शांतिकुंज में पत्र-व्यवहार का एक स्वतन्त्र विभाग स्थापित किया गया है। इसमें मात्र आये हुए पत्रों के उत्तर ही नहीं दिये जाते वरन् जीवन्त लोगों में प्राण प्रेरणा भरते हुए और अधिक कर्तव्य परायण बनने के लिये बहुत कुछ अपनी ओर से भी कहा जाता रहता है।

सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पचास लाख स्वजनों के साथ पत्र-व्यवहार द्वारा सघन संपर्क बनाये रहने और उन्हें उपयुक्त मार्गदर्शन करने के लिये कितनी अधिक चिट्ठियाँ पढ़ी और कितनी अधिक लिखी जानी चाहिए। निश्चय ही इसका परिणाम बढ़ा-चढ़ा ही होना चाहिए।

शांतिकुंज में प्रतिदिन प्रायः एक हजार पत्रों की आवक-जावक बनी रहती है इसके बढ़े-चढ़े कार्य विस्तार को देखते हुए सरकार को “शांतिकुंज” नाम से एक स्वतन्त्र सत्र पोस्ट ऑफिस भी खोलना पड़ा है जिसके माध्यम से मात्र मिशन से सम्बन्धित डाक ही आती जाती है। इस प्रयोजन को हाथों हाथ निपटाते रहने के लिये आमतौर से 6 दर्जन कार्य कर्ताओं को जुटा रहना पड़ता है। परामर्श मार्गदर्शन का ढाँचा तो सूत्र संचालक ही बनाते है पर लिपिबद्ध करने में उस विभाग के कार्यकर्ताओं को श्रम ही काम करता नियोजित होता है।

अखण्ड-ज्योति पत्रिका मथुरा की प्रेस से छपती है। उसका प्रभाव विस्तार अपनी जगह है पर हरिद्वार का पत्र व्यवहार तंत्र अपनी भूमिका इस प्रकार निभाता है कि उसे पत्रिका द्वारा मिलने वाले शिक्षण की तुलना में किसी भी प्रकार कम विस्तृत और कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। सामान्यतया सभी परिजन अपने पत्रों के साथ जवाबी लिफाफा भेजते है ताकि मार्गदर्शन क्रम सुनिश्चित रूप से चलता रहे एवं मिशन पर आर्थिक बोझ न आये। पत्रिका वितरण सम्बन्धी पत्राचार अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा एवं विषय वस्तु तथा व्यक्तिगत समस्याओं संगठन सम्बन्धी पत्र-व्यवहार शांतिकुंज परिवार से चलता है।

मिशन के साथ परिजनों की पारिवारिकता के स्तर पर घनिष्ठता बनाये रहना और उनके सम्बन्ध सूत्र को सघन बनाये रहना उन आधारों में से प्रमुख है जिनके कारण युग चेतना का इतना व्यापक विकास हो सका। उज्ज्वल भविष्य का ढाँचा खड़ा हो सका।

शांतिकुंज के सम्बन्ध में आरम्भ से ही यह कल्पना ओर योजना थी कि इसे नालन्दा एवं तक्षशिला स्तर का विश्वविद्यालय बनाया जाये। भले ही उनके जैसे इतने भव्य भवन न बनें। भले ही उसमें उतने अधिक छात्रों अध्यापकों के लिए स्थान तथा निर्वाह की व्यवस्था न हो पर प्रशिक्षण का आधार एवं स्तर वही हो। इन कल्पनाओं ने अपना साकार स्वरूप बनाया है और शुभारम्भ के दिनों उपजी योजना ने अपना व्यावहारिक ढाँचा खड़ा किया है।

सत्रों में सम्मिलित होने वाले मिशन के कार्यकर्ता तथा सरकारी अधिकारी तो अपने-अपने स्तर की शिक्षा प्राप्त करते ही है साथ ही आश्रम के कार्यकर्ताओं की टीम भी सेवा कार्यों में संलग्न रहने के साथ-साथ अपनी योग्यता बढ़ाने तथा भावनाओं को परिपोषण करने वाली विधि व्यवस्था में अभ्यस्त होती रहती है। सभी कार्यकर्ताओं को न्यूनतम वह शिक्षा मिलती है। जिसके सहारे वे अगले दिनों अधिक बढ़े-चढ़े कार्यों में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकें।

बच्चों के लिए अलग से गायत्री गुरुकुल है। जिसे सरकारी मान्यता भी प्राप्त है। उसमें शिक्षा-विद्या का निर्धारित पाठ्यक्रम तो पूरा कराया ही जाता है। इसके अतिरिक्त अलग से उन्हें वह सब कुछ बताया, कराया जाता है। जिससे नूतन पीढ़ी के नव-निर्माण का लक्ष्य पूरा हो सके।

First 23 25 Last


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Version 2
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