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Magazine - Year 1988 - Version 2

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ब्रह्मवर्चस के तीन विशिष्ट शोध प्रयोजन

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First 31 33 Last
क्या भौतिक विज्ञान का प्रत्यक्षवाद और अध्यात्म का चेतना पक्ष किसी केन्द्र पर एकत्रित भी हो सकते है- यह एक जटिल समस्या है। दोनों परस्पर एक-दूसरे का समाधान कर सकने में सफल नहीं हो पाये और विरोध-विग्रह यथावत बना रहा।

इस विग्रह को समर्थन में बदलने के लिए अखण्ड-ज्योति ने एक ऐसा तंत्र खड़ा किया है। जो युग की सबसे बड़ी दार्शनिक कठिनाई का हल प्रस्तुत कर सके। यह है ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान। उसका ढाँचा इस प्रकार खड़ा किया गया है, कि चेतना की स्वतंत्र सत्ता और क्षमता सिद्ध हो सके। साथ ही भौतिक विज्ञान की भी उसके साथ संगति बैठ सके। इसे गाय सिंह को एक घाट पानी मिला देने जैसा असम्भव किन्तु साथ ही प्रत्यक्ष रूप से भी प्रस्तुत कर दिखाया जा सकता है, दिखाया जा रहा है।

भौतिकी पदार्थ सत्ता पर अवलम्बित है। वह शरीर को एक चलता-फिरता पेड़-पौधा भर मानती है और उसे किसी नैतिक, भावनात्मक, आदर्शवादी सिद्धान्त के साथ नहीं जोड़ना चाहती है क्योंकि समूचा क्षेत्र अध्यात्म तत्वज्ञान के अंतर्गत आता है। जिसे प्रत्यक्षवाद स्वीकार नहीं करता है। आदर्शों को उपहासास्पद कहा जाता है। इस मान्यता की जड़ जमने का परिणाम यह हुआ कि उस मान्यता के पक्षधर देह सुखों को ही सर्वोपरि मानने लगे। उनने पुण्य-परमार्थ का, संयम-सदाचार का सामाजिक आवश्यकता के रूप में यत्किंचित ही समर्थन किया है। यही है वह प्रतिक्रिया, जिसने स्वार्थ-सिद्धी को प्रधानता दी और दूसरों के साथ सेवा सद्भावना का परिचय देने की कोई भी आवश्यकता नहीं मानी। प्रस्तुत व्यापक चरित्र पतन का यह अनास्थावादी दर्शन ही मूलभूत कारण रहा है।

कभी संसार में सतयुग था। उसमें संयम सदाचार और पुण्य-परमार्थ की प्रधानता थी। इसका कारण अध्यात्मवादी दृष्टिकोण ही रहा। उसने व्यक्तित्वों को उत्कृष्ट स्तर का बनाया और प्रचण्ड पुरुषार्थ को प्रोत्साहन देकर सुसम्पन्नता प्रगतिशीलता की चरम उपलब्धियों के साथ-साथ सुसंस्कारिता की भी कमी नहीं रहने दी। आज की और पुरातन काल की परिस्थितियों में जो जमीन-आसमान जैसा अन्तर है इसे दार्शनिक युग में प्रत्यक्षवाद का, पदार्थवाद का आधिपत्य ही प्रमुख कारण कहा जा सकता है। आत्मवाद इसके सम्मुख इतने पैने तर्क तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत न कर सका कि वह मानवी गरिमा को अपनाने के लिए लोक मानस पर प्रभाव छोड़ पाता। मात्र शास्त्रों की, परम्पराओं की दुहाई देना ही उसका एक हथियार रहा। ऐसा न बन पड़ा कि उस कुरुक्षेत्र में तर्क तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विजय दुदुंभि बजा सकता और सदाशयता को, परमार्थ बुद्धि को सींचता-पोषता रहता है।

जो पिछले दिनों नहीं बन पड़ा, उसे अब किया जा रहा है क्योंकि आज बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद ही सब कुछ बन गया है। उसे नकारा भी नहीं जा सकता। इसलिए समय की यह महत्ती आवश्यकता हो गई कि अध्यात्म तत्वज्ञान को भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में अपनी सच्चाई की परीक्षा देने के लिए खड़ा किया जाय। यही है हरिद्वार में शान्ति-कुंज के तत्वावधान में चलने वाले ब्रह्मवर्चस का स्वरूप, उद्देश्य और उपक्रम। इसमें आरम्भ हुए कार्यों को विज्ञान में गति रखने वाले आश्चर्यचकित होकर देखते और सोचते है कि भौतिकवाद को सर्वोपरि समझने की मान्यता पर अब नये सिरे से पुनर्विचार करना पड़ेगा।

ब्रह्मवर्चस की शोध प्रक्रिया वस्तुतः अखण्ड-ज्योति में निरन्तर किये जाने वाले अध्यात्म आधारों को ही प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा सिद्ध करने का एक विनम्र प्रयास है जिसके अब तक के प्रयासों को असाधारण सफलता भी मिली है। ध्यानपूर्वक देखने वालों ने यह माना है कि यह सम्भावना दीख पड़ती है कि अध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी न रह कर एक-दूसरे का सहयोग करते हुए मानवी प्रगति का महत्वपूर्ण आधार बनेंगे। इस प्रकार अखण्ड-ज्योति के दार्शनिक प्रतिपादनों को, प्रत्यक्ष प्रतिपादनों को यह दृश्य रूप में प्रस्तुत करने की एक सशक्त प्रक्रिया है।

ब्रह्मवर्चस में तीन सिद्धान्तों का, परीक्षण-विवेचन मुख्य है। इनमें से प्रथम है- विचारों की असाधारण शक्ति मस्तिष्क में सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमताओं मन का शरीर, परिवार, समाज और वातावरण पर प्रभाव; इन विषयों के माध्यम से यही सिद्ध कर दिखाना है कि यदि मनुष्य की भावनाएँ आकाँक्षाएँ, विचारणाएँ, आस्थाएँ उच्चस्तरीय रहीं तो भौतिक और आत्मिक क्षेत्र की अनेकानेक सफलताएँ, विभूतियाँ हस्तगत कर सकना सम्भव है।

दूसरा विषय है- पदार्थ की वह सूक्ष्म सत्ता जो चेतना को भी प्रभावित करती है। आमतौर से यह समझा जाता है कि वस्तुएँ मात्र सुविधा-साधना के रूप में प्रयुक्त होती है। यह उनका स्थूल उपयोग है; पर जाना यह भी चाहिए कि उनके भीतर सशक्त अदृश्य शक्ति भी काम करती है। परमाणु ऊर्जा उसका सर्वविदित स्वरूप है। इसके अतिरिक्त असंख्यों अदृश्य पक्ष भी है जिन्हें भाप, बिजली, रेडियो दूरदर्शन आदि के रूप में करते हुए देखा जाता है। इन्हीं में से एक हीं नहीं करती। उस ने ऑक्सीजन जैसे प्राणधारक तत्व भी सम्मिलित रहते है। सर्वविदित है कि कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता। वह ठोस द्रव और वाष्प के रूप में अदलता-बदलता रहता है। वनस्पतियों का आहार और औषधि की तरह तो उपयोग होता ही है। इसके अतिरिक्त उन्हें गैर रूप में परिणत करके शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन एवं वातावरण परिशोधन के लिए भी काम में लाया जा सकता है। एक शब्द में इसे अग्निहोत्र प्रक्रिया कह सकते है। इतिहास साक्षी है कि इस आधार को अपनाकर अभीष्ट उपलब्धियों के प्राप्त करने के अतिरिक्त कारगर परिवर्तनों, अवतरणों, उत्पादनों तक की आवश्यकता पूरी की जाती थी। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, कृष्ण का सर्वमेध यज्ञ राम का अश्वमेध यज्ञ किन्हीं महाप्रयोजनों की पूर्ति के लिए ही सम्पन्न हुए थे। विश्वामित्र का वह युग परिवर्तन यज्ञ प्रख्यात है जिसकी सुरक्षा का दायित्व राम-लक्ष्मण ने स्वयं उठाया था।

उस महाविद्या का अब लोप जैसा हो गया है। मात्र कर्मकाण्डों की ही थोथी लकीर पिटती है। ब्रह्मवर्चस ने उस महान विज्ञान का नये सिरे से शोध कार्य आरम्भ किया है और इस आशा का संचार किया है कि समय की अनेकानेक समस्याओं के निराकरण में भी अग्निहोत्र विज्ञान का प्रयोग किया जा सकता है।

अग्निहोत्र द्वारा शरीरगत विकारों का शमन मानसिक उत्कर्ष में योगदान, वातावरण परिशोधन का परोक्ष प्रयोजन जैसे अनेकों उपयोगी एवं महत्वपूर्ण कार्य इस विद्या के माध्यम से किस प्रकार बन पड़ते है, इसे बहुमूल्य यंत्र-उपकरणों द्वारा यहाँ प्रत्यक्ष स्तर पर प्रस्तुत किया जाता है। पदार्थ की सूक्ष्म शक्ति का चेतना क्षेत्र में किस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है और उससे क्या लाभ उठाया जा सकता है यह इस शोध धारा का उद्देश्य है।

तीसरा आधार है- शब्द शक्ति की प्रचण्डता। इसे शास्त्रों में शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म आदि नामों से इंगित किया गया है। शब्द–बेधी वाणों की चर्चा रही है। स्वर शास्त्र इसी की एक शाखा है। सामगान से लेकर मंत्रोच्चार की विभिन्न शैलियाँ इसी के अंतर्गत आती है। मंत्र शक्ति की महिमा का बखान अध्यात्म तत्व ज्ञान में सुविस्तृत रूप से विवेचित है।

ब्रह्मवर्चस की तीसरी महत्वपूर्ण शोध शब्द-शक्ति की इसी रहस्यमयी गरिमा के ऊपर हो रही है। यह अविज्ञात पक्ष रहा है। शब्द आमतौर से जानकारियों के आदान-प्रदान में प्रयुक्त होता है। उसके द्वारा किसी को प्रसन्न-रुष्ट भी किया जा सकता है। संगीत की मोहकता-मादकता अपने स्तर की है। मेघ-मल्हार, दीपक राग आदि में उसका चमत्कार देखा गया है। यह इस सम्बन्ध में जाना गया सामान्य ज्ञान है। बीन की ध्वनि पर साँप लहराते देखे गये है। संगीत-प्रयोग से जीव-जन्तुओं की प्रजनन शक्ति बढ़ाई गई है। दुधारू पशुओं ने अधिक दूध दिया है। पेड़-पौधे तेजी के साथ बढ़े है। स्नायविक और मानसिक रोगों के निवारण में संगीत का प्रयोग बहुत सफल हुआ है।

वेद मंत्रों को जब शक्ति रूप में प्रयुक्त किया जाता है, तो वे सामगान के रूप में सस्वर गाये जाते है। इस गायन का उद्गाता, यजमान और श्रवणकर्ता जनसमुदाय पर दिव्य चेतना की वर्षा करता है। मंत्र शक्ति का सभी धर्मों में सभी अध्यात्म सम्प्रदायों में सबसे अधिक महत्व माना जाता है। जप, कीर्तन, भजन आदि में स्वर शक्ति के माध्यम से विशिष्ट विभूतियों का लाभ मिलते माना जाता है। ताँत्रिक और वैदिक मंत्रों का अपने-अपने प्रयोजन के लिए अपना-अपना महत्व है।

ताल-लय की रिद्म अपना प्रभाव अलग ही छोड़ती है। पुलों पर से गुजरते हुए सैनिक को कदम मिला कर चलने की मनाही कर दी जाती है; क्योंकि उस सामूहिक ताल की शक्ति से वह पुल टूट कर गिर भी सकता है। यह शब्द शक्ति का असाधारण प्रभाव है। धमाके की आवाज से हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। गर्भपात हो जाना सम्भव है। युद्ध के बिगुल बजने पर सैनिकों में जोश भर जाता हैं। शंख ध्वनि से उस क्षेत्र के विषाणुओं का तेजी से विनाश होते देखा गया है।

वस्तुतः शब्द भी बिजली, भाप, ऊर्जा स्तर की एक समर्थ शक्ति है। इसका किस प्रयोजन के लिए, किस प्रकार क्या उपयोग किया जाय, जिससे व्यक्तित्व के विकास और वातावरण के परिशोधन में अभीष्ट लाभ मिल सके। इसी की खोज ब्रह्मवर्चस के शोध-निर्धारणों में से एक है। इसकी जाँच-पड़ताल के लिए, प्रयोग-परीक्षण के लिए दुर्लभ यंत्र-उपकरणों को देश-विदेश से मँगा कर लगाया गया है। इसे प्रकारान्तर से मंत्र विज्ञान का प्रभाव-परीक्षण भी कहा जा सकता है।

अखण्ड-ज्योति में चरित्र, चिन्तन, व्यवहार का परिष्कार-उत्कृष्टता का पक्षधर तत्वदर्शन अतीन्द्रिय क्षमताओं की प्रभाव क्षेत्र आदि विषयों पर तो प्रामाणिक विवेचन रहता ही है, इसके अतिरिक्त उसमें गायत्री मंत्र और अग्निहोत्र के संदर्भ में भी विवेचनात्मक चर्चा रहती है। गायत्री यज्ञों का आन्दोलन भी चलता रहा है। कमी इसी बात की थी कि वह प्रतिपादन दार्शनिक एवं शास्त्रीय पृष्ठ भूमि पर ही होता रहा है। उसका वैज्ञानिक अन्वेषण परीक्षण नहीं बन पड़ा था, इसलिए प्रत्यक्षवादी समय-समय पर उस सम्बन्ध में संदेह अविश्वास व्यक्त करते रहते थे। इस विषय को जब वैज्ञानिक प्रयोगशाला के सुपुर्द किया गया तो ऐसे तथ्य उभर कर आये कि उपरोक्त युग्म की उपयोगिता प्रत्यक्ष के आधार पर भी सिद्ध करने की बात बहुत आगे तक बढ़ गई।

अग्निहोत्र पदार्थ की सूक्ष्म-शक्ति का वाष्पीकरण है। भाप से रेल चल सकती है। बादल बन और बरस सकते है, तो कोई कारण नहीं कि दिव्य औषधियों का वाष्पीकरण व्यक्ति समुदाय और वातावरण के लिए महत्वपूर्ण न सिद्ध हो सके। इसे पुरातन विज्ञान का एक असाधारण पक्ष कह सकते है। उन दिनों अग्निहोत्रों द्वारा अनेकों मानवी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयोग होते रहते थे। उनके अभीष्ट लाभ भी मिलते थे।

अध्यात्म विज्ञान का एक पक्ष मंत्र शक्ति का प्रयोग भी है। इसे ध्वनि विज्ञान कहा जा सकता है। यह अपने ढंग की विशिष्ट ऊर्जा है। साइंस में ताप, प्रकाश और ध्वनि को विश्व ब्रह्माण्ड की तीन प्रमुख शक्तियाँ माना गया है। इन्हीं की तरंगें विश्व का गठन और विघटन करती रहती है। इनका उच्चस्तरीय प्रयोजनों में अभीष्ट प्रयोग कैसे हो? इसी को मस्तिष्कीय चेतना, अग्निहोत्र और शब्द शक्ति के रूप में ब्रह्मवर्चस का शोध लक्ष्य बनाया गया है। आशा की जानी चाहिए कि यह पदार्थ और चेतना के समन्वय से उत्पन्न होने वाली प्रक्रिया को प्रत्यक्ष कर सकेगा और समस्त संसार उसकी आशातीत उपलब्धियों से लाभान्वित हो सकेगा।

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