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Magazine - Year 1988 - Version 2

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स्वाध्याय, सेवा और सृजन

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कृतियाँ और परिस्थितियाँ किसी अदृश्य चेतना की परिणति मात्र है। बीज से वृक्ष बनता है। बीज भूमि में दब जाता है। अंकुर, तना, शाखा, पल्लव, फूल, फल के रूप में उस दबे बीज के ही विकसित मन की परिणति कहा जा सकता है। बीज का ही मानसिक स्तर उसमें चलने वाला विचार प्रभाव यही कार्य रूप में परिणत होता है। चिन्तन ही चरित्र बनता है। वही व्यवहार में उतरता है अपने स्तर के अनुरूप भली-बुरी परिस्थितियों का सृजन करता है। परिस्थितियाँ ही मनुष्य के सुख-दुख का उत्थान-पतन का निमित्त कारण बनती है। इस तत्व-दर्शन को समझ लेने पर आज की अनेकानेक विपन्नताओं का मिश्रित कारण खोजा जा सकता है। निदान सही होने पर उसका उपचार भी ठीक बन पड़ता है। साथ ही व्याधियों से छुटकारा भी मिलता है।

इन दिनों अधिकाधिक लोगों को शारीरिक रुग्णता, मानसिक उत्तेजना, आर्थिक अभावग्रस्तता, पारिवारिक विश्रृंखलता, सामाजिक उच्छृंखलता से घिरा हुआ देखा जा सकता है। किसी को चैन नहीं। चिन्ताओं, उद्विग्नताओं, आशंकाओं, आपत्तियों से दूर किसी का जीवन आकुल-व्याकुल दीख पड़ता है इनसे अपनी बुद्धि के अनुसार लोग छुटकारे का प्रयत्न भी करते है, सुख-शान्ति का उपाय भी खोजते है पर परिणाम दिवास्वप्न बन कर ही रह जाता है। आकाश कुसुम किसके हाथ लगते है? बालू के महल में रहकर किसका निर्वाह होता है? देखा जाता है कि प्रगति के नाम पर किये गये उपाय उपचारों में से अधिकाँश असफल ही रहते है। निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। स्थिति बद से बदतर होती जाती है। प्रगति की बात सोचते रहने पर भी हाथ पाँव मारने का कुछ परिणाम नहीं निकलता। इस विसंगति का कारण क्या है? इसे गम्भीरतापूर्वक जानने का प्रयत्न किया जाय तो निष्कर्ष एक ही हाथ लगता है कि चिन्तन क्षेत्र का उत्कृष्टता की दिवाला पिट जाने पर सर्वत्र गंदगी छा गई है और उस पर मक्खियाँ भिनक रही है।

शरीर तो वाहन या उपकरण मात्र है। उसका मालिक है मन। उसी के संकेतों पर यह कठपुतली नाच नाचती रहती है। अपने भवितव्यता का भला-बुरा सृजन स्वयं करती रहती है। आत्मा को ही आत्मा का शत्रु और मित्र बताया गया है। अपने को अपने बलबूते उठाने का गीताकार ने निर्देश दिया है। यह ‘आपा’ क्या है? उसे मान्यताओं, भावनाओं, आकाँक्षाओं, विचारणाओं का समुच्चय कह सकते है। मोटे शब्दों में उसे ही मन कहते है और विवेचकों द्वारा मस्तिष्कीय उभारों की लहरें भी कहा गया है ग्यारहवीं इन्द्रिय भी। पर हमें प्रयोजन को समझने के लिए संक्षेप में इतना ही समझ लेना पर्याप्त होगा कि चिन्तन का बहुपक्षीय प्रवाह ही मन है। वह अपने स्तर के अनुरूप अपनी दुनिया का सृजन करता है। जीवन के स्वरूप को वही ढालता है और अपने स्वरूप के अनुरूप ही परिस्थिति का परिकर सामने आ खड़ा होता है। मकड़ी अपना जाला स्वयं बुनती है और जब चाहती है उसे समेट कर निगल लेती है। मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता इसी आधार पर कहा जाता है। वह अपने को नरक में भी धकेल सकता है, स्वर्ग तक उछाल सकता है या त्रिशंकु की तरह अधर में लटक सकता है।

मनुष्य के पास शक्ति सामर्थ्य की कमी नहीं। वह इतिहास के अनेकानेक पराक्रमियों की तरह अपने आपको भौतिक क्षेत्र में भी आश्चर्य जनक सफलताएँ हस्तगत करा सकता है। साथ ही यदि वह थोड़ी दिशा बदले तो प्रातः स्मरणीय महामानवों की पंक्ति में भी अपने को खड़ा कर सकता है, अपनी गणना अनुकरणीय और अभिनन्दनीय देवमानवों में करा सकता है। यह और कुछ नहीं मात्र दिशा परिवर्तन का खेल है। इसी आधार पर आरंभिक जीवन जिनका अत्यन्त गया गुजरा रहा, वे अपने में परिवर्तन लाकर जीवन का कायाकल्प ही कर कुछ से कुछ बन गय। धातुओं को लुहार और स्वर्णकार किसी शकल में किसी दूसरा में बदल देते है। मनुष्य ऐसा शिल्पी है कि अपने व्यक्तित्व को मन चाहे साँचे में ढाल सकता है और परिस्थितियों को इच्छानुसार मोड़-मरोड़ सकता है। यह तथ्य आमतौर से समझा नहीं जाता, पर वस्तुतः यथार्थता यही है।

की तो बहुत कुछ जानकारी होती है, पर अपने संबंध में तो असाधारण, विस्मृति और खुमारी का ही शिकार बना रहता है। यदि यह पर्दा हटाया जा सके तो सारा माहौल ही बदल जाय। रंगीन चश्मा उतरते ही वस्तुओं का रंग यथावत दीखने लगे। मन क्षेत्र पर चढ़े हुए भ्रम जंजालों को ही ‘माया’ कहते है। माया से छुटकारा पाना ही ‘मुक्ति’ है। यह कहीं अन्यत्र से मिलने वाला अनुदान नहीं है, वरन् भीतर से उठने वाला सत्संकल्प ही है, जो समय, श्रम, चिन्तन, साधन, प्रभाव, आदि सभी सम्पदाओं को पतन से उतार कर उत्थान की दिशा में नियोजित कर सकता है। साथ ही बाह्य जीवन की उलझन भरी परिस्थितियों को सुलझे हुए स्वर्गीय वातावरण का रसास्वादन करा सकता है।

समस्या मात्र व्यक्ति की नहीं, समूचे समाज की है। व्यक्तियों का समूह ही समाज है। जिस तरह के घटक होंगे वैसा ही उनका सम्मिलित समुच्चय बनेगा। देशव्यापी, विश्वव्यापी समस्याओं का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो पर वस्तुतः उसका आधार प्रजाजनों के दृष्टिकोण, स्वभाव, चिन्तन और चरित्र पर ही निर्भर रहता है। सामाजिक समस्याओं के समाधान यों आन्दोलनों के रूप में किये जाते रहते है। इसके लिए कानून भी बनते और प्रत्यक्ष स्तर के उपाय भी होते रहते है। किन्तु देखा यह गया है कि उनका प्रभाव नगण्य जितना ही होता है। तालाब में ढेला फेंकने पर प्रहार के स्थान पर पानी फैल जाता है। उसमें गड्ढा भी बन जाता है। पर कुछ ही क्षण बाद स्थिति समतल बन जाती है। ऐसे सभी उपाय जो अन्तराल तक न पहुँच सकें और दृष्टिकोण में परिवर्तन न ला सकें, प्रायः सामाजिक विडम्बना मात्र ही बन कर रह जाते है।

परिस्थितियाँ दृश्यमान होती हैं इसलिए वे सभी पर प्रकट होती है। सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। इसलिए सीधे उन्हीं के निवारण, निराकरण के साधन परक उपाय किये जाते है। यह पत्तों का धोकर खोखले वृक्ष को पुनर्जीवन प्रदान करने जैसा है। इससे मन बहलाव भर होता है। सुधार के लिए उमड़े उत्साह का क्रिया रूप में समाधान भर होता है। किन्तु गुत्थी सुलझती नहीं, वह जहाँ की तहाँ बनी रहती है।

वस्तुस्थिति समझने और वास्तविकता जानने के लिए गहराई से उतरने जैसी आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार का पर्यवेक्षण करने पर एक ही निष्कर्ष पाया जाता है। कि खोट मनुष्य के दृष्टिकोण में हैं गड़बड़ी मान्यताओं आस्थाओं में हुई है। उसी क्षेत्र में उपजी फुडिया बढ़ते-बढ़ते नासूर के रूप में प्रकट हुई है। मनःस्थिति में एक चुम्बकत्व होता है जो अपने अनुकूल अनुरूप साधनों, सहयोगियों, परिस्थितियों को अपने इर्द-गिर्द खींच बुलाता रहता है। यदि वे विकृत स्तर की हुई तो उनका कारण अपने को निर्दोष मानते हुए किसी दूसरे के सिर पर थोपा जाता है। ग्रह नक्षत्रों को, भाग्य को, असहयोग को, अंगों को, ईर्ष्यालुओं को कारण बताकर किसी प्रकार मन समझा लिया जाता है। पर इससे क्या होता है, आँसू पोंछने भर से रुकने वाली पीड़ा का निराकरण कहाँ होता है? समस्याएँ जहाँ की तहाँ बनी रहती है। मुद्दतों से प्रगति के, सुख-सुविधा के, कष्ट निवारण के विविध विधि प्रयास चलते रहते है। पर लम्बे समय का निरीक्षण, पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है मात्र कौतुक कौतूहलों की विडम्बना ही बढ़ी है। समाधान कारक उपाय निकलने की दिशा में तनिक भी प्रगति नहीं हुई। उलटे व्यक्तियों के स्तर में भारी गिरावट आई है। उनके द्वारा अपनाई गयी गतिविधियाँ ने तो दिन दूने रात चौगुने संकट खड़े किये है।

बहुमुखी समस्याओं का समाधान कैसे हो? प्रगति का पथ कैसे खुले? इसका सुनिश्चित उपाय मात्र एक ही है कि व्यक्ति के दृष्टिकोण में, चिन्तन में उत्कृष्टता का दूरदर्शिता और आदर्शवादिता का समावेश किया जाय। उसके मान्यता क्षेत्र में धँसी हुई कुसंस्कारिता-प्रतिगामिता को उखाड़ फेंका जाय। यह कार्य देखने में कठिन मालूम देता है। पर यदि वस्तुतः इस दिशा में प्रतिभावानों के संकल्प उभर तो उसकी पूर्ति किसी भी प्रकार असम्भव नहीं है। वास्तविकता में इतना बल होता है कि वह अग्नि की तरह चिनगारी से दावानल बन सके ओर विशाल क्षेत्र में फैले कूड़े-कबाड़ को अपने अंचल में समेट सके। अभी कुछ ही दिन पूर्व जनतंत्र और साम्यवाद के पक्ष में हवा चली और उसने पिछड़े लोगों के बलबूते संसार के तीन चौथाई भाग को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लिया। अनेक क्षेत्रों में उन उद्देश्यों वाली शासन प्रणालियाँ स्थापित कर दी। जनमानस द्वारा निषिद्ध ठहराये जाने पर साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, राजतंत्र, सामन्तवाद, गुलाम प्रथा, नारी उत्पीड़न, आदि के परखचे उड़ गये और वे मरणासन्न स्थिति में जहाँ-तहाँ साँस भर लेती दिखाई पड़ती है। इन सब के मूल में विचार क्रान्ति के विभिन्न पक्ष ही काम करते रहे है। अन्तर इतना ही रहा कि जो कार्य एकाकी प्रयत्नों से छुट-पुट ढँग से छोटी परिधि में होते रहते थे, उन्हें सुगठित, सुनियोजित ढँग से व्यापक क्षेत्र में कार्यान्वित किया गया और युग-परिवर्तन जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई। प्रचार तंत्र की ही महत्ता है कि ईसाई धर्म में बिना किसी जोर जुल्म के कुछ ही शताब्दियों में संसार की दो तिहाई जनता को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया। उस प्रयास का अवलम्बन दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। जन मानस के परिष्कार का जनजागरण का विचार क्रान्ति का अभियान प्रयत्न करने पर सुनियोजित ढँग से सफलतापूर्वक आँधी तूफान की तरह अग्रसर हो सकता है।

अखण्ड-ज्योति की प्रधान चेतना इसी विचार क्रान्ति अभियान के रूप में फटी है। उसने त्रिदेव की भाँति त्रिपदा गायत्री की भाँति, तीन लोकों और तीन शरीरों की भाँत बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक कान्ति का पांचजन्य बजाया है और उस तुमुलनाद ने न केवल अपने देश में, वरन् समस्त विश्व के वातावरण में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की है। उसे विचारशीलों का परिपूर्ण सहयोग भी मिलेगा। व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण उसके त्रिविध क्रिया-कलाप है। उनका घर-घर अलख जगाने और जन-जन को युग चेतना से अवगत कराने के लिए उसके त्रिविध प्रयास विगत आधी शताब्दी में एकनिष्ठ भाव से प्रयत्नशील रहे है और उनमें उसे आशातीत सफलता भी मिली है।

(1) स्वाध्याय (2) सत्संग (3) सत्प्रवृत्ति संवर्धन- यह उसके लक्ष्य साधन है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन का ही दूसरा पक्ष दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन भी है। इसे गलाई-ढलाई की तरह साथ-साथ मिला कर चलना होता है। स्वाध्याय के लिए युग साहित्य का अभिनव सृजन करना पड़ा। कारण कि हर युग की अपनी समस्याएँ तथा परिस्थितियाँ भिन्न होती है। आज के लिए ऐसी प्रतिपादन शैली चाहिए जिसमें तर्क, तथ्य, प्रमाणों का गहरा पुट हो। अब ‘बाबा वाक्यं प्रमाणं’ की लकीर पीटते रहने के लिए किसी को भी सहमत नहीं किया जा सकता। युग साहित्य युग के अनुरूप ही सृजा गया है और सत्संग के लिए शान्ति-कुंज से लेकर स्थापित 2400 शक्ति केन्द्रों के माध्यम से जन-जन के मन-मन तक युग चेतना का संचार किया गया है।

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