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Magazine - Year 1988 - Version 2

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सृष्टि का नियन्ता व अधिपति कौन?

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अनीश्वरवाद एवं शून्यवाद जिस जड़वादी मान्यता पर आधारित है, वह यही प्रतिपादित करती है कि इस दृश्यमान जगत् की संरचना में पदार्थ की ही प्रमुख भूमिका है। उन्हीं के परस्पर मिलन संयोग से यह सृष्टि बनी। किसी अभौतिक चेतन सत्ता का इस सृजन में कोई योगदान नहीं है। चार्वाक ने प्रत्यक्ष कर्त्ता के अभाव में अनुमाण प्रमाण को अमान्य ठहराया, वहीं नीत्से-ने नोसोल-नोगाँर्ड का उद्घोष कर ईश्वर के मर जाने का नारा बुलन्द किया। शून्यवादियों ने जागतिक घटनाओं को माया कहकर छुट्टी पा ली। कुछ सीमा तक साम्यवाद एवं विज्ञान के प्रत्यक्ष वाद ने भी इन प्रतिपादनों का समर्थन किया।

किन्तु यदि तनिक सूक्ष्म व्यापार पर दृष्टिपात करने पर इसमें हमें कुछ निश्चित विधि व्यवस्थाएं दिखाई पड़ेगी, जो मानने के लिए बाध्य करती हैं कि इसे बनाने व नियंत्रित करने वाली कोई नियामक सत्ता अवश्य है। क्रमबद्धता के नियम की ही तरह जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति अपने में एक विशिष्ट स्तर का ज्ञान संजोये होते हैं, कि फलने-फूलने का समय आ गया और उन्हें अब ऐसा करना चाहिए। ऐसा भी नहीं हैं कि संसार के सारे वृक्ष एक ही समय में फलोत्पादन करते हों। प्रत्येक वनस्पति का अपना एक निर्धारित समय होता है, उसी नियम समय में वह फूलती-फलती देखी जाती है। उन्हें इसका पता कैसे चलता है कि इसके लिए अनुकूल वक्त आ गया। प्राणियों में ईल मछली प्रायः जुलाई-अगस्त के महीनों में अंडे देती है। इसके लिए उसे लम्बी यात्रा तय कर नदी में आना पड़ता है। इसी प्रकार अन्य जीव जन्तु भी प्रजनन अपने निश्चित समय पर ही करते है। इन जन्तुओं को समय की सूचना कौन देता है। पृथ्वी अपनी कक्षा में अंश से झुकाव के बिना पृथ्वी में जीवन संभव न हो सकेगा, परिस्थितियाँ अनुकूल न बन सकेंगी। सूर्य जलता हुआ अग्नि पिण्ड है। जिसकी सतह का तापक्रम डिग्री सेंटीग्रेट है। पृथ्वी की दूरी सूर्य से इतनी ही निर्धारित है कि इसके अभीष्ट परिमाण की गर्मी और प्रकाश से वहाँ जीवन-व्यापार चलता रहता है। दूरी तनिक कम होती, तो पृथ्वी जल कर राख हो जाती और तनिक अधिक होने से हर वक्त बर्फ जमी रहती। इतना हीं नहीं, लगातार, बरसने वाली ब्रह्मांडीय किरणों से रक्षा के लिए सुरक्षा-कवचों की भी व्यवस्था है और दिन-रात व मौसम-परिवर्तन के लिए कक्षा एवं धुरी में उपयुक्त गतियों की भी। यह सब तंत्र सही-सही कैसे संचालित-नियंत्रित होते रहते है।, विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

इसी प्रकार जीव जगत और वनस्पति की एक अन्य विशेषता आकार संबंधी है। प्रत्येक वनस्पति और जन्तु का निर्धारण आकार प्रकार होता है यूक्लिप्टस और ताड के पेड़ सदा पतले-लंबे होते हैं उनमें शाखा-प्रशाखाएं कम होती है। संभव है इनसे यदि उनका भार बढ़ता तो वे अपना अस्तित्व न बचा पाते, आँधी-तूफान में गिर पड़ते। संसार का सबसे ऊंचा वृक्ष पैसिकोइया है, जो अमेरिका में पाया जाता है। इनमें भी शाखाएं कम होती है। जबकि मध्यम आकार के वृक्षों में प्रायः अधिक डालियाँ पायी जाती है। जन्तुओं में भी निवास और वातावरण के हिसाब से आकार की उपयुक्तता देखी जा सकती है। जीव विज्ञानियों के अनुसार जलचर और नभचरों की शरीर-आकृति यदि स्ट्रीम लाइण्ड नहीं होती तो शायद ही वे उस वातावरण में रह पाते और जल व वायु जैसे प्रतिरोधों की चीर कर आगे बढ़ने में सक्षम होते। इन्हीं को देखते हुए वायुयानों को वह शक्ल प्रदान की गई ताकि वायु का न्यूनतम अवरोध उस पर आरोपित हों। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण बात जीव विज्ञानी बतानी है वह यह कि भ्रूणावस्था में कई सप्ताह तक सभी जन्तुओं की आकृति एक सी होती है, चाहे वह मानवी भ्रूण हो या घोड़े, कुत्ते, गाय अथवा बिल्ली के। अनेक सप्ताह बाद ही उनमें भिन्नता दृष्टिगोचर होनी आरम्भ होती है। इस संदर्भ में कभी ऐसा देखा-सुना नहीं गया कि मनुष्य के खरगोश पैदा हुआ हो अथवा गाय ने बिल्ली जनी हों। कुछ सप्ताहों की समानता के बाद भिन्नता प्रकट करने वाली यह कौन-सी प्रणाली हैं। जो रक्त पिण्ड से आरम्भ होकर त्वचा, अस्थि जैसे नितान्त भिन्न अवयव पैदा करता देती है। वैज्ञानिक इस संबंध में मौन है।

नियमितता भी सृष्टि का एक निश्चित नियम है। सूर्य-चन्द्र अन्यान्य ग्रह-नक्षत्र सभी समय के पाबन्द है। सूर्य निर्धारित समय पर उदित और अस्त होता रहता है। इसी प्रकार चन्द्र कलाओं का घटना-बढ़ना भी सदा निर्धारित क्रम से होता है। ग्रह-नक्षत्रों की गतियाँ भी नियत हैं। खगोलीय गणनाएं इनकी इसी नियमितता पर आधारित है। जिस दिन ये प्रमाद बरतने लगें सारा ज्योतिर्विज्ञान ही झूठा हो जाये।

इस प्रकार देखा जाये तो ज्ञात होगा कि पूरा विश्व-ब्रह्मांड एक निश्चित नियम-व्यवस्था में आबद्ध है। किसी अव्यवस्था है ही नहीं। जब व्यवस्था है, तो इसका कोई व्यवस्थापक भी होना चाहिए, क्योंकि इतनी बुद्धिमान गतिविधियाँ सम्पन्न हो भी गई-ऐसा मान भी लिया जाये, तो इनके नियन्त्रण के लिए कोई-न-कोई नियन्ता होना ही चाहिए, क्योंकि स्वचालित यंत्र−उपकरण भी बिना संचालक के

सही-सही काम नहीं कर पाते। आदि से लेकर अब तक के सृष्टि-नियम में किसी प्रकार का कोई व्यतिरेक न आना इसी का प्रमाण-परिचय प्रस्तुत करता है।

कार्य-कारण सिद्धान्त के अनुसार कोई भी कार्य बिना कारण के हो ही नहीं सकता। कणाद मुनि ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा है कि “कारणाभवात् कार्य्याभावः” अर्थात् कारण के अभाव में कार्य संभव ही नहीं है। मनीषियों ने निमित्त कारण अथवा कर्त्ता के तीन लक्षण बताये है।-1-उत्पादन कारण का उत्तम ज्ञान, 2-इच्छाशक्ति एवं, 3-प्रयास।

इन तीनों के संयोग से ही कोई क्रिया सम्पन्न हो सकती है। कोई इंजीनियर भवन बनाना चाहता है, तो इसके लिए आवश्यक है कि उसे ईंट-गारे जैसी निर्माण सामग्री का भी ज्ञान भी हो, तभी उसमें भवन की इच्छा द्वारा भवन बन कर तैयार हो जाता है। इसे देखने वाला कोई यह नहीं कह सकता कि इमारत स्वभाव अथवा प्रकृति द्वारा अकस्मात् बन गई। भले ही उसने निर्माता को न देखा हो, पर इस संबंध में उसका निश्चित मत होता है कि इसके पीछे किसी-न-किसी कर्ता का हाथ है, किसी-न-किसी की इच्छा शक्ति जुड़ी है, जिसने इस संरचना के रूप में उसकी अभिव्यक्ति की है।

इस प्रकार यह प्रमाणित हो जाता है कि यह विश्व ब्रह्माण्ड भी ईश्वरीय सत्ता रचित है, क्योंकि जब एक छोटी इमारत निर्माता की इच्छा के बिना नहीं बन सकती तो यह कैसे माना जा सकता है, कि इतनी विशाल, सुन्दर, सुव्यवस्थित और सुसम्बद्ध रचना कर्त्ता व उसकी इच्छा के बिना बन गई। निश्चय ही इसके पीछे उसकी एक से अनेक बनने की आकाँक्षा रही होगी और उसी के फलस्वरूप यह सृष्टि बन पड़ी। अतः अनीश्वरवादियों का यह कथन कि इस सृष्टि का कोई स्रष्टा अथवा नियन्ता है ही नहीं निताँत भ्रमपूर्ण है। यह भला भाँति समझा लिया जाना चाहिए।

First 16 18 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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