Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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इनसे सीखिये सहयोग सहकार!
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सहयोग और संगठन को मानवी प्रगति का मूलाधार है माना गया है। बुद्धिमता की जिस विकसित ऊंचाई तक मानव आज पहुंचा है, वह उसे सहकारिता के आधार पर ही उपलब्ध हुई है। ज्ञान विज्ञान की अगणित उपलब्धियों साधन सम्पन्नता का सारा वैभव चमत्कार इसी सत्प्रवृत्ति की देन एक आदमी दूसरे के साथ सघन आत्मीयता स्थापित न करता-दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी करने में उत्साह न दिखाता तो सहयोग की इच्छा ही न उठती और आदान-प्रदान का सिलसिला न चलता। इस स्थिति से उस प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है जिनके कारण मनुष्य जीवन को सुरदुर्लभ अनुभूतियों से भरा-पूरा माना जाता है। यथार्थता यह है कि सहयोग और उत्कर्ष एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर है। एक के बिना दूसरे की न आशा की जा सकती है और न संभावना ही बनती है। मिल-जुलकर रहने और मिल–बांटकर खाने की सुखद अनुभूतियों को जो जानते हैं, वे न केवल संकीर्णता की विलगावजन्य दुःखद परिस्थितियों से बचे रहते हैं वरन् प्रगतिशीलता का सत्परिणाम भी हाथों-हाथ प्राप्त करते है।
न केवल मानव-जाति में वरन् प्रकृति के हर क्षेत्र में प्रत्येक घटक में यह संगठन और सहयोग की प्रक्रिया चल रही है। जड़-चेतन जगत इसी आधार पर सुसंबद्ध है और अपने क्रम से आगे चल रहा है। यदि इस विधि व्यवस्था में अन्तर पड़ जाये तो समझना चाहिए की अगले क्षण घोर अव्यवस्था की अन्धकारपूर्ण स्थिति सामने आकर खड़ी होने वाली है।
सहयोग-सहकार की शक्ति सर्व-विदित है। अस तथ्य को सभी जानते हैं कि ईंटों के मिलने से गगन चुम्बी भवन विनिर्मित होते है। तिनके मिलकर रस्सा बनाते हैं जिनसे पानी खींचने से लेकर नावों के लंगर तक बाँधे जा सकते है। सींकें सिमट कर समर्थ बुहारी बनती है। नन्हीं बूंदें मिलकर सरिता के रूप में बहती है जिनकी प्रचंड धारा मजबूत पुलों और बड़े बड़े बाँधों को बहा ले जाती है। बिखरे मनके मिलकर सुन्दर माला या मनमोहक हार का रूप धारण करते ओर प्रशंसा के पात्र बनते है। व्यक्तियों का समुच्चय परिवार कहलाता है। और उनसे समाज बनता है। सहकारिता के आधार पर ही उसके सभी समर्थ-असमर्थ घटक मिल-जुलकर शांतिपूर्वक सुरक्षित रहते ओर समुन्नत बनने के लिए अग्रसर होते है। बिखरे जाने पर इनमें से किसी का भी कोई महत्व नहीं रहता।सहयोग के आधार पर सैन्यदल बनते ओर शत्रु से लोहा लेते, विजयी बनते है। काल कारखानों भी इसी आधार पर चलते हैं और विशालकाय निर्माण पूरे होते हैं। धर्मतंत्र लेकर राजतंत्र की प्रगति में यह बल पर प्रजातंत्रीय शासनों में परिवर्तन होते देर नहीं लगती। इस प्रकार सहकारिता को इस युग की उच्चस्तरीय उपलब्धि माना गया हैं जहाँ इस विद्या को अपनाया नहीं जाता संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित होकर विग्रह और विलगाव पर उतारू रहा जाता है वहाँ समझना चाहिए कि देर सबेर में सर्वनाश ही होकर रहेगा।
प्रख्यात लेखक प्रिंस क्रोपाटकिन ने अपना सारा जीवन-प्रकृति के अध्ययन में लगाया। उन्होंने जीवन-जन्तुओं के व्यवहार-अध्ययन से जो निष्कर्ष निकाले उन्हें अपनी प्रसिद्ध पुस्तक संघर्ष नहीं सहयोग में संकलित किया है। उनके अनुसार मानव जाति की सुख-समुन्नति स्पर्धा एवं बिखराव में नहीं, वरन् सहयोग की भावनाओं के विकास में सन्निहित है। इसका प्रत्यक्ष स्वरूप ओर उसके सत्परिणाम को बुद्धिहीन समझे जाने वाले क्षुद्र जीवों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वह मिल-जुलकर काम करते और एक जुट रहते है। अपनी इसी संगठित शक्ति के कारण दीमकों, टिड्डियों ओर चिड़ियों को विशालकाय क्षेत्रों को वीरान करते देखा गया है। जिस ओर भी वे दल-बल के साथ चल पड़ती हैं उसी ओर सफाया कर देती है। दुश्मन भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाते।
जीव विज्ञानियों का कहना है कि मधुमक्खियों में सहकारिता की प्रवृत्ति कूट-कूट भर होती उसके सभी सदस्य मिलकर छत्ता बनाते और शहद विनिर्मित करने जैसा कौशल विकसित करते हुए यशस्वी बनते है। सुप्रसिद्ध प्राणिशास्त्री फ्रिश के शिष्य डा. लिण्डावर ने मधुमक्खियों की विभिन्न जातियों का वर्षों तक गहन अध्ययन किया और अपनी पुस्तक कम्युनिकेशन अंगस्ट सोशलबीज में बताया है कि उनकी सहकार प्रवृत्तियाँ मनुष्य को भी पीछे छोड़ देती है। उनके अनुसार इन मक्खियों में अपने-अपने विभाग बंट होते है। इनमें से कुछ मजदूर होती हैं, जिनका काम छत्ते को बनाना टूट फूट को जोड़ना छत्ते में कोई मर जाय तो उसे वहाँ से ले जाकर श्मशान तक पहुँचाना यह सब काम मजदूर करते है। कुछ सैनिक मक्खियाँ होती हैं जिनका कार्य रानी की बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा करना होता मनुष्यों की फौज में कुछ सिपाही कायर ओर डरपोक भी हो सकते हैं किन्तु मधुमक्खियाँ दुश्मन के संघर्ष में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करती ये उनमें मृत्यु पर्यन्त लड़ती है। कुछ मक्खियों का काम फूलों से पराग लाना और उससे शहद बनाना होता है। इस तरह जिनको जो काम मिला होता है, वह वही काम दत्त-चित्त होकर करती रहती है।
इसी प्रकार प्रकार मूर्धन्य वैज्ञानिक सी0आर॰ रिबैन्ड्स ने अपने पुस्तक बिहैवियर एण्ड सोशल लाइफ ऑफ हनी बीज में मधुमक्खियों से पाये जाने वाले परस्पर सहयोग-सहकार का विस्तृत वर्णन किया है उनका कहना है कि इन छोटी मक्खियों से मनुष्य बहुत कुछ सीख सकता है। श्रमरत रहते हुए भी वह अपने जीवन को हल्का फुल्का एवं प्रसन्न बनाये रखती है। उनका प्रत्येक कार्य मनोरंजन से भरा पूरा होता है। जर्मनी के वरिष्ठ जीव विज्ञानी कार्लवान फ्रिश के अनुसार मधुमक्खियों नृत्य करती है। जहाँ कही सुन्दर फल-फूलों युक्त बगीचे दिख जाते है। वहीं वे चक्राकार या गोलाकार पथ में चक्कर लगाती हुई नाचने लगती हैं जिससे उनके दूसरे साथी-सहयोगी यह जान जाते हैं कि खाद्य पदार्थ का स्त्रोत दूर अथवा पास ही कहीं है।
सहयोग और संगठन के आधार पर सृष्टि के छोटे से छोटे प्राणी भी बड़े से बड़े शक्तिशाली जीवों को ध्वस्त करने में समर्थ होते है। कहते हैं कि चींटियां मिलकर हाथी की सूँड में घुस पड़ें तो उसे मार सकती है। प्राणिशास्त्रियों ने अफ्रीका के जंगलों में इसी तरह की चींटियों की एक विशिष्ट प्रजाति को खोज निकाला है जो लाखों-करोड़ों की संख्या में एक साथ रहती है। और मिल-जुलकर अपने कामों को निपटाती है। वैज्ञानिकों ने इन्हें सैनिक चींटियों के नाम से संबंधित किया है यह सभी नेत्र विहीन होती है। किन्तु शिर पर लगे एन्टीनानुमा दो संवेदी अंगों की सहायता से अपने आस-पास की जानकारी प्राप्त कर लेती है।
यह अंधी चींटियां सदैव समूहों में ही चलती हैं इनका कोई स्थायी घर नहीं होता। खानाबदोशों की तरह यह प्रतिदिन सुबह से शाम तक भोजन की तलाश में घूमती रहती है। ओर जहाँ भी रात्रि हो जाती है वही अपना अस्थायी निवास बना लेती है। इनके भयं से जंगल के हिंस्र पशु भी भयभीत रहते है। कारण कि ये उन पर एक साथ टूट पड़ती है। और देखते ही देखते ही उनको चट कर जाती है। शेर, भालू, घोड़े, बैल, भैंसे बड़े जानवरों को यह चींटी दल एक घण्टे के अंदर ही उदरस्थ कर जाती है। मनुष्य को खाने में इन्हें आधे घण्टे से भी कम समय लगता है। इनकी पकड़ में जो भी प्राणी आ जाता है उसका मात्र अस्थि पिंजर ही शेष मिलता है।
अपने यात्रा के समय सामने आये संकटों, विपन्न, परिस्थितियों का सामना मिल-जुलकर एक साथ यह किसी सुनियोजित ओर संगठित ढंग से करती है, उसे देखकर मूर्धन्य वैज्ञानिक इंजीनियर भी आश्चर्यचकित रह जाते है। रास्ते में जब कभी नहीं, नाले आदि कोई जल स्रोत पड़ जाते हैं तो इनका इंजीनियर दल सक्रिय हो जाता है। ओर पैर से पैर मिलाकर हजारों चींटियां तुरन्त पुल बना देती हैं जिस पर से इनका शेष दल पार हो जाता है। अन्त में पुल बनी चींटियां तुरन्त पुज बना देती हैं जिस पर से इनका शेष दल पार हो जाता है अन्त में पुल बनी चींटियां एक दूसरे से लिपटे हुए गेंद के आकार में गोल हो जाती है। और बहते बहते दूसरे तट तक पहुंच जाती है। इसी प्रकार शिविर निर्माण में भी यह एक दूसरे का सहयोग करती हुईं सुन्दर कोठरियों का निर्माण करती है।
मनुष्य की बुद्धिमत्ता शारीरिक चेष्टा और प्रयत्न परायणता के मूल में जो अत्यन्त प्रेरक दिव्य प्रवृत्ति झाँकती है। उसे सहकारिता कह सकते है। वस्तुतः यही मानव प्राणी की सबसे बड़ी विशेषता है। परस्पर सहयोग की इस महत्ता को समझने वाले लोग देश ओर जातियां ही अपराजेय होती है। वे कही भी चली जायें वहीं अपना प्रभाव स्थापित कर लेती है। प्राणियों में सहयोग की प्रवृत्ति की महत्ता को प्रतिपादित करने वाले प्रख्यात प्राणि विशेषज्ञ फोरल ने एक बार एक विचित्र प्रयोग किया। उन्होंने एक स्थान की चींटियों के झुण्ड को एक थैले में भरा और उसे एक ऐसे स्थान पर लाकर छोड़ दिया जहाँ बहुत से चींटी भक्षी-टिड्डे पतिंगे रहते थे बर्र मकड़ियां ओर गुबरैलों की जहां जमाते लगी थी।
इनमें से एक भी जीव ऐसा नहीं था जो चींटियों के वहाँ पहुँचते ही बर्रो ने युद्ध ठान दिया पर संगठित चींटियां घबराई नहीं उनमें से कितनी ही शहीद हो गई पर उनके संगठित हमले के आगे बर्रे ठहर न सकीं। गुबरीले उन्हें देख कर बिना प्रतिरोध वहाँ से खिसक गये पतिंगों और टिड्डों ने अपने बने बनाये किले चींटियों के लिए खाली कर दिये निर्वासित चींटियों ने संगठित शक्ति के बल पर वहाँ भी पहले जैसा ही साम्राज्य स्थापित कर लिया।
यह उदाहरण मनुष्य जाति के देश ओर समाज की सुख समुन्नति के आधार है। सहयोग के बल पर जब क्षुद्र समझे जाने वाले जीवधारी अपना जीवन यापन शानदार ढंग से कर लेते है। बड़ी बड़ी बाधाओं से निपट लेते है। विशालकाय शरीर वालों के छक्के छुड़ा देते है। फिर कोई कारण नहीं कि मनुष्य यदि स्नेह ओर सहयोगपूर्वक रहें। सहकारिता का आश्रय ले तो अपनी सामयिक तथा भावी कठिनाइयों का सामना न कर सकें। विलगाव की दुःखद हानियों और मिलजुलकर रहने की सुखद संभावनाओं को हम जितनी जल्दी समझ सकें, उतना ही अच्छा है।