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Magazine - Year 1988 - Version 2

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चेतना का सर्वोच्च आयाम एवं उसकी प्राप्ति

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मानव जीवन को स्रष्टा का सर्वोत्तम उपहार कहा गया है। इस निमार्ण में परमात्मा ने अपना सारा कला-कौशल संजो दिया है। प्राणियों में इसके समकक्ष और कोई नहीं है। उसे विशिष्ट काया, मन, बुद्धि, प्रतिभा, सुविधा सभी कुछ उपलब्ध है। विकास क्रम में भी वह समस्त जीवधारियों से आगे है। इतना सब कुछ होने पर भी अभी मनुष्य का विकास अधूरा रह गया है। उसके पास बुद्धि उच्चतम स्थिति तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त नहीं है। सामान्य बुद्धि के रहते वह सृष्टि के मुकुटमणि के शीर्षस्थ पद से सम्मानित नहीं हो सकता। मन के जिस धरातल पर वह आज खड़ा है। उससे भी अधिक उच्चस्तरीय चेतना की परतें उसके अन्तराल में विद्यमान हैं जिन्हें अब तक कुरेदा नहीं गया है। पूर्णता की प्राप्ति के लिए उसे मन के उच्चतर धरातल अतिमानसिक चेतना की ओर छलाँग लगाना होगा जिस पर पहुँच कर मनुष्य सर्वज्ञ बन जाता है। मानव से अतिमानव, महामानव, पुरुष से पुरुषोत्तम बनना, यही उसके विकास की अगली मंजिल है।

परमेश्वर के दस या चौबीस अवतारों की मान्यता में मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन से लेकर क्रमशः कलाओं का बढ़ते जाना और मर्यादा पुरुषोत्तम राम को बारह कलाओं वाला, पूर्ण पुरुष कृष्ण को सोलह कलाओं वाला माना जाना यही बताता है। कि अवतारों में भी विकास क्रम के अनुरूप स्तर बढ़ता चला आया है। बुद्ध को बीस कलाओं का तथा उनके उत्तरार्द्ध निष्कलंक, प्रज्ञावतार को चौबीस कलाओं वाला निरूपित किया गया है। समस्त कलाएं चौंसठ मानी गई हैं। उनमें से अवतारों का विकास अभी आँशिक रूप में ही हुआ है। जो होना शेष है उसमें अभी यह प्रगतिशीलता का क्रम चलता ही रहेगा।

मनुष्य के बारे में भी यही बात है। आदिम काल में उसकी काया भले ही अधिक परिपुष्ट रही हो पर वह चेतना की दृष्टि से निश्चय ही पिछड़ा हुआ रहा होगा। अब उसकी समझदारी, साधना सम्पन्नता और कला के रूप में प्रकट होने वाली भाव-सम्वेदना पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है। यह प्रगति क्रम भविष्य में भी तब तक चलता रहेगा जब तक कि पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने की बात बन न जायें।

मानव की सर्वतोमुखी प्रगति का कल्पना चित्र जो आप्त पुरुषों ने खींचा है। उसे एक शब्द में देवता कहा गया है। यही उसकी विकसित अवस्था है। वैदिक ऋषि का उद्घोष है- कृधि यमा देववन्तम्। अर्थात् विकास में हमें दिव्यता उपलब्ध करनी हैं, देवता बनना है। दिव्यता का मूर्धन्य स्वरूप देवताओं में मिलता है। कहते हैं कि देवता स्वर्ग में रहते हैं। वे श्वेत वर्ण होते है। तथा अजर अर्थात् जरा रहित प्रौढ़ परिपक्व रहते हैं। वे अमृत पीते और अमर रहते हैं। काया से प्रौढ़, सुन्दर, युवा, स्वस्थ, परिपुष्ट एवं सौंदर्य सज्जित होता है। उनका व्यक्तित्व धवल, प्रखर एवं परिपक्व होता है। वे समूचे अन्तरिक्ष में उड़ते और कहीं भी जा पहुंचने की क्षमता रखते हैं। श्रेष्ठता का समर्थन सहयोग करना उनका रुचिकर विषय और स्वभाव होता है।

मनुष्यों में जिनकी भावनाएं सदा दूसरों को समुन्नत सुसंस्कृत देखने को उमंगती रहें, जिनकी गतिविधियाँ सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में निरत रहें उन्हें दवे स्वभाव का अधिष्ठाता कहा जा सकता है। सद्भाव, सम्पन्न, उदार, सेवाभावी, परमार्थ परायण व्यक्ति इसी वर्ग में गिने जा सकते है। जिनकी आत्मिक विभूतियाँ, भौतिक सम्पत्तियाँ उत्कृष्टता की समर्थक आदर्शवादिता में सहयोगरत हों, उन्हें देव-प्रकृति का कहा जा सकता है। दैवी ज्योति से सम्पन्न ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्रभा से देदीप्यमान आत्माओं की संज्ञा ही देव है। दिव्यता की इसी कोटि में पहुँचने पर आत्म मानवी उत्कर्ष की चरम सीमा पर पहुँची मानी जा सकती है। जबकि भौतिक विकासवादियों की मान्यता है कि वर्तमान मनुष्य विकास की चरम अवस्था है। उनकी भौतिकवादी बुद्धिमत्ता यह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं कि इसके आगे भी मानवी विकास और परिष्कार की संभावनाएं विद्यमान है और वह अपनी वर्तमान प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करके महामानव बन सकता है। डार्विन की विकासवादी मान्यता ही उनके गले उतरती है। जिनने अपनी पुस्तक “द ओरिजन ऑफ स्पेशीज” में कहा है कि मनुष्य बन्दर की औलाद हैं देवताओं की संतान न होकर पशुयोनि से विकसित हुआ है। अतः पाशविकता उसके भीतर जन्मजात रूप से विद्यमान है। इसके साथ ही उनने “सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट” में यह भी कहा है कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्राणियों के मध्य संघर्ष छिड़ा हुआ है और इस संघर्ष में वही जीवित बचेगा जो शक्तिशाली होगा। मनोविज्ञान फ्रायड ने भी मनुष्य को मूल प्रवृत्तियों का गुलाम बताकर प्रकारान्तर से डार्विन की उक्त मान्यता का ही समर्थन किया था। इन मान्यताओं ने न केवल मनुष्य से उसका देवत्व छीन लिया वरन् उसे नर-पशु भी बना दिया।

उपरोक्त मान्यताओं का खण्डन करते हुए प्रख्यात मनीषी डिजराइली ने अपनी कृति “आदमी बन्दर है या देवता के पक्ष में अधिक निकट है। मेरा स्वयं का निर्णय देवता के पक्ष में है न कि डार्विन के पशु-मानव के पक्ष में। महर्षि अरविंद ने भी उक्त मान्यताओं को निराधार बताया है। उनका कहना है कि स्रष्टा के निर्माणों में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। ईश्वर का अंशधर बीज रूप में सन्निहित है। यद्यपि न उसका सबसे बड़ा यंत्र है किन्तु इससे भी सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम शक्तिशाली यंत्रों की संभावनाएं उसके भीतर विद्यमान हैं। उन शक्तियों को जाग्रत और विकसित करके वह देवता भी बन सकता है और स्वाधीन भी हो सकता है। चेतना के आकाश में ऊपर उठकर वह विकास-क्रम में अति मानस सुप्रामेण्टल अवस्था को प्राप्त करके अतिमानव बन सकता है। इतना ही नहीं वह स्वयं पूर्णता को प्राप्त कर सम्पूर्ण मानव जाति का आध्यात्मीकरण कर सकने में भी समर्थ हो सकता है।

श्री अरविन्द ने विकासवाद का समाधान वेदान्त के आधार पर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि मनुष्य ही वह चिंतनशील प्रयोगशाला है जिसमें से प्रकृति अतिमानव अथवा देवता उत्पन्न करने में लगी है। किन्तु मनुष्य स्वयं सोचने, विचारने ओर निर्णय करने की क्षमता वाला प्राणी है। उसे विवेक करने की क्षमता वाला प्राणी है। उसे विवेक बुद्धि का अनुपम उपहार जो मिला है, अतः उसका उपयोग करते हुए उसे अगले विकास की प्रक्रिया के साथ सहयोग करना पड़ेगा। पंचभौतिक तत्वों से जीवन, जीवन से मन उत्पन्न हो चुके है। अब मन के भीतर से अतिमन-सुपरमाइन्ड प्रकट होने वाला है। उसके विकास का यही अगला सोपान है। प्रकृति उसे इसी सोपान पर ले जाने के लिए प्रयास कर रही है। ईश्वरीय करुणा का भी यहीं संकेत है। अपने सावित्री महाकाव्य में उन्होंने कहा है कि मनुष्य के भीतर विश्वभर की संभावनाएं उसी प्रकार प्रतीक्षा में हैं, जैसे बीज में छिपा हुआ वृक्ष अपने विकास की प्रतीक्षा करता है। अतिमानव चेतना मनुष्य के अन्तराल में छिपी हुई है। और वह अब प्रकट होने के समीप हैं मनुष्य यदि सावधानी-पूर्वक उसे चेतना को ग्रहण करने का प्रयास करें तो सुपर-चेतना अवश्य अवतीर्ण होगी और मानव अपनी समस्त समस्याओं का समाधान अपने आप पा लेगा।

श्री अरविन्द का विकासवादी सिद्धान्त विज्ञान पर नहीं, अध्यात्म पर आधारित हैं चेतना के उच्चस्तरीय सोपानों को उन्होंने चार भागों में विभक्त किया है। वे हैं-क्रमशः उच्चतर मन, प्रकाशित मन, संबुद्ध मन और ओवरमाइण्ड। सुपरमाइंड का स्तर ओवरमाइंड से ऊपर है। ये चेतना के ऐसे आयाम हैं जिन्हें अब तक विरले लोग ही कुरेद सके हैं और उनमें छिपी शक्तियों का लाभ उठा सके है। इन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव को निर्मल बनाये, परिष्कृत करें। विचारणा, भावना, संवेदना में उत्कृष्टता का समावेश करके ही महानता का वरण किया जा सकता है। अरविन्द के अनुसार अतिमानसी धरातल की ओर बढ़ने की पहली शर्त यह है कि मन को शान्ति किया जाये और साथ ही सर्वतोभावेन ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाया जायें। इसी को उन्होंने इवोल्यूशन और इवोल्यूशन की प्रक्रिया के नाम से संबोधित किया है। इवोल्यूशन अर्थात् आरोह में मनुष्य अपनी चेतना को परिष्कृत करके प्रयत्नपूर्वक ऊपर को उठाता है। आत्म-विकास की साधना, उपासना के विविध विधि उपचारों का सृजन इसीलिए हुआ है। दूसरी प्रक्रिया इवोल्यूशन-अवरोह में अतिमानव विकास के लिए योग मार्ग का आश्रय लेकर भागवत् करुणा का आह्वान करना पड़ता है। सच्चे अर्थों में अध्यात्म जीवी-नास्टिक बीइंग होने का यही राजमार्ग हैं इस अध्यात्म जीविता को प्राप्त करना ही व्यक्तित्व की पूर्णता है, वही उसका पूर्ण विकास भी है। यही मनुष्य में देवत्व की कल्पना है।

सुपरमैन अर्थात् उत्कृष्ट मानव की कल्पना अरविन्द से पूर्व विभिन्न पाश्चात्य दार्शनिकों शोपनहावर का यदि वह जीनियस प्रतिभा सम्पन्न पुरुष था तो कार्लाइल का “वीरपुरुष” हीरो तथा दार्शनिक वेगनर का ‘शीजफ्रेड’ एवं शिलर का कार्लमूर था दार्शनिक गेटे ने पूर्ण पुरुष का वर्णन देवता तुल्य शाँती

वाले गोज के रूप में किया है जिसने अपने समस्त अव्यवस्थित मनोभावों, मनोविकारों, मनोवेगों, दुष्प्रवृत्तियों को नियंत्रित एवं परिष्कृत कर लिया है। अपने चरित्र को विशिष्ट बना लिया और सर्जनात्मक हो गया है। ऐसा महामानव जीवन को बिना किसी अमर्ष-रोष के स्वीकार करता है।

‘सुपरमैन वस्तुतः जर्मन शब्द अबरमेन्श्च का रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ हैं ‘ओवरमैन’ अतिमानव। इसको सर्वप्रथम विवादास्पद जर्मन दार्शनिक विचारधारा में प्रयुक्त किया था इस परिकल्पना को उसने गेटे की रचनाओं से ग्रहण किया था। परन्तु चूँकि उस डार्विन के विकासवाद के ‘सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट का भूत सवार था, अतः उसने इसे एक अलग ही विशिष्ट श्रेणी प्रदान की। एक को शासक एवं अन्यान्यों को शासित बताया। इसका बृहत् वर्णन ओर्टेगा वाइ गैसेट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द रिवोल्ट आफ दी मासेज” में किया है।

नीत्शे ने अपनी पुस्तक “दस स्पेक जर थु्रस्त्र” में कहा हैं कि मनुष्य के अन्दर अतिमानव का अस्तित्व विद्यमान है और वह सूर्य की भाँति काले बादलों को चीर कर बाहर आने की प्रतीक्षा में है। जरथुस्त्र के माध्यम से उसने कहा है कि सुपरमैन क्या है? यह मैं बताता हुँ। मनुष्य जो कुछ है उस पर विजय पाना ही अतिमानव बनना है। क्या तुम ने यह क्षमता है कि नैतिक, अनैतिक, सदाचार, दुराचार का सम्मिश्रण एवं क्रूरता की प्रतिमूर्ति था जो सभी को मारपीट और दबा कर रखना तथा उन पर शक्तिपूर्वक आधिपत्य करना चाहता था। इसके इस दर्शन ने ही नाजी तानाशाह हिटलर को जन्म दिया ओर समूचे जर्मनी को ऐसे आवेश में भर दिया कि वे लोग अपने समुदाय को अति श्रेष्ठ मानने और समस्त विश्व पर शासन स्थापित करने की तैयारी करने लगे थे।

सत्रहवीं शताब्दी के प्रख्यात रहस्यवेत्ता जे0जी0 गिचेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “थियोसोफिया पैक्टिका” में उत्कृष्ट मानव का चित्र खींचा है। उनने उसे पूर्ण पुरुष (परफैक्ट मैन) कहा है। उनके अनुसार मनुष्य अपनी अन्तरात्मा के जितने नजदीक पहुँचता जाता हैं, ओर उसमें गहराई तक प्रवेश करता जाता है, उसी अनुपात से वह दिव्यता की ओर अग्रसर होता जाता है। आत्मा की अनन्त गहराइयों में पहुंचने पर ही ईश्वर के दर्शन होते है। और तभी मनुष्य पूर्णता को प्राप्त करता है। उन्होंने मानवी कार्यों में पाँच ऐसे केन्द्रों का वर्णन किया जिनमें देवता, अवतारों,ईश्वर और आत्मा का निवास माना गया है। इनमें से किसी एक अथवा सभी केन्द्रों को जाग्रत करके तदनुरूप मानव से महामानव बना जा सकता है। उनकी यह मान्यता प्रकारान्तर से तैत्तरीय उपनिषद् की उस आख्यायिक से मिलती है जिसमें पंचकोश अनावरण का उपदेश किया गया है।

ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक जार्जबर्नाडशा ने अपनी पुस्तक “मैन एण्ड सुपरमैन” में मानवी विकास के दर्शन का प्रतिपादन यिका है जो उसे दिव्यता की ओर ले जाता है। अरविंद के समकालीन दार्शनिक मार्टिन हेडेगर ने भी मनुष्य में देवत्व की कल्पना की है। अरविन्द जिसे नास्टिक बीइंग-अध्यात्म जीवी कहते है। हेडेगर ने उसे आथेन्टिक बीइंग अर्थात् प्रामाणिक जीव कहा है। उनके अनुसार पृथ्वी का रूपांतरण ही मनुष्य के सामने एकमात्र उपाय है। उर्दू के प्रसिद्धे शायद मुहम्मद इकबाल ने अपनी रचना “असरारेखुदी” और “बाले जिबरील” में अतिमानवकी कल्पना की है। उन्होंने इसके माध्यम से मनुष्य को आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ने को अभिप्रेरित किया हैं मनुष्य की पूर्ण विकसित अवस्था को उन्होंने ‘नायबे इलाही’ की संज्ञा दी है।

सुप्रसिद्ध दार्शनिक गुजजिएफ की गणना सिद्ध एवं संत पुरुषों में की जाती है। उनने भी अध्यात्मक जीवी के रूप में दिव्य-मानव का वर्णन किया है। उनका कहना है कि मनुष्य को चाहिए कि सबसे पहले वह अपने आपको पहचाने और अपना आध्यात्मिक विकास करके पूर्णता प्राप्त करें।उन्हीं के शिष्य पी0डी0 औस्पेंकी ने इसी संभावना को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ए न्यू माडेल ऑफ दी यूनिवर्स” में विशद रूप में गूढतकाँ के माध्यम से सिद्ध किया है।

वस्तुतः मनुष्य की चेतन क्षमता असामान्य एवं अनन्त हैं वह जैसा सोचता ओर करता है वैसा ही बन जाता है। उसकी विचारणा और कार्य करने की क्रिया पद्धति ने उसे इस वैज्ञानिक युग तक पहुँचाया है। अपनी अपूर्णता को पूर्ण करने के सभी साधन स्रष्टा ने उसे बीज रूप में सौंपे है। देव-मानव बनना ही उसका लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले अध्यात्म जीवित अति-मानव के लक्षण क्या होंगे? इस संदर्भ विभिन्न मनीषियों के अपने-अपने अनुमान अलग-अलग हैं। किसी का कहना है कि वह दानवी शक्ति सम्पन्न दीर्घ जीवन जीने वाला होगा तो किसी का मानना है कि वह अमर हो जायेगा। अन्यों की धारणा है कि वह स्वेच्छा मृत्यु का वरण करेगा। इस बारे में श्री अरविन्द की अपनी पृथक धारणा थी कि वह अमरता के लोक से आकर पृथ्वी पर स्वर्ग बसाने वाला अमरता का साकार रूप होगा। अपने प्रत्येक कार्य के पीछे वह प्रेरणाप्रद पर चिह्न छोड़ जायेगा जो भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक आधार स्तम्भ सिद्ध होंगे। ऐसे व्यक्ति की व्यष्टिगत चेतना समष्टिगत चेतना से एकाकार हो जायेगी और वह अपने में सब को तथा सब में अपने को देखने वाला तथा समस्त प्राणियों का हित साधना करने बन जायेगा। तब उसके भीतर न ईर्ष्या होगी न द्वेष, न कीर्ति की कामना ओर नहीं प्रभुत्व जमान-शासनं करने का लोभ होगा। वह स्वयं तो मुक्त होगा ही, अपनी नाव पर बिठाकर अन्य असंख्यों को भी भवसागर में पार लगायेगा, पूर्णता तक पहुँचायेगा।

मानवी विशेषता में उसके अतिचेतन स्तर सुप्रामेण्टल को ही दैवी विभूति माना गया है। वह उसे प्रचुर परिमाण में उपलब्ध भी है, पर कषाय कल्मषों से आच्छादित होने के कारण प्रसुप्त स्थिति में पड़ी है। अन्तःचेतना की इस उत्कृष्टता को ऋषियों महामानवों सिद्धपुरुषों में से प्रत्येक को किसी न किसी प्रकार अर्जित करना ही पड़ेगा।

बलिष्ठता के लिए व्यायाम, विद्वता के लिए अध्ययन, उपार्जन के लिए पराक्रम की जिस प्रकार आवश्यकता है, उसी प्रकार नर से नारायण, मानव से अतिमानव-देवमानव बनने के लिए उच्चस्तरीय योग साधना का स्वरूप समझने तथा उनका सही रूप में प्रयोग करने की दिशा में कदम बढ़ाना अनिवार्य है।

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