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Magazine - Year 1992 - Version 2

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पंच प्राण, पाँच-अग्नियाँ एवं पंचकोश

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भारतीय संस्कृति मानव को चेतना का समुच्चय मानती है तथा उसके उच्चतम विकास की संभावनाएँ बताती है। गायत्री देव संस्कृति का प्राण है-मेरुदण्ड है। समस्त साधना-पद्धतियों का समावेश गायत्री साधना में है। ऋषियों ने उच्चस्तरीय साधना के लिए गायत्री को अलंकारिक रूप में पाँच मुखों वाली बताया है तथा इस माध्यम से सूक्ष्म शरीर के पाँच कोशों की प्रसुप्त क्षमता को जगाने और इस महाविद्या का समुचित लाभ उठाने की बात कही गयी है। कायसत्ता की चेतन प्रयोगशाला में अनुसंधान करने वाले ऋषिगणों ने जीवात्मा के कायकलेवर को अपनी दिव्य दृष्टि से पाँच भागों में विभक्त माना है। ये हैं अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश अर्थात्-जखीरा, भण्डार, खजाना। सारी प्रसुप्त क्षमताएँ-अस्तित्व की पाँच भूमिकाएँ इनमें छिपी पड़ी हैं। कोश का एक अर्थ आवरण या पर्दा भी होता है। परतें उठाते-आवरण हटाते चलने पर जीवसत्ता का “रसोवैसः” वाला कारण शरीर प्रधान आनन्दमय कोश वाला स्वरूप सामने आता है। इसके हटते ही पंचकोश जागरण की पंचकोशी जागरण साधना संपन्न हो जाती है तथा व्यक्ति ब्रह्म से, परमसत्ता से आत्म साक्षात्कार कर लेता है।

ऋग्वेद में इन पंचकोशों को पाँच ऋषियों की संबा दी गयी है व कहा गया है कि वे जीवन्त स्थिति में ही सारे जीवन उद्यान को पवित्र-सुरम्य बना सकते हैं।

अग्निऋषिः पवमानः पाँचजन्यः पुरोहितः।

तमीमहे महागयम् ( ऋग्वेद 9/66/20) अर्थात्- यह अग्नि ऋषि है । पवित्र करने वाली है। पंचकोशों की मार्गदर्शक है। इस महाप्राण की हम शरण में जाते हैं। छान्दोग्योपनिषद् का मनीषी इन पाँच कोशों को स्वर्गलोक के पाँच द्वारपाल बताता है, जिन्हें प्रसन्न (सिद्ध) कर लेने पर ब्रह्मपुरुष तक पहुँचना संभव हो जाता है (तेषां एते पंच ब्रह्म पुरुषा स्वर्गस्य, लोकस्य, द्वारपालस्य, एतानेकं, पंच ब्रह्मपुरुषात्) वहरीं प्रश्नोपनिषद् में जिज्ञासु नचिकेता को यमाचार्य पंचाग्नि विद्या का रहस्यमय उपदेश देते हुए कहते हैं कि यही पाँच अग्नियाँ अंतः क्षेत्र में पंचकोशों के रूप में -पंच प्राणों के रूप में प्रज्वलित रहती हैं “( प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति” ---4/3) । श्री दैवी भागवत तो पंचकोशी साधना के महात्म्य से भरा पड़ा है-

पंचप्राणाधिदेवी या पंचप्राण स्वरूपिणी॥ प्राणाधिक प्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरीपरा॥ 36॥

अर्थात् - “पंच प्राण इसी पंचकोश सम्पदा के पाँच स्वरूप हैं। प्राणों की अधिष्ठात्री देवी वही हैं। वे सर्वांग-सुन्दरी हैं, पराशक्ति हैं। भगवान को प्राणों से भी प्यारी हैं।” ऐसी साधना कितनी महात्म्य भरी होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है। पंचकोशी साधना का विधान पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है।

एक बात बड़ी स्पष्ट समझ ली जानी चाहिए कि चेतना का विशाल महासागर मानव की अन्वेषण बुद्धि की बोध की परिधि में आने वाला आभास भर है । बोध रूपी यह चतुर्थ आयाम मानव मेधा को उस परोक्ष जगत की एक झलक भर देता है, समग्र सम्पूर्ण जानकारी नहीं । चौथे आयाम सम्बन्धी विभिन्न वैज्ञानिक खोजें ऐसा आश्वासन अवश्य दिलाती हैं कि प्रगति क्रम में क्रमशः वह विधा खोज निकाल ली जाएगी जिससे और भी गहरे प्रवेश कर चेतना की सूक्ष्म परतों का रहस्योद्घाटन संभव हो सके । अभी लेसर एवं होलोग्राफी के आविष्कार ही अपनी चमत्कृतियों के रूप में वैज्ञानिकों को हतप्रभ कर रहे हैं तो चतुर्थ आयाम तो उन्हें मनुष्य की सूक्ष्म आध्यात्मिक संरचना के सम्बन्ध में बहुमुखी जानकारी दे सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।

पंचकोश सूक्ष्म हैं। सूक्ष्म अर्थात्-अप्रत्यक्ष-अदृश्य। किन्तु इस प्रकार की व्याख्या प्रत्यक्षवादी भौतिक विज्ञान को मान्य नहीं हैं। वे ऐसे प्रतिपादनों को काल्पनिक और अप्रामाणिक मानते हैं । अस्तु। प्रत्यक्षवादी अध्यात्म विज्ञान ने शरीर संरचना विज्ञान के अनुरूप ही पंचकोशों के प्रभाव क्षेत्र और परिणामों को देखते हुए प्रत्यक्ष शरीर में पंचकोशों की उपस्थिति बतायी है और उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव में आ सकने योग्य कहा है।

अन्नमय कोश की चमत्कारी हारमोन ग्रन्थियों से, प्राणमय कोश की जैव विद्युत संस्थान से , मनोमय कोश की जैव चुम्बकत्व से, विज्ञानमय कोश की न्यूरोह्यूमरल रस स्रावों (स्नायु रसायन ) से तथा आनन्दमय कोश की मस्तिष्क मध्य अवस्थिति रेटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम रूपी विद्युत् स्फुल्लिंगों के फव्वारे से संगति बिठायी जाती है। वस्तुतः ये सभी घटक स्थूल जान पड़ते हुए भी जादुई क्षमताओं से भरे पूरे हैं। इनकी कार्य पद्धति और परिणति वैसी सीधी सादी नहीं है जैसी कि पाचन तन्त्र, श्वसन तन्त्र आदि की होती है। इन केंद्रों को यदि उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाय, उनके उत्कर्ष का उपाय विदित न हो तो बात दूसरी है। अन्यथा व्यक्ति इन्हीं के सहारे उन ऋद्धि-सिद्धियों का अधिष्ठाता बन सकता है जो प्रत्यक्ष हैं, जो सामान्य को असामान्य बनाती हैं।

व्यक्ति की सूक्ष्म सत्ता का वर्गीकरण, तीन शरीरों के रूप में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों में किया जाता रहा है। आत्मिकी की व्याख्यानुसार अन्नमय एवं प्राणमय कोशों का समुच्चय ही स्थूल शरीर है। हारमोन ग्रंथियों से स्रवित जादुई सूक्ष्म द्रव्यों एवं बायो इलेक्ट्रीसिटी की चमत्कारी क्षमताओं से भरी यह काया कितनी विलक्षण करने पर उपलब्ध होने वाली सिद्धियों से मिलता है। मनोमय कोश जैव चुम्बकत्व का भाण्डागार है। यह प्रभामण्डल के रूप में मनुष्य के चारों ओर तेजोवलय का घेरा बनाता है। साइकिक हीलिंग, सम्मोहन की प्रभाव सामर्थ्य एवं शक्ति हस्तान्तरण के रूप में इसकी परिणतियाँ देखी जा सकती हैं। इसे सूक्ष्म शरीर का पर्यायवाची माना जा सकता है। यही थियोसॉफिस्टों द्वारा बतायी गयी मेण्टल बॉडी है जो अपनी प्राण शक्ति की सामर्थ्य से दूसरों को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है।

कारण शरीर विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश का सम्मिलित रूप माना जा सकता है। स्नायु समुच्चय के सन्धि स्थलों (सिनेप्सों) से सुषुम्ना, मस्तिष्क एवं ऑटोनॉमिक नर्स सिस्टम के भिन्न-भिन्न महत्वपूर्ण केन्द्रों पर स्रवित होने वाले स्नायु रसायनों ( न्यूरो ह्यूमरल सिक्रीशन्स ) एवं थेलेमस मध्य स्थित रेटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम को क्रमशः विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोशों का प्रतीक रूप माना जा सकता है। यह सारी संरचना इतनी जटिल किन्तु विलक्षण सामर्थ्यों से भरी परी है कि उनकी स्थूल प्रतिक्रिया मात्र वैज्ञानिकों को हतप्रभ कर देती है। जब योग साधना का अवलम्बन लेकर सूक्ष्म प्रयोगों द्वारा उनमें हलचल उत्पन्न की जाती है तो इसके परिणाम तो और भी अद्भुत एवं रहस्यमय होंगे। अभी तक जितना भी कुछ वैज्ञानिक इस सम्बन्ध में जान पाए हैं, वह जानकारी अध्यात्म को विज्ञान सम्मत बनाने के पक्षधर विद्वत् जनों को उत्साहित करने में सफल रही है।

काया के इस सूक्ष्म ढाँचे का विवेचन अन्नमय कोश से ही प्रारम्भ होता है। स्थूल शरीर की सूक्ष्म विशेषताओं एवं दृश्यमान विलक्षणताओं के लिए उत्तरदायी वस्तुतः इसी संस्थान में छिपे घटक हैं। नगण्य सी रसायन की बूंदें कैसे परिवर्तनकारी हलचलें उत्पन्न कर समग्र काया को क्या से क्या बना सकती है, इसे इस संस्थान में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

जो कुछ भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, उसका कारण तो शरीर संरचना व क्रिया पद्धति से तालमेल बिठाते हुए कहीं न कहीं जोड़ लेते हैं । ऐसे कई अद्भुत, रहस्यमय, परिवर्तन होते हैं जिनकी संगति रासायनिक हलचलों से बैठती प्रतीत नहीं होती। वस्तुतः इन रहस्यों की कुँजी सूक्ष्म शरीर से अवस्थित होने के कारण ही प्रत्यक्षवादी विज्ञान कुछ कह पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। हारमोन्स को ही लें तो लिंग निर्धारण के साथ ही स्वाभाविक पुरुषोचित दृढ़ता, पुँसकत्व, स्त्रियोचित कोमलता एवं कामोल्लास की व्यक्ति-व्यक्ति में पायी जाने वाली न्यूनाधिकता इत्यादि का मूलभूत कारण क्या है, यह शीघ्र समझ में आता नहीं। व्यक्तित्व का आमूल-चूल कलेवर इन सूक्ष्म रस स्रावों पर निर्भर है। शरीर विज्ञानी तो इनकी असामान्यता को पैथालॉजी के स्तर पर ही समझ पाए हैं। फिजियोलॉजी की परिधि में बने रहकर स्वेच्छा से किन्हीं योग साधनाओं के अवलम्बन से वाँछित परिवर्तन सम्भव कैसे हो जाता है, इसका समाधान चिकित्सा विज्ञानियों के पास नहीं है।

पीनियल, पिट्यूटरी, थाइराइड, पैराथाइराइड, थाइमस एड्रीनल एवं गोनेड्स के नाम से जाने-जाने वाले ये सात ग्रन्थि समूह जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी भिन्न-भिन्न परस्परावलम्बित भूमिका निभाते रहते हैं। इन जादुई ग्रन्थियों द्वारा ही व्यक्तित्व के उतार-चढ़ाव स्वभाव, दृष्टिकोण इत्यादि का निर्धारण होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रह्मांडीय चेतना सूक्ष्म रूप में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करती हैं एवं व्यक्तित्व की विविध क्षमताओं को उभारने में सहायक भूमिका निभाती है। आवश्यक हारमोन्स को बढ़ाना एवं अनावश्यक को कम करना अन्नमय कोश की साधना द्वारा सम्भव है ऐसा योगवेत्ताओं का मत है।

बायो इलेक्ट्रिसिटी एवं प्राणमय कोश या “इथरीक डबल” की परस्पर संगति समझने के पूर्व जैव विद्युत के सम्बन्ध में कुछ प्राथमिक तथ्य समझ लेना जरूरी है। इसे उस जैव चुम्बकत्व से भी कुछ हटकर समझना चाहिए जो प्रभा मण्डल बनाता एवं मनोमय कोश से संबन्धित माना जाता है। यों शरीर में विज्ञान सम्मत ताप , प्रकाश, चुम्बक, विद्युत, ध्वनि, एवं यान्त्रिक छहों ऊर्जाओं के प्रमाण भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न रूपों में पाये जाते हैं किन्तु प्राणमय कोश को समझने के लिए उसे जैव विद्युत से भली-भाँति जोड़ते हुए समझा जाना चाहिए।

शरीर के लगभग सभी ऊतक, जीवकोश, प्रबल स्थायी विद्युत ऊर्जा सम्पन्न पाये जाते हैं। यहाँ तक कि यही सब मिलकर मस्तिष्क रूपी प्रधान कम्प्यूटर का नियन्त्रण सुसंचालन भी करते हैं। लगभग बीस मिली वोल्ट का स्थायी विद्युत् क्षेत्र तो मस्तिष्क की बाह्य परत के आरपार स्थायी रूप से पाया जाता है। शरीर में स्थायी रूप से चल रहे अनेकों चक्रों, जो रासायनिक, चयापचय (केमिकल मेटाबॉलिज्म) की प्रक्रिया निर्धारित करते हैं की तरह एक विद्युत चक्र भी चलता है जो रसायनों से बनी काया के सजीव या निर्जीव होने का कारण बनता है। ऑक्सीजन हम श्वास से भीतर सोखते व कार्बनडाइ आक्साइड प्रश्वास द्वारा प्रदूषित वायु के रूप में बाहर निकालते हैं । यह ऑक्सीजन जितनी देर शरीर में परिभ्रमण करती है ऋण आयनों द्वारा जीवकोशों को ऊर्जा प्रदान करती है। लगभग इसी प्रकार वायुमण्डल में संव्याप्त विद्युत् आवेश को हर व्यक्ति फेफड़ों एवं त्वचा के मार्ग से अवशोषित करता है। वातावरण में विद्युत विभव सौर ऊर्जा, कास्मिक किरणों और भूमंडल की स्वाभाविक रेडियोधर्मिता से विनिर्मित होता है। ये सूक्ष्माणू ऋण विभव धारण किए होते हैं एवं वायुमण्डल में 5 वोल्ट प्रति मीटर के औसत से आयनोस्फियर की निचली परत में विद्यमान होते हैं। मानव शरीर में प्रवाहित विद्युतधारा लगभग दस पीको एम्पीयर की ताकत की होती है। इस अल्प मात्रा में प्रवाहित विद्युत की सामर्थ्य कितनी प्रचण्ड होती है, यह सहज ही जाना नहीं जा सकता।

शरीर में लगभग पिचहत्तर हजार अरब, कोश हैं एवं सभी में विद्युत ऊर्जा विद्यमान है। प्रत्येक कोशिका के आस-पास 60 से 90 मिली वोल्ट का विद्युत विभव पाया जाता है। हर सेल एक बैटरी है व सम्पूर्ण शरीर इनका समुच्चय। हर सेल एक विद्युत सन्धारक (कैपसीटर) है एवं सम्पूर्ण शरीर एक समग्र कंप्यूटराइज्ड उपकरण। लगभग एक से. मी. कन्डक्टर या इन्टीग्रटेड सर्किट (आय. सी.) के समकक्ष हर कोश झिल्ली मानवी काया को विद्युत् भण्डार का स्वरूप दे देती है। त्वचा, जननेन्द्रिय, आँखों व चेहरे से यह विद्युत् ऊर्जा निरन्तर उत्सर्जित होती रहती है। त्वचा पर प्रतिरोध मापन (जी. एस. आर.) के माध्यम से इस उत्सर्जन को मापा जा सकता है। हृदय की विद्युत को इ. सी. जी. मस्तिष्कीय विद्युत को ई. ई. जी व डीप डी. सी. ब्रेन पोटेन्शियल्स के द्वारा तथा आँखों की विद्युत को इलेक्ट्रोनिस्टेग्मों व रेटीनोग्राम से मापा जाता है। माँस पेशियों की विद्युत इलेक्ट्रोमायोग्राम द्वारा मापी जा सकती है एवं नाक व होठों की विद्युत को इलेक्ट्रोनेजोलेबियोग्राम द्वारा मापा जा सकना सम्भव है। प्राण शक्ति का यह समुच्चय ही प्राणमय कोश की संरचना करता है। इसमें आने वाली कमीवेशी ही व्याधि का कारण बनती है। समय-समय पर आग के शोले फूटने की तरह शरीर से ज्वाला-चिनगारियाँ निकलने स्वतः जलन (ऑटोकम्बशन) के रूप में इनके प्रमाण भी देखे जाते हैं। अध्यात्म प्रयोजनों में यह ऊर्जा जीवनी शक्ति का संचय करने एवं अधोगामी प्रवाह को रोककर ऊर्ध्वगामी बनाने की भूमिका निभाती है। क्षरित विद्युत जब सत्प्रयोजनों में नियोजित होती है तो प्रसुप्त सामर्थ्य, संकल्प बल, इच्छा शक्ति को जगाकर असम्भव कार्य कर दिखाती है। इसका छोटा सा रूप सिद्धियों के रूप में देखा जाता है। जबकि यह जल के ऊपर दिखाई देने वाला हिमखण्ड का एक टुकड़ा मात्र है। जो मूलभूत सम्पदा है, वह विराट् है, अक्षय हैं। प्रश्न केवल सुनियोजन का है।

मनोमय कोश मानवी चुम्बकत्व (बायोमैग्नेटिज्म) के रूप में विद्यमान होता है जो प्रभा मण्डल, सम्मोहन, साइकिक हीलिंग (आध्यात्मिक मनश्चिकित्सा) शक्ति संचार इत्यादि आध्यात्मिक विभूतियों के रूप में अपने अस्तित्व का परिचय देता रहता है। क्वाण्टा के ब्रह्माण्डव्यापी महासागर में चुम्बकीय बल का ही आधिपत्य है। जिसके बलबूते ये ग्रह नक्षत्र परस्पर सन्तुलित क्रियाशील दिखाई देते हैं। चुम्बकीय ऊर्जा मानवी काया में उसी तरह ध्रुवीकरण रूप में विद्यमान है जैसे कि पृथ्वी के दो ध्रुवों में। एक चुम्बक डायपोल (द्विध्रुवीय मैग्नेट) होता है जिसमें उत्तरी व दक्षिणी दो सिरे होते हैं। एक उत्तरी सिरा ग्रहण करता है व दूसरा दक्षिणी सिरा चुम्बकीय बल निस्सृत करता है यह एक प्रकार का “इलेक्ट्रोमैग्नेटिक डायपोल” है। मानवी काया में शुक्राणु की सत्ता का आधिपत्य जमते ही डिम्ब में ध्रुवीकरण प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है एवं यही सारे शरीर के 75 हजार अरब कोशों में इस चुम्बकत्व को फैलाती है। मूलतः यह चुम्बकत्व की शक्ति शरीर के दो ध्रुवों-स्थायी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक डायपोल की तरह सुषुम्ना के मूलाधार रूपी दक्षिणी एवं सहस्रार रूपी उत्तरी ध्रुव के रूप में विद्यमान होती हैं।

पृथ्वी के धुरों पर उसका चुम्बकीय क्षेत्र (मैग्नेटोस्फीयर) सौर हवाओं से टकराकर “ध्रुव प्रभा” (अरोरा बोरिएलिस) बनाता है। ठीक इसी प्रकार मानवी चुम्बकत्व अपने उत्तरी ध्रुव पर आभा मण्डल के रूप में विराजमान होता है। आज सम्पन्न मनीषी इसी के सहारे अन्यान्य मनुष्यों की अन्तश्चेतना को परखते व प्राण सम्बल प्रदान करते रहते हैं। डा. किलनर ने इसे “आरा” के रूप में मापा व किर्लियन फोटोग्राफी के सहारे उँगलियों की पोरों से उत्सर्जित होता पाया। शक्तिपात, प्राण संचार, अध्यात्म चिकित्सा, आशीर्वाद इन्हीं प्रक्रिया के सहारे चुम्बकत्व की मात्रा अधिक रखने वाले अन्यान्यों को लाभान्वित करते देखे जाते हैं। मनोमय कोश को साधने में ध्यान योग एकाग्रता की प्रधान भूमिका है। इच्छा शक्ति के चमत्कार इसी अर्जित जैव चुम्बकत्व की सामान्य से अधिक की मात्रा के बलबूते बन पड़ते हैं।

विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोश अन्तश्चेतना के गहन अन्तराल में निहित वे दिव्य संरचनाएँ हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध ब्राह्मी चेतना से होता है। स्थूल पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से तत्त्ववेत्ताओं ने विज्ञानमय कोश की स्नायु रसायनों (न्यूरोहूयमरल सिक्रीशन्स) से तथा आनन्दमय कोश की थैलेमस मध्य मस्तिष्कीय फव्वारे “एसेण्डिन्ग रेटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम” से संगति बिठाने का प्रयास किया है। दोनों ही संरचनाएँ स्वयं में जटिल व बड़ी रहस्यमय हैं।

विज्ञान का अर्थ है कामकाजी नहीं-विशिष्ट ज्ञान। असामान्य प्रज्ञा, प्रतिज्ञा को उभारने वाली परत निस्सन्देह विलक्षण होती है। यह कार्य उन “न्यूरो ट्राँसमीटर्स “ के जिम्मे आता है जो सामान्य अवस्था में तो सिनेप्सों पर स्नायु संचार भर की भूमिका निभाते हैं किन्तु उत्तेजित किए जाने पर प्रसुप्त केन्द्रों विलक्षण प्रतिभा केन्द्रों को भी जगाने की सामर्थ्य रखते हैं। एसीटाइल कोलीन, मार्फीन, सलेक्टीव ओपिएट्स (एण्डार्फिन्स) एन्केफेलीन, एडीनोसिस समूह , गाबा समूह, सिरोटोनिन (5.भ्ज्) अन्फा एड्रीनजिक एवं मस्केरीनिक कोलोनर्जिक समूह के नाम से ये सारे मस्तिष्क एवं स्नायु तन्त्र में से एक भाग का प्रतिनिधित्व करने वाले ये सूक्ष्म रसायन मन की अचेतन, चेतन व सुपर चेतन परतों के उत्तेजन द्वारा विलक्षण प्रतिभाओं , आविष्कार बुद्धि, स्वप्नों के माध्यम से सन्देश आदि के रूप में अपनी सक्रिय बना कर अतीन्द्रिय क्षमताओं का धनी एवं विलक्षण आनन्द की अनुभूति कर सकने में समर्थ योगी बना जा सकता है। आनन्दमय कोश एवं सहस्रार चक्र परस्पर अन्योन्याश्रित सूक्ष्म संरचना संस्थान के दो नाम हैं जो रेटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम के रूप में मस्तिष्क के भिन्न-भिन्न केन्द्रों को जाते हैं। चेतना की उच्चतर स्थितियाँ इसी विद्युत् स्फुल्लिंग छोड़ते रहने वाले फव्वारे की सक्रियता पर निर्भर हैं। जो महत्व स्नायु रसायनों का है, उससे अधिक इस संस्थान का है जो मनश्चेतना की भिन्न-भिन्न स्थितियों के लिये उत्तरदायी है। वाणी से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न केन्द्र (विजुअल, आडीटरी, स्पोकन, वीक्षण, दिक्-काल में सामंजस्य, भूतकाल की स्मृतियाँ आदि सभी मस्तिष्क में कैद हैं। दाहिना मस्तिष्क व उसका पैराइटल कॉर्टेक्स, दोनों को जोड़ने वाला कार्पस कैलोसम तथा लिम्बिक सिस्टम विभिन्न विलक्षणताएँ अपने अन्दर समाए हुए हैं। अभी तो मात्र 7 से 13 प्रतिशत इस पूरे समुच्चय का भाग वैज्ञानिकों को ज्ञात है। जब शेष प्रसुप्त की जाग्रति-आनन्दमय कोश के जागरण की फलश्रुतियों से वे परिचित होंगे तो मानवी असीम सामर्थ्य एवं ऋद्धि-सिद्धियों के प्रत्यक्ष रूप को देख हतप्रभ हो रह जाएँगे। बहुत कुछ विलक्षण इस उत्तरी ध्रुव केन्द्र में छिपा पड़ा है। गायत्री की उच्चस्तरीय प्राण ‘साधना कुण्डलिनी जागरण की विधि, व्यवस्था, शिव शक्ति का संगम यहीं बन पड़ता है। मानव के भाव पक्ष को उभारने एवं उसे महामानव-अतिमानव बनाने का पुरुषार्थ यहीं सम्पन्न होता है। भक्ति और शक्ति के समन्वय का प्रतीक आनन्दमयकोश बहुत कुछ रहस्यों को अपने अन्दर समाए हुए हैं।

ऋषियों के निर्धारणानुसार पंचकोश साधना में जप, तप, ध्यान, प्राणायाम, बंध, मुद्रा आदि का प्रयोग करना पड़ता है। इसके राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग, ऋतुयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, तत्वयोग आदि 84 योगों के आधार पर अनेकानेक व्यायाम क्रम बताये गये हैं साधक उन्हें अपनी परम्परा एवं पात्रता के अनुसार अपनाते हैं। इन सब साधनाओं में ज्ञान और कर्म से सम्मिश्रित तत्वयोग की साधना है जिसमें स्वाध्याय, सत्संग और चिन्तन-मनन के माध्यम से आत्म-शोधन करते हुए आदर्श कर्मनिष्ठा का अवलम्बन लिया जाता है और लक्ष्यपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ा जाता है। निश्चित ही यह साधना व्यक्ति को देवमानव ऋषि के पद पर प्रतिष्ठित करती व उसे ऋद्धि सिद्धियों का स्वामी बनाती है।

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  • कर्म कब पाप बनता है, कब पुण्य ?
  • पाप के परिमार्जन हेतु प्रायश्चित का तप विधान
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  • सामूहिक आध्यात्मिक पुरुषार्थ की प्रभावोत्पादकता
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  • सारे जीवन को यज्ञमय बनाती है,आर्य संस्कृति
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  • यज्ञविधा : एक सर्वांगपूर्ण उपचार प्रक्रिया
  • ब्रह्मवर्चस के शोध प्रयोजनों की एक झलक
  • गुरु-शिष्य के अंतर्संबंधों पर टिकी संस्कृति चेतना
  • आत्म साधना हेतु उपयुक्त वातावरण अनिवार्य
  • अपनों से अपनी बात - साधना सूत्रों का सरलीकरण करने वाली युगऋषि की दिव्यसत्ता
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