
कर्म कब पाप बनता है, कब पुण्य ?
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संस्कृति और साधना-दोनों एक दूसरे से गहराइयों में जुड़ी आपस में घुली-मिली हैं। एक के बारे में सोचते ही, दूसरे का स्वरूप उभरने लगता है। साधना की प्रक्रिया अपने परिणाम में संस्कृति निखारने लगती है। जड़ वस्तुएँ हों, या चेतन प्राणी प्रकृतितः वे अनगढ़ होते हैं। उन्हें गढ़ने, सुघड़, सुन्दर, प्रकृष्ट, उत्कृष्ट बनाने के लिए प्रयास करने होते हैं। अनायास ही उनका संस्कार सम्पन्न सुसंस्कृत-समुन्नत हो सकना सम्भव नहीं होता । वस्तुएँ या धातुएँ पकाई गलाई ढाली खरीदी जाती हैं और संशोधन संस्कार की इस सुदीर्घ प्रक्रिया द्वारा ही वे सुन्दर उपयोगी बन पाती हैं। प्राणियों की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं वन्य मुक्त पशुओं को पालतू बनाना यों ही सम्भव नहीं हुआ है। उनकी प्रकृति में प्रयास पूर्वक परिवर्तन लाना पड़ता है। तब वे मनुष्य के साथ सहज हो रहे सकने का स्थिति में आ पाए हैं। उनको सरकस जैसे विशेष प्रयोजनों के उपयुक्त बनाने के लिए तो और अधिक कठोर, सतर्क, सजग प्रशिक्षण-दक्ष-पशु पक्षी स्वयं भी श्रेय सम्मान के पात्र बनते हैं और पालने वाले को भी लाभ पहुँचाते हैं। मनीषी अनिर्वाण की पत्रावली के पृष्ठ उलटें तो पता लगता है- मानव को वर्तमान स्थिति तक आने के लिए स्वयं में असंख्य अगणित परिवर्तन करने पड़े हैं। उसके द्वारा अपनाई गयी परिष्कार-प्रशिक्षण संस्कार की प्रक्रिया अनगढ़ को गढ़ने की साधना ही सभ्यता और संस्कृति की पहचान बन सकी है।
स्वयं की असीम साधनात्मक सम्भावनाओं के कारण मानव संस्कृति सिरमौर, ईश्वर का राजकुमार है। निरन्तर अग्रगमन, आरोहण-उत्कर्ष ही तो उसके गौरव योग्य कार्य हैं। मानवीय गरिमा सतत् अभ्युदय में उत्थान में ही तो है। पशु प्रवृत्तियों में ही लिप्त रहना मनुष्य का कोई महिमानव लक्षण कैसे कहा जा सकता है ?
यदि मनुष्य की कोई विशेषता हो सकती है तो वह आत्म साधना की बलवती सामर्थ्य ही है। चिन्तन और चरित्र के क्षेत्र में उसी के द्वारा श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति सम्भव है। दूसरे प्राणी न तो किन्हीं आदर्शों के प्रति समर्पित होना जानते न ही अन्तः प्रेरणा से स्वयं को मर्यादित अनुशासित करना । इन दायित्वों का बोध और निर्वाह ही इंसान की विशेषता हो सकती है। शील परमार्थ परायणता और कर्मठता से युक्त, चारित्रिक, भावनात्मक, वैचारिक, उत्कृष्टता का वरण ही मनुष्य संबा मानवी विशेषता को सार्थक करता है। मानव देह के साथ जो सौभाग्य विशेष रूप से जुड़ा है वह आदर्शवादिता के अवलम्बन के द्वारा अर्जित उपलब्धियों के रसास्वादन का सौभाग्य ही है। इस कोटि की रसानुभूति, मूल्यानिष्ठता आत्मपरायणता से उत्पन्न आनन्द की अनुभूति अन्य प्राणियों ने नहीं पायी जाती।
यह विशेषता ही मनुष्य शरीर में देवत्व का उन्मेष उत्कर्ष बनकर नजर आने लगती है। व्यक्तित्व के उच्चस्तरीय उन्नयन की स्थिति यही है। जिसमें प्रसुप्त देवत्व अधिकाधिक मात्रा में उभरता-उमगता चला जाय और महामान, सन्त, ऋषि, देवात्मा, अवतार के क्रमिक सोपानों पर वह चढ़ता चला जाय। जब गुण कर्म, स्वभाव में देवत्व का दिव्यता का अनुपात अनवरत बढ़ता ही जाय और उसके फल स्वरूप आत्मसन्तोष तथा ईश्वरीय अनुग्रह सहज ही प्राप्त होता रहे। शास्त्रों में इसी सौभाग्यपूर्ण स्थिति को आत्म साक्षात्कार ईश्वर दर्शन जीवन-मुक्ति स्वर्ग उपलब्धि अद्वैत सिद्धि के रूप में विस्तार से वर्णित किया गया है। साँस्कृतिक ज्ञान कोश का सृजन इसी हेतु हुआ। तत्व विवेचना साधना का विशाल कलेवर, सूक्ष्मदर्शी ऋषि-मनीषियों ने इसी उद्देश्य से तैयार किया ताकि वह प्रखर प्रकाश स्तम्भ बनकर मानवीय प्रगति का मार्गदर्शन करता रह सके। उस प्रकाश में मनुष्य अपनी चेतना का निरन्तर परिष्कार करता रहे व्यक्तित्व को लगातार विकसित करता रह और उसी केन्द्र से जुड़े वैयक्तिक सुख-सन्तोष तथा सामाजिक सुरक्षा-सुविधाओं का सम्पूर्ण आधार सुदृढ़ बना रहे यही मनीषी पूर्वजों का दृष्टिकोण था।
इतने व्यापक और चमत्कारी परिणामों वाली साधना को करने के लिए किसी का आतुर हो उठना सहज है। लोग होते भी हैं। भूखे रहने, एक गाँव के बल खड़े होने, कील-कीटों की शय्या पर लेटने, समाज को उपेक्षित-तिरस्कृत कर कही एकान्त में पलायन कर जाने जैसी अनेकानेक क्रियाएँ साधना के नाम पर होती देखी जा सकती हैं। तब क्या इन्हीं की बदौलत वैदिक ऋषि चमत्कारी सामर्थ्य हस्तगत करने देवोपम संस्कृति का निर्माण करने में सफल हुए ? मनीषी ओल्डेन वर्ग के चिन्तनकोश ‘वैदिक सेज एण्ड हिजे कल्चरे’ के पृष्ठों में इस प्रश्न का उत्तर एक शब्द में मिलता है-नहीं उनके अनुसार भभसाधना कर्म के तत्व का ज्ञान और उसकी सामर्थ्य का सही सुनियोजन है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसी को योगः कर्मसु कौशलम्य कहकर सूत्र बद्ध करते हैं।
कर्म ? अपने आप में विलक्षण पहेली है। कब यह पाप बनता है-कब पुण्य? कब यह ताप और योग का बाना पहनकर स्वर्ग की सृष्टि करता है? कब इसके परिणाम यम के दण्ड विधान और नर्कवास के रूप में सामने आएंगे? इन प्रश्नों का सही उत्तर न खोज पाने के कारण हममें से अनेक क्या करें? क्या न करें? के चक्रव्यूह में फँसकर न जाने कितनी व्यथा-वेदना सहने के लिए विवश होते हैं। ऐसा भी नहीं कि कर्म करने से बचा जा सके। गीताकार के शब्दों में कहें तो नहि कष्चित्क्षणमति जातुः तिश्ठत्यकर्मकृत्य एक क्षण भी काम किए बिना नहीं रहा जा सकता। शरीर और मन की हरकतें सोते-जागते किसी न किसी रूप में हमेशा होती रहती हैं।
धर्म शास्त्री जान पेरी के ग्रन्थ एक्षनः इट्स एनालिसिसय के अनुसार सोचें तो किसी भी क्रिया के साथ दो चीजें अनिवार्य रूप से जुड़ी होती हैं-भाव और विचार। इनकी उत्कृष्टता और निकृष्टता अपने स्वरूप के आधार पर दो परिणाम प्रस्तुत करती हैं गौरव बुद्धि और आत्मग्लानि। एक में हमारा व्यक्तित्व समग्र बनता-ईश्वरीय सत्ता से अपना तादात्म्य बिठाता है। दूसरे में हमारा अस्तित्व टुकड़े-टुकड़े होकर पशुता के गर्त में गिर जाता है। मनुष्य शरीर धारण करने के बावजूद नरपशु नरपिशाच बनने के लिए विवश होते हैं।
दर्शनशास्त्री काष्ट की उलझन का समाधान यही है। लेकिन गौरव बुद्धि उन्हीं कामों में जाग्रत हो सकती है जो हमारी आत्म चेतना को समग्र बनाकर ईश्वरोन्मुख करने वाले हैं। जिन्हें सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो। उदाहरण के लिए कोई चोरी, डकैती, व्यभिचार, हत्या आदि नृशंस-बर्बर काम करके स्वयं को गौरवान्वित नहीं अनुभव कर सकता। दूसरों के सामने बाहरी तौर पर वह कितना ही कुछ क्यों न कहता फिरे पर अंतर्मन में उसे ग्लानि, कुण्ठा, हीनता की चोट सहनी पड़ेगी। क्योंकि प्रश्न समाज के सामूहिक मनका है-जिसका विरोध किसी भी एकाकी मन के द्वारा सम्भव नहीं।
यदा-कदा हमें इसके अपवाद देखने को मिलते हैं पर वे अपवाद दीखते भर हैं, होते नहीं। जैसे लड़ाई के मोर्चे पर किसी सिपाही द्वारा शत्रुओं से जूझने उन्हें पराजित करने का कार्य प्रत्यक्ष में नृशंस लगने पर भी यथार्थ में करुणा और सहृदयता से प्रेरित है। उसके पीछे अनेकों दुर्बलों की रक्षा करने, राश्ट्र की अस्मिता को बचाने का भाव है। यही गौरव बोध उसे पुण्यात्मा बनाता आत्मचेतना को विकसित करने में सहायक बनता है।
कौन सा काम गौरव बोध जाग्रत करेगा? इसका उत्तर है-जिसके पीछे स्वार्थ और अहं की प्रेरणा न हो। जो काम लोकादर्श की रक्षा करने के लिए, भगवान के प्रति समर्पित होकर किए जाते हैं। वे छोटे हों या बड़े उनमें से प्रत्येक का परिणाम-पुण्य जीवन में स्वर्ग की सृष्टि के रूप सामने आता है। स्वर्ग और कुछ नहीं हमारा परिमार्जित परिशोधित मन है। यह कथन सिर्फ अलंकारिक सत्य नहीं साधना जगत का गुह्य रहस्य है, जिसे कोई भी सुपात्र अनुभव कर सकता है। मनुष्य जहाँ व्यष्टि है वहीं विराट भी है। वह स्वयं में जब जैसा होता है, चेतना के उन्हीं स्तरों, शक्तियों की अनुभूति उसे होती रहती है। शरीर के स्तर पर की गई साधना उसे पार्थिव चेतना से एकत्व का आभास करा सकती है। यही भूतत्व की अनुमति है। भुव तत्व के निम्न उच्चास्तरों के अनुरूप प्रेत-पिशाचों की भयंकरता और यज्ञ आदि प्राणिक शक्तियों की सौम्यता के दर्शन के रूप में हो सकती है। दैनन्दिन क्रम में स्वप्न के माध्यम से इसे यत्किंचित् अनुभव करते हैं। जागरुकता का अभाव इसे स्पष्ट नहीं होने देता। स्वः तत्व जिसे मन कहेंगे। श्री अरविन्द के महाकाव्य सावित्री के अनुसार जहाँ अपनी अपरिमार्जित स्थिति में अन्धा रहकर पशु प्रवृत्तियों के दासत्व का नर्कवास भुगतता रहता है वहीं परिशोधित-संस्कारित होने पर उसके सामने देवलोक का राज्य खुल जाता है। देवी देवताओं की स्पष्ट अनुभूति होने लगती है।
मन के अन्धे होने, पशुप्रवृत्तियों के दासत्व भुगतने को हम स्वयं के औरों के जीवन में अनुभव कर सकते हैं। जिनकी मनःस्थिति ओछी है घटिया है, उन्हें दैन्य को दारिद्रय, दुःख, दुर्बलता, कुण्ठा क्लेश अवहेलना, अवमानना के पाप समूहों में जकड़े घिरे रहना पड़ता है। यम दण्ड और नर्कवास के इस काल में भौतिक सम्पदाएँ उन्हें मिल भी जायँ तो उनसे उन्हें सुख शांति नहीं मिल पाती उलटे उनकी दूषित प्रवृत्तियों का दारुण विस्फोट होने में ही बढ़ी हुई सम्पदा आधार बनती है और उनके व्यक्तित्व के अधिकाधिक क्षय के साथ ही वह सम्पदा भी क्षयीभूत होती है।
पाप से उबरने-नर्कवास से छूटने के लिए क्या करें? इस सवाल का जवाब देते हुए दक्षिण भारत के महान साधक रामलिंगम् स्वामी के अनुभूतिकोष पिरियर लाइट, के पृष्ठों का कहना है उन कामों को किसी भी स्थिति में न किया जाय जो स्वयं में कुण्ठा, ग्लानि उत्पन्न कर व्यक्तित्व को चूर-चूर करने वाले सिद्ध हों। हमारे कर्मशक्ति स्वयं में गौरव बोध जाग्रत करने, पुण्य उपार्जित करने में लगे-खपे। कर्म शक्ति का यही उपयोग सही अर्थों में साधना है।
सामान्य मानव में कर्म के प्रेरक तत्व अभिरुचि आदत जन्मान्तर की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इन्हीं सबके अनुसार वह अपनी जीवन ऊर्जा को नष्ट करता बिखेरता रहता है। उसके लिए कर्म स्वातंत्र्य की बात एक अच्छा-खासा मजाक भर है। जबकि साधनारत व्यक्ति विधाता द्वारा दी गई कर्म की स्वतंत्रता का ठीक-ठीक उपयोग करने में समर्थ होता है। वह स्वयं की अभिरुचियों, आदतों, प्रवृत्तियों को नए सिरे से गढ़ता है। उसके अंतराल में नए संस्कार जन्म लेते हैं। कर्म के प्रेरक तत्व स्वार्थों का जखीरा जमा करने की लालसा, अहंकार का झण्डा ऊँचा करने की चाहत नहीं रह जाती। प्रत्येक काम लोक के प्रति करुणा आत्म विकास के सोपानों पर चढ़ने के उद्देश्य से होता है। ध्यान देने योग्य बात है-साधना कोई कर्म विशेष नहीं है और न इसके लिए कहीं आने-जाने दौड़ने-भागने की जरूरत है। यह तो स्वयं को सुसंस्कारित करने की पद्धति है। जिसके लिए सुबह से शाम तक होशो-हवासपूर्वक हर छोटे-बड़े काम को परमात्म समर्पित भाव से करना पड़ता है। फिर तो नामदेव की दर्जी गीरी, रैदास को जूता गाँठना, कबीरदास का कपड़ा बुनना सभी साधना बन जाते हैं। संत एकनाथ को रामेश्वर की तीर्थ यात्रा का पुण्य, प्यास से विकल गधे को गंगा जल पिलाने से मिल जाता है।
यह पूर्ण सुसंस्कृत साधक की स्थिति है। ऐसे व्यक्ति ही संस्कृति को न प्राण दे पाते हैं। प्राचीन काल के लोकनायक ऋषि मुनि इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे। इसलिए वे दूसरों को उपदेश देने में जितना समय खर्च करते थे उससे कहीं अधिक समय स्वयं के जीवन को सँवारने, साधना के ढाँचे में ढालने के निमित्त करते थे। इसी से वह ऊर्जा मिलती है, जिसकी प्रेरणा से किसी के मन पर जमे बुराइयों के आकर्षक कुसंस्कारों को हटाकर अच्छाइयों के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकें।
प्राचीन इतिहास की ही भाँति पिछले दो हजार वर्षों में भी इसी आधार पर जन मानस का सुधार एवं परिष्कार सम्भव होता रहा है। भगवान बुद्ध के मन में अपने तथा संसार के दुःखों के निवारण की लालसा जगी। इसके लिए उन्होंने पच्चीस वर्श की आयु से लगातार बीस वर्श तक आत्म निर्माण साधना की। भगवान महावीर ने अपनी आयु का तीन चौथाई भाग जीवन साधना में एक चौथाई जन नेतृत्व में लगाया। आदि गुरु शंकराचार्य ने बीस वर्षों की ऐसी ही गहन साधना के बूते लोकजीवन में स्वर्ग सृष्टि की। श्री रामकृष्ण परमहंस ने पचास वर्श की आयु में विशुद्ध तीस वर्श तप साधना में लगाए।
संसार के अन्य महापुरुष जिनने लोगों की उच्च भूमिका को बढ़ाया संस्कृति के प्रेरक बने निश्चित रूप से साधक थे। महात्मा ईसा के जीवन के 36 वर्श स्वयं को बनाने में लगे। पैगम्बर मुहम्मद ने पच्चीसवें वर्श में साधना की ओर कदम बढ़ाया और चालीस वर्श तक उसी में लगे रहे। परम पूज्य गुरुदेव अपनी इसी विशिष्टता के कारण तपोनिष्ठ कहलाये। उनके अस्सी वर्श के जीवन का एक-एक दिन साधना के गहरे तत्वों से भरा है।
उन्होंने हम सब से अपने मानस पुत्रों से ऐसी ही आशा की है। देव संस्कृति को विश्व संस्कृति का रूप देने का दायित्व हमीं सब पर है और अब तक एक ही तथ्य समय-समय पर स्पष्ट हो रहा है कि स्वयं के जीवन को उत्कृष्टतम बनाने वाली आत्माएँ ही लोकजीवन को सच्चा नेतृत्व दे सकी हैं। नए समाज में ओछे-हल्के बचकाने व्यक्तियों का कोई स्थान न होगा। फिर साँस्कृतिक उन्नयन जैसे महान कार्य के लिए इन जैसों के बारे में सोचना ही ठीक नहीं । यह महान कार्य विशिष्ट पुण्यात्माएँ महान साधक ही कर सकेंगे।