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Magazine - Year 1992 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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यज्ञविधा : एक सर्वांगपूर्ण उपचार प्रक्रिया

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First 20 22 Last
देव संस्कृति के निर्धारण मात्र आप्तवचन या ऋषि वाक्य ही नहीं हैं। हमारे ऋषि-मुनि उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे। पदार्थ विज्ञान से लेकर चेतना जगत के विभिन्न घटकों की गहन शोध उनके द्वारा सम्पन्न होती रही व निष्कर्ष के रूप में उनके प्रतिपादन दर्शन, मनोविज्ञान, चिकित्सा, विज्ञान तथा पदार्थ जगत संबंधी महत्वपूर्ण निर्धारणों के रूप में सामने हैं। परम पूज्य गुरुदेव के बहुआयामीय व्यक्तित्व में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विलक्षण आयाम उनके वैज्ञानिक रूप का है, देव संस्कृति के हर पक्ष, प्रतीक-कर्मकाण्ड, मंत्रोच्चार-यजन प्रक्रिया, अग्निहोत्र तथा जीवन यज्ञ को उनने सूक्ष्म प्रज्ञा द्वारा गहराई से विज्ञान सम्मत आधार पर विवेचन कर प्रतिपादित किया। परिणाम ब्रह्म-वर्चस् शोध संस्थान की स्थापना के रूप में सामने आया। सन् 1979 की गायत्री जयंती पर विज्ञान व अध्यात्म की समन्वयात्मक शोध हेतु स्थापित यह संस्थान प्रायः चौदह वर्ष पूरे करने जा रहा है। इस अवधि में इसके द्वारा अन्वेषित, प्रतिपादन, अगले दिनों एक नये विज्ञान की विधा को जन्म देंगे, इसका बहुप्रतीक्षित आश्वासन इन पंक्तियों के माध्यम से दिया जा रहा है। चेतना की सत्ता एवं क्षमता, श्रद्धा की महत्ता व व्यावहारिक उपादेयता तथा अध्यात्म उपचारों की वैज्ञानिकता के तीन आधारों पर टिकी इस शोध को अब तक की सब शोधों से अलग प्रकार की एवं विलक्षण माना जाना चाहिए। अतीन्द्रिय क्षमताओं से लेकर परलोकवर्ती जीवन, योग साधनाओं से लेकर स्वप्न आदि के प्रयोगादि के क्रम तो विश्वभर में चले हैं किन्तु उनका आधार प्रत्यक्षवादी विज्ञान होने के कारण वे चेतना की गहराई तक नहीं पहुँच पाए। बस यहीं पर ब्रह्मवर्चस् अपनी अद्भुतता का प्रमाण देता है।

ब्रह्मवर्चस् की शोध में जिस एक पक्ष ने सबका सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट किया है, वह है यज्ञ विज्ञान पर किया जा रहा अनुसंधान, जिसे परमपूज्य गुरुदेव ने एक सर्वांगपूर्ण उपचार पद्धति के रूप में यज्ञोपैथी नाम दिया था। मोटी दृष्टि से यह माना जा सकता है कि यज्ञ में बैठने मात्र से व्यक्ति निरोग हो जाता है, वह यज्ञोपैथी है, जब कि ऐसा नहीं है। यज्ञ चिकित्सा एक सर्वांगपूर्ण जीवन पद्धति से जन्मी एक उपचार प्रक्रिया है, जिसे जीवन का अंग बना लेने पर अभूतपूर्व भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ मिलते देखे जाते हैं। यज्ञ विज्ञान को अपने संपूर्ण रूप में समझा जाना चाहिए। आहार संयम से लेकर तप तितिक्षाएँ, ध्यान यज्ञ से लेकर मंत्रोच्चार की विधि-व्यवस्थाएँ वनौषधि यजन की विशिष्टता से लेकर यज्ञ करने कराने वाले का व्यक्तित्व सभी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शाँतिकुँज का ब्रह्मवर्चस् इस मायने में विलक्षण है कि यज्ञ प्रक्रिया के सर्वांगपूर्ण पक्षों पर शोध हेतु एक विज्ञान सम्मत विश्व में अकेली यहाँ ही है और कहीं ऐसी अवधारणा विकसित ही नहीं हुई। परम पूज्य गुरुदेव की युग ऋषि के रूप में यह एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन देव संस्कृति को है। अब इसके व्यावहारिक प्रस्तुतीकरण पर आएँ।

यज्ञोपैथी में अनुसंधान का मूल स्थूल पक्ष है पदार्थ की वह सूक्ष्म सत्ता जो चेतना को प्रभावित करती है। आमतौर से यह समझा जाता है कि वस्तुएँ मात्र सुविधा-साधनों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। यह उनका स्थूल उपयोग है, पर जाना यह भी चाहिए कि उनके भीतर सशक्त अदृश्य शक्ति भी हैं जिन्हें भाप, बिजली, रेडियो, दूरदर्शन आदि के रूप में काम करते हुए देखा जाता है। इन्हीं में से एक विशिष्ट क्षेत्र है गैस (वाष्प)। गैस मात्र चूल्हे का काम ही नहीं करती। उस में ऑक्सीजन जैसे प्राण धारक तत्व भी सम्मिलित रहते हैं। सर्वविदित है कि कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता। वह ठोस द्रव और वाष्प के रूप में अदलता-बदलता रहता है। वनस्पतियों का आहार और औषधि की तरह तो उपयोग होता ही है। इसके अतिरिक्त उन्हें गैस रूप में परिणत करके शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन एवं वातावरण परिशोधन के लिए भी काम में लाया जा सकता है। एक शब्द में इसे अग्निहोत्र प्रक्रिया कह सकते हैं। इतिहास साक्षी है कि इस आधार को अपनाकर अभीष्ट उपलब्धियों के प्राप्त करने के अतिरिक्त कारगर परिवर्तनों, अवतरणों उत्पादनों तक की आवश्यकता पूरी की जाती थी। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, कृष्ण का सर्वमेध यज्ञ, राम का अश्वमेध यज्ञ किन्हीं महाप्रयोजनों की पूर्ति के लिए ही सम्पन्न हुए थे। विश्वामित्र का वह युग-परिवर्तन यज्ञ प्रख्यात है जिसकी सुरक्षा का दायित्व राम-लक्ष्मण ने स्वयं उठाया था।

उस महाविद्या का अब लोप जैसा हो गया है। मात्र कर्मकाण्डों की ही थोथी लकीर पिटती है। ब्रह्मवर्चस् ने उस महान विज्ञान का नये सिरे से शोध कार्य आरम्भ किया है और इस आशा का संचार किया है कि समय की अनेकानेक समस्याओं के निराकरण में भी अग्निहोत्र विज्ञान का प्रयोग किया जा सकता है।

अग्निहोत्र, द्वारा शरीरगत विकारों का शमन, मानसिक उत्कर्ष में योगदान, वातावरण परिशोधन का परोक्ष प्रयोजन जैसे अनेकों उपयोगी एवं महत्वपूर्ण कार्य इस विद्या के माध्यम से किस प्रकार बन पड़ते हैं इसे बहुमूल्य यंत्र-उपकरणों द्वारा यहाँ प्रत्यक्ष स्तर पर प्रस्तुत किया जाता है। पदार्थ की सूक्ष्म शक्ति का चेतना क्षेत्र में किस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है और उससे क्या लाभ उठाया जा सकता है यह इस शोध धारा का उद्देश्य है।

अग्निहोत्र तब तक पूरा नहीं है, जब तक कि स्वर विज्ञान, मंत्र विज्ञान का उसमें समावेश नहीं है। उच्चारित मंत्रों की ध्वनि अग्नि की ज्वाला रूपी ऊर्जा समुच्चय से टकराकर वातावरण में कई गुना विस्तरित हो जाती है व तब पदार्थ की कारण शक्ति का जागरण होता है। शब्द शक्ति की प्रचण्डता को शास्त्रों में शब्द-ब्रह्म, नाद-ब्रह्म आदि नामों से इंगित किया गया है। शब्द’-बेधी बाणों की चर्चा रही है। स्वर शास्त्र इसी की एक शाखा है। सामगान से लेकर मंत्रोच्चार की विभिन्न शैलियाँ इसी के अंतर्गत आती हैं। मंत्र शक्ति की महिमा का बखान अध्यात्म तत्व ज्ञान में सुविस्तृत रूप में विवेचित है, विशेषतः यज्ञ विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में।

शब्द आमतौर से जानकारियों के आदान-प्रदान में प्रयुक्त होता है। उसके द्वारा किसी को प्रसन्न रुष्ट भी किया जा सकता है। संगीत की मोहकता-मादकता अपने स्तर की है। मेघ-मल्हार दीपक राग आदि में उसका चमत्कार देखा गया है। यह इस सम्बन्ध में जाना गया सामान्य ज्ञान है। बीन की ध्वनि पर साँप लहराते देखे गये हैं। संगीत-प्रयोग से जीव-जंतुओं की प्रजनन शक्ति बढ़ाई गई है। दुधारू पशुओं ने अधिक दूध दिया है। पेड़ पौधे तेजी के साथ बढ़े हैं। स्नायविक और मानसिक रोगों के निवारण में संगीत का प्रयोग बहुत सफल हुआ है। वेद मंत्रों को जब शक्ति रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो वे सामगान के रूप में सस्वर गाये जाते हैं। गायन का उद्गाता यजमान और श्रवण करने वालों पर दिव्य चेतना की वर्षा करता है जप, कीर्तन भजन आदि में स्वर शक्ति के माध्यम से ही विशिष्ट लाभ मिलता है। ताँत्रिक व वैदिक मंत्रों की अपनी-अपनी प्रयोजनानुसार विशिष्ट महत्ता है।

ताल-लय की रिद्म अपना प्रभाव अलग ही छोड़ती है। पुलों पर से गुजरते हुए सैनिक को कदम मिला कर चलने की मनाही कर दी जाती है, क्योंकि उस सामूहिक ताल की शक्ति से वह पुल टूट कर गिर भी सकता है। यह शब्द शक्ति का असाधारण प्रभाव है। धमाके की आवाज से हृदय की धड़कन बन्द हो सकती है। गर्भपात हो जाना सम्भव है। युद्ध के बिगुल बजने पर सैनिकों में जोश भर जाता है तथा शंख की ध्वनि से उस क्षेत्र के विषाणुओं का तेजी से विनाश होते देखा गया है। वस्तुतः शब्द भी बिजली, भाप-ऊर्जा स्तर की एक समर्थ शक्ति है। इसका किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार क्या उपयोग किया जाय जिससे व्यक्तित्व के विकास और वातावरण के परिशोधन में अभीष्ट लाभ मिल सके तथा वाष्प ऊर्जा व शब्द ऊर्जा का समन्वित प्रभाव डालकर व्यक्ति को कैसे स्वस्थ-समर्थ बनाया जाय यह यज्ञोपैथी में आता है।

अग्निहोत्र के माध्यम से सूक्ष्मीकृत औषधि को प्रविष्ट कराने की प्रक्रिया को एक प्रकार से जीवनी शक्ति का अभिवर्धन भी कह सकते हैं। इस आधार पर उस मूल कारण की समाप्ति होती है, जिससे भीतरी बाहरी अंगों में शिथिलता छाई रहती है। आलस्य, भय, घबराहट धड़कन, अपच जैसे रोगों में अग्निहोत्र में सम्मिलित होना दूर दृष्टि से लाभदायक होता है। बल वर्धक औषधियाँ कई लोग सेवन करते हैं, पर उसमें एक कठिनाई रहती है,गरिष्ठता की बहुलता की। वे आसानी से पचती नहीं। पाचन न होने पर सामान्य अन्य सेवन को भी अपच में बदल देती है। आयुर्वेद में कितने ही पौष्टिक पाकों, अवलेहों, चूर्णों, गुटिकाओं का वर्णन है। उनमें प्रयुक्त होने वाली सभी औषधियाँ बलवर्धक होती हैं पर साथ ही गरिष्ठ भी। गरिष्ठता के कारण उनका पाचन ठीक तरह नहीं हो पाता। फलतः वह लाभ नहीं मिलता जो मिलना चाहिए।

अग्निहोत्र इस कठिनाई को दूर करता है। उसमें पाचन का प्रश्न ही नहीं। सूक्ष्मीभूत होकर जो साँस के माध्यम से रक्त में दौड़ जाय, जीव कोशाओं को प्रभावित करे उसकी गुणवत्ता असंदिग्ध है। वह युवकों की तरह बाल, वृद्ध, नर, नारी सभी का समान रूप से पोषण करता है।

अग्निहोत्र चिकित्सा में विभिन्न रोगों के लिए विभिन्न औषधियों का उपचार भी है। अच्छाई यह है कि उन्हें न मुँह से खाना और न पेट से पचाना पड़ता है। इंजेक्शन की तरह सुई चुभो कर रक्त में सम्मिश्रित करना पड़ता नहीं वरन् अति सरलता का एक ऐसा मार्ग मिल जाता है जिसमें रोगी को पता भी नहीं चलता और औषधि वायुभूत होकर शरीर में प्रवेश कर जाती है। अपना कारगर काम करती और असीमित प्रभाव उत्पन्न करती है।

भारतीय धर्मसंस्कृति में प्रत्येक घरेलू संस्कार और सामूहिक पर्व त्यौहार के अवसर पर अग्निहोत्र करने का निर्देशन दिया गया है। इसके तीन प्रयोजन हैं। एक तो यह कि किसी या किन्हीं के द्वारा किये गये प्रयास का उपस्थित सभी लोग लाभ उठायें। दूसरा यह है उसकी चर्च जहाँ तक पहुँचे वहाँ तक इस विज्ञान की उपयोगिता तथा जानकारी बढ़े। इसे सीमित को असीम बनाना भी कह सकते हैं। तीसरा यह कि प्रत्येक संस्कार पर्व में शरीर मन व आत्मसत्ता को प्रभावित करने वाले जीन्स तक पर प्रभाव डालने वाले वैज्ञानिक प्रयोग संपन्न हों।

सामान्यतः अग्निहोत्र शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधियों को निवारक-निरोधक है। वह इन दोनों ही क्षेत्रों की क्षमता में अभिवृद्धि करता है फलतः आरोग्य और मानसिक बल बढ़ने का उभयपक्षीय सुयोग बनता है। इसे घरेलू उपचार भी कह सकते हैं। साथ ही रोग निवारक बलवर्धक सामयिक सूत्र भी। इतने कम खर्चे में इतने अधिक लोगों को लाभ पहुँचाने की दूसरी और कोई विधा बन पड़नी सम्भव नहीं।

अग्निहोत्र एक विज्ञान है उसमें अग्नि को विशेष साधनों से विशिष्ट विधिपूर्वक इस तरह प्रज्ज्वलित किया जाता है जिसमें वह मात्र चूल्हा जलाने की अग्नि न रहे। ऐसी विशिष्टता बने जो आरोग्य समस्या के समस्त पक्षों पर अपना चमत्कारी प्रभाव दिखा सके। इसलिए इसका लाभ देखने वालों को पन्सारी की दुकान से कूड़ा करकट खरीद कर उसे आग में देने वाली उतावली मात्र से किसी बड़े लाभ की आशा न करनी चाहिए। वरन् प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं की उत्कृष्टता का समुचित ध्यान रखना चाहिए। यह कार्य जिस-तिस के हाथों न सौंप कर ऐसे लोगों द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए जो तद्विषयक श्रद्धा और सतर्कता को भली प्रकार अपनाये रह सकें। इसमें उस कुशल चिकित्सक की दक्षता होनी चाहिए जो रस, भस्में रसायनें बनाने वालों द्वारा बरती जाती है। मोटे रूप में यह समझा जा सकता है कि अग्निहोत्र एक समग्र चिकित्सा विधान है जिसमें शारीरिक मानसिक सामूहिक रोगों का निराकरण और शक्तिमत्ता का अभिवर्धन हो सकता है। अग्निहोत्र के साथ-साथ स्वच्छता का बहुमुखी प्रयोजन जुड़ा हुआ है।

यज्ञ इससे आगे की बात है। उसकी अन्तःकरण और अंतर्मन तक सुपरमन तक, पहुँच है। वह व्यक्ति की विचारणा, आकाँक्षा, भावना श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा, को प्रभावित करता है उनका परिशोधन और अभिवर्धन भी यज्ञ के संबंध में उसकी “महायज्ञ” अवधारणा का विवेचन किया जा चुका है। यज्ञ वस्तुतः “डीप इकॉलाजी” की एक महत्वपूर्ण विधा मानी जा सकती है जिसमें मनःसत्ता से लेकर संपूर्ण व्यक्तित्व के विभिन्न घटकों को इस माध्यम से अनुप्राणित-प्रभावित किया जाता है कि व्यष्टिसत्ता व समष्टि सत्ता में तादात्म्य स्थापित हो सके। साथ ही व्यक्तित्व के परिष्कार, ग्रन्थियों के अनावरण व गहराई तक प्रवेश करने वाली आध्यात्मिक मनश्चिकित्सा का प्रभाव ऐसा कुछ पड़ सके कि आत्मबल संपन्न व्यक्ति तैयार किये जा सकें।

यज्ञोपैथी पर चल रही वैज्ञानिक शोध इस संबंध में ब्रह्मवर्चस् का एक अभिनव निर्धारण है कि इस संदर्भ में पहले कभी इस स्तर का चिंतन किया ही नहीं गया। मोटी दृष्टि से यज्ञ की भौतिकीय व रसायन विश्लेषण वाला पक्ष यहाँ आने वालों को प्रधान दिखाई देता है। शोध प्रयोगशाला में गैस, लिक्विड क्रोमोटोग्राफी से लेकर थिनलेयर क्रोमोटोग्राफी, ऊँची ऑप्टिकल क्षमता वाले स्टीरियो माइक्रोस्कोप से लेकर यज्ञ-धूम का शरीर, मन, वातावरण, जीवाणु पर प्रभाव दर्शाने वाले अनेक उपकरण हैं। किन्तु इनका उपयोग सीमित ही है। ये केवल यह बता पाते हैं कि यज्ञ का अवलम्बन लेने वाले की पूर्व में क्या स्थिति थी व बाद में क्या परिवर्तन हुए ? विश्लेषण इसी आधार पर किया जा सकना संभव है किन्तु यही समग्र नहीं है। अग्निहोत्र व यज्ञ करने से, यज्ञीय जीवन को व्यवहार में उतारने से क्या व्यक्तित्व का कायाकल्प संभव है। व्यक्ति के चिंतन आकाँक्षाओं एवं आस्थाओं में परिवर्तन लाना संभव है, यही शोध संस्थान का यज्ञोपैथी के माध्यम से लक्ष्य है। निश्चित ही भारतीय संस्कृति की यह महत्वपूर्ण स्थापना जो स्वयं एक विज्ञान है, प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी प्रतिपादित की जा सकती है, चह इस केन्द्र ने प्रमाणित कर दिखाया है।

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