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Magazine - Year 1992 - Version 2

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Language: HINDI
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मनन की विद्या और ज्ञान ही मंत्र विज्ञान

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संस्कृति के प्रेरक-प्रणेता ऋषियों की अगणित उपलब्धियों में मंत्र विद्या का मूल्य एवं महत्व अद्वितीय है। इसी सामर्थ्य के कारण वे ऋषि कहलाए । वेदवाणी कहती है- ऋषियों मंत्र दृष्टारः अर्थात्- ऋषि वही है जिसने मंत्र की साधना की, गहराई को अनुभव और उपलब्धियों को हस्तगत किया। ऋषियों के अनुभूत कोश स्पष्ट करते हैं कि विश्वव्यापी ब्रह्म चेतना के साथ मनुष्य का सघन और सुनिश्चित सम्बन्ध है। पर उसमें मल-विक्षेप आवरण जैसे अवरोधों ने एक प्रकार से विक्षेप जैसी स्थिति पैदा कर दी है। बिजली घर और कमरे के पंखे के बीच लगे तारों में यदि कहीं गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय तो पंखा और बिजली दोनों के अपने-अपने स्थान पर रहते हुए भी सन्नाटा छाया रहेगा। मंत्र साधना इन शिथिल सम्बन्धों को पुनः प्रतिष्ठापित करने वाली सुनिश्चित पद्धति है। विश्व चेतना के साथ व्यक्ति को जोड़ने वाला राजमार्ग है।

महायोगी अनिर्वाण के ग्रन्थ ‘अन्तरयोग;’ के अनुसार मंत्रों का शब्द चयन योग विद्या में निष्णात् तत्ववक्ताओं ने दिव्य चेतना के साथ सघन अनुभूतियों के आधार पर किया है। यों ये शब्द विन्यास संस्कृति सूत्र, और जीवन के उत्कर्ष का भाव सन्देश भी हैं। पर इससे कहीं अधिक महत्ता शब्द-गुन्थन की है। मंत्र विद्या के प्रख्यात ग्रन्थ मंत्र महार्णव में इन दोनों ही तत्वों को स्वीकारा गया है। इसके अनुसार मंत्र का अर्थ है, मनन, विज्ञान, विद्या और ज्ञान। मंत्र शक्ति से मनन का स्वभाव मिलता है। मनन कहते हैं बार बार विचारने को । जिस विचार को बार-बार मन में जमाने की कोशिशें की जाती है वह मन का स्वभाव बन जाता है। अतः मंत्र शक्ति मन तद्नुरूप ढलता है। साथ ही इसे वह ज्ञान व प्रकाश देता है जिससे अज्ञान और अंधकार को दूर किया जा सकता है। इसकी साधना से अन्तर्चेतना में कुछ ऐसी फेर-बदल होती है जिसकी वजह से ईश्वरीय शक्ति और आनन्द का अवतरण होने लगता है।

मंत्र प्रक्रिया की अनेकानेक विशेषताओं में सर्वाधिक महत्ता उसके स्फोट में है। स्फोट का मतलब है ध्वनि विशेष का ईश्वर तत्व में होने वाला असाधारण प्रभाव । तालाब में छोटा ढेला फेंकने से थोड़ी और छोटी लहरे उत्पन्न होती हैं। पर यदि बड़ी ऊँचाई से बहुत जोर से कोई बड़ा पत्थर फेंका जाय तो उसका शब्द और स्पन्दन दोनों ही अपेक्षाकृत बड़े होंगे और उसकी प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि भी बड़ी लहरों के साथ दिखाई देगी। मंत्र विद्या के सम्बन्ध में इसी को स्फोट कहा जाता है। आगम और निगम का समस्त भारतीय आध्यात्म इसी पृष्ठभूमि पर खड़ा है। मंत्र और तंत्र की सभी शाखा-प्रशाखाएँ इसी का विशाल परिवार हैं।

शब्द की सामर्थ्य सभी भौतिक शक्तियों से बढ़कर, सूक्ष्म और विभेदन क्षमता वाली है, इस बात की निश्चित जानकारी होने के बाद ही मन्त्र-विद्या का विकास भारतीय तत्व-दर्शियों ने किया। यों हम जो कुछ भी बोलते हैं, उसका प्रभाव व्यक्तिगत और समष्टिगत रूप से सारे ब्रह्माण्ड पर पड़ता है तालाब के जल में फेंके गये एक छोटे से कंपन की लहरें भी दूर तक जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मुख से निकाला हुआ, प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न करता है उस कम्पन से लोगों में अदृश्य प्रेरणायें जाग्रत होती हैं।

यह शब्द शक्ति का परोक्ष प्रभाव हुआ। प्रत्यक्ष प्रभाव वैखरी वाणी के रूप में सामने आता है। वैखरी वाणी जब विशिष्ट उच्चारण प्रक्रिया द्वारा समर्थ होकर “वाक्”बनती है तो उसका विस्तार श्रवण क्षेत्र तक सीमित न रहकर तीनों लोकों की परिधि तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वनि है, ध्वनि में अर्थ। किन्तु ‘वाक्’ शक्तिरूपा है। उसकी क्षमता का उपयोग करने पर वह सब जीता जा सकता है जो जीतने योग्य है।

कौत्स मुनि ने मन्त्र अक्षरों के अर्थ की उपेक्षा की है और कहा है कि उनकी क्षमता शब्द गुन्थन के आधार पर समझी जानी चाहिए। उसमें ‘वाक्’ तत्व ही प्रधान रूप से काम करता है। इस ‘परवाक्’ का स्तवन करते हुए श्रुति कहती है।

देवी वाचमजनयन्त देवास्ताँ, विश्वरुपाः पशवों वदन्ति। सा नो मंद्रेष्षमर्ग दुहाना, धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुवेतु

परावाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही हैं। यही विज्ञान है।

मंत्रों का चयन इसी ध्वनि-विज्ञान को आधार मानकर किया गया है। अर्थ का समावेश गौण है। गायत्री मंत्र की सामर्थ्य अद्भुत है पर उसका अर्थ अति सामान्य है। भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर उसमें की गई है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मंत्र श्लोक हजारों हैं। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिनमें परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। फिर उन सब कविताओं को गायत्री मंत्र के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और उनका उच्चारण क्यों उतना फलप्रद नहीं होता ? वस्तुतः मंत्र स्रष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुँथन ही महत्वपूर्ण रहा है। कितने ही बीज मंत्र ऐसे हैं जिनका खींचतान के ही कुछ अर्थ भले ही गढ़ा जाय, पर वस्तुतः उनका कुछ अर्थ है नहीं। ह्रीं. श्री. क्ली ऐ. हुँ. यं. फट् आदि शब्दों का क्या अर्थ हो सकता है, इस प्रश्न पर माथापच्ची करना बेकार है । उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कम्पन उत्पन्न करता है और उनका जपकर्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

मानसिक, वाचिक एवं उपाँशु जप में ध्वनियों के हलके भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लायी जाती है। वेद मन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त और स्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीच-ऊँचे तथा मध्यवर्ती उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके सस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े हैं कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके। मन्त्र जप की दुहरी प्रतिक्रिया होती है। एक भीतर दूसरी बाहर । आग जहाँ जलती है उस स्थान को गरम करती है, साथ ही वायु मण्डल में ऊष्मा बिखेर कर अपने प्रभाव क्षेत्र को भी गर्मी देती है। जप ध्वनि प्रवाह-समुद्र की गहराई में चलने वाली जलधाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र-तत्र सन्निहित अनेकों ‘चक्रों ‘ तथा ‘उपत्यिका ‘ ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति-संचार होता है। लगातार के एक नियमित क्रम से चलने वाली हलचलें ऐसा प्रभाव करती हैं, जिन्हें रहस्यमय ही कहा जा सकता है। पुलों पर सैनिकों को पैरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न न करने के लिए इसलिए मना किया जाता है कि इस साधारण-सी क्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।

यह प्रश्न उठता है कि मंत्र में जब कि किसी प्रकार की बाह्य शक्ति उन शब्द-तरंगों को रूपांतरित नहीं करती तो उनसे विज्ञान की तरह के लाभ कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ‘रेट्रॉमीटर’ यन्त्र के आविष्कार के साथ संभव हो गया है। इस यन्त्र में बाहरी शक्ति-स्रोत की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् ध्वनि में सन्निहित ऊर्जा ही विद्युत ऊर्जा का काम करती है। रेट्रोमीटर का आविष्कार न्यूमा, ई, थामस नामक अमेरिकी वैज्ञानिक ने किया है। श्री थामस लेंगले स्थित ‘नेशनल एरोनोटिक्स एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन’ रिसर्च सेन्टर के अन्वेषक हैं। इस यन्त्र में किसी भी माध्यम से प्रकाश फोटोसेस्टिव सैल में भेज कर विद्युत ऊर्जा में बदल दिया जाता है और फिर रिसीवर यन्त्र में विद्युत ऊर्जा में बदली तरंगों को ध्वनि में बदलकर सुन लिया जाता है।

इस सिद्धान्त से यह निश्चित हो गया है कि कर्णातीत तरंगों का स्वभाव लगभग प्रकाश तरंगों जैसा ही होता है। कर्णातीत तरंगों का तरंग दैर्ध्य जितना कम होता है,यह समता उतनी ही बढ़ती है, इससे पता चलता है कि कर्णातीत तरंगों को बड़ी हरी सुविधापूर्वक आवर्तित और परावर्तित किया जा सकता है। इनका व्यवहार भी प्रकाश-तरंगों से ठीक उलटा होता है, इसलिये इन तरंगों से विभिन्न प्रकार के प्रकाश-स्रोतों की शक्ति को प्रतिक्रिया द्वारा आसानी से अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है। ऐसा इसलिये होता है कि कर्णातीत तरंगें किसी सघन पदार्थ में तो तेजी से चलती हैं पर विरल माध्यमों में वे मन्दगति से चलने लगतीं हैं। वेदों में प्रयुक्त प्रत्येक मंत्र का कोई न कोई देवता होता है। गायत्री का देवता सविता है, अर्थात् - गायत्री उपासना से जो भी लाभ यथा आरोग्य, प्राण, धन-सम्पत्ति, पुत्र और महत्वाकांक्षायें आदि पूर्ण होती हैं, उसकी शक्ति अथवा प्रेरणा सूर्य लोक से आती है। किसी भी मंत्र का जब उच्चारण किया जाता है, तब वह एक विशेष गति से आकाश के परमाणुओं के बीच बढ़ता हुआ, उस देवता (शक्ति-केन्द्र) तक पहुँचता है, जिसका उस मंत्र से संबंध होता है। मंत्र-ज पके समय आवश्यक ऊर्जा मन को शक्ति के द्वारा प्राप्त होती है, इस शक्ति के द्वारा जप के समय की ध्वनि तरंगों को विद्युत तरंगों के रूप में प्रेक्षित किया जाता है। वह तेजी से बढ़ती हुई कुछ ही क्षणों में देव-शक्ति से टकराती हैं, उससे अदृश्य सूक्ष्म-परमाणु मन्दगति से परिवर्तित होने लगते हैं, उनकी दिशा ठीक उलटी होती है। सूक्ष्म और स्थूल दोनों तरह के परमाणु दौड़ पड़ते हैं और साधक को शारीरिक लाभ और मानसिक प्रेरणायें देने लगते हैं। यह शक्ति ही मनुष्य को क्रमशः उन्नत जीवन और अनेक अप्रत्याशित लाभों की ओर अग्रसर करती रहती हैं।

शब्द शक्ति का स्फोट मन्त्र शक्ति की रहस्यमय प्रक्रिया है। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को है। शब्द की एक शक्ति सत्ता है। उसके कम्पन भी चिरन्तन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन शब्द कम्पन घटकों का विस्फोट भी अणु विखण्डन की तरह ही हो सकता है। मन्त्र योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही विधि व्यवस्था रहती है। मंत्रों की शब्द रचना का गठन तत्वदर्शी, मनीषी तथा दिव्य द्रष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उसका जपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों एवं कर्मकाण्डों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में विस्फोट शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है लगभग उसी में संस्कृत में स्फोट का भी प्रयोग किया जाता है। मन्त्राराधन वस्तुतः शब्द शक्ति का विस्फोट ही है।

शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होतीं हैं जिन्हें कानों की श्रवण शक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है। इसलिए मान्त्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश तत्व रहता है। योगी वायु उपासक है उसे प्राणशक्ति का संचय वायु के माध्यम से करना पड़ता है इस दृष्टि से मान्त्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मान्त्रिक, योगी से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।

मन्त्र से दो वृत्त बनते हैं एक को भाववृत्त और दूसरे को ध्वनि वृत कह सकते हैं। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। ग्रह नक्षत्रों का अपने-अपने अयन वृत पर घूमने लगना इसी तथ्य से सम्भव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है।

तन्त्र जप में नियत शब्दों को निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति प्रवाह के दो आधार है। एक भाव और दूसरा शब्द । मन्त्र के अन्तराल में सन्निहित भावना का नियत निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है, वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़ कर उसे अपनी ढलान में ढाल ले। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनिवृत्त भी ऐसा ही प्रचण्ड होता है कि उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्ता को अपने घेरे में कस ले। भाववृत्त अंतरंग वृत्तियों पर, शब्दवृत्त बहिरंग प्रवृत्तियों पर, इस प्रकार आच्छादित हो जाता है कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को तोड़ा-मरोड़ा या ढाला जा सके इतना ही नहीं समूह स्तर को भी इससे प्रभावित-उत्तेजित किया जा सकता है। पिछले दिनों रूस ने ऐसे ही प्रयोग कनाडा के खनिकों पर किये था।

विज्ञान जगत में शब्द के सूक्ष्मतम प्रयोग की ये उपलब्धियाँ यह बताती हैं कि यदि भारतीय तत्वदर्शियों ने मंत्र विद्या की इतनी जानकारी कर ली हो कि शब्दों के कम्पनों द्वारा विष-निवारण, रोग-निवारण अदृश्य शक्तियों का आकर्षण मनोगति द्वारा मारण, मोहन, उच्चाटन आदि प्रयोग सफलतापूर्वक होते रहें हों तो उसे अतिशयोक्ति न माना जाय। महाभारत काल में मंत्र-प्रेरित शस्त्रों की मार होती थी , उससे परमाणु-बमों से भी भयंकर ऊर्जा उत्पन्न होती थी , उसका बड़ा सधा हुआ उपयोग सम्भव था। उस शक्ति से सैनिकों के समूह को भी नष्ट किया जा सकता था और हजारों की भीड़ में छिपे केवल एक ही किसी व्यक्ति को मारा जा सकता था । यह सब उस शब्द विज्ञान का ही चमत्कार था, जिसकी क्षीण-सी जानकारी भौतिक विज्ञान जान पाया है। यदि इस मंत्र शक्ति का रचनात्मक उपयोग हो सके तो चेतना के ईंधन कहे जाने वाले इस ऊर्जा के स्रोत से अनुकूलताओं के सृजन व सद्भाव विस्तार में असाधारण मदद मिल सकती है। भारतीय संस्कृति में मंत्र-विज्ञान-शब्द शक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है व रहेगा।

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