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Magazine - Year 1992 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - साधना सूत्रों का सरलीकरण करने वाली युगऋषि की दिव्यसत्ता

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एक ऋषि का आध्यात्मिक जीवन कैसा होना चाहिए, इसकी जीती-जागती मिसाल संस्कृति पुरुष पूज्य गुरुदेव का जीवन है। संस्कृति चिंतन के विशेषाँकों की शृंखला में हम उनके इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य के द्रष्टा एक ब्राह्मण तथा तीर्थ चेतना के उन्नायक के रूप में देव संस्कृति को समर्पित एक साधक के रूप में उनके जीवन व कर्तृत्व संबंधी विभिन्न पक्षों पर विस्तार से विवेचन कर चुके हैं। युगऋषि के रूप में मानव मात्र को ऊँचा उठाने की आकाँक्षा लेकर अवतरित हुए परम पूज्य गुरुदेव के जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। ऋषि वह जो काल व परम्पराओं से न बँधे। ऋषि वह जो साधना पद्धति से लेकर समाज व्यवस्था में युगानुकूल नूतन निर्धारण कर डाले व एक विराट समुदाय को उनका पालन करने को विवश कर दे। ऋषि वह जो आत्मसत्ता रूपी प्रयोगशाला में गहन अनुसंधान कर मानवमात्र के लिए चेतना जगत संबंधी कुछ ऐसे सूत्र दे जिनसे तत्कालीन समाज की मनःस्थिति चमत्कारी ढंग से बदलती देखी जा सके।

“ऋषि” शब्द ‘ऋ‘ से बना है। “ऋ“ का अर्थ है ‘गति’। जो गतिशील परमार्थ की ओर अग्रसर होता हो, वह है ऋषि। जो निर्मल बुद्धि सम्पन्न मंत्र रहस्य द्रष्टा पुरुष हो, वह है ऋषि। जो नरकीटक-नरपामर स्तर के क्षुद्र से प्रतीत होने वाले जनसमुदाय की लौकिक आकाँक्षाओं का परिष्कार कर उन्हें उच्चस्तरीय परमार्थ प्रयोजन में निरत कर दे, वह है ऋषि। लगभग यही आदि-कालीन ऋषियों जैसा स्वरूप हम अपने गुरुदेव के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व में पाते हैं।

अंतरंग क्षणों का एक प्रसंग है। इन पंक्तियों के लेखक सहित ब्रह्मवर्चस के कुछ कार्यकर्त्ता शोध प्रसंग संबंधी चर्चा हेतु उनके पास बैठे थे। चर्चा चित्तवृत्तियों के निरोध की तथा तन्मात्राओं की साधना की चल रही थी। साधना का प्रसंग चलने पन लौकिक जीवन में कभी भी गहराई तक उसका विवेचन न करने वाले परम पूज्य गुरुदेव ने उस चर्चा के दौरान गुह्य प्रसंगों पर पड़े आवरण को हटा दिया। विगत हजारों वर्षों से चली आ रही साधना पद्धतियों की एक समीक्षा कर उनने प्रायः डेढ़ घण्टे तक ध्यान प्राणायाम से लेकर पंच तन्मात्राओं की साधना तथा सूर्य के ध्यान की फलश्रुतियों से लेकर अष्टाँग योग के विभिन्न सूत्रों को विस्तार से समझाया। फिर अचानक चुप होकर लेट गए व बोले कि “अभी वातावरण बनना है तब तुम लोग चह सब साधनाएँ करना। सूर्य का ध्यान व गायत्री जप, नित्य शक्ति संचार हेतु प्राणायाम बस इतना भर तुम करते रहो व सबको बताते रहो। समय आने पर ग्रन्थि’-बेधन से लेकर चक्र जागरण, पंचकोशी साधना से लेकर कुण्डलिनी जागरण आदि पहले बतायी गयी मेरी समस्त साधनाएँ तुम्हारे लिए सरल होती चली जायेंगी। वैसे मैं यह सब लिखकर जा रहा हूँ सारी साधना पद्धतियों को मैंने समय के अनुसार बदलकर लिख दिया है किन्तु लोग इन्हें कर तभी पायेंगे जब सूक्ष्म जगत की ऋषि-सत्ताएँ ऐ सा चाहेंगी।”

जो करना नहीं था, वह बताया क्यों व कभी भी इस संबंध में चर्चा चलने पर समाज सेवा, विराट ब्रह्म की साधना का माहात्म्य समझाने वाले ‘परम पूज्य गुरुदेव’ ने वह रूप क्यों दिखाया यह किसी के मन में भी असमंजस हो सकता है। वस्तुतः लीला पुरुषों के जीवनक्रम बड़े अद्भुत होते हैं। परम पूज्य गुरुदेव का जीवन तो बहुआयामी व्यक्तित्व लिये था। एक साधारण प्यार बाँटने वाले पिता से लेकर समाज की पीड़ा मन में लिए उसके उद्धार को कृतसंकल्प एक सुधारक स्तर के मनीषी, जीवन विधा के अंतरंग पहलुओं को खोलने वाले एक मनः विश्लेषक से लेकर कुशल संगठनकर्त्ता वाले स्वरूप को हमने देखा है। किन्तु चौबीस चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण कठोर तप−तितिक्षा द्वारा सम्पन्न कर जिसने अपना जीवन क्रम आरंभ किया हो, उसके लिए तो मूलतः एक विराट समुदाय के लिए साधना पद्धतियों के विभिन्न सूत्रों, खोई कड़ियों को ढूँढ़कर गूँथना एक सबसे जरूरी काम था। वह उनने किया। जब तक उस स्तर की पात्रता न बने एक ऐसी युगसाधना में उनने अपने सहचरों को अनुयायियों को नियोजित कर दिया जिससे उनका अचेतन, जन्म-जन्मान्तरों से संचित प्रारब्धों की शृंखला का क्रम परिष्कृत व्यवस्थित होता चले। इतना बन पड़ने पर पवित्र मन वालों का समष्टिगत आधार विकसित होगा तो चेतना जगत में इनकी सामूहिक साधना निश्चित ही व्यापक परिवर्तन लाएगी ऐसा उनका विश्वास था। प्रज्ञा पुरश्चरण प्रातःकाल का सामूहिक तीन शरीरों का महाकाल के घोंसले के रूप में शाँतिकुँज को मानते हुए नित्य वहाँ पहुँचने की ध्यान-धारणा, स्वर्ण जयन्ती साधना, शक्ति−संचार साधनादि उपक्रम उसी कड़ी के अंग हैं।

इतिहास के पृष्ठों पर एक दृष्टि डालें तो पाते हैं कि कभी साधना उपक्रमों का स्वरूप ऐसा था कि सभी अपने योग्य साधनाएँ उचित मार्गदर्शक को माध्यम बनाकर सम्पन्न कर लिया करते थे। वैदिक युग की इस व्यवस्था में नर-नारी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ-वानप्रस्थ-संन्यासी सभी अपने-अपने लिए साधना उपक्रम चुनकर देवोपम जीवन जीते थे। कालान्तर में विभिन्न साधना-पद्धतियों को उनके प्रणेताओं ने जन्म दिया। सबका उद्देश्य एक ही-रहा है-मुक्ति, कैवल्य, विदेह मुक्ति, फुलफिलमेण्ट या सेल्फ एक्चुअलाइजेशन। चाहे वेदान्तिक हों, यौगिक हों अथवा ताँत्रिक गीता के परमभाव के रूप में परमसत्ता के भावातीत रूप को समझना ही साधना पद्धतियों का लक्ष्य रहा है। व्यावहारिक जीवन में साधक के व्यक्तित्व के संपूर्ण घटकों में परिपूर्णता को लाना-बौद्धिक, नैतिक, धार्मिक एवं कलात्मक हर पहलू को परिष्कृत करना, एक सर्वांगपूर्ण मानव को अव्यवस्था से व्यवस्था में बदलकर विनिर्मित करना ही हर साधना पद्धति का उद्देश्य रहा है।

इतिहास के पृष्ठों पर निगाह डालने पर पाते हैं जिन दिनों शक-हूणों के आक्रमण इस धरती पर हो रहे थे, हमारी धरती पर वज्रयानियों की साधनाओं का आतंक था। हठयोग के माध्यम से सिद्धियाँ प्राप्त करके वे उनका जन-जन में प्रदर्शन करते थे। तंत्रयोग के इस विकृत स्वरूप ने नारी शक्ति के गौरव को अतिक्षीण कर दिया था क्योंकि उसका दुरुपयोग ताँत्रिकों द्वारा वज्रोली प्रक्रिया द्वारा निज की भौतिक शक्ति-वर्चस् उपार्जन हेतु किया जाने लगा था। शव साधना से लेकर अघोरी स्तर की अन्यान्य साधनाओं ने अध्यात्म तंत्र को विकृत कर दिया था। तब गुरु मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य अनंग वज्र आगे आये जो बाद में गोरक्षनाथ कहलाए। उनने इस सारे अनाचार का विरोध कर नाथ सम्प्रदाय की योगसाधना पद्धति का सुनियोजित निर्धारण किया। साधना द्वारा परमतत्व की प्राप्ति का मार्ग बताकर योग−साधकों को योगामृत संजीवनी प्रदान की। नाथ सिद्धों की वाणियाँ सीधे सरल शब्दों में लिखी गयीं व उनसे इस साधना के परिष्कृत रूप को जन्म लेने में मदद मिली। घेरण्ड संहिता व गोरक्ष संहिता आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ इसी समय के हैं।

मंत्रयोग, भक्तियोग, राजयोग, क्रियायोग, शब्द पूर्वयोग, आर्स्पशयोग (गौडपनाद), लययोग ऋजुयोग इत्यादि नामों से न जाने कितनी योग ‘पद्धतियाँ’ हमारे अध्यात्म में प्रचलित रही हैं। बुद्ध के जन्म के प्रायः पाँच सौ वर्ष आद्य शंकराचार्य का जन्म हमारे देश के इतिहास की एक और विलक्षण घटना है। इस साधक ने अल्पायु में ही आत्म ज्ञान प्राप्त कर पूरे राष्ट्र की दिग्विजय यात्रा की। बौद्धों के समय में जो अध्यात्म तंत्र में भ्रष्टता छा गयी थी, तंत्र के नाम पर भ्रष्टाचरण ही एक नियम बन गया था, उस समय आद्यशंकर ने इस साधना का अपने सशक्त प्रतिपादनों द्वारा खण्डन किया स्वयं उनने जीवन में तंत्र से लेकर अन्यान्य सभी साधनाएँ कीं, सौंदर्य लहरी जैसा अभिनव विलक्षण काव्य रचा किन्तु जन-जन के लिए निराकार उपासना के साथ-साथ पंचदेव उपासना का प्रचलन किया। उनका आगमन व मात्र 32 वर्ष की आयु में कार्य कर सारी महत्वपूर्ण स्थापनाएँ कर जाना हमारी संस्कृति की एक ऐतिहासिक घटना है।

आद्यशंकर के पश्चात् मध्यकाल का विकृति युग आया मार्गदर्शक के अभाव में ढेरों प्रकार की साधना पद्धतियाँ प्रचलित हो गयीं। इस्लाम संप्रदाय आया तो ईसाई संप्रदाय भी अपनी रहस्यवाद सिद्धान्त लेकर आया। रीतिकाल में भक्ति योग का वर्चस्व रहा। इस सदी के प्रारंभ से कुछ दशक पूर्व रामकृष्ण परमहंस का इस धरती पर अवतरण हुआ जिनने विवेकानन्द जैसे सुयोग्य शिष्य के माध्यम से अध्यात्म तंत्र के परिशोधन तथा पूरे विश्व के मार्गदर्शन की बात कही। स्वयं विवेकानन्द निर्विकल्प समाधि चाहते थे किन्तु श्री रामकृष्ण ने उन्हें ऐसी स्थिति में जाकर समाज के लिए अनुपयोगी होने के बजाय साधना का परमार्थ में आराधना में नियोजन करने की बात कही। इस सदी के प्रारंभ तक रामकृष्ण मिशन के वेदान्तिक प्रतिपादनों से लेकर, महर्षि रमण व महर्षि अरविन्द व श्री माँ के भागवत चेतना अवतरण से लेकर अधिमानस व अतिमानस के अवतरण के प्रसंगों का साहित्य व जन प्रचलन में बाहुल्य हम देखते हैं। साथ ही विदेश व भारत में श्री कृष्ण भक्ति के माध्यम से प्रभुपाद स्वामी का हरेकृष्ण (इस्कॉन) संप्रदाय महर्षि महेशयोगी का भावातीत ध्यान तथा ओशो रजनीश का नव संन्यास व प्रचलन से हट कर एक अलग ढंग की एण्टी थीसिस साधना पद्धति में जन्म लेती दिखाई पड़ती है।

इन सब के बीच चौथे दशक के अंत में “मैं क्या हूं नामक आत्मोपनिषद् से आरंभ कर गायत्री महाविद्या के छोटे-छोटे सूत्रों का उद्घाटन करने वाले, गायत्री व यज्ञ को जीवन व्यवहार में हर किसी के द्वारा अपनाये जाने का प्रतिपादन करने वाले परम पूज्य गुरुदेव का आविर्भाव हुआ। देखते-देखते “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका का गायत्री चर्चा प्रसंग ऐसा विस्तृत होता चला गया कि उसने योग व तंत्र के सारे विशिष्ट को आत्मसात कर जन-जन के लिए सुलभ बना दिया। 1008 कुण्डी गायत्री महायज्ञ द्वारा एक विशाल गायत्री परिवार का संगठन करने वाले परम पूज्य गुरुदेव ने बिना अधिक स्वयं को प्रकाश में लाए, वर्ष की उच्चस्तरीय ताँत्रिक स्तर की साधना हिमालय में पुनः 1960-61 में की (जो उनकी चौबीस लक्ष की चौबीस महापुरश्चरणों के बाद की साधना है) तथा तुरंत आते ही युग निर्माण योजना को जन्म देकर जन-जन को पंचकोशी साधना द्वारा साधना पथ पर एक ऊँचे सोपान पर चल पड़ने को प्रेरित किया। सामान्यतया नारी शक्ति से तप के स्थान पर भाव प्रधान अपेक्षाएँ की जाती रही हैं किन्तु युगऋषि ने एक विराट नारी समुदाय को भी इस कठोर साधना का भागीदार बनाया, पंचकोशी साधना हेतु सुनियोजित पाठ्यक्रम चलाया, सूर्य की साधना सबके द्वारा इन प्रतिकूल परिस्थितियों में किए जाने की महत्ता प्रतिपादित की तथा महाकाल की युग प्रत्यावर्तन क्रिया का उद्घाटन करते हुए कठिन से कठिन साधनाओं को सरल रूप देते हुए एक विशाल समुदाय को गायत्री-सावित्री महाशक्ति की साधना से जोड़ दिया।

हम संभवतः अपनी गुरुसत्ता की साधना क्षेत्र की उपलब्धियों का विश्लेषण कर उनकी युग ऋषि के रूप में अपरिमित उपलब्धियों का विश्लेषण कर उनकी युग ऋषि के रूप में अपरिमित उपलब्धियों के विषय में पूरा न्याय न कर पाएँ किन्तु इतना अवश्य बताना चाहेंगे कि जो साधना पद्धतियाँ कभी भिन्न-भिन्न समूहों में बँटकर कुछ पंथों तक सीमित रह गयी थीं, उन्हें जनसाधारण के नित्यकर्म का एक अंग बना देना, षट्चक्र जागरण-कुण्डलिनी जागरण ग्रन्थिभेदन जैसी प्रक्रियाओं को अति सरल रूप में एक गायत्री साधना रूपी वटवृक्ष के नीचे लाकर खड़ाकर प्रतिपादित कर देना एक ऋषि स्तर के व्यक्ति का काम है। चौथी बार की हिमालय यात्रा (1971-1972) के बाद आने पर प्राण प्रत्यावर्तन साधना के द्वारा प्राण का महाप्राण के साथ आदान-प्रदान जैसी प्रक्रिया आरंभ करना जिसमें खेचरी मुद्रा, सोऽहम् साधना, ज्योति अवतरण की बिन्दु साधना, नादयोग की साधना, आत्मबोध-तत्वबोध की दर्पण साधना, पंचकोशों की पंचदेव सिद्धि आदि उपचारों का समावेश था, जो एक विलक्षण स्थापना है। उस पर भी परम पूज्य गुरुदेव यह कहते थे कि “यह तो मात्र खिलौने-झुनझुने मैंने पकड़ा दिए हैं। समय आने पर एक करोड़ से अधिक व्यक्तियों से इन से भी कठोर स्तर की साधनाएँ सूक्ष्म शरीर से कराते हुए उन्हें नवयुग का आधार, आत्मबल संपन्न महामानव मुझे बनाना है।” जो कभी अति कठोर, दुर्लभ समझी जाने वाली साधनाएँ थीं, उन्हें उनने इतना सरल कर दिया तथा उपाधि दी झुनझुनों की। कहीं ऐसा वर्णन साधना पद्धतियों का साधना के इतिहास में नहीं मिलता जिसका प्रणयन परम पूज्य गुरुदेव ने किया। पर यहीं तो उनका ऋषि पक्ष उद्घाटित होता है। जो नये सूत्र चेतना जगत के क्षेत्र को दे, वह युग ऋषि नहीं तो और क्या है?

प्राण प्रत्यावर्तन के उपरान्त स्वर्ण जयंती साधना (1976), विशिष्ट ब्रह्मवर्चस् साधन (1977-78), युग सन्धि महापुरश्चरण (1980) आध्यात्मिक कायाकल्प की चाँद्रायण स्तर की कल्पसाधना (1981-82) अति प्रचण्ड सूक्ष्मीकरण साधना (1984-85) पंचवीर भद्रों के जागरण की सावित्री साधना (1986) तथा राष्ट्र की देवात्म-शक्ति का कुण्डलिनी जागरण (1987) क्रमशः चले आने वाले वे विशिष्ट उपादान हैं, जिनसे इस साधक की महायात्रा का आभास मिलता है। अति कठिन शास्त्रोक्त साधना पद्धतियों को अति सरल बनाकर यज्ञ प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन कर उसे प्रगतिशील मोड़ देना एक असाधारण साधक स्तर के युगऋषि का ही कार्य हो सकता है।

एक असमंजस सबके मन में हो सकता है कि अब जब गुरुदेव की स्थूल उपस्थिति हमारे बीच नहीं है तो हमारा क्या होगा? तो हम सबको बताना चाहेंगे एक वार्तालाप के बारे में जो कभी उनके साथ हुआ था। उनसे यह पूछा जाने पर कि “गुरुदेव जब हम आपके सामने नहीं होते, कहीं दूर कार्य क्षेत्र में काम कर रहे होते हैं अथवा अपने अपने घरों में सो रहे होते हैं, तब भी आपको हमारा ध्यान रहता है?” उनने आँख में आँसू लाकर कहा था-”बेटा । जब तुम सोते हो या मेरा-गायत्री माता का ध्यान करते हो तब मैं तुम्हारी चेतना में प्रवेश कर तुम्हें सुधारता हूँ। तुम्हारी चेतना के कण-कण को बदलता हूँ। शरीर से न रहने पर तो यह काम और अधिक व्यापक क्षेत्र में करूंगा क्योंकि मुझे एक करोड़ साधक तैयार करने हैं। मुझे अपने एक-एक शिष्य व जागृतात्मा का ध्यान है।” यह आश्वासन है इस दैवीसत्ता का। यदि हम साधना द्वारा उनसे जुड़े रहें, उनकी दैवीसत्ता को सूर्य मण्डल के मध्य स्थितमान ध्यान करें तो पायेंगे कि पवित्रता सतत् बढ़ रही है व शक्ति की निरन्तर वर्षा हो रही है। जब तक अंतिम आदमी उनसे जुड़ा मुक्त नहीं हो जाता, उनकी सत्ता सक्रिय है युगऋषि के रूप में, कृतसंकल्प है हमें बदलने को तथा सतयुग लाने को। फिर मन में कैसा असमंजस, कैसा ऊहापोह ?

*समाप्त*

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