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Magazine - Year 1992 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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गुरु-शिष्य के अंतर्संबंधों पर टिकी संस्कृति चेतना

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आर्ष वाङ्मय में उपनिषदों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। वेदों के ही ज्ञान भाग का आख्यान ये हैं। उपनिषद् शब्द का अर्थ है निकट बैठकर दिया गया ज्ञान। तात्विक विवेचन के विषयों पर किया गया रहस्य भरा प्रतिपादन जिस समय गुरु अपने पास शिष्य को बिठाकर समझाते थे, तब वह ज्ञान उपनिषदों के रूप में क्रमबद्ध होकर आया एवं एक विलक्षण सम्पदा बन गया। गुरुसत्ता के रूप में यम एवं शिष्य के रूप में बैठे नचिकेता का पारस्परिक संवाद कठोपनिषद् की वल्लियों में पंचाग्नि विद्या के रूप में हमारे समक्ष आता है तो आरुणी का अपने पुत्र श्वेतकेतु को दिया गया ब्रह्म विद्या संबंधी वह आख्यान भी जिसमें वह “तत्व मसि श्वेतकेतोः” “तू ही वह चिदानंद ब्रह्म है” कहकर उस पर पड़ा अज्ञान का आवरण हटाते हैं। यही औपनिषदिक परम्परा, जिसमें जिज्ञासु शिष्य की तत्वज्ञान संबंधी जिज्ञासा का समाधान एक ऐसी गुरुसत्ता करती है जिसने स्वयं उसका अपने जीवन में साक्षात्कार कर लिया हो, हमारी संस्कृति की आदि परम्परा रही है।

गुरु-शिष्य परम्परा ही आदिकाल से ज्ञानसंपदा का संरक्षण कर उसे श्रुति के रूप में क्रमबद्ध करती आयी है। इसका वर्णन किए बिना साधना प्रसंग तथा संस्कृति का प्रकरण अधूरा रह जाता है। स्वयं भारत को जगद्गुरु की उपमा इस कारण दी जाती रही है कि उसने विश्व-मानवता का न केवल मार्गदर्शन किया ब्राह्मणत्व के आदर्शों को जीवन में उतार कर औरों के लिए वह प्रेरणा स्रोत बना। गुरु व शिष्य के परस्पर महान संबंधों एवं समर्पण भाव द्वारा अपने अहंकार को गला कर ज्ञान प्राप्ति की महत्ता का विवरण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर मिलता है। सुकरात व उनके शिष्य प्लेटो तथा प्लेटो के शिष्य अलक्षेन्द्र एवं गुरजिएफ व आस्पेन्स्की की परम्पराएँ तो बाद के विकास की हैं, जैसा कि ऊपर कहा गया। आदिकाल से ही भारतवर्ष में यह परम्परा चली आयी है कि गुरु अपने ज्ञान द्वारा उचित पात्र समझे गए शिष्य पर पड़े अविद्या-अज्ञान के पर्दे को हटाएँ व उसका उँगली पकड़ कर मार्ग दर्शन करें।

गुरु कौन व कैसा हो, इस विषय में श्रुति कहती है-”विशारदं ब्रह्मनिष्ठं श्रोत्रियं गुरुकाश्रयेत्” “श्रोत्रिय”अर्थात् जो ज्ञान से श्रुतियों का शब्द ब्रह्म का ज्ञाता हो, उनका तत्व समझता हो, “ब्रह्मनिष्ठ” अर्थात् आचरण से श्रेष्ठ ब्राह्मण जैसा ब्रह्म में निवास करने वाला हो, परोक्ष साक्षात्कार जो कर चुका हो तथा “विशारद” अर्थात् जो अपने आश्रय में शिष्य को लेकर उस पर शक्तिपात करने की सामर्थ्य रखता हो, आद्य शंकराचार्य के शतश्लोकी के पहले श्लोक में सद्गुरु की बड़ी सुन्दर परिभाषा इस वृत्तान्त में की है।

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः

र्स्पशश्चैत्तत्र कल्प्यः स नयति यदहो र्स्वणतामश्मसारम्। न र्स्पशत्वं तथापिश्रित चरणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरुपमस्तेन वा लौकिकोऽपि॥

अर्थात् “इस त्रिभुवन में ज्ञानदाता सद्गुरु के लिए देने योग्य कोई दृष्टान्त ही नहीं दीखता। उन्हें पारसमणि की उपमा दें तो वह भी ठीक नहीं जँचती। कारण पारस लोहे को सोना तो बना देता है पर पारस नहीं बना पाता। परन्तु सद्गुरु चरण युगल का आश्रय करने वाले शिष्य को सद्गुरु निज साम्य ही दे डालते हैं स्वयं अपने जैसा बना देते हैं। इसलिये सद्गुरु की कोई उपमा नहीं।” संत ज्ञानेश्वर ने गीता की भावार्थ दीपिका में लिखा है कि “यह दृष्टि (गुरु की दृष्टि) जिस पर चमकती है अथवा यह करार विन्दु जिसे स्पर्श करता है वह होने को तो चाहे जीव हो, पर बराबरी करता है महेश्वर-श्रीशंकर की”। ज्ञानेश्वरी में उनने योगीराज श्री कृष्ण द्वारा अपने शिष्य अर्जुन पर बरसाई अनुकम्पा का वर्णन करते हुए गुरु का स्तर स्वरूप बता दिया है। वे लिखते हैं “तब शरणागत भक्त शिरोमणि अर्जुन को उन्होंने अपना सुवर्ण कंकण विभूषित दक्षिण बाहु फैलाकर अपने हृदय से लगा लिया। हृदय-हृदय एक हो गए इस हृदय में जो था, वह उस हृदय में डाल दिया। द्वैत का नाता तोड़े बिना अर्जुन को अपने जैसा बना लिया।”

वस्तुतः गुरु-शिष्य संबंध इसी स्तर के आध्यात्मिक होते हैं जिनमें उच्चस्तरीय आदान-प्रदान होता है। शिष्य अपनी सत्ता को-अहं को गुरु के चरणों में समर्पित करता है। गुरु शक्तिपात द्वारा-अपनी अनुकम्पा द्वारा उसे ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बनाता व जीवन मुक्त कर देता है। संबंधों में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आत्मिक चार प्रकार के वर्णित किये गए हैं। लोकाचार में प्रथम तीन प्रकार के संबंध तो किसी से भी स्थापित हो सकते हैं किन्तु सिर्फ गुरु से ही आत्मिक स्तर के संबंधों की संभावना है।

गुरु के विषय में ऊपर बताया गया। शिष्य के संबंध में उपनिषद्कार कहता है “समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं” हाथ में समिधा लेकर शिष्ट विनम्रभाव से श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाए। समिधा क्यों? समिधा अग्नि पकड़ती है। गुरु ज्ञान की ज्योति के रूप में जीती-जागती ज्वाला है। यदि साधक समिधा जैसी पात्रता लेकर जायेगा व स्वयं को उस अग्नि को स्पर्श कर देगा तो ज्ञान की अग्नि में तपकर वह भी ज्ञान का प्रकाश विस्तार करने वाले तंत्र के रूप में विकसित होगा। भीगी लकड़ी अग्नि में जाकर तो धुआँ ही देती है। ऐसा शिष्य न हो। जिसने अपनी अहंकार रूपी सीलन मिटा दी-स्वयं को तप द्वारा सुखा लिया हो, वही समिधा बन सकता है।

आध्यात्मिक प्रगति के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का यह मानना है कि बिना गुरु के अवलम्बन के यह संभव ही नहीं है। आत्मिक प्रगति का क्षेत्र एक जीवन समर-महाभारत के सदृश है। इसे एक प्रकार से प्रवाह विरुद्ध उपक्रम कहना चाहिए। जनसमुदाय की प्रवृत्तियाँ विचारणाएँ, इच्छाएँ, आदतें, गतिविधियाँ प्रायः पेट-प्रजनन में निरत स्वार्थी कुसंस्कारी जैसी ही होती हैं। इस प्रवाह में सामान्य स्तर के व्यक्तित्व नदी में बढ़ने वाले पत्ते, आँधी में उड़ने वाले तिनके सदृश होते हैं। जैसा अधिकाँश सोचते व करते हैं, उसी का अनुकरण सामान्य स्तर के लोगों से भी बन पड़ता है। आत्मिक प्रगति के लिए भिन्न स्तर का चिंतन क्रम अपनाना पड़ता है। इसके लिए कोई न कोई अवलम्बन चाहिए। बिना किसी समर्थ आदर्शवादी व्यक्तित्व के साथ घनिष्ठता स्थापित किये ऊपर चढ़ पाना संभव नहीं। बेल अपने बलबूते पर नहीं पनपती रह सकती यूँ ही धरती पर फैलकर वह अनगढ़ बन जाती है किन्तु समर्थ वृक्ष का सहारा मिलते ही वह चढ़ती चली जाती है है व आकाश चूमने लगती है। ऊँचा उठना एक बड़ा काम है। गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध जाने के लिए बड़ी ताकत की जरूरत पड़ती है। समर्थ गुरु का वरण या गुरु दीक्षा इसी कारण जरूरी बतायी गयी है। बिना किसी अवलम्बन के अपने बलबूते, पूर्व संचित संस्कारों के सहारे कोई ऊँचा उठ सके, यह असंभव तो नहीं पर अपवाद रूप ही देखा या कहा जाएगा। सामान्यतः आत्मिक उत्कर्ष का प्रसंग आते ही यह कहा जाता है कि उसके लिए ऐसे समर्थ व्यक्ति के साथ घनिष्ठता स्थापित की जाय जो उस प्रयोजन को संपन्न कर पाने में सक्षम हो, स्वयं उतना तप जिसने किया हो। यही गुरु-वरण है। गुरु-वरण की महिमा शास्त्रों में इतनी बतायी गयी है कि बिना गुरु वाले व्यक्ति को “निगुरा” नामक निंदक उपाधि देकर अपमानित किया गया है।

गुरु मानवी चेतना का मर्मज्ञ माना गया है। वह शिष्य की चेतना में उलट फेर करने में समर्थ होता है। गुरु का हर आघात शिष्य के अहंकार पर होता है तथा वह यह प्रयास करता है कि किसी भी प्रकार से डाँट से, पुचकार से, विभिन्न शिक्षणों द्वारा वह अपने समर्पित शिष्य के अहंकार को धोकर साफ कर उसे निर्मल बना दे। प्रयास दोनों ओर से होता है तो यह कार्य जल्दी हो जाता है नहीं तो कई बार अधीरतावश शिष्य गुरु को समझ पाने में असमर्थ हो भाग खड़े होते हैं। हमारी आध्यात्मिक परम्परा गुरु प्रधान ही रही है। इसी परम्परा के कारण साधना पद्धतियाँ भी सफल सिद्ध हुईं। सदा से गुरुजनों ने अपने जीवन में प्रयोग किया है तथा सफल पाने पर सुपात्र साधकों के ऊपर रिसर्च लैबोरेटरी की तरह परीक्षण किया है। उन्हें श्रेष्ठ देवमानव बनाने का प्रयास किया है। गुरु-शिष्य परंपरा ने ही इतने नररत्न इस देश को दिए हैं, जिससे हम सब स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं।

जनार्दन पंत के शिष्य एकनाथ, गहिनीनाथ के शिष्य निवृत्तिनाथ, निवृत्ति नाथ के शिष्य ज्ञानेश्वर, स्वामी निगमानन्द के शिष्य योगी अनिर्वाण, गोविन्द पाद के शिष्य शंकराचार्य, शंकरानन्द के शिष्य विद्यारण्य, कालूराम के शिष्य कीनाराम, भगीरथ स्वामी के शिष्य तैलंग स्वामी, ईश्वरपुरी के शिष्य महाप्रभु चैतन्य, पूर्णानन्द के शिष्य विरजानन्द, विरजानन्द के शिष्य दयानंद, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवोनन्द व उनकी शिष्या निवेदिता, प्राणनाथ महाप्रभु के शिष्य छत्रसाल, समर्थ रामदास के शिष्य शिवाजी, चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त, कबीर के शिष्य रैदास, दादू के शिष्य रज्ज्ब, विशुद्धानन्द के शिष्य गोपीनाथ कविराज, पतंजलि के शिष्य पुष्यमित्र तथा बंधुदत्त के शिष्य कुमारजीव कुछ नाम हैं जो इस परम्परा में देव संस्कृति के पन्नों में पढ़े जा सकते हैं व जिनका जीवन उनके समर्पण भाव से लेकर गुरु के आत्मभाव के प्रसंग अपने आप में अद्भुत हैं। युगों-युगों तक ये प्रसंग आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधकों को प्रेरणा देते रहेंगे, ऐसी माहात्म्य भरी यह पुनीत परम्परा रही है।

भारतीय संस्कृति में श्रद्धा, जो शिष्य में गुरु के प्रति होनी चाहिए की बड़ी तर्क सम्मत वैज्ञानिक व्याख्या स्थान-स्थान पर की गयी है। सामान्यतया व्यक्ति का मन बिखराव लिए होता है। चित्त वृत्तियाँ बहिरंग में रुचि लेने के कारण बिखरी होती हैं। बिखराव को समेट कर मन को समग्र बना लेना-महानता की ओर मोड़ लेना ही श्रद्धा है। इस मन को “इन्टीग्रेटेड माइण्ड” कहा गया है। इतना होने पर संशय नहीं रहता, पूर्ण समर्पण-विसर्जन-विलय-तादात्म्य हो जाता है। समग्रता का गुरु की चेतना में गीताकार ने कहा है-

मय्ये व मन आघत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि भय्येव, अत ऊर्ध्व न संशयः ॥8/12

“हे अर्जुन ! तू मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ संशय नहीं है।” किसी को गुरु से कितना मिला, किसी को अधिक किसी को कम क्यों मिला, इसके मूल में यही कारण है कि जिसने गुरुसत्ता के आदर्शों में मन व बुद्धि को लगा दिया, संशय मन से निकाल दिया, श्रेष्ठता के प्रति समर्पण कर दिया, उसका सारा जीवन ही बदल गया। श्री अरविन्द कहते थे “डू नथिंग ट्राइ टू थिंक नथिंग विह्च इज अनवर्थी टू डिवाइन” (जो देवत्वधारी सत्ता के योग्य न हो, ऐसा न सोचो, न करो)। श्री रामकृष्ण परमहंस ने सतत् यही कहा कि कामिनी काँचन से दूर परमात्म सत्ता में मन-बुद्धि को लगाने पर स्वयं ईश्वर गुरु के रूप में आकर मार्गदर्शन करते हैं। वे कहा करते थे कि आज की स्थिति बड़ी विषम है। चारों ओर नकली गुरु हैं। उनकी उपमा श्रीरामकृष्ण ने अपनी शैली में पनेले सांप से दी है जो मेंढक को निगलने की कोशिश में मुँह में तो उसे जकड़ चुका है पर वह भी परेशान है तथा मेंढक भी। साँप छोड़ सकता नहीं, मेंढक निगला जा सकता नहीं। आज गुरु व शिष्य दोनों की स्थिति ऐसी है।

वस्तुतः समर्पण एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति का रूपांतरण कर देती है व जब श्रेष्ठ गुरु के प्रति यह समर्पण होता है तो व्यक्ति तत्सम हो जाता है। तप संसिद्धि मिल सकती है, किन्तु भगवान नहीं मिल सकता, किन्तु समर्पण से गुरु व भगवान दोनों एक साथ मिल जाते हैं। श्री रामकृष्ण कहते थे-”सामान्य गुरु कन फूँकते हैं, अवतारी महापुरुष-सद्गुरु प्राण फूँकते हैं।” ऐसे सद्गुरु का स्पर्श व कृपा दृष्टि ही पर्याप्त है परम पूज्य गुरुदेव एक ऐसी ही सत्ता के रूप में हम सबके बीच आए। अनेकों व्यक्तियों ने उनका स्नेह पाया, सामीप्य पाया, पास बैठकर मार्गदर्शन पाया, अनेक प्रकार से उनकी सेवा करने का उन्हें अवसर मिला पर जो उनके दक्षिणा मूर्ति स्वरूप को समझ कर उनके निर्देशों के अनुरूप चलता रहा, उसे यह सब न भी मिला हो तो भी आत्मिक प्रगति के पथ पर चल पड़ने का मार्गदर्शन मिला। ऐसे व्यक्ति साधना क्षेत्र में ऊँचाइयों को प्राप्त हुए। गुरु जो कहे बिना कोई विकल्प प्रस्तुत किए, बिना कोई तर्क किए उसे करना ही साधना है।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं-

गुरु के वचन प्रतीत न जेहिं , सपनेहुँ सुख सुलभ न तेहिं ।

वास्तविकता यही है कि समर्पण भाव से गुरु के निर्देशों का परिपालन करने वालों को जी भर कर गुरु के अनुदान मिले हैं। श्रद्धा की परिपक्वता समर्पण की पूर्णता शिष्य में अनन्त संभावनाओं के द्वार खोल देती है। उसके सामने देहधारी गुरु की चेतना की रहस्यमयी परतें खुलने लगती हैं। इनका ठीक-ठीक खुलना शास्त्रीय भाषा में उनके गुरु के दक्षिणा मूर्ति रूप का प्राकट्य है। जो यह रूप समझ सका, परावाणी को सुन सका उसे स्थूल का अभाव भी अभाव नहीं प्रतीत होता। गुरु का यह रूप जान लेने पर मौन व्याख्या शुरू हो जाती है। हृदय में निःशब्द शक्ति का प्रस्फुटन होने लगता है। प्रश्न जन्म लेने से पूर्व ही उत्तरित हो जाते हैं। महाशून्य से उत्सर्जित चित्तशक्ति का निर्झर खुल जाता है। स्वामी विवेकानन्द की दो शिष्याएँ थीं एक नोबुल (निवेदिता), दूसरी क्रिस्टीन (कृष्ण प्रिया)। स्वामी जी से निवेदिता तो तरह तरह के सवाल पूछतीं परन्तु कृष्ण प्रिया चुप रहतीं। स्वामी जी ने उनसे पूछा-”तेरे मन में जिज्ञासाएँ नहीं उठतीं?” उनने कहा-”उठती हैं पर आपके जाज्वल्य समान रूप के समक्ष वे विगलित हो जाती हैं।” (म्अमतलजीपदह उमसजे इमवितम जींज मजमतदंस तंकपंदबम) “मेरी जिज्ञासाओं का मुझे अंतःकरण में समाधान मिल जाता है।” लगभग यही स्थिति हम सबकी हो, यदि हम अपनी गुरुसत्ता के शाश्वत रूप, उनके दक्षिणामूर्ति स्वरूप को समझ उनके आश्वासन व हर गुरुसत्ता के संस्कृति सत्य को ध्यान में रखें कि “जब तक एक भी शिष्य पूर्णता प्राप्ति से वंचित है, गुरु की चेतना का विसर्जन परमात्मा में नहीं हो सकता।” सूक्ष्म शरीरधारी वह सत्ता अपने शिष्यों, आदर्शोन्मुख संस्कृति साधकों की मुक्ति हेतु सतत् प्रयत्नशील है व रहेगी जब तक कि अंतिम व्यक्ति भी इस धरा पर मुक्त नहीं हो जाता ।

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