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Magazine - Year 1992 - Version 2

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आत्मशक्ति के उपार्जन में समर्थ : त्रिपदा गायत्री

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आत्मशक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। वैभव, शक्ति सामर्थ्य तथा ज्ञान-कौशल से भी बड़ी सम्पदा आत्मबल है। भौतिक सम्पदा एवं सामर्थ्य के सहारे मनुष्य निर्वाह तथा सुविधा की साधन-सामग्री प्राप्त कर जीवन यात्रा थोड़ी सरल बना लेता है किन्तु आत्मशक्ति तो चेतना की प्रसुप्ति को जगाती व मानव में सोया पड़ा देवत्व जगाकर रख देती है। इस शक्ति का जागरण ही नरपशु को माँ के उदर से जन्मे शिश्नोदर परायण जीवन जीने वाले एक सामान्य व्यक्ति को महामानव, ऋषि व देवदूत बना देता है। इसी आत्मबल के सहारे अपना निज का ही नहीं, असंख्यों का उत्थान अभ्युदय संभव हो सके। जहाँ साधन सम्पन्न सुख भोगते देखे जाते हैं वहाँ आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति इसी जीवन में स्वर्ग मुक्ति का परमानन्द प्राप्त करने पर ब्रह्म के साथ तादात्म्यता का जीवन लक्ष्य प्राप्त करते हैं।

भारतीय संस्कृति इस आत्मशक्ति को जगाने के लिए साधना का मार्ग बताती आयी है। प्राच्य अध्यात्म के अंतर्गत आने वाली सभी साधना पद्धतियों का एक ही लक्ष्य है जीव को ब्रह्म के समकक्ष बना देना, “जीवों ब्रह्मैव नापरः” की शक्ति को सार्थक करना , अनगढ़ मानव में निहित असीम संभावनाओं का द्वार खोल उसके देवमानव, महामानव-अवतारी पुरुष के रूप में विकसित होने का पथ प्रशस्त करना। मानवी चेतना का कायाकल्प करने वाली साधना उपचार प्रक्रिया को ब्रह्मविद्या के अंतर्गत दो भागों में बाँटा गया है- एक योग दूसरा तप। “योग” आस्था पक्ष से संबंधित है और “तप” क्रियापक्ष से। योग एक प्रकार से चिंतन क्षेत्र को प्रभावित करने वाली साधना है जो अवाँछनीयता के पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कारों को छुड़ाने में आत्मसत्ता की मदद करती है। प्रज्ञा, भूमा, ऋतम्भरा उस परिष्कृत मनःस्थिति का नाम है जो ज्ञान साधना से प्राप्त होती है। योग का अर्थ है जोड़ देना-आत्मा को परमात्मा से। परमात्मा यहाँ व्यक्ति नहीं शक्ति है -उत्कृष्ट आदर्शवादी आस्थाओं-आकाँक्षाओं के समुच्चय के रूप में । आत्म साक्षात्कार का अर्थ यही है कि अपनी आस्थाएँ परिष्कृत स्तर की हो जाएँ, संवेदना इतनी उच्चस्तरीय हो जाय कि सब ओर अपनी ही आपा बिखरा दिखाई देने लगे। ‘योग’ की परिभाषा इस प्रकार पशु प्रवृत्तियों को देव आस्थाओं में बदल देने वाले मानसिक उपचार के रूप में बताई गयी है।

‘तप’ साधना उपचारों का क्रिया प्रधान पक्ष है। एक चरण इसका आत्म निमार्ण है, दूसरा लोक कल्याण। स्वार्थ सुविधा में कटौती करके परमार्थ की दिशा में किये जा रहे प्रयास तप की परिधि में आते हैं। आत्म निग्रह के लिए की गयी तितिक्षा, वासना तथा तृष्णा का निग्रह-नियंत्रण सेवा साधना हेतु बलिदान व त्याग का अभ्यास तथा साधनात्मक कर्मकाण्डों (जप, ध्यान, प्राणायाम, देवपूजन, संध्या, अनुष्ठान आदि) के माध्यम से आत्मशिक्षण कर प्रसुप्त को जगाना-ये सब प्रक्रियाएँ तप के अंतर्गत आती हैं।

मनीषीगणों-ऋषियों के अनुसार योग व तप के लिए सर्वश्रेष्ठ साधना गायत्री साधना है। आदिकाल से जब इस सृष्टि की उत्पत्ति अपौरुषेय वाणी के माध्यम से हुई है, गायत्री साधना का अवलम्बन ही त्रिदेवों से लेकर अवतारी सत्ताओं, ऋषि मुनिगणों से लेकर सामान्य नर-नारियों ने लिया तथा अपना प्रगति पथ प्रशस्त किया है। गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। त्रिपदा अर्थात् तीन पद-तीन चरण वाली। तीन शरीर, तीन लोक , तीन ग्रन्थियाँ, तीन गुण, त्रैत ब्रह्म, तीन देव तथा तीन ही शक्तियों का विस्तार इस सृष्टि में माना और उसका विवेचन किया जाता है। इन तीनों की ही व्याख्या त्रिपदा के तीन चरणों में विस्तार से मिलती है । साथ ही त्रिपदा गायत्री के अनुग्रह से तीन भव-बंधनों को छुटकारा होता एवं तृप्ति, तुष्टि शान्ति के रूप में तीन विभूतियाँ’-अमृत, पारस, कल्पवृक्ष के रूप में तीन अनुग्रह-वरदान मिलने की बात बताई जाती है।

गायत्री को स्वर्ग लोक की अधिष्ठात्री बताया गया है। उसका नाम कामधेनु भी है। कामधेनु का पयपान करने से देवताओं को देवत्व की प्राप्ति होती है। देवताओं के सुख के स्रोत तीन बताये गये हैं-अमृत-आध्यात्मिक संपदाएँ, पारस’-आधिभौतिक संपदाएँ तथा कल्पवृक्ष-आधि दैविक सफलताएँ अमृत कोई भौतिक वस्तु नहीं अपितु चेतना का एक स्तर है। यह भावसंवेदन की दिव्य भूमिका है। साधक अमृत पीकर अजर,अमर , बन जाता है अर्थात् अपने आपको शरीर नहीं, आत्मा होने की मान्यता सुदृढ़ व परिपक्व हो जाती है । इस स्तर की आत्मानुभूति में सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का आभास मिलता है। सर्वत्र सत् चित् आनन्द का मंगलमय समुद्र लहराता दीखता है। पारस उस पत्थर का नाम है जिसे छूने से लोहे जैसी काली कलूटी अनगढ़ धातु भी स्वर्ण जैसी बहुमूल्य बन जाती है। अध्यात्म क्षेत्र का पारस पुरुषार्थ है जो संकल्प शक्ति, तन्मयता-एकाग्रता तथा संयम प्रखरता के रूप में अंतः भूमिका में उतर कर आलस्य , प्रमाद तथा असंयम रूपी अनगढ़ताओं को मिटाता व प्रचण्ड संकल्प बल सम्पन्न व्यक्तित्व का निर्माण करता है। कल्पवृक्ष कहा जाता है कि स्वर्ग में है तथा जो उसके नीचे बैठता है , उसकी मनोकामनाएँ-वाँछित कल्पनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। यह अलंकारिक रूप से आध्यात्मिक कल्पवृक्ष के रूप में परिष्कृत व्यक्तित्व का विवरण है, जो गायत्री साधक को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में मिलता है। गायत्री सद्बुद्धि की देवी है। उसका आश्रय लेने वाला आप्त काम हो जाता है। अर्थात् उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण रहती हैं, अभावजन्य कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता । इसी स्थिति को कल्पवृक्ष की सिद्धि कहा गया है।

त्रिपदा गायत्री की यह एक विवेचना हुई। दूसरे प्रतिपादन में उसे ज्ञान , कर्म व भक्ति योग के रूप में प्रज्ञा , निष्ठा व श्रद्धा से साधक को अनुप्राणित करने वाली तथा तीन ग्रंथियों को लेकर बेधन कर भवबंधनों से मुक्त कर देने वाली बताया गया है। साधना विज्ञान के तत्वदर्शी वैज्ञानिकों ने तीन ग्रंथियों का विस्तृत विवेचन एवं निरूपण किया है। उन्हें खोलने के साधन एवं विधि-विधान बनाये हैं। उनके नाम हैं- ब्रह्म ग्रन्थि , विष्णु ग्रन्थि, और रुद्रग्रन्थि। रुद्र ग्रन्थि का स्थान नाभि संस्थान माना गया है। इसे अग्नि चक्र भी कहते हैं। माता के शरीर से बालक के शरीर में जो रस रक्त प्रवेश करता है उसका स्थान यह नाभि संस्थान ही है। प्रसव के उपरान्त नाल काटने पर ही माता और सन्तान के शरीरों कास सम्बन्ध विच्छेद होता है। इस नाभि चक्र द्वारा ही विश्व ब्रह्मांड की वह अग्नि प्राप्त होती रहती है जिसके कारण शरीर को तापमान मिलता और जीवन बना रहता है। स्थूल शरीर को प्रभावित करने वाली प्राण क्षमता का केन्द्र यही है। शरीर शास्त्र के अनुसार नहीं अध्यात्म शास्त्र के सूक्ष्म विज्ञान के अनुरूप प्राण धारण का केन्द्र यही है। कुण्डलिनी शक्ति इसी नाभि चक्र के पीछे अधोभाग में मल मूत्र छिद्रों के मध्य केन्द्र में। इस केन्द्र के जागरण अनावरण का जो विज्ञान विधान है वह त्रिपदा गायत्री के प्रथम चरण का क्षेत्र समझा जा सकता है।

दूसरी ग्रन्थि है-विष्णु ग्रन्थि। यह मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र में है। आज्ञा चक्र, द्वितीय नेत्र इसी को कहते हैं। पिट्यूटरी और पीनियल हारमोन ग्रन्थियों का शक्ति चक्र यहीं बनता है।

मस्तिष्क के खोखले को विष्णु लोक भी कहा गया है। इसमें भरे हुए भूरे पदार्थ को क्षीर सागर की उपमा दी गई है। सहस्रार चक्र को हजार फन वाला शेष सर्प कहा गया है। जिस पर विष्णु भगवान सोये हुए हैं। ब्रह्मरंध्र की तुलना पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से की गई है। अनन्त अन्तरिक्ष में अन्तर्ग्रही प्रचण्ड शक्तियों की वर्षा निरन्तर होती रहती है। ध्रुवों में रहने वाला चुम्बकत्व इस अन्तर्ग्रही शक्ति वर्षा में से अपने लिए आवश्यक सम्पदायें खींचता रहता है। पृथ्वी के वैभव की जड़ें इसी ध्रुव प्रदेश में हैं वहाँ से उसे आवश्यक पोषण निखिल ब्रह्माण्ड की सम्पदा में से उपलब्ध होता रहता है। ठीक इसी प्रकार मानवी काया एक स्वतंत्र पृथ्वी है। उसे अपनी अति महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर इसी ब्रह्म रंध्र के माध्यम द्वारा उपलब्ध होता है। यह ध्रुव प्रदेश अवरुद्ध रहने से मूर्छित स्थिति में पड़े रहने से सूक्ष्म जगत के अभीष्ट अनुदान मिल नहीं पाते और पिछड़ेपन की आत्मिक दरिद्रता छाई रहती है। विष्णु ग्रन्थि के जाग्रत होने पर वह द्वार खुलता है। जिससे दिव्य अनुदानों की अभीष्ट मात्रा आकर्षित और उपलब्ध की जा सके । मस्तिष्क का बहुत थोड़ा अंश प्रायः सात प्रतिशत ही जाग्रत होता है। उसी से तथाकथित विद्वता बुद्धिमानी आदि की ज्ञान सम्पदा से जिन्दगी की गाड़ी घसीटी जाती है। शेष 93 प्रतिशत ज्ञान संस्थान प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। उसी को विष्णु भगवान का शेष शैया शयन कहा गया है। इस क्षेत्र के बन्द कपाट खोले जा सके और उस अँधेरी कोठरी में प्रकाश पहुँच सके तो कहाँ की रत्न राशि टटोली और काम में लाई जा सकती है। दूर दर्शन, दूर श्रवण, भविष्य ज्ञान , विचार संचालन, प्राण प्रहार आदि अनेक योग और चौंसठ योगिनियाँ यहीं समाधिस्थ बनकर लेटी हुई हैं। उन्हें यदि जगाया जा सके तो मनुष्य सहज ही सिद्धि पुरुष बन सकता है, उनकी अविज्ञात , क्षमता विकसित होकर देव तुल्य समर्थता का लाभ दे सकती है। ऐसी उपलब्धि त्रिपदा गायत्री के दूसरे चरण विष्णु ग्रन्थि के खुलने पर होती बतायी गयी है।

त्रिपदा का तीसरा चरण ब्रह्म ग्रन्थि से सम्बन्धित है। इसका स्थान हृदय चक्र माना गया है। इसे ब्रह्मचक्र भी कहते हैं। ब्रह्म परमात्मा को कहते हैं। भाव श्रद्धा संवेदना एवं आकाँक्षाओं का क्षेत्र यही है। शरीर शास्त्र के अनुसार भी यहाँ रक्त का संचार एवं संशोधन करने वाला केन्द्र यही है। इस धड़कन को ही पेण्डुलम की खट-खट की तरह शरीर रूपी घड़ी का चलाना माना जाता है।

अध्यात्म शास्त्र की मान्यता इनसे आगे की है उसके अनुसार हृदय की गुहा में प्रकाश ज्योति की तरह यहाँ आत्मा का निवास है। परमात्मा भाव रूप में ही अपना परिचय मनुष्य को देते हैं। श्रद्धा और भक्ति के शिकंजे में ही परमात्मा को पकड़ा जाता है। यह सारा मर्मस्थल यही है।

हृदय चक्र ब्रह्म ग्रन्थि है। वहाँ से भावनाओं का आकाँक्षा अभिरुचि का परिवर्तन होता है। जीवन का दिशा धारा बदलती है। बाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाली, विल्वमंगल, अजामिल आदि का प्रत्यावर्तन-हृदय परिवर्तन ही उन्हें कुछ से कुछ बना देने में समर्थ हुआ। जीवन का समग्र शासन सूत्र यहीं, से संचालित होता है। आकाँक्षायें ही भावनाओं को परिष्कृत करती हैं। अंतर्जगत का परिमार्जन करने वाली तथा भाव जगत के माध्यम से व्यक्ति का कायाकल्प करने वाली यह हृदय ग्रन्थि जाग्रत होने पर महान जागरण की प्रक्रिया संपन्न करती है।

रुद्रग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और ब्रह्म ग्रन्थि ही स्थूल -सूक्ष्म व कारण शरीरों को परस्पर जोड़े हुए हैं और सूक्ष्म जगत के साथ आदान-प्रदान का सिलसिला भी बनाये हुए हैं। स्थूल शरीर नाभिचक्र (रुद्रग्रन्थि) के नियंत्रण में है। सूक्ष्म शरीर पर आज्ञा चक्र ( विष्णु ग्रन्थि ) का कारण शरीर हृदय चक्र ( ब्रह्म ग्रन्थि) का आधिपत्य है। ताले खोलने को चाबी डालने के छिद्र यही तीन हैं। योगाभ्यास से इन्हीं की साधना को रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा की साधना माना गया है। इसी समूचे सत्ता क्षेत्र को त्रिपदा गायत्री की परिधि कहा गया है।

गुणों की दृष्टि से त्रिपदा को निष्ठा-प्रज्ञा और श्रद्धा कहा गया है। निष्ठा का अर्थ है-तत्परता दृढ़ता। प्रज्ञा कहते हैं-विवेकशीलता-दूरदर्शिता को श्रद्धा कहते हैं आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को । कर्म के रूप में निष्ठा-गुण के रूप में प्रज्ञा और स्वभाव के रूप में श्रद्धा की सर्वोपरि गरिमा है। स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीरों के परिष्कार का परिचय इन्हीं तीनों के आधार पर मिलता है। गुण, कर्म, स्वभाव ही किसी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता-निकृष्टता के परिचायक होते हैं।

त्रिपदा का एक पक्ष सृजनात्मक है तथा दूसरा ध्वंसात्मक । एक आध्यात्मिक है दूसरा भौतिक। आध्यात्म के सृजन पक्ष को गायत्री कहते हैं और भौतिक विज्ञान पक्ष को सावित्री । अवाँछनीयताओं के निराकरण का उत्तरदायित्व भी सावित्री का है। पौराणिक गाथा के अनुसार ब्रह्मा जी की इन्हें दो पत्नियाँ माना गया है। सृजन पक्ष के रूप में त्रिपदा की गायत्री कर चर्चा अधिक हुई है। श्रुति ने “असतो मा सद्गमय” “तमसो मा ज्योतिर्गमय” “मृत्योर्मामृत गमय” के रूप में त्रिपदा के इन तीनों चरणों की ही अभ्यर्थना की और तृप्ति-तुष्टि एवं शाँति का वरदान माँगा है।

गायत्री पक्ष की ऊपर चर्चा हुई है। यह दक्षिणमार्गी साधना है। वाममार्गी साधना जो तंत्र प्रधान है वह सावित्री साधना कहलाती है।

दुष्टता को निरस्त करने के लिए, आक्रमण अस्त्र रूप में त्रिपदा के सावित्री पक्ष का प्रयोग होता है। इस प्रकार के प्रयोग उपचार को ब्रह्मास्त्र कहते हैं। मेघनाद के पास ऐसी ही ब्रह्म शक्ति थी जिसे लक्ष्मण जी के विरुद्ध प्रयुक्त किया था। तन्त्र ग्रन्थों में ब्रह्मास्त्र का उल्लेख ब्रह्मशाप- ब्रह्मदण्ड के रूप में भी हुआ है इसका उपयोग दुष्टता के विरुद्ध किये जाने के कितने ही उल्लेख इतिहासों पुराणों में मिलते हैं। शृंगी ऋषि ने परीक्षित को, श्रवण कुमार के पिता ने दशरथ को गौतम ने इन्द्र को , गान्धारी ने कृष्ण को, कपिल ने सागर सुतों को, ऋषियों का नहषु को शाप देने के उपाख्यान सर्व विदित हैं। वरदानों की तरह शापों का भी सुविस्तृत इतिहास है। मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन, आदि के ताँत्रिक प्रयोगों कास विवरण एवं विधान गायत्री तन्त्र एवं अन्यान्य ग्रन्थों में संकेत रूप से दिया गया है। विस्तारपूर्वक उसे इसलिए नहीं लिखा गया कि अनाधिकारी व्यक्ति उसे स्वार्थ सिद्धि के लिए अनीति-पूर्वक प्रयुक्त कर सकते हैं। ऐसा समय-समय पर हुआ भी है। वस्तुतः यह पक्ष गुप्त ही है। जिस प्रकार रिवाल्वर आदि प्रचण्ड अस्त्रों के लाइसेन्स हर किसी को नहीं मिलते। प्रामाणिक व्यक्तियों को ही उन्हें रखने की आज्ञा मिलती है । ठीक इसी प्रकार ताँत्रिक प्रयोगों की शिक्षा सर्व-सुलभ नहीं की गई है। किन्तु है वह भी त्रिपदा का एक महत्वपूर्ण पक्ष। गायत्री का ज्ञान पक्ष ब्रह्म विद्या कहलाता है और विज्ञान पक्ष ब्रह्म तेजस् । दोनों के समन्वय से ब्रह्म वर्चस् शब्द बना है । इसमें आत्मज्ञान और आत्मबल दोनों का समन्वय कर सकते हैं। अथर्व वेद में गायत्री विद्या की सात सिद्धियाँ गिनाई गईं हैं। सबसे अन्तिम सोपान ब्रह्मवर्चस् कहा गया है उसकी उपलब्धि के लिए जो संतुलित यात्रा करनी पड़ती है उसमें दक्षिण और वाम मार्ग का ब्रह्म योग और तन्त्र योग दोनों का समन्वय सम्मिलित है। इसी से उसे पूर्णयोग की संबा दी गयी है। त्रिपदा गायत्री की साधना आत्मविश्वास उपार्जन के लिए देव संस्कृति के प्रणेताओं ने सर्वश्रेष्ठ बतायी है व ऐसे माहात्म्यों से आर्ष साहित्य भरा पड़ा है। यदि आत्मशक्ति प्रचण्ड मात्रा में उपलब्ध हो सके तो ऐसे अगणित व्यक्तित्वों से युगपरिवर्तन का वातावरण बनेगा, इसमें किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए।

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