
साधारण कर्म भी बन जाता है-योग
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इतने ऋषियों तपस्वियों के रहते-एक राजा तत्वज्ञानियों की सभा का संचालन करे ? सभी के मनों में यह प्रश्न खटक रहा था । पर परमर्षि , याज्ञवल्क्य के निर्णय का प्रतिकार ? यहीं पर आकर बात अटक जाती । महर्षि इस अंतर्द्वंद्व से अपरिचित न थे। वन मार्ग पर पड़ते कदमों के साथ उनका मन समाधान के सूत्र खोज रहा था। साथ में चल रही तत्व जिज्ञासुओं की मण्डली अपने मन की तरंगों में उलझी थी । चलते-चलते महर्षि ने आकाश की ओर ताका सूर्यास्त हो रहा था। अस्ताचल की ओर जाते हुए आदित्य की रश्मियों को गले लिपटाकर विदाई दे रहे वृक्ष सुनहले दिख रहे थे। पक्षियों का साम-गाम वायुमण्डल को एक अनोखी गूँज से भर रहा था।
वन पथ कब राजपथ से मिलने लगा इसे जानने का किसी को अवकाश न था। चलते-चलते सभी किसी गाँव के पास आ पहुँचे थे। राह के किनारे ही देव-मन्दिर बन रहा था। शाम होने के बाद भी अभी निर्माण कार्य थमा नहीं था। शायद इसे जल्दी परिपूर्णता देनी हो, न जाने महर्षि को क्या स्फुरणा हुई -उन्होंने निर्मित हो रहे मन्दिर के सीमा क्षेत्र में प्रवेश किया। पीछे-पीछे तपस्वियों की मण्डली भी घिर आई। ढेरों-मजदूर, कारीगर, और बढ़ई वहाँ काम कर रहे थे। पता नहीं क्या सोच कर उन्होंने एक ओर बैठे काम कर रहे मजदूर के पा जाकर पूछा-”भाई! क्या कर रहे हो ?” देखते नहीं हो। पत्थर तोड़ रहा हूँ” -मजदूर ने कहा। यद्यपि सवाल बड़ी विनम्रता से किया गया था। वाणी पर्याप्त माधुर्य से सनी थी। परन्तु इतना तिक्त जवाब पाकर लगा कि काम करने वाला तेज मिज़ाज है। यही नहीं वह किसी बात को लेकर दुखी है। तभी तो सीधी-साधी बात का इतना
कड़वा उत्तर ।
वह कुछ और बढ़े। दूसरे मजदूर के पास पहुँच कर पहले वाला सवाल दुहराया। मजदूर के उत्तर में पहले जैसी तिरक्तता तो नहीं थी, पर यह जरूर लगता था कि उसे काम में आनन्द नहीं आ रहा है। उसने कहा था “ऋषिवर! उदर पूर्ति के लिए काम कर रहा हूँ।”
उसकी वाणी में विवशता की बोझिलता और अनुत्साह का फीकापन था। वह इधर’-उधर देखते हुए एक और कार्यकर्मी के पास गए। महर्षि के साथ चल रही मण्डली कुछ आश्चर्य और कौतुक के साथ उनका यह कार्य-व्यवहार देख रही थी । पर वह इस सबसे अनभिज्ञ तीसरे मजदूर के पास खड़े थे। वह बड़े उत्साह शक्ति और सुघड़ता से पत्थर तोड़ रहा था। उनने उससे पूछ ही लिया-”भाई यहाँ क्या हो रहा है और तुम क्या कर रहे हो ?” मजदूर ने बिना हाथ हटाए उनकी ओर देखा व किंचित सिर झुका कर तत्वज्ञ ऋषि को प्रणाम किया । उसकी आह्लाद की चमक और आनन्द की दीप्ति नाच रही थी। उसी भाव को व्यक्त करते हुए उसने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया-”भगवन्! यहाँ प्रभु का मन्दिर बन रहा है। मैं भी इस भगवत् कार्य को पूरा करने के लिए मेहनत कर रहा हूँ।”
वह फिर अपनी राह चल पड़े। तनिक पीछे मुड़ते हुए ऋषिगणों को सम्बोधित किया-”आप सब समझे कर्म का रहस्य ?” उत्तर में उन सभी की आँखों में शून्यता का भाव उभरा । लगता था उनमें से किसी को समझ में नहीं आया था। अब वह खुद समझाते हुए बोले “ऋषिगणों! पहला मजदूर जबरदस्ती लादी गई मजदूरी कर रहा था। दूसरा बेचारा स्वतः की विवशता के कारण जुटा था। दोनों अपने मनोभावों के कारण दुःखी, निराश और उद्विग्न थे। जब कि तीसरा वही काम करते हुए आनन्दित था जानते हैं क्यों?” हल्की मुसकान के साथ उन्होंने देखा “तीसरे व्यक्ति में एक गरिमा थी, आनन्द था, प्रवीणता थी और उन सबका कारण थी उस व्यक्ति की समर्पण की आध्यात्मिक भावना जो उसे तीनों विशेषताओं से आप्लावित कर रही थी।
“यदि कर्म ही सब कुछ है तब योग और तपश्चर्या की प्रक्रियाएँ ?” एक जिज्ञासु ने प्रश्न उठाया।
“तप और स्वाध्याय से मनन और निदिध्यासन से ध्यान और समाधि से वह परम तत्व अनुभव का विषय बनता है। सत्संग और सदाचार से यह मनुष्य का शरीर इसके भीतर देखने वाला अन्तःकरण वह पवित्र अधिष्ठान बनता है जिसमें आत्मानुभूति स्थिर और अचंचल होकर निवास करती है। सत्य बड़ा गुण है, स्वाध्याय और सत्संग तप है। पर पर-दुःख कातर होकर रात दिन कर्म में तत्पर रहना सर्वत्र आत्मानुभूति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कार्य के स्वरूप का मूल्य नहीं मूल्यवान और महत्वपूर्ण उसके पीछे विद्यमान भाव है। भावों की इसी उत्कृष्टता के कारण जनक राजा होने के पर भी तत्व-ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, उपदेश देने योग्य हैं।” ऋषिगणों को समाधान मिल रहा था महर्षि कह रहे थे-”उत्कृष्ट भावनाओं के घुल जाने पर साधारण कर्म भी योग बन जाता है। फिर महाराज विदेह तो भगवान के विश्व उद्यान को सुन्दरतम बनाने के लिए स्वयं को प्रतिफल दलित द्राक्षा की तरह निचोड़ रहे हैं। इससे अधिक साधना मुझे ज्ञात नहीं।”
“निश्चित रूप से वह श्रेष्ठतम तत्वज्ञानी है।” अनेक स्वर एक साथ उभरे।