
शद्व शक्ति व यज्ञ ऊर्जा का अद्भुत अभिनव समन्वय
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आर्ष संस्कृति में शब्द व ताप की सर्वाधिक चर्चा है। चेतना जगत की हलचलें जिस ऊर्जा के माध्यम से गतिशील रहती हैं वह-है “शब्द।” पदार्थ जगत् की क्रियाशीलता के पीछे जिस ऊर्जा का उपयोग होता है वह है-”ताप।” धरती पर जिस स्तर का जीवन विद्यमान है और जिस प्रकार की हलचलें होती रहती हैं उनमें सूर्य ताप की प्रधान भूमिका है। सौर मण्डल के जिन ग्रह-उपग्रहों में सूर्य ताप की जहाँ असन्तुलित स्थिति है वहाँ आग के गोले जैसी या हिम खण्ड जैसी स्थिति बनी हुई है। धरती को जो सौभाग्य मिला है उसमें उसकी निजी संरचना का उतना महत्व नहीं जितना कि सौर ऊर्जा के सन्तुलित अनुदान का। इसलिए सूर्य को इस पदार्थ जगत की आत्मा कहा गया है-” सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च।”
यों पदार्थ जगत की संरचना में अन्य तत्वों का भी सम्मिश्रण है, पर जहाँ तक क्रियाशीलता का सम्बन्ध है वहाँ अग्नि को ही प्रधानता देनी पड़ेगी । ताप और क्रियाशीलता एक प्रकार से पर्यायवाची ही समझे जा सकते हैं। शरीर का तापमान समाप्त होते ही न कोई अंग अवयव काम करता है न उसमें जीवन के चिन्ह ही शेष रह जाते हैं। अन्य जीवधारियों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। पदार्थ जगत की सबसे छोटी इकाई परमाणु मानी जाती है। अब उसके अंतर्गत विद्यमान इलेक्ट्रॉन , प्रोटीन आदि की उपस्थिति एवं मध्यवर्ती ‘न्यूक्लियस’ के सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकारी प्राप्त कर ली गई है और अणु विस्फोट के माध्यम से प्रचण्ड ऊर्जा उभारने में सफलता प्राप्त कर ली गई है। अणु क्षेत्र से आगे तरंग जगत् है। पदार्थ की मूल प्रकृति अब परमाणु नहीं, तरंग है। तरंगों के कितने ही भेद-उपभेद हैं। इन में से चेतन क्षेत्र में जिस प्रकार शब्द की प्रमुखता है उसी प्रकार पदार्थ क्षेत्र में ताप को मूर्धन्य कहा जा सकता है। कहा जा चुका है कि ताप और हलचल उसी प्रकार आपस में सम्बद्ध हैं जिस प्रकार कि शब्द और चिन्तन परस्पर सम्बद्ध हैं। उसी प्रकार ताप और गति को भी अन्योन्याश्रित माना जा सकता है।
यह यहाँ पर इसलिए कहा गया कि आत्मिकी के प्रयोग प्रयोजनों में जहाँ चेतनात्मक उत्कर्ष के लिए शब्द शक्ति का-गायत्री विद्या का महत्व समझाया जा रहा है उसी प्रकार सूक्ष्म विज्ञान में जहाँ कहीं पदार्थ साधनों का उपयोग करना पड़े वहाँ उसके गति केन्द्र ‘ताप’ का महत्व भी ध्यान में रखा जा सके। शब्द शक्ति गायत्री विद्या के माध्यम से अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से प्रयुक्त होती है। इसी प्रकार ताप शक्ति का दिव्य प्रयोजनों के लिए जब भी उपयोग करना पड़े तब उसके लिए क्या करना होगा? इस प्रसंग का पूर्व निर्धारण यही ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए कि इसके लिए अग्निहोत्र का माध्यम अपनाना पड़ेगा। जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रयोजनों में आग, बिजली, भाप, तेल आदि माध्यमों से ताप उत्पन्न करके दीपक जलाने, रसोई पकाने से लेकर बिजली घर, मिल कारखाने, यान जैसे अगणित प्रयोजन पूरे किये जाते हैं उसी प्रकार अग्नि-होत्र के माध्यम से ऐसी दिव्य ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जो अध्यात्म विज्ञान के आधार पर भौतिक उद्देश्यों के काम आ सके।
अध्यात्मवेत्ता साधना प्रयोजनों में अग्निहोत्र के अनेकानेक प्रयोगों का उपयोग एवं उल्लेख करते रहे हैं। उपासना-उपचार में दीपक, अगरबत्ती धूपबत्ती, अग्निहोत्र आदि के प्रयोग होते हैं। न केवल भारतीय धर्म में वरन् संसार भर के सभी धर्मों में अपने-अपने ढंग से यह प्रक्रिया काम में लाई जाती है। अगरबत्ती धूपबत्ती, लोबान, धूनी जैसे उपचार मन्दिर , गिरजाघर, गुरुद्वारे चैत्य आदि सभी जगह प्रयुक्त होते हैं। पारसी धर्म में तो यह मान्यता और भी अधिक है। उन्हें तो एक प्रकार से ‘अग्नि पूजक’ ही माना जाता है। ‘अग्यारी’ का उस धर्म में देवता जैसा सम्मान है।
भारतीय धर्म संस्कृति के साथ यज्ञ परम्परा अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त समय-समय पर होने वाले षोडश संस्कारों का विधान है। इन सभी में अग्निहोत्र अनिवार्य है।
विवाह का प्रधान संस्कार परिक्रमा है। यह उस अवसर पर किए जाने वाले यज्ञ की ही होती है। लाश को चिता में जलाने की प्रक्रिया मूलतः अग्निहोत्र का ही जल्दबाजी में किया गया औंधा-सीधा स्वरूप है। अन्यथा यदि उस कृत्य को विधिवत् किया जा सके तो फिर अन्त्येष्टि यज्ञ में ही भूत शरीर का समापन करना पड़ेगा। होली वार्षिक यज्ञ का ही ध्वंसावशेष है। अन्यान्य त्यौहारों में भी अग्निहोत्र आवश्यक है भले ही उसे महिलाएँ चूल्हे से अग्नि निकालकर चिन्ह पूजा के रूप में ही क्यों न करलें। देवी देवताओं में से एक भी ऐसा नहीं जिसकी पूजा प्रक्रिया में अग्निहोत्र का कोई न कोई छोटा-बड़ा रूप अपनाये बिना काम चल जाता हो। यहाँ तक कि भूत-पलीत, जादू-टोना, उच्चाटन- अभिचार में भी किसी न किसी रूप में अग्निहोत्र के रूप में पूर्णाहुति किये बिना सम्पन्न नहीं होती ।
गायत्री और यज्ञ को एक दूसरे का पूरक माना गया है। एक को भारतीय संस्कृति की माता और दूसरे को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। इस प्रतिपादन के आध्यात्मिक, नैतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक पक्ष भी हैं और वे सभी विचारणा एवं भावना को उच्चस्तरीय बनाने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण भी हैं। इतने पर भी उसका प्रत्यक्ष स्वरूप ‘अग्निहोत्र’ उपयोगिता की दृष्टि से अपनी अतिरिक्त गरिमा विशेष रूप से बनाए रहेगा। गायत्री को प्रज्ञादर्शन कहा जाय तो यज्ञ को उसका सहयोगी वर्चस् कहा जाएगा। इस आध्यात्मिक वर्चस् के अंतर्गत ही शारीरिक तेजस् और मानसिक ओजस् की ऊर्जा भी उभरती है। गायत्री अनुष्ठानों की पूर्णाहुति में ‘अग्निहोत्र’ को अनिवार्य माना गया है। प्रज्ञा को परमार्थ परायण बनाने का संकेत तो इस में है ही, साथ ही यह वैज्ञानिक रहस्य भी समाहित है कि आत्मिक और भौतिक प्रगति के दोनों पक्ष परस्पर गुँथे हुए हैं। एक के बिना दूसरे की न तो साधना बनती है और न प्रतिक्रिया उत्पन्न होती हैं । अतएव ‘शब्द के साथ ताप’ शक्ति का समावेश भी होना चाहिए। अर्थात् गायत्री उपासना में अग्निहोत्र को भी जुड़ा रहना चाहिए। होता भी यही है। अनुष्ठानों की पूर्णाहुति यज्ञ कृत्य के साथ ही सम्पन्न होती है। उन दिनों ज पके समय दीपक, धूपबत्ती जलाए रहते हैं। जहाँ श्रद्धा और सद्भावना है वहाँ अखण्ड अग्नि, अखण्ड धूनी; और अखण्ड दीपक की भी स्थापना रहती है। नित्यकर्म में पंचयज्ञ, बलिवैश्व की परम्परा है, जिनसे बनता है वे उसे निबाहते भी हैं।
अध्यात्म विज्ञान में पंचाग्नि विद्या का विशेष उल्लेख है। कठोपनिषद् के यम नचिकेता संवाद में इसकी सारगर्भित व्याख्या है। श्रोत्रिय अग्निहोत्री पाँच अग्नियों की स्थापना करके उनका विधिवत् यजन करते हैं। प्राण का अपान में यजन करने की रहस्यमय योगसाधना का संकेत गीता में है। जीवन रूपी समिधा को समाज रूपी यज्ञ में होम देने की कई स्तर की प्रेरणाएँ यज्ञ कृत्य के विभिन्न क्रिया-कृत्यों में कितने ही प्रकार से समाविष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में यज्ञाग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी है और वरण करने वालों को देवत्व की, विभूतियों की रत्नराशि उपलब्ध होने का आश्वासन दिया गया है। अध्यात्मदर्शन और विज्ञान के दोनों ही पक्षों में यज्ञ की जितनी चर्चा हुई है, जितनी व्यवस्था बताई, महिमा गाई गयी है उतना ऊहापोह कदाचित् ही किसी अन्य प्रसंग पर हुआ हो। यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण तथा सूत्रों-ग्रंथों में यज्ञ चर्चा की ही प्रमुखता है। मीमांसा दर्शन एवं कर्मकाण्ड ग्रन्थों पर दृष्टि डालने से उनमें यज्ञ ही सर्वोपरि महत्व का प्रतिपादन दीखता है। ब्राह्मणत्व की उपलब्धि किस प्रकार हो? जन्मजात रूप से तो सभी अनगढ़ शूद्र होते हैं, फिर मनुष्य शरीर में ब्राह्मण का उदय कैसे हो ? इसी काया में देवत्व का उदय किस प्रकार सम्भव हो? इन सभी प्रश्नों का उत्तर मनुस्मृति में एक ही दिया गया है “महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं कृयते तनुः” अर्थात् यज्ञों, महायज्ञों के माध्यम से इसी शरीर को ब्राह्मीय-ब्राह्मण स्तर का बनाया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अग्निहोत्र के माध्यम से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा सम्बद्ध व्यक्ति सत्ता का स्तर बदल सकती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक उपचार हुआ। शरीर के लिए औषधि उपचार , शल्य कर्म आदि का जो महत्व है वही प्रकारान्तर से विचारणा एवं भावना तन्त्रों में सुधार परिष्कार करने के लिए यज्ञ उपचार द्वारा सम्भव हो सकता है।
प्राणाग्नि को कुण्डलिनी के रूप में और योगाग्नि को ब्रह्मतेजस् के रूप में प्रतिपादित किया गया है। एक को भौतिक जगत की अधिष्ठात्री और दूसरी को चेतना परिसर की स्वामिनी कहा गया है। इन दोनों के उत्पादन में जो प्रयोग करने पड़ते हैं उनका स्वरूप यज्ञ स्तर का ही बनता है। सर्वतोन्मुखी ऊर्जा उत्पादन की इस प्रक्रिया के प्रत्यक्ष और परोक्ष, ज्वलनशील और ज्योतिर्मय दोनों ही पक्ष हैं। इतने पर भी उपरोक्त दोनों ही अग्नियों का प्रज्ज्वलन जिस प्रकार होता है उसमें यज्ञ प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सम्मिलित ही रहती है। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जिन पर प्रकाश डाला जा सके तो वे तथ्य उभर कर ऊपर आ सकेंगे जिनके आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकेगा कि मनुष्यों के बीच देवात्मा की तरह रहने वाले प्रज्ञा पारंगत ऋषियों ने किन कारणों से ‘यज्ञ’ को आत्मविज्ञान के प्रतिपादन निर्धारण में क्या मूर्धन्य स्थान दिया? आर्ष ग्रन्थों और आप्त वचनों के पीछे कल्पनाओं की मनगढ़न्त उड़ानें नहीं चिरकाल के प्रत्यक्ष अनुभवों का सार निष्कर्ष ही प्रस्तुत करने की परम्परा रही है। ऐसी दशा में यह मानना होगा कि यज्ञ तत्व के सम्बन्ध में जो कहा गया है वह सारगर्भित ही होना चाहिए।
यज्ञ के ज्ञान-पक्ष की तरह उसका विज्ञान पक्ष और भी अधिक सामर्थ्यवान है। एक तरह से यह पक्ष विलुप्त ही हो गया है। जिसकी शोध की जाती है पर प्रत्यक्ष रूप में मन्त्र शक्ति के प्रभाव, विशिष्ट शाकल्यों से आहुति और रहस्यमय विधि-विधान की प्रतिक्रिया सत्प्रयत्नों की परिणति के रूप में देखी जा सकती है। गीता में इस विज्ञान पक्ष का एक संकेत इस प्रकार किया गया है।
स्हयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽ,स्त्विष्टकामधुक्॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
अर्थात्-ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि “इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित कामनाओं को देने वाला हो। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है वृष्टि यज्ञ से होती है तथा यह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।”
यज्ञ के ज्ञान और विज्ञान पक्ष के अपने लाभ हैं। यह अवश्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सूक्ष्म जगत के परिशोधन में यज्ञों का असाधारण महत्व है और युगशक्ति के अवतरण में, उसके विस्तार .............. के ज्ञान तथा विज्ञान पक्ष का उपयोग अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए।
इन दिनों यज्ञ विद्या का एक प्रकार से लोप हो गया ही माना जा सकता है। मात्र आग जला देना और उसमें सुगन्धित सामग्री होम देना ही यज्ञ नहीं हो सकता। उसका प्रयोजन वायु को सुगन्धित करना भी नहीं है। यदि ऐसा ही होता तो उसमें मन्त्रोच्चार एवं अत्यन्त सतर्कतापूर्वक बरते जाने वाले विधि-विधानों एवं अनुबन्धों को उसके साथ न जोड़ा गया होता। आग में सभी सुगन्धित द्रव्य एक साथ ही झोंक देने से भी वह कार्य बिना किसी झंझट के अत्यन्त सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता था। वस्तुतः ‘यज्ञ’ प्रक्रिया के अंतर्गत उन अनेकानेक संस्कार-उपचारों का समावेश है जो गर्मी, रोशनी भर देने वाली आग को दिव्य प्रयोजनों में काम आ सकने वाली उच्चस्तरीय ऊर्जा के रूप में परिणत कर सकें। यह संस्कार प्रकरण ही यज्ञ का प्राण है। उसे न अपनाया जा सके तो अग्नि समारोह के माध्यम से प्राचीनकाल के राजसूय, अश्वमेध आयोजनों की तरह राजनीतिक न सही सामाजिक कार्यों के लिए समारोह स्तर की आवश्यकता ही पूरी हो सकती है। यज्ञ के साथ जुड़े हुए दिव्य प्रयोजन पूरे नहीं हो सकते। यज्ञाग्नि को दिव्य ऊर्जा में परिणत करने की विधि-व्यवस्था एक प्रकार से विलुप्त ही हो गई। उसी परम्परा व व्यवस्था को संस्कृति पुरुष परम पूज्य गुरुदेव ने आज के युग में पुनर्जीवित किया है। यज्ञ का न केवल शास्त्र सम्मत स्वरूप उनने स्पष्ट सामने रखा अपितु उसकी विज्ञान सम्मत विवेचना भी की। यही कारण है कि लुप्त होती जा रही, अनास्था का कारण बन रही यज्ञीय परम्परा को नवजीवन मिला व आज देव भूमि यज्ञ धूमों से सुवासित होती व मंत्रोच्चार से गुँजायमान दिखाई पड़ती है। यज्ञ परम्परा का पुनर्जीवन ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन है एवं देव संस्कृति पुनः अपने मूलभूत रूप में साकार होती, क्रियाशील होती देखी जा सकती है। भारतीय संस्कृति के पिता कहे जाने वाले यज्ञ को नूतन प्राण देकर सिसक रही मानवता का त्राण एक युग ऋषि ने किया है। इन शब्दों में कोई अत्युक्ति नहीं है।