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Magazine - Year 1992 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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गायत्री महामंत्र का तत्त्वज्ञान उसके शक्तिशाली अक्षरों में

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गायत्री वैदिक संस्कृत का एक छंद है जिसमें आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण - कुल 24 अक्षर होते हैं। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण रक्षक । गय कहते हैं प्राण को, त्री कहते हैं त्राण-संरक्षण करने वाली को। जिस शक्ति का आश्रय लेने पर प्राण का -प्रतिभा का -जीवन-जीवट का संरक्षण होता है उसे गायत्री कहा जायेगा और भी कितने अर्थ शास्त्रकारों ने किये हैं। इन 24 अक्षरों में से प्रत्येक की अलग-अलग संगतियां मिलाकर 24 ऐसे प्रेरक सूत्र प्रस्तुत किये हैं जिन्हें व्यक्ति की चरित्र-निष्ठा और समाज की प्रगति सुव्यवस्था के आधार भूत सिद्धान्त कहा जा सकता है। इस महामन्त्र के 9 शब्दों को नवधा भक्ति के सिद्धान्त- ब्रह्मतत्त्व रूपी सूर्य के नवग्रह कहा गया है। रामायण के राम-परशुराम संवाद में ब्राह्मण के परम पुनीत नौ ग्रहों की चर्चा है। यह धर्म के दस लक्षणों से मिलते जुलते हैं। इन सब अर्थों पर विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि यह छोटा सा मन्त्र भारतीय संस्कृति, धर्म एवं तत्व-ज्ञान का बीज है। इसी थोड़े से अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं की व्याख्या स्वरूप चारों वेद बने। ॐ भूर्भुवः स्वः यह गायत्री का शीर्ष कहलाता है। शेष आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। जिनके कारण उसे त्रिपदा कहा गया है। एक शीर्ष तीन चरण , इस प्रकार उसके चार भाग हो गये ।इन चारों का रहस्य एवं अर्थ चारों भागों का व्याख्यान चार वेदों के रूप में दिया। इस प्रकार उसका नाम वेद माता पड़ा। गायत्री में सन्निहित तत्वज्ञान की दो प्रकार से व्याख्या होती रह है- एक ज्ञान परक, दूसरी विज्ञान परक। ज्ञान परक को ब्रह्म विद्या और विज्ञान परक को ब्रह्म शक्ति कहते हैं। इन दोनों पक्षों को अलंकारिक रूप में ब्रह्मा की दो पत्नियों के रूप में चित्रित किया गया है। एक का नाम गायत्री, दूसरी का सावित्री। गायत्री में योगाभ्यास की ध्यान धारणा है और सावित्री में तपश्चर्या की प्रेरणा, एक को दर्शन दूसरे को प्रयोग कह सकते हैं।

गायत्री का सार -शब्दार्थ इसी प्रार्थना में समाविष्ट हो जाता है कि “ हे तेजस्वी परमात्मा! हम आपके श्रेष्ठ प्रकाश को अपने में धारण करते हैं। हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कीजिए”। शिक्षा की दृष्टि से इन शब्दों का सार ‘बुद्धि को सन्मार्ग की दिशा पर चलाने के लिए प्रयत्न करना ‘ है। सद्बुद्धि ही वह तत्व है जिसके आधार पर व्यक्तित्व निखरते-उभरते हैं कौन क्या बना? किसे कितनी सफलता मिली किसने कितना श्रेय सम्मान पाया ? उसका श्रेय समुन्नत लोगों की सद्बुद्धि को ही दिया जा सकता है जो दुर्गति के दलदल में फँसे, उनके दुर्भाग्य का सूत्र संचालन दुर्बुद्धि ही करती दिखाई देगी। स्वर्ग तक ऊँचा उठा ले जाने और नरक के गर्त में गिराने का कार्य मानवी बुद्धि की स्थिति और दिशा धारा पर ही अवलम्बित रहता है।

तत्वदर्शी महा-मनीषियों ने इस तथ्य को समझा और मनुष्य मात्र को शिक्षा दी है कि वे बुद्धि का महत्व समझें और उसे शालीनता की रीति-नीति अपनाने के लिए प्रशिक्षित-अभ्यस्त बनाने का प्रयत्न करें। यही है गायत्री मन्त्र का मूल विषय।

शब्दों की दृष्टि से इस महामंत्र का भावार्थ सरल है- ॐ परमात्मा का स्वयंभू स्वोच्चारित नाम। प्रकृति के गहन अन्तराल से एक दिव्य ध्वनि, झंकार, घर-घराहट के रूप में गूँजती है। ब्रह्म और प्रकृति का बार-बार संयोग आघात होने से ही तीन गुण-पाँच प्राण और पाँच तत्व उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से पदार्थों और प्राणियों की संरचना होती है। शब्द- ब्रह्म को सृष्टि का आदि कारण माना गया है। इसी को प्रकृति और पुरुष की मिलन प्रक्रिया का अनवरत क्रम कहा गया है। यहीं से अनहद-नाद उत्पन्न होता है। यही ॐ कार है । घड़ियाल पर हथौड़े की चोट पड़ते रहने से जिस प्रकार झंकार-थरथराहट होती है। जिस तरह घड़ी का पेंडुलम हिलने से आवाज भी होती है और मशीन भी चलती है ठीक उसी तरह प्रकृति पुरुष के मिलन संयोग से ऊँकार उत्पन्न होता है और उस सृष्टि बीज से क्रमशः सूक्ष्म प्रकृति का आकार बनता जाता है। परा प्रकृति के अपरा बनने की अदृश्य के दृश्य होने की यही प्रक्रिया है। इस प्रकार ऊँकार ईश्वर का स्वच्चरित सर्वश्रेष्ठ नाम माना गया है। प्रत्येक वेद मंत्र के सम्मानार्थ सर्व प्रथम ऊँकार लगाये जाने की परम्परा भी है गायत्री मंत्र में ऊँकार का प्रयोग इसी दृष्टि से हुआ है।

भूः भुवः स्वः यह तीन लोक हैं। यों उन्हें पृथ्वी , पाताल और स्वर्ग-मध्य ‘ऊपर ‘ नीचे के रूप में भी जाना जाता है। पर आध्यात्म प्रयोजनों में भूः स्थूल शरीर के लिए, भुवः सूक्ष्म शरीर के लिए, और स्वः कारण शरीर के लिए, प्रयुक्त होता है। वाह्य जगत और अंतर्जगत के तीनों लोकों में ऊँकार अर्थात् परमेश्वर संव्याप्त है। व्याहृतियों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है। इसमें विशाल विश्व को, विराट, ब्रह्म के रूप में देखने की वही मान्यता है जिसे भगवान ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए हृदयंगम कराया था। ईश्वर के सर्वव्यापी होने की भावना यदि ठीक तरह हृदयंगम हो सके तो फिर न तो छिपकर दुष्कर्म कर सकना बन पड़ेगा और न किसी पदार्थ का दुरुपयोग या किसी प्राणी से दुर्व्यवहार करते बन पड़ेगा। ॐ और व्याहृतियों का समन्वित शीर्ष भाग इसी अर्थ और इसी प्रकार को प्रकट करता है।

तत् अर्थात् वह । सवितु-प्रकाश और ऊर्जा से ज्ञान और वर्चस् से ओत-प्रोत परमेश्वर । वरेण्य-श्रेष्ठ । भर्ग-तेजस्वी, विनाशक । देव दिव्य इन चार शब्दों में परब्रह्म परमात्मा के उन गुणों का वर्णन है जिन्हें अपनाने का प्रयत्न करना हर अध्यात्मवादी के लिए, हर आत्मिक प्रगति के आकाँक्षी के लिए नितान्त आवश्यक है।

सविता-प्रातः कालीन स्वर्णिम सूर्य को कहते हैं। यह परमेश्वर की स्वनिर्मित प्रतिमा है। उससे वाह्य जगत में प्रकाश और अंतर्जगत में सद्ज्ञान का अभिवर्षण होता है। सूर्य से गर्मी-ऊर्जा वाह्य जगत को मिलती है। सत्संकल्प और सत्साहस से भरी हुई आत्म शक्ति का अनुदान अंतर्जगत को मिलता है। सविता शब्द का गायत्री मंत्र में सर्व प्रथम उल्लेख इसी दृष्टि से हुआ है कि साधक को प्रज्ञावान और शक्तिवान बनने के लिए अथक पुरुषार्थ करना चाहिए। वरेण्यं-श्रेष्ठ चुनने योग्य-स्वीकार करने योग्य वरिष्ठ। इस संसार में उत्कृष्ट-निकृष्ट, भला-बुरा सब कुछ विद्यमान है। उसमें से जो श्रेष्ठ है उसी को स्वीकार करना चाहिए। हंस जिस प्रकार नीर-क्षीर का विवेक रखता है-मोती ही चुनता है उसी प्रकार हमारा चयन मात्र उत्कृष्टता का ही होना चाहिए। निकृष्टता का तिरस्कार बहिष्कार करना ही उचित है। आकर्षक और हितकर में से किस का चयन करें इसी प्रश्न पर प्रायः भयंकर भूल होती रहती है। तात्कालिक लोभ के लिए दूरगामी हितसाधन की उपेक्षा की जाती है। यह भूल न होने देने की ओर गायत्री मंत्र संकेत है कहा गया है कि नीति निर्धारण करते एवं कदम उठाते समय हजार बार ठोक बजा कर देख लिया जाय कि यह वरेण्य है या नहीं । औचित्य न्याय हित का सम्मिश्रण है या नहीं।

भर्ग शब्द तेजस्विता का बोधक है। इसमें प्रतिभा , साहसिकता, तत्परता, तन्मयता जैसे तत्वों का समावेश है। क्रिया में ओजस्-विचारणा में तेजस् और भावनाओं में वर्चस् का आभास जिस, दिव्य तत्व के आधार पर मिलता है उसे भर्ग कहते हैं। भर्ग में एक भाव भूनने नष्ट करने जैसी विशिपरता का है दुष्प्रवृत्तियाँ छाई रहें तो मनुष्य माया ओर पतन के दलदल में फँसा ही रहेगा इनसे छुटकारा पाने के लिए ऐसी प्रखरता का उद्भव होना चाहिए जो अन्तर के कषायों और भीतर के कल्मषों से लोहा लेने में शौर्य पराक्रम का परिचय देती रहे। भर्ग तत्व की विशिष्टता ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी और तपस्वी लोगों में देखी जाती हैं। इसी का सम्पादन करके प्रगति के पथ पर बढ़ चलना सम्भव हो सकता है।

परमेश्वर के अनन्त नाम हैं और इच्छानुसार नये रखे जा सकते हैं। किन्तु आत्मिक प्रगति के लिए जिन चार विशिष्टताओं की नितान्त आवश्यकता है उनके बोधक शब्दों का समावेश गायत्री मंत्र में हुआ है। सविता, वरेण्य, भर्ग के उपरान्त चौथी विभूतिमत्ता का नाम है ‘देव’ । देवताओं की गरिमा महिमा के सम्बन्ध में मोटी मान्यता और कल्पना प्रायः सभी को होती है। वे सुन्दर होते हैं, सदा युवक रहते हैं, उन्हें किसी बात की कमी नहीं पड़ती, प्रसन्न रहते हैं। वे दिव्य गुण कर्म स्वभाव के होते हैं। दूसरों की सहायता करते हैं, उनका निवास ऊँचाई पर होता है, जिस क्षेत्र में रहते हैं, वह स्वर्ग कहलाता है। असुरता से वे सदा जूझते रहते हैं। प्रायः इन्हीं विशेषताओं से युक्त स्वर्ग लोक के निवासी देवता माने जाते हैं। मानवी प्रगति की अगली सीढ़ी देवत्व ही है। पशुता के पाताल से वह ऊपर उठ आया। इन दिनों पृथ्वी के धरातल पर मनुष्य के कलेवर तक आ गया । इसे सार्थक बनाते ही उसका प्रवेश देव कक्षा में होता है ईश्वर को “देव” शब्द से सम्बोधन करने में यह आत्म-शिक्षण है कि हम परमात्म देव के भक्त बनें और देवत्व की विशेषता में उनका अनुकरण -अनुगमन करें।

“धीमहि” शब्द का अर्थ है-धारण करना। आदर्शों को व्यवहार में उतारना ही उनकी धारणा है। कल्पनाएं करते रहने-कहने सुनने मात्र में उलझे रहने से कुछ बनने वाला नहीं है। परिणाम ही क्रिया उत्पन्न करता है। क्रियावान ही सच्चा ज्ञानवान माना जाता है। उसी को सद्ज्ञान का सत्परिणाम उपलब्ध होता है जो चिन्तन को क्रिया में परिणत करने का साहस दिखाता है। आत्मानुशासन की साहसिकता को प्रखर बनाने के लिए ही विविध योग साधनाएं और तपश्चर्याएं सम्पन्न की जाती हैं।

शीर्ष भाग में ईश्वर के सर्वव्यापी होने की आस्था को विकसित करके पदार्थों के प्रति सदुपयोग की ओर प्राणियों के प्रति सद्व्यवहार की नीति अपनाने का निर्देश है। प्रथम चरण में सविता और वरेण्य की तथा द्वितीय चरण में भर्ग और देव की अवधारणा का प्रशिक्षण है। गायत्री के अन्तिम तृतीय चरण धियो यो नः प्रचोदयात्’ के अंतर्गत परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि वह साधक अकेले की नहीं वरन् समस्त जन समुदाय में प्राणि मात्र में “धी” तत्व की-सद्बुद्धि की प्रेरणा करें। “नः” हम सबको और धियः बुद्धियों को कहते हैं यहाँ एक व्यक्ति की बुद्धि सुधर जाने को अपर्याप्त माना गया है। यह सुधार व्यापक रूप से हो तभी काम चलेगा। बहुमत दुर्बुद्धि “ग्रस्तों का बना रहा तो एकाकी सज्जनता मात्र से कोई बड़ा प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। राक्षसों की लंका में अकेला विभीषण तो किसी प्रकार अपना निर्वाह ही कर सका था। सच तो यह है कि दुष्टता के वातावरण से एकाकी सज्जनता भी घनी घटाओं से घिरे चन्द्रमा की तरह धूमिल ही बनी रहती हैं।

भगवान से प्रार्थना की गई है कि अपना अनुग्रह व्यक्ति विशेष पर वर्षा कर हाथ रोक न लें वरन् सद्भाव के प्रकाश को उदीयमान सूर्य की तरह सर्वत्र बिखेरें । वैदिक शिक्षण की पद्धति यह है कि किसी विभूति एवं सम्पत्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने के रूप में आत्म-शिक्षण की व्यवस्था है। प्रार्थना एक शैली है जिसके आधार पर अपने लिए सबके लिए प्रबल पुरुषार्थ करने का भी निर्देश संकेत है। माँगने भर से ही सब कुछ पाना हो तो उसके लिए पात्रता की शर्त आवश्यक है। परमेश्वर से याचना से तो आकाँक्षा का, आवश्यकता का प्रकटीकरण मात्र है। किसी से कुछ पाना हो तो उसके लिए पात्रता की शर्त आवश्यक है। परमेश्वर से याचना करने का तात्पर्य यह नहीं है कि जो कुछ माँगा जा रहा है वह अन्धाधुन्ध बरसा दिया जाय, वरन् अन्तः करण में विराजमान आत्म देव से यह अनुरोध करना है कि वे अपनी पात्रता और प्रौढ़ता विकसित करें, ताकि सहज ही उपलब्ध होती रहने वाली ईश्वरीय अनुकम्पा का अभीष्ट लाभ उपलब्ध हो सके।

प्रचोदयात् शब्द से प्रेरणा का अनुरोध है। वस्तुतः यही ईश्वरीय अनुग्रह के प्रकट होने का केन्द्र भी है। प्रेरणा का तात्पर्य है अन्तःकरण में प्रबल आकाँक्षा की उत्पत्ति । यह ही समूचे व्यक्तित्व का सारतत्व है। अन्तः प्रेरणा का अनुसरण मनः संस्थान करता है। मन के निर्देश पर शरीर काम करता है। क्रिया का परिणाम सम्पत्ति और परिस्थिति के रूप में सामने आते हैं जिन्हें पाने या हटाने के लिए मनुष्य इच्छा करता है। इच्छा की पूर्ति होने न होने में सहायक बाधक और कोई नहीं, अन्तःकरण की प्रेरणा का स्तर ही आधार भूत कारण होता है।

गायत्री उपासना का उद्देश्य है व्यक्तित्व का ऐसा अनुकूलन जिसमें ईश्वर के अजस्र अनुग्रह को धारण करा सकने की पात्रता हो। उपजाऊ भूमि में ही वर्षा के बादलों के अनुग्रह से हरियाली उपजती है। कठोर चट्टानों पर तो एक पत्ता भी नहीं उगता। गायत्री उपासना का पूरा ध्यान आत्म परिष्कार में नियोजित हो यही है संक्षेप में गायत्री मंत्र का अर्थ और तात्पर्य। जो उसका पालन करता है, वह उन सभी लाभों से लाभान्वित होता है, जो गायत्री उपासना के संदर्भ में शास्त्रकारों और ऋषियों ने देव संस्कृति के विधान के अंतर्गत बताये एवं समझाये हैं।

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