Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रज्ञायोग की सर्व सुगम साधना
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अध्यात्म मार्ग में इन दिनों अज्ञान का माहौल संव्याप्त है। भौतिक क्षेत्र में मन की असाधारण लिप्तता के कारण प्रत्यक्ष ही सब कुछ दीखता है। शरीर और मन दोनों ही उसी उधेड़ बुन में अहिर्निश लगे रहते हैं। साधना प्रयोजनों में अज्ञान होने के कारण व्यस्तता जैसे बहाने गढ़ने पड़ते हैं। मन बार बार उचटता है। अज्ञान के रहते उस प्रसंग से बच निकलने का कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लिया जाता है और यथार्थता की कितनी ही प्रबल माँग होते हुए भी टालमटोल का मन बना रहता है। ऐसी दशा में समय-साध्य, कष्ट साध्य, साधन साध्य साधनाओं के लिए दबाव डालना व्यर्थ है। न कुछ करने से कुछ करना अच्छा, की नीति अपनाई जानी चाहिए। इसलिए समय को देखते हुए सर्वसाधारण के लिए सुलभ और सर्वोपयोगी साधना विधि ‘प्रज्ञायोग‘ है मन लगने लगे तो इस साधना को क्रमशः आगे बढ़ाया जा सकता है। और उसे बड़ा, भारी और विस्तृत रूप दिया जा सकता है।
उपासना कृत्यों के आरंभ में षट्कर्म पूरे करने का विधान है
1-पवित्रीकरण-शरीर पर जल छिड़क कर कायिक पवित्रता की भावना।
2- तीन बार चम्मच से आचमन करके मन, बुद्धि और भावना की पवित्रता का उभार।
3-शिखा वंदन-जल से शिखा का स्पर्श मानसिक संतुलन और उदात्तीकरण का भाव निर्धारण।
4- प्राणायाम साँस को गहरी खींचना अर्थात् संव्याप्त प्राणतत्व का आकर्षण, साँस रोकते समय उसका काय सत्ता में संस्थापन, साँस छोड़ते समय दुरित दुर्गुणों-कुसंस्कारों का बहिष्कार।
5- न्याय पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को जल से स्पर्श। उनमें पवित्रता के संस्थापन का भावभरा संकल्प।
6- पृथ्वी पूजन मातृभूमि को विश्व वसुँधरा को निकटवर्ती प्रत्यक्ष देव मानते हुए हाथ जोड़कर नमन वंदन। यह षट्कर्म कहलाते हैं।
सर्वतोमुखी पवित्रीकरण की भावना का उन्नयन इसका उद्देश्य है उपासना से पूर्व अथवा किसी भी शुभ कार्य धर्मकृत्य के आरंभ में इन्हें कर लेने का विधान है।
प्रज्ञायोग में उपासना का अगला चरण है-देवपूजन। देवत्व की प्रतीक कोई भी स्थापना की जा सकती है। गायत्री को माता के रूप में मान्यता देने वाले आद्यशक्ति की हंसारूढ़ छवियों का प्रयोग करते हैं। निराकारवादी सूर्य शक्ति में गायत्री मंत्र प्रतिध्वनित होने की भावना कर सकते हैं। जलती अगरबत्ती या दीपक की अग्नि को भी सूर्य का अग्निहोत्र का, प्रतीक माना जा सकता है। यह एक छोटी पूजा चौकी पर स्थापित किये जायें। उन पर धूप, दीप, पुष्प, चन्दन, अक्षत, नैवेध में से जो कुछ भी सरलतापूर्वक उपलब्ध हो उन्हें श्रद्धाँजलि के रूप में प्रतिष्ठापित देवत्व प्रतीक के सामने अर्पित किया जाये। इन उपचार पदार्थों के पीछे आत्मसत्ता को तद्नुरूप ढालने का भाव है। पुष्प जैसा सुगन्धित, सुँदर कोमल जीवनयापन। दीपक जैसा प्रकाशवान बनने और संपर्क क्षेत्र में आलोक वितरण का निश्चय। अक्षत से अर्थ है अपने जीवन को निष्ठावान बनाना। जो संकल्प किये जायें उन्हें कभी भी टूटने नहीं देना, क्षत न होने देना, रोली चंदन देवता को चढ़ाने का तात्पर्य है जीवन को वैसा ही बनाना जिससे सुगन्ध सुस्थिर बनी रहे। अपने समीपवर्तियोँ को भी सुगंध से भरपूर बनाते रहे। जल का अर्थ है श्रद्धा, शाँति शीतलता, नम्रता। इन गुणों को अपने में बढ़ाने के लिए देव प्रतीकों को जल चढ़ाया जाता है। इन भावनाओं के साथ देवपूजन से आत्मशिक्षण का उद्देश्य पूरा होता है। मात्र इन वस्तुओं की हेरा फेरी कर देना या यह मानना कि इन वस्तुओं की देवताओं को अभावजन्य आवश्यकता है, ठीक नहीं। देवपूजा का तात्पर्य अपने समीप देवता को अनुभव करना है योँ देवत्व सर्वव्यापी है पर मानसिक शिक्षण के लिए उसकी प्रत्यक्ष स्थापना तद्नुरूप अनुभूतियों को बल देते हैं।
षट्कर्मों एवं देवपूजन के बाद जब ध्यान का नंबर आता है। दोनों को पृथक-पृथक करने की अपेक्षा एक साथ करना अधिक उपयुक्त रहता है। मन एकाग्र रखने के लिए उस पर जप और ध्यान के दोनों बंधन साथ-साथ बांधने पड़ते हैं। ध्यान सविता के तेज का किया जाता है। प्रभातकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को सविता कहते हैं। गायत्री महामंत्र का अधिष्ठाता सविता है। दोनों के सुयोग संयोग से पूर्णता बनती है। गायत्री जप मानसिक रूप से करते हुए ध्यान रखना चाहिए कि उदीयमान सूर्य के प्रकाश में साधक खुले बदन बैठा है। किरणें उसके कायकलेवर में प्रवेश कर रही हैं। उस प्रवेश से समूची कायसत्ता प्रभावित हो रही हैं।
काया के तीन पक्ष हैं-
1- स्थूल शरीर अर्थात् दृश्यमान शरीर जिसका केन्द्र नाभि है।
2- सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन मस्तिष्क जिसका केंद्र भृकुटि है आज्ञाचक्र।
3- कारण शरीर हृदय स्थान में अवस्थित भाव संवेदना जिसका स्थान हृदय में अवस्थित है जिसे सूर्यचक्र भी कहते हैं। इन तीनों छिद्रों के माध्यम से सूर्य छिद्रों के माध्यम से सूर्य की किरणें अपने अपने क्षेत्र में प्रवेश करती हैं।
स्थूल शरीर में बल साहस भरी पुरुषार्थ परायणता।
2- सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, नीतिनिष्ठ।
3- कारण शरीर में आत्मीयता, उदारता, सद्भावना, संयम शीलता। यह सभी सद्गुण लिए सविता की दिव्य किरणें काया के हर अंग अवयव तक पहुँचती हैं।
ऊर्जा और आभा का कण-कण में संचार करती है। ऊर्जा अर्थात् प्रतिभा आभा अर्थात् औचित्य की पक्षधर सदाशयता। यह सभी दिव्य अनुदान मनुष्य को सविता के ध्यान से मिलती है। यह भावना परिपक्व करनी चाहिए। उस अनुदान को श्रद्धापूर्वक धारण करने की मान्यता विश्वास रूप में परिपक्व करनी चाहिए। इस बीजारोपण को गायत्री जप द्वारा सींचा, उगाया और बढ़ाया जा रहा है, यह मान्यता जप, और ध्यान के साथ-साथ चलती रहनी चाहिए। उदीयमान सूर्य का ध्यान सार्वभौम है। इसमें सम्प्रदाय परक कोई भेद नहीं है। मंत्र के संबंध में मतभेद हो सकता है। जिन्हें गायत्री मंत्र न रुचे वे अपनी आस्था के अनुरूप अन्य मंत्र जप सकते हैं। इसमें कोई आग्रह नहीं है। सूर्य सबका है। इसलिए उसके ध्यान में हेरफेर करने की गुंजाइश नहीं हैं।
जप में शब्द शक्ति का प्रयोग होता है जो शरीर के जीवकोशों, ऊतकों तथा रसायनों को प्रभावित करती है। मौन जप अंतर्मुखी रहने पर भी अपना प्रभाव छोड़ता है। ध्यान में प्रकाश शक्ति का उभार है। इससे प्रसुप्त केन्द्रों में ऊर्जा का प्रवेश होता है और अतीन्द्रिय क्षमताएँ जाग्रत होती हैं। सद्ज्ञान को भी प्रकाश की संज्ञा दी गई है। अज्ञान ही अंधकार है। उससे निवृत्ति पाने का प्रयास परम पुरुषार्थ भी है और उच्चस्तरीय दैवी अनुदान भी।
शब्द, प्रकाश और ताप यह तीन ही शक्ति तरंगें इस संसार में काम करती हैं। प्रकाश और शब्द के मिश्रण से ताप बनता है। इस आधार पर प्रज्ञायोग का साधक इन तीनों उपलब्धियों को अपने में अधिक मात्रा में धारण करता है और अधिक पुरुषार्थी, अधिक विवेकवान और अधिक प्रतिभा संपन्न बनता जाता है। इसके पश्चात् चिंतन-मनन दर्शन या निदिध्यासन की बारी आती है।
निदिध्यासन के चार चरण हैं
1- आत्म समीक्षा 2- आत्म सुधार 3- आत्म निर्माण 4- आत्मविकास। चारों में ही अपने सुधार एवं विकास की बात सोची जाती है। देखना चाहिए कि अब तक के जीवन में विशेषतया पिछले कल के दिनों क्या ऐसी भूले होती रही जिन्हें अनुचित ठहराया जा सके। इनका पता अपनी निष्पक्ष कड़ी समीक्षा करने पर ही पता चलता है अन्यथा हर व्यक्ति अपने को सदा सही ओर निर्दोष ही ठहराता रहता है। भूलों का, कमियों का, उपेक्षाओं का पता चलने के उपरान्त ही यह सूझता है कि जो अनुपयुक्त बन पड़ा उसका परिमार्जन कैसे किया जाये। उन्हें छोड़ने का तो निश्चय किया ही जाये। साथ ही यह भी देखा जाये कि गलतियों के कारण समाज को जो क्षति हुई है उसकी भरपाई करने का तरीका क्या हो सकता है। अपने गुण-कर्म स्वभाव में सम्मिलित हो गई कुसंस्कारिता के परित्याग के लिए वर्जनाओं के परिपालन में कठोर होना आवश्यक है। सुधार के लिए जो योजना बनें उसे कार्यान्वित करने की क्रम व्यवस्था भी इसी समय सोचनी बनानी चाहिए। उपरोक्त दोनों प्रयोग मिलकर आत्म समीक्षा और आत्म सुधार का प्रयोजन पूरा करते हैं। यह पूर्वार्द्ध हुआ।
निदिध्यासन के उत्तरार्द्ध में आत्म निर्माण और आत्मविकास आते हैं। आत्म निर्माण में यह देखा जाता है कि महामानव स्तर का व्यक्तित्व विकसित करने के लिए किस संचय अभिवर्धन की आवश्यकता है। किन सद्गुणों की, किन प्रवृत्तियों की कमी है। उन्हें किस प्रकार बढ़ाया जाये और व्यक्तित्व को अधिकाधिक सुविकसित करने के लिए क्या पुरुषार्थ किये जानें चाहिए। जीवनचर्या में किन नये अभ्यासोँ को सम्मिलित किया जाना चाहिए यह अभिवर्धन सदाशयता की दिशा में निरंतर चलना चाहिए। आत्मनिर्माण का प्रयोजन इसी मार्ग पर चलते रहने से संपन्न होता है।
आत्मविकास का तात्पर्य है-आत्म विस्तार। आमतौर से लोग संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि में ही अपना चिंतन और प्रयास नियोजित किये रहते हैं। इस सीमित परिधि में जीवनचर्या को सीमित नहीं रखना चाहिए। अपने को समाज का अंग मानना चाहिए और समाज के एक अविच्छिन्न घटक के रूप में अपनी सत्ता की परिकल्पना करनी चाहिए। इसे स्वार्थ को परमार्थ में भी घुलना कह सकते हैं। समष्टि में व्यष्टि का विलयन भी ईश्वर को विराट् विश्व के रूप में मूर्तिमान देखा जाये। उसे समुन्नत सुविकसित करने में ही जीवन की सार्थकता का अनुभव करना चाहिए। आत्मवत् सर्व भूतेषु की धारणा को जितना अधिक संवेदनशील बनाया जा सके, बनाना चाहिए। यह चिंतन मनन न्यूनतम पंद्रह मिनट तो करना ही चाहिए।
इसी निदिध्यासन के साथ संयम साधना की दिशा में बढ़ने की योजना भी बनती रहनी चाहिए। शक्तियों को बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं, उनके संचय का उपाय भी करना चाहिए ताकि सदुपयोग के लिए कुछ अतिरिक्त बचत हाथ में बनी रहे। घड़े में छेद हो तो भरा हुआ पानी उसमें होकर बिखर जाता है। असंयमी अपनी संचित क्षमताओं का लाभ उठाने के स्थान पर उन्हें अपव्यय में गँवा बैठता है और छूंछ रहने वाले की तरह खोखली स्थिति में पड़कर कुछ महत्वपूर्ण कार्य करने के योग्य नहीं रहता। इसलिए संयम को तप की संज्ञा दी गई है। संयमशील को ही व्यावहारिक जीवन का तपस्वी कहते हैं।
(1) इन्द्रिय संयम (2) अर्थसंयम(3) समय संयम(4) विचार संयम। यह चार संयम प्रमुख हैं। इन्द्रिय संयम में जिव्हा और ज्ञानेन्द्रिय का संयम प्रमुख है। जीभ के चटोरे व्यक्ति अधिक मात्रा में अनुपयुक्त वस्तुएँ खाते ओर आरोग्य को गँवा बैठते हैं। कटुवचन और निरर्थक वाचालता पर नियंत्रण रखना होता है तथा बोलते समय यह सोचना पड़ता है कि जो बोला जा रहा है वह यथार्थ और उपयुक्त है या नहीं। दसों इन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय और जननेन्द्रिय यह दो ही प्रमुख हैं। इन दो का संयम साध लेने से अन्यान्य इन्द्रियों का निग्रह बिना किसी कठिनाई के हो जाता है।
अर्थसंयम का अर्थ है-ईमानदारी की, परिश्रम की कमाई ही स्वीकार करना, अपव्यय की पूरी तरह रोकथाम करना। विलास-व्यसनों में कुछ भी खर्च न होने देना। बचत को पुण्य प्रयोजनों में लगाते रहने की नीति अपनाना, ताकि अनावश्यक संग्रह होने और उसके कारण अनेक दुर्गुण उत्पन्न होने का अवसर ही न आवे।
समय संयम से अपनी जीवनचर्या में क्रमबद्धता का सुनियोजन करना पड़ता है। नित्यकर्म, उपार्जन, फुटकर काम, स्वाध्याय आदि के अतिरिक्त परमार्थ प्रयोजनों के लिए भी समय का एक अंश सुरक्षित रखने एवं नियोजित करने की आवश्यकता पड़ती है। इसका सुसंतुलन विवेकपूर्ण बिठाया जाय। समय को सर्वोपरि जीवन संपदा समझते हुए उसका एक क्षण भी बरबाद न होने दिया जाये।
चौथा विचार संयम है। आमतौर से मस्तिष्क में अनगढ़ अस्त−व्यस्त विचार घूमते रहते हैं और कुकल्पनाएँ उठती रहती हैं। इन्हें रोका जाये और विचार प्रवाह की उपयोगी दिशाधारा के साथ जोड़ते रहने का प्रयत्न किया जाये। यह संघर्ष निरंतर करना पड़ता है। कुविचारों को सद्विचारों से काटना पड़ता है। अनुपयुक्त प्रवाह को बदल कर उपयुक्त रचनात्मक प्रयोजनों के साथ-साथ विचारधारा बहनें लगे इसका अभ्यास करना पड़ता है। यह मनोनिग्रह है अर्थात् मन को वश में करना। मन को वश में कर लेने पर अनेक सिद्धियाँ मिलने की बात कही गयी है। इसका अर्थ यही है कि विचार शक्ति की एक भी लहर अस्त−व्यस्त, अनुपयुक्त प्रयोजनों में लगने न पाये। सदा सही रचनात्मक उच्च विचारों में ही अपनी चिंतन शक्ति नियोजित रखी जाये। मुनि, मनीषी, ज्ञानी, वैज्ञानिक, विद्वान, महामानव, इस विचार संयम साधना को अपना कर ही उत्कृष्टता के उच्च शिखर तक पहुँचते हैं।
तीसरे प्रहर की निदिध्यासन साधना में आत्मपरिष्कार और संयम साधना के दो पक्ष ऐसे हैं। जिन्हें कार्यान्वित करने की योजना बनाते रहना चाहिए। इस प्रकार प्रज्ञायोग की यह सरल साधना हर किसी को आत्मिक प्रगति का पथ भी दर्शाती है व सभी के लिए संभव भी है।