Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवनी शक्ति बढ़ाने का सशक्त व विज्ञान सम्मत विचार
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श्वास प्रश्वास ही जीवन का आधार है। जो भी श्वास हम लेते हैं। उसमें हवा मात्र तन्मात्रा स्पर्श वाली प्रकृति की हलचल ही नहीं होती है, वरन् उसके भीतर कितने ही महत्वपूर्ण तत्व भरे पड़े है। जो जीवन संचालन के लिए आवश्यक है। वे भौतिक भी और चेतनात्मक भी। वायु तंत्र में घुले हुए इस चेतन शक्ति को प्राण कहते हैं। जिसे विशेष प्रयत्न द्वारा अलग से खींचा जा सकता है और अपने प्राण में सम्मिलित करके उसे और अधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है। इसे विधिवत उत्पन्न करने, अवशोषित और अवधारित करने की प्रक्रिया प्राणायाम कहलाती है। अधिक मात्रा में प्राणवायु प्रवेश करने से फेफड़े सुदृढ़ जीवन शक्ति में अभिवृद्धि होने जैसे शारीरिक आरोग्य के प्रत्यक्ष लाभ को मिलते ही है। विशिष्ट स्तर की प्राण ऊर्जा उत्पन्न करके महाप्राण भी बनाया जा सकता है। ऋषि सिद्धियों का स्वामी बना जा सकता है।
चिकित्सा क्षेत्र में प्राणायाम का उपयोग शारीरिक मानसिक रुग्णता निवारण एवं आरोग्य संवर्द्धन के उपाय उपचार के रूप में होता है। किन्तु अध्यात्म साधना में तो योगाभ्यास को एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। इस प्रक्रिया में श्वास प्रश्वास को क्रमबद्ध, तालबद्ध लयबद्ध किया जाता है और सांस लेने की अनवरत प्रक्रिया की अव्यवस्था को दूर कर व्यवस्था बंधनों को बाँधा जाता है। तदुपराँत ही निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त प्राणसत्ता की अभीष्ट मात्रा खींचने और धारण करने का सुयोग बनता है। प्राणायाम की सुयोग विधि को समझने से पूर्व श्वास प्रश्वास प्रक्रिया और उससे जुड़े तंत्र की बारीकियों को जटिलता से समझना और उससे सही लाभ उठाना संभव नहीं हो पाता।
भौतिक चिकित्सा विज्ञानियों के अनुसार सामान्यता एक प्रौढ़ व्यक्ति एक मिनट में 6-7 लीटर श्वास लेता है। जिसमें लगभग 250 मि.ली. आक्सीजन फेफड़ों द्वारा सोख ली जाती है और उतने ही समय में करीब 200 मि.ली. कार्बनडाइ आक्साइड बाहर निकाल दी जाती है। व्यायाम के समय यह आवश्यकता कई गुना अधिक बढ़ जाती है। और 70 लीटर प्रति मिनट तक पहुँच जाती है। परन्तु शरीर केवल 4 लीटर प्रति मिनट के हिसाब से ही आक्सीजन की आपूर्ति कर पाता है। जबकि आवश्यकता 6 लीटर प्रति मिनट की होती है। शरीर इस आवश्यकता की पूर्ति अपने ही आँतरिक संसाधनों जैसे माँसपेशियों से आक्सीजन सोख कर करता है। विश्राम के समय मनुष्य एक मिनट में 12 से 14 बार तक और महिलाएँ प्रायः 20 बार साँस लेती है। शिशुओं में यह दर 60 बार होती है। नाक द्वारा ली गयी साँस 20 प्रतिशत ताजी हवा होती है, लेकिन बाहर निकली हुई गैस में अधिकाँश मात्रा कार्बनडाइ आक्साइड की होती है।
साँस द्वारा जो वायु अंदर पहुँचती है, 20 प्रतिशत आक्सीजन होती है, जबकि प्रश्वास से बाहर निकली हवा में 70 प्रतिशत नाइट्रोजन 16 प्रतिशत आक्सीजन और 40 प्रतिशत कार्बनडाइ आक्साइड होती है। इस तरह हम सामान्य स्थिति में प्रतिदिन लगभग 10 कि.ग्रा. वायु ग्रहण करते जिसमें से फेफड़े 400 लीटर आक्सीजन ही सोख पाते हैं। मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी डॉ जॉन आर कैमेरान के अनुसार आराम से बैठे रहने वालों की अपेक्षा कार्यरत रहने वाले सक्रिय व्यक्तियों की माँसपेशियाँ अधिक मात्रा में प्राण वायु आक्सीजन सोखती है। यही कारण है कि कर्मरत व्यक्तियों की अपेक्षा बैठे ठाले व्यक्ति अधिक बीमार और रुग्ण पाये जाते हैं। हमारे फेफड़ों की संरचना कुछ ऐसी जटिल है कि सामान्य श्वास प्रश्वास में उसके निचले भाग तक पूरी तरह वायु नहीं पहुंच पाती है, इसलिए फेफड़ों के कुल आयतन का कुछ भाग ही प्राणवायु और आक्सीजन का लाभ ले पाता है। शरीर क्रिया विज्ञान में फेफड़ों के संपूर्ण आयतन का टोटल लंग कैपेसिटि या टी. एल. सी. कहते हैं अर्थात् एक गहरी के बाद दोनों फेफड़ों में जितने आयतन की गैस समा जाती है वह टी. एल. सी. कहते हैं अर्थात् एक गहरी साँस के बाद दोनों फेफड़ों में जितने आयतन की गैस समा जाती हैं वह टी. एल. सी. मानी जाती है। इसी तरह साँस निकलने के बाद भी जितने आयतन की वायु फेफड़ों में बची रहती है उसे “एफ. आर. सी. अर्थात् फंक्शनल रिजिड्यूऑल कैपेसिटि कहते हैं इसके अलावा भी जब फेफड़ों को रिक्त कर दिया जाता है तब भी उसमें कुछ आयतन में वायु बची रहती है जिसे “ रिजिड्यूल वाल्यूम कहते है’ या आर. वी. कहते हैं।
प्रत्येक साँस में हम जो 400 घन से.मी. वायु ग्रहण करते हैं। वह विश्राम अवस्था में टाइडल वाल्यूम याटी वी कहलाता है। हर श्वास के आरंभ और अंत में कुछ न कुछ वायु फेफड़ों में शेष रह जाती है। इस मध्य में दोबारा साँस लेने की इच्छा होती है। जिससे फेफड़ों में वायु भर जाती है। इस अतिरिक्त श्वास को इन्सपाइरेटरी रिजर्व वाल्यूम कहते हैं। इसी तरह प्रश्वास के बाद भी अतिरिक्त वायु निकलने की स्वतः प्रक्रिया होती है जिससे इन्सपाइरेटरी रिजर्व कहते हैं। भारी व्यायामों में टाइडल वाल्यूम बढ़ जाता है। जब व्यक्ति गहरी से गहरी साँस लेता है और उसी गति से उसे बाहर निकाल देता है इस प्रक्रिया में बाहर छोड़ी गयी वायु के आयतन को वायटल केपेसिटि यावी सी कहते हैं। सामान्यता पुरुषों में यह आयतन 48 लीटर एवं महिलाओं में 3 2 लीटर होता है। एक मिनट में अंदर खींची गयी साँस की मात्रा को आर.एम.बी. अर्थात् रेस्पेरिटरी मिनट वाल्यूम कहते हैं। 15 सेकेण्ड में अधिक से अधिक खींची गयी श्वास की मात्रा एम.बी.बी या एम.बी.सी. मैक्सिमम ब्रीदिंग केपेसिटि कहलाती है। एक स्वस्थ युवा पुरुष में 124 से 170 लीटर प्रति मिनट एवं महिला में 100 से 120 लीटर प्रति मिनट एम.बी.सी. होती है। ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती जाती है। एम.बी.सी. घटती जाती है।
हमारे फेफड़ों के भीतर असंख्य छोटे छोटे फुफ्फुसीय कोष होते हैं जिन्हें एलविओली कोष कहते हैं इन्हीं में गैस परिवर्तन की क्रिया होती है। विभिन्न व्यक्तियों में इनकी संख्या 20 से 60 करोड़ तक होती है। सामान्यता लोग जो साँस लेते हैं वह आधी अधमरी एवं उथली होती है।
उसे फेफड़ों के निचले भाग को ऐलविओली पूरी तरह से वायु से नहीं भर पाती और न ही उसमें आक्सीजन परिवर्तन की क्रिया होती है। यह क्षेत्र श्वसन क्रिया के लिए शून्य क्षेत्र है जिसे रेस्पिरेटिरी डेड स्पेस कहते हैं। पूरी तरह वायु संचार न हो पाने के कारण यह भाग क्रमशः सिकुड़ता ही जाता है। इस भाग में वायु दबाव कम होने से रक्त तो पहुँचता है, पर आक्सीजन नहीं पहुँचती है। प्राणायाम प्रक्रिया क्रमिक रूप से फेफड़ों का दबाव बढ़ाती है। जिससे प्राण वायु की ग्रहण सीमा भी अधिक बढ़ जाती है। और कम सक्रिय ऐलविओली फुफ्फुसीय कोष भी फिर से सक्रिय हो उठती है। आयु वृद्धि के साथ ही माँसपेशियों की कार्यक्षमता घटती जाती है, किन्तु प्राणायाम उनकी सक्रियता को कायम रखती है।
अनुसंधान कर्त्ताओं का कहना है कि प्राणायाम करने से व्यक्ति अपने फेफड़ों के आयतन का अधिकतम भाग उपयोग कर लेता है जिसे वायटल कैपेसिटि कहते हैं। प्राणायाम के निरंतर नियमित अभ्यास से फेफड़ों का रिजिड्यूल वाल्यूम घअता जाता है। और वायटल कैपेसिटि बढ़ती जाती है। इस प्रकार प्राणायाम द्वारा लगभग 24 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक फेफड़े के आयतन का अधिकतम उपयोग होता है। जिससे अधिक आक्सीजन और प्राण वायु मिलने से अधिक जीवनी शक्ति प्राप्त होती है। शारीरिक कार्यक्षमता और मस्तिष्कीय क्षमता की वृद्धि होती है। सुविख्यात चितिम्या विज्ञानी रोपार्ड ने अपने शोध में निष्कर्ष में बताया है कि प्राणायाम द्वारा मनुष्य अधिक मात्रा में वायु भीतर खींचता है जिससे फेफड़ों का आयतन बढ़ जाता है। इस आयतन के प्रति लीटर बढ़ जाने से दो प्रतिशत शून्य क्षेत्र भी बढ़ जाता है। अतः प्राणायाम ऐसी प्रक्रिया है जिससे लयबद्ध साँस अंदर खींचने पर न केवल फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है, वरन् शरीर और मन बढ़ी हुई प्राणवायु से अधिकाधिक सक्रिय सबल और परिष्कृत बनते हैं।
उपासना क्षेत्र में संघर्ष के निर्मित कुछ विशेष उपक्रम अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। सूक्ष्म शरीर को प्राण शक्ति के आधार पर समुन्नत किया जाता है। उसकी समस्त विधियाँ प्राणायाम परक है। प्राणायामों की अनेक सरल कठिन प्रक्रियायें और उनके प्रायोजन प्रतिफल भी अनेकानेक है, किन्तु चिकित्सा क्षेत्र में प्राणायाम का उद्देश्य फेफड़ों की निष्क्रियता समाप्त करके सक्रियता को जीवन शक्ति की मात्रा को बढ़ा देना होता है। देखा गया है कि विभिन्न प्रकार के प्राणायामों द्वारा एलविओलर वेन्टीलेशन की मात्रा दूनी से भी अधिक हो जाती है।
चिकित्सा विज्ञानी ए.एन. ने अपनी कृति “एप्लाइड रेस्पीरेटरी फिजियोलॉजी “ में कहा है कि प्राणायाम से फेफड़ों की क्षमता में असाधारण वृद्धि होती है। प्राणायाम न केवल आक्सीजन उपयोग की मात्रा एवं अवशोषण प्रतिशत बहुत अधिक बढ़ाया जा सकता है, वरन् प्राणवायु में अभिवृद्धि करके शारीरिक मानसिक क्षमता में कई गुनी अभिवृद्धि की जा सकती है। प्राणायाम का मुख्य तत्व कुंभक है। जिसमें श्वास को खींच कर रोका जाता है। यह प्रक्रिया रक्त में कार्बनडाइ आक्साइड का दबाव बढ़ा देती है जिसके कारण लम्बी और गहरी साँस लेना आवश्यक हो जाता है। जैसे जैसे श्वास प्रश्वास पर नियंत्रण सधता है श्वास संख्या बढ़ती है, किन्तु प्रति श्वास घटती जाती है। किन्तु प्रति श्वसन प्राणवायु का आयतन बढ़ता जाता है। बढ़ी हुई प्राणवायु की इस मात्रा को फेफड़ों की सूक्ष्म रचना, ऐलविओली के संपर्क में देर तक रखकर उसमें से आक्सीजन एवं प्राण ऊर्जा को अवशोषित किया और इच्छित दिशा में नियोजित किया जा सकता है।
चिकित्सा विज्ञानियों का कहना है कि रक्त में आक्सीजन की कमी या कार्बनडाइ आक्सीजन की वृद्धि करके श्वसन प्रक्रिया को बढ़ाया जा सकता है। फेफड़ों में प्रायः कार्बनडाइ आक्साइड की मात्रा स्थिर रहती है। किन्तु इसमें सुक्ष्म परिवर्तन होते हो श्वसन क्रिया पर प्रभाव पड़ता है। योग विद्या विशारद प्राचीन योगी, ऋषि, इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे प्राणायाम की कुंभक प्रक्रिया द्वारा एलविओली कार्बनडाइ आक्साइड का दबाव धीरे धीरे अभ्यास क्रम से बढ़ाया जा सकता है। और उससे श्वसन द्वारा अधिक गहरी सांस लेकर अधिक मात्रा में प्राणवायु भरी और अवशोषित की जा सकती है। प्रयोग परीक्षण में भी देखा गया है कि प्राणायाम करते समय बाहर निकलने वाली कार्बनडाइ आक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि सामान्य श्वसन में बाहर फेंकी गयी वायु में इसका अनुपात 3.7 प्रतिशत होता है। उम्र बढ़ने के साथ साथ फेफड़े की आयतन घटने लगता है, किन्तु किशोरावस्था से ही प्राणायाम की नियमित अभ्यास आरंभ कर देने पर फेफड़े की क्षमता उत्तरोत्तर विकसित होती जाती है जिसका प्रतिफल बढ़ी हुई जीवनी शक्ति एवं स्वस्थ दीर्घायुष्य के रूप में सामने आता है।