
रोइये अथवा हंसिये पर तनाव को निकाल फेंकिये
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जीवन की सरसता इस बात पर अवलम्बित है कि सहजता ओर स्वाभाविकता को सदा अपनाये रहा जाय। विचारों एवं भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर यथासम्भव मिलता चले। उन्हें इस ढंग से पोषण मिलता रहे जिससे उनकी क्षमता सत्प्रयोजनों में नियोजित हो सके। मनःशास्त्री मानवी विकास प्रक्रिया में उपरोक्त सत्य को असाधारण महत्व देते हुए कहने लग हैं कि मनुष्य देते हुए कहने लगे हैं कि मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की बढ़ती समस्याओं का एक सबसे प्रमुख कारण है- उसका ‘रिजर्व नेचर’। मानवी स्वभाव में यह विकृति तेजी से बढ़ रही है। यही कारण है कि संसार में मनोरोगियों का बाहुल्य होता जा रहा है तथा कितने ही प्रकार के नये रोग पनप रहे हैं।
नदियों के पानी को बाँधकर रोक दिया जाय तो वह महाविप्लव खड़ा करेगा। रास्ता न पाने से फूट-फूट कर निकलेगा तथा अपने समीपवर्ती क्षेत्र को ले डूबेगा। भावनाओं को दबा दिया जाय तो वे मानवी व्यक्तित्व में एक अदृश्य कुहराम खड़ा करेंगे, जो नेत्रों को दिखाई तो नहीं पड़ता पर मानसिक असन्तुलन के रूप में उसकी प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं। अपना आपा खण्डित होता प्रतीत होता है। दिशा दे देने पर नदियों के पानी से विभिन्न कार्य किए जाते हैं। बिजली उत्पादन से लेकर सिंचाई आदि का प्रयोजन पूरा होता है। भावों एवं विचारों को दिशा दी जा सके तो उनसे अनेकों प्रकार के रचनात्मक कार्य हो सकते हैं। कला, साहित्य, कविता, विज्ञान के आविष्कार इन्हीं के गर्भ में पकते तथा प्रकट होते हैं।
भावनाओं एवं विचारों में से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी अभिव्यक्ति हानिकारक है। पर उन्हें दबाने से तनाव की स्थिति आती है। उससे बचाव का तरीका यह है कि भावनाओं को दूसरे रूप में अभिव्यक्त होने दिया जाय। मनोविज्ञान ने इस संदर्भ में नये निष्कर्ष निकाले हैं। न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में डॉ0 फ्रैंक ने यह उत्सर्जन प्रक्रिया है। श्वसन, मल निष्कासन, स्वेदन की भाँति इस एक्सोक्राइन प्रक्रिया में भी शरीर के कितने ही टॉक्सिक पदार्थ बाहर निकलते हैं। तनाव एवं दबाव जैसे मानसिक कारणों से शरीर में उत्पन्न होने वाले विषाक्त रासायनिक पदार्थों को रोने से बाहर निकलने का अवसर मिलता है।
डॉक्टर फ्रैंक लम्बे समय से साइकोजेनिक अश्रुपात के ऊपर शोध कार्य कर रहे हैं। वर्षों पूर्व उनके मन में विचार उठा कि मनुष्य आखिर रोता क्यों है? इससे प्रेरित होकर उन्होंने कई वर्षों तक खोजबीन की वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आँसू तनाव मुक्ति में सर्वाधिक सहायक है।
डॉ0 फ्रैंक लम्बे समय से साइकोजेनिक अश्रुपात के ऊपर शोध कार्य कर रहे हैं। वर्षों पूर्व उनके मन में विचार उठा कि मनुष्य आखिर रोता क्यों है? इससे प्रेरित होकर उन्होंने कई वर्षों तक खोजबीन की वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आँसू तनाव मुक्ति में सर्वाधिक सहायक है।
डॉ0 फ्रैंक एक बायोकोमिस्ट है। तथा मेनिसोटा स्थित सेंट पाल रिसर्च मेडिकल सेंटर के साइकियाट्री रिसर्च लैबोरेटरी के डाइरेक्टर है। उनका कहना है कि भावोद्वेग को अधिकाँश व्यक्ति दबा देते हैं। कुण्ठा, अवसाद, द्वन्द्व जैसे मानसिक व्यतिरेक इसी कारण पैदा होते हैं। आवेश की स्थिति में जो विषाक्त रसायन पैदा स्थिति में जो मानसिक व्यतिरेक इसी कारण पैदा होते हैं। आवेश की स्थिति में जो विषाक्त रसायन पैदा होते हैं, उनको यदि दिया जाय, तो किसी प्रकार के मानसिक असन्तुलन के उत्पन्न होने का खतरा नहीं रहता।
मक्विटे यूनिवर्सिटी कॉलेज आफ नर्सिंग के डॉक्टरों ने मानसिक तनाव से पीड़ित 100 व्यक्तियों का अध्ययन किया। उनमें से 50 पेष्टिक अल्सर के रोगी थे तथा पचास अल्सरेटिव कोलाइटिस के। तुलनात्मक अध्ययन के लिए उन्होंने पचास अन्य स्वस्थ व्यक्तियों को चूना, जो परिस्थितियों की दृष्टि से लगभग उन रोगियों की ही स्थिति में थे, अपने अध्ययन निष्कर्ष को उन्होंने अमरीकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन के एक मीटिंग में प्रस्तुत करते हुए कहा- “रोगियों के पूर्व इतिहास से पता चला है कि उनकी बीमारियों के अधिकांश कारण मनोवैज्ञानिक है। अपनी बात किसी से व्यक्त करने तथा भीतर ही भीतर घुटते रहने के कारण ही उनकी अन्य शारीरिक क्रिया प्रणालियों में गड़बड़ी पैदा हुई, जिसने विभिन्न प्रकार के रोगों को जन्म दिया। स्वस्थ व्यक्तियों का पिछला जीवन वृत्तांत बताता है कि वे हर परिस्थितियों में तनावों एवं द्वंद्वों से मुक्त रहे। जब कभी भी प्रतिकूल अवसर आये, उसे सहज रूप से स्वीकार किया तथा उसके अनुरूप सामंजस्य स्थापित कर लिया।”
चिकित्सकों ने एक रोग की खोज की है-’फेसिलियल डिसटोनिया।’ यह एक बच्चे का वंशानुगत रोग है। जब बच्चे रोते का लक्षण यह है कि जब बच्चे रोते हैं तो उनके आँसू नहीं निकलते। यद्यपि इसके रोगी तो कम पाये जाते हैं पर है यह अत्यन्त खतरनाक रोग। शरीरशास्त्रियों तथा मनः शास्त्रियों का मत है कि जो बच्चे इस राग से ग्रसित होते हैं, उनका मानसिक विकास समुचित रूप से नहीं हो पाता। बड़े होने पर उनमें आक्रामक प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। ऐसे बच्चों के अपराधी निकलने की सम्भावना अधिक रहती है। उनका भाव संस्थान अत्यन्त शुष्क पड़ जाता है। प्रायः यह धारण भी सर्वत्र प्रचलित है कि जन्मोपरान्त जो बच्चे रोते नहीं, उनके जीवित बचने की सम्भावना कम रहती है। जो बचने की सम्भावना कम रहती है। जो बचते भी हैं तो उनका भली-भाँति विकास नहीं होता।
एक नृतत्व विज्ञानी ने निष्कर्ष निकाला है कि नारियाँ उनके भावोद्वेग दबते नहीं, आँसुओं से बाहर निकल जाते हैं। यही कारण है कि वे पुरुषों से अधिक स्वस्थ तथा मानसिक दृष्टि से अधिक सन्तुलित होती हैं।
मिनिसोटा (अमेरिका) से प्रकाशित एक मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट में कहा गया है कि “महिलाएँ पुरुषों से पाँच गुनी अधिक रोती हैं, जिसके 40 प्रतिशत कारण निजी सम्बन्धी से उत्पन्न मन-मुटाव होते हैं, जबकि 27 प्रतिशत कारण सामाजिक होते हैं। भावातिरेक भी महिलाओं के रोने का एक प्रमुख मिलाकर प्रभाव अच्छा ही पड़ता है। “प्रायः देखा भी जाता है कि नारियाँ पुरुषों की अपेक्षा तनावग्रस्त कम रहती है। इसका कारण बताते हुए मनःशास्त्री कहते हैं कि वे अपनी भावनाओं को दबाने की अपेक्षा किसी न किसी रूप में की अपेक्षा किसी न किसी रूप में व्यक्त कर देती हैं।
विद्वान आर्डिस विटमैन लिखते हैं कि “सामान्य व्यक्ति अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने से डरते हैं जबकि महान व्यक्ति कर देते हैं। जिन्दगी की तमाम विचित्रताओं और विषमताओं को वे इतने सहज ढंग से लेते हैं जैसे कुछ असामान्य बात ही न हुई हो। उनकी सरसता, प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता का यही रहस्य है।”
अभिव्यक्ति के अभाव में भावनाओं की संवेदनशीलता तथा लालित्य धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। आखिर इससे कैसे बचें तथा आये अवरोध की परख कैसे करें? चारक आर्डिस इस सम्बन्ध में कहते हैं कि अपना आपा स्वयं ही उसका परिचय दे देगा। जीवन की शुष्कता स्वयमेव प्रमाण है कि भावाभिव्यक्ति के मार्ग में कही चट्टान आ खड़ी हुई है, जो दिखाई तो नहीं पड़ती पर अवरोध रूप में अनुभव तो होती है। स्वयं के प्रति पूर्वाग्रह, अड़ियल स्वभाव तथा अहम् ही उस मार्ग से सबसे प्रमुख और सबसे बड़े अवरोध हैं। इन्हें हटाते ही अपने उद्गम स्त्रोत से भावनाओं के अमृत को निर्विरोध निस्सृत होने का अवसर मिल जाता है। गंगा में स्नान करने के बाद जैसी शीतलता एवं शान्ति मिलती है लगभग ऐसी ही मानसिक प्रफुल्लता भाव गंगा में अवगाहन करने से मन और अन्तः कारण को प्राप्त होती है।”
हैंबर्ग के मनोरोग विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि दूषित भावनाएँ हृदय रोग तथा कैंसर जैसे रागों का कारण बन सकती हैं। मनोरोग पर आयोजित एक सम्मेलन में 35 देशों के मनः चिकित्सा विशेषज्ञों ने भाग लिया तथा उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की। प्रो0 एडोल अर्नेस्ट मेयर के अनुसार, “संसार में जितने व्यक्ति धूम्रपान तथा शराब के कारण हृदय रोग के रोगी बनते हैं, उससे भी अधिक दूषित भावनाओं के कारण होते हैं।”
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो0 क्लास वेन्सन का कहना है कि “कैंसर रोग को जन्म देने में भी मन की प्रमुख भूमिका हो सकती है। असन्तुलित, निरुत्साहित, कुँठित तथा जीवन से हारे हुए लोग दूसरे व्यक्तियों की तुलना में कैंसर की गिरफ्त में शीघ्र आ सकते हैं।”
बलात् शान्त रहने तथा मनोभावों को दबाये रखने की स्थिति मनोभावों को दबाये रखने की स्थिति में थकान आती है। यह थकान भी शारीरिक श्रम से आयी थकान भी शारीरिक श्रम से आयी थकान जैसी मालूम पड़ती है पर श्रम से आयी थकान की अपेक्षा स्वास्थ्य की दृष्टि से यह मानसिक थकान अधिक हानिकारक है। इस भावोद्वेग तथा मानसिक उत्तेजनाओं से बचने का सर्वोत्तम उपाय है-हँसना। यह एक ऐसा टॉनिक है जो मन की सभी गाँठें खोल देता है। खिलखिलाकर हँसने से सभी कुण्ठाएँ समाप्त हो जाती हैं।
ब्रिटिश चिकित्सा संस्थान के शोध विभाग की एक अध्ययन रिपोर्टानुसार “मनुष्य के स्वभाव तथा भावनाओं का सर्दी-जुकाम से गहरा सम्बन्ध है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मानसिक तनाव की स्थिति में शरीर में कार्टीसॉल नामक एक तत्व बनने लगता है, जो शरीर में मौजूद संक्रमण नामक तत्वों को कमजोर बनाता है। फलतः जीवनी शक्ति नष्ट बनाता है। फलतः जीवनी शक्ति नष्ट होने लगती है तथा बीमारियों की चढ़ दौड़ने का अवसर मिल जाता है।”
संस्थान के विशेषज्ञों का परामर्श है कि जो नजला, सर्दी जुकाम एवं दमे से बचना चाहते हैं वे तनाव से बचें। अपनी भावनाओं को दबाने का प्रयास न करें। अभिव्यक्ति के लिए या तो करें। अभिव्यक्ति के लिए या तो जी खोल कर रोयें। उनका मत है कि अंतर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति सर्दी के रोगों से अधिक पीड़ित होते देखे गये हैं।
कुछ ऐसी प्रकृति के लोग भी होते हैं जो अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सकुचाते हैं। किसी के सामने अपनी बात कही जाय, यह समस्या भी आड़े आती है। जीवन में कितनी गल्तियाँ होती है, जिसका पश्चात्ताप तो मनुष्य मन ही मन करता रहता पर किसी के समाने कह नहीं पाता।
भावावेश में किसी से कहना उचित नहीं। आदिकाल से ही परम्परा यह रही है कि समर्थ मार्गदर्शक के समक्ष मन की उन बातों को कह दिया जाय, जिन्हें दूसरों के समाने कहने में संकोच लगता है गल्तियों के परिशोधन, दुर्भावनाओं के परिष्कार तथा भावी निर्धारण के परिष्कार तथा भावी निर्धारण में समर्थ मार्गदर्शक के मार्गदर्शक का सम्बल मिल जाय तो व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त होने लगता है। सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वह अत्यावश्यक है कि भावाभिव्यक्ति जीवन जीने की रीति-नीति ही अपनानी चाहिए।