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Magazine - Year 1996 - Version 2

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अन्तरात्मा की मार से कब तक बचेंगे?

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अपराध विज्ञान का एक सामान्य और सर्वमान्य सिद्धान्त है कि अपराधी कितना ही चतुर और कितना ही चालाक क्यों न हो, जब वह अपराध करता है तो अपराध स्थल पर कोई न कोई ऐसे चिह्न अवश्य छोड़ जाता है जिससे कि वह पकड़ में आ जाता हैं इस सिद्धान्त के मूल में अन्तरात्मा के विरुद्ध किये जाने वाले कार्य में, आत्मा की प्रताड़ना के कारण अंतः करण में होने वाली हड़बड़ाहट ही हैं अपराधी को उस समय दोहरे मानसिक द्वन्द्व से गुजरना पड़ता है एक तो अपराध करते हुए कोई देख न ले, कोई ऐसा सूत्र न छूट जाय जिससे उसकी पहचान हो सके। दूसरा संघर्ष अपनी आत्मा से ही करना पड़ता है जो उसे किये जा रहे अनुचित कार्य के लिए अनवरत लताड़ती-फटकारती ही रहती है। इन दोहरे द्वन्द्वों के कारण अपराध स्थल पर कोई चूक अवश्य कर जाता है। अब तो अपराधी की खोज के लिए अंगुलि मुद्रायें (फिंगर प्रिण्ट्स) भी काफी सहायक होते हैं यह मुद्रण अपराध स्थान पर अपराधी द्वारा कही न कही जरूर छूट जाती हैं। यद्यपि अपराधी अपनी ओर से पूरी सावधानी बरतते हैं कि उनका कोई चिह्न घटना स्थल पर छूटे नहीं परन्तु अंगुलियों की छाप कही न कही अवश्य छूट जाती है, जिससे वे पकड़ में आ जाते हैं। कई बार तो अंगुलि मुद्राएं प्रत्यक्षदर्शियों से भी अधिक प्रामाणिक सिद्ध होती है। अंगुलि मुद्राओं का वैदिक आधार यह है कि मनुष्य के शरीर के सभी अंग सारे चिह्न समयानुसार बदलते, बनते मिटते रहते हैं हथेली अथवा अंगुलियों पर पड़ी रहने वाली हस्त रेखाएं भी बदलती रहती हैं किन्तु उनके अतिरिक्त जो बारीक असंख्य रेखायें होता है वे कभी नहीं रेखायें होती हैं वे कभी नहीं बदलती इसके साथ ही किसी एक व्यक्ति की रेखाएं दूसरी व्यक्ति से मेल ही नहीं खाती यहां तक कि एक ही समय पर एक साथ जन्में दो हमशक्ल जुड़वा भाइयों की रेखाएं भी एक सी नहीं रहती। पिछले दिनों लन्दन में ही एक ऐसा काण्ड हुआ था जिसमें अपराधी का पता चल गया था। उसे देखने वाले प्रत्यक्षदर्शी भी थे परन्तु समस्या यह थी कि अपराधी का एक दूसरी भाई भी था जो स्वयं अपने भाई का अनुगमन करता था। वह निश्चित नहीं किया जा रहा था कि स्थिति में अंगुलि मुद्राएं सहायक सिद्ध हुई और वास्तविक अपराधी को दण्ड दिया जा सका। घटना स्थल पर अपराधी की अंगुलि-मुद्राएं कैसे अंकित हो जाती हैं इस संदर्भ में अपराध वानियों का कहना है कि मनुष्य के हाथ में से एक अदृश्य द्रव्य निरन्तर प्रवाहित रहता है साथ ही विद्युत प्रवाह भी जी0 एस0 आर0 के रूप में सतत् निकलता रहता है व्यक्ति जब अपराध करता है तो इस द्रव्य व विद्युत प्रतिरोध की मात्रा बढ़ जाती है मात्रा बढ़ जाने का कारण अपराधी में चलते रहने वाला मानसिक द्वन्द्व पकड़े जाने का डर तथा आत्मा की फटकार के कारण उत्पन्न हुई घबराहट ही बताया जाता है। इसलिए अपराधी की अंगुलि मुद्राएं उस स्राव के कारण अधिक स्पष्टता से अंकित हो जाती हैं इसी आधार पर सैकड़ों व्यक्तियों की अंगुलि मुद्राओं के बीच भी अपराधी की अंगुलि मुद्राएं पहचानी जा सकती है। किसी भी दुष्कर्म में प्रवृत्त होते समय पहले व्यक्ति की अन्तरात्मा धिक्कारती है परन्तु जब उस आवाज की कुचलकर बार-बार दुष्कर्म किये जाते हैं तो अन्तरात्मा की वह ध्वनि, चेतावनी क्षीण पड़ने लगती है उसी स्थिति में अपराधी को न घबराहट होती है और न भय माना जाय कि उस द्रव के निस्सरण का कारण घबराहट या भी ही है तो वैसी स्थिति में लेकिन ऐसा कोई द्वन्द्व नहीं चलता अंत’करण की आवाज मर सी जाती है , तो कोई द्रव नहीं बहना चाहिए, परन्तु इस दश में भी अंगुलि मुद्राएं के अंकन में कोई परिवर्तन नहीं देखा गया है। बड़े से बड़े पुराने और कुशल अपराधियों की अंगुलियों उसी प्रकार अपनी छाप , छोड़ देती है, जैसे नये अपराधी की । वहां यह प्रक्रिया अंतरात्मा द्वारा अपनी बात न मानने , अनीति का पथ न छोड़ने के कारण समाज द्वारा दण्डित कराये जाने के लिए छुड़वायी घटनाओं में तो उन्हीं अपराधों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया गया हैं जिनमें हाथ के निशान अंकित होने की सम्भावना कही न कही रहती ही है लेकिन अपराधी जब दूर रहकर बार करता है जैसे गोली चलाता है या विष देकर किसी की हत्या करता है तो भी बच नहीं पाता। हालांकि इस तरीकों में अंगुलि मुद्राओं का कोई भय नहीं रहता, फिर भी अपराधी को पकड़ ही लिया जाता है 1950 में पंजाब की “रियासत के राजा रंजीतसिंह की हत्या उनकी रानी पलविंदर कौर ने ही कर दी थी। कोई प्रमाण नहीं था कि यह हत्या रानी ने ही की है। और न ही किसी को संदेह हो सकता” क्योंकि किसी ने कभी भी राजा-रानी में मनमुटाव या मतभेद जैसी कोई बात देखी ही नहीं थी।

घटना इस प्रकार है- रंजीतसिंह और पलविंदर कौर उस दिन शिकार पर गये थे, शाम को वापस कैंप पर केवल महारानी ही लौटीं। कैंप पर केवल महारानी ही लौटीं। उन्होंने अपने अपने अन्य साथियों को बताया कि मैं और महाराजा अपने शिकार के पीछे अलग-अलग रास्तों पर निकल गये थे। महाराजा भी बहुत चिंतित दिखाई दे रही थीं। देर रात तक उन लोगों के कैंप पर महाराज का इन्तजार किया। जब महाराजा का एक प्यादा यह सूचना लेकर आया कि महाराज एक कुएँ में गिर गये हैं सभी लोग दौड़े गये और रस्सी डाल कर महाराज को कुएँ में से निकाला गया परन्तु तब तक महाराजा की मृत्यु हो चुकी थी।

लेकिन पोस्टमार्टम की रिपोर्ट मृत्यु का दूसरा कारण ही बता रही थी। डॉक्टरों के अनुसार महाराजा की मृत्यु कुएँ में गिरने के कारण नहीं वरन् एक नुकीले तीर के कारण हुई थी। पुलिस का विचार कबीलों की महाराज से रंजिश चल रही थी और यह तीर आदिवासियों द्वारा ही इस्तेमाल किया जाता है। सूत्र दर सूत्र घटना की कड़ियाँ इस प्रकार मिलाई गयीं कि लगता था किसी आदिवासी ने महाराजा पर उस समय तीर चलाया, जब पानी पीने के लिए कुएँ में गिर गये और उनकी मृत्यु हो गयी।

डस तीर को, जिसका, अगला सिरा महाराज की पीठ में घुसा हुआ मिला था, अपराध विज्ञान की लैबोरेटरी में भेजा गया। अपराध विज्ञानी डॉ0 दत्त ने निरीक्षण किया तो पाया कि तीर का अगला हिस्सा अत्यन्त नुकीला, ठोस और ताँबे का बना हुआ था और यह एक पेंचदार खोखली ट्यूब से बना है। आग जाँच की गयी तो पता चला कि वह तीर नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार की रायफल की गोली है जो तांबे से बनती है क्योंकि उस रायफल से निकली गोली की गति व मारक शक्ति इतनी तेज तथा गर्म होती है कि सीसे की गोली पिघल जाती है कि सीसे की गोली पिघल जाती है। इसीलिए रायफल में ताँबे की गोली प्रयुक्त की जाती है।

यह रायफल उक्त क्षेत्र में केवल रियासत के राजघराने में ही थी। केस ने नया मोड़ लिया तो उसके आधार पर महारानी को गिरफ्तार किया गया और उसे सात साल की सजा दी गई। यद्यपि यह केस आगे हाईकोर्ट में भी ले जाया गया। पता नहीं वहाँ क्या निर्णय हुआ परन्तु इन सभी घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि अपराधी अपराध करने के लिए कितनी भी योजनायें बनाये, कैसी भी सावधानी बरते परन्तु प्रायः वे कहीं न कहीं ऐसी चूक जरूर कर जाते हैं, जिससे कि उनका राज खुल जाता है।

कदाचित् कोई व्यक्ति इतनी सावधानी बरते कि वह पुलिस और कानून की निगाहों से बच निकले तो भी उसे अपराध का दण्ड तो मिलता ही है। समाज न भी दे, परन्तु जिनके प्रति अपराध किया गया है उनकी आत्मा, स्वयं अपनी आत्मा और ईश्वरीय नियम अपराधी को उसके किये का दण्ड देते हैं।

वर्षों पूर्व की एक घटना है। अर्जेन्टीना के एक ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति ने एक ग्रामीण को गोली मारकर हत्या कर दी। गोली इतनी नजदीकी से मारी गयी कि मृत व्यक्ति की खोपड़ी को छेदते हुए पीछे खड़े वृक्ष के तने में जा घुसी। हत्यारा पकड़ लिया गया। प्रत्यक्षदर्शी गवाह, साक्ष्य और प्रमाणों के बावजूद भी वकीलों ने कुछ ऐसे कानूनी पेंच निकाल लिये कि अपराधी को संदेह का लाभ मिल गया और वह बरी हो गया। इस घटना के तीन वर्ष बाद वही व्यक्ति अपने खेत पर खड़ा होकर मेंड़ पर लगा एक वृक्ष कटवा रहा था। यह वही वृक्ष कटवा रहा था। यह वही वृक्ष था जिसके नीचे उस मजदूर की गोली मार कर हत्या की गयी थी। जब वृक्ष कट कर कुछ इस प्रकार जमीन पर गिरा कि उसमें तीन वर्ष पूर्व फँसी गोली बंदूक से छूटी गोली की तरह उसी खेत मालिक की कनपटी पर लगी जिसने कि मजदूर की गोली मारकर हत्या की थी। पेड़ से छूटी हुई गोली के कारण वह व्यक्ति घटनास्थल पर ही मर गया। इस विचित्र घटना को जिस किसी ने भी सुना, सृष्टि नियंता की न्याय प्रक्रिया का यह अद्भुत ढंग देखकर दाँतों तले अंगुली दबाकर रह गया।

व्यक्ति के अपने अपकर्म ही भूत बन कर उसका पीछा करते रहते हैं और जब तक वह व्यक्ति उन दुष्कर्मों का फल नहीं भोग लेता तब तक उनसे पीछा नहीं छूटता। इस जन्म में कोई व्यक्ति पाप कर्मों के दण्ड से बच जाने में सफल भी हो जाता है तो भी उसका दण्ड अगले जन्म में सुनिश्चित रूप से मिलता है। आतवाक्य कि “पूर्वजन्म के पाप ही इस जन्म में असाध्य और कष्टकर रोगों के रूप में पीड़ित करते हैं।” अगले जन्म में यह दण्ड तो भोगने ही पड़ते हैं इसी जन्म में जो मानसिक बोझ, व्यथा, पश्चाताप की आग दहकती रहती है वही कम नहीं होती।

क्षणिक प्रलोभन या आवेश में आकर कोई अपराध कर बैठना सौ में से निन्यानवे बार समाज के सामने अपराधी की तरह खड़ा कर देता है। उससे बच भी गये तो अन्तरात्मा की मार, पीड़ित आत्मा के प्रतिशोध और सृष्टि संतुलन बनाये रखने वाले नियमों की पकड़ से बचकर कहाँ जा सकते हैं?

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