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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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भली एवं उदार प्रेतात्माएँ भी होती है।

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First 25 27 Last
मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की विभिन्न मान्यताएँ हैं भारतीय धर्मशास्त्रों ने भी मरने के बाद परलोक के सम्बन्ध में कितने ही प्रकार से प्रकाश डाला है। वे लोग, जो पुनर्जन्म के सम्बन्ध में विश्वास नहीं करते, यह मानते हैं कि मरने के बाद मनुष्य का अस्तित्व नष्ट नहीं हो जाता । उसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। पुनर्जन्म में आस्था रखने वाले मत-मतान्तर भी यह मानते हैं कि मरने के बाद किसी भी व्यक्ति या प्राणी का तुरन्त जन्म नहीं हो जाता। पुनर्जन्म के जो मामले प्रकाश में आए हैं जिन व्यक्तियों ने अपने पिछले जन्मों के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी दी है। उनके विवरणों से भी राह बात स्पष्ट होती है कि मरने और पुनः जन्म धारण करने के बीच की अवधि में कुछ अन्तर रहता है। प्रश्न यह उठता है कि मरने और पुनः जन्म लेने के बीच की अवधि में जीवात्मा क्या करता है? इव अवधि में वह कहाँ रहता है? इन प्रश्नों के उत्तर तरह-तरह से दिये जाते हैं परलोक के सम्बन्ध में जानकारी रखने और अन्वेषण करने वाले व्यक्तियों ने इस विषय में विभिन्न परीक्षण और प्रयोग कर यह जाना है। कि इस अवधि में प्राणी को अशरीरी अवस्था में अपना अस्तित्व बनाये रखना होता है भारतीय धर्मशास्त्रों ने इस स्थिति वाली अस्तित्वधारी जीवात्मा को ही प्रेतयोनि का नाम दिया हैं मरने के बाद पुनः जन्म धारण करने के बीच की अवधि में प्रत्येक जीवात्मा को यह योनि धारण करनी पड़ती हैं जीवन-मुक्त आत्माओं की बात दूसरी हैं वे किसी नाटक की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के बाद अपने लोक में वापस लौट जाती हैं उन्हें वस्तुओं घटनाओं , स्मृतियों और व्यक्तियों कान तो मोह होता हैं तथा न उनकी छाप उनके मन पर होती है, परन्तु सामान्य आत्माओं की बात भिन्न है। वे अपनी अतृप्त कामनाओं, सम्वेदनाओं , तृष्णाओं और राग-द्वेष मूलक वासनाओं की प्रतिक्रियाओं से उद्विग्न होती है। परिणामस्वरूप मरने के बाद भी उन पर जीवन के समय की स्मृतियाँ छाई रहती है और वे अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए ताना - बाना बुनती रहती हैं इस तरह की आत्माएँ दो स्तर की होती है,एक तो वे जो दूसरों को डराती-दबाती है तथा उनके माध्यम से अपनी अभिलाषाएँ पूरी करती है। दूसरे स्तर की आत्माएँ इनसे भिन्न होती हैं। वे मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती तो है, किन्तु अपने उच्च स्वभाव तथा संस्कार के कारण दूसरों को यथासम्भव सहायता करती हैं उनका संबंध सूक्ष्म जगत से होता है वे उनकी कई प्रकार की सहायता करती हैं इस स्तर की प्रेतात्माओं से देव स्तर की सहायता प्राप्त की जा सकती है। इस तरह के कई उदाहरण है, जिनमें प्रसिद्ध व्यक्तियों ने इन देव स्तर की प्रेतात्माओं का सहयोग प्राप्त किया तथा उनसे लाभ उठाया। महायोगी श्री अरविन्द के सम्बन्ध में विख्यात है कि वे जब अलीपुर जेल में थे तब दो सप्ताह तक लगातार विवेकानन्द की आत्मा ने उनसे संपर्क किया था। सन् 1901 में श्री अरविंद प्रेतात्माओं से संपर्क का अभ्यास किया करते थे इस अभ्यास में एक बार रामकृष्ण परमहंस की आत्मा ने भी अरविन्द को कुछ महत्वपूर्ण साधनात्मक निर्देश दिए थे। श्री दिविनद जिन दिनों बड़ौदा में रह रहे थे उन दिनों का एक अनुभव बताते हुए उन्होंने लिखा है कि एक बार जब वे अपनी गाड़ी में कैप रोड से शहर की ओर जा रहे थे जब आमबाग के पास उन्हें लगा कि जैसे कोई दुर्घटना होने को हो। उस समय उन्होंने स्पष्ट देखा कि दुर्घटना को बचाने की बात मन में आते ही एक ज्योति पुरुष ऐसे प्रकट हुआ, मानो वह वहाँ पहले से विद्यमान हों और उसने एक क्षण में ही स्थिति को अपने हाथ में लेकर सम्हाल लिया। श्री माँ को बचपन से ही इस प्रकार दिव्य आत्माओं द्वारा सहयोग तथा मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता था। भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट जीवन चरित के श्री माँ प्रकरण में इस प्रकार की घटनाओं का विवरण देते हुए लिखा गया है, “वे (श्री माँ) जब छोटी-सी बालिका थी, तब उन्हें बराबर भान होता रहता था कि उनके पीछे कोई अति मानवी शक्ति है, जो जब-तक उनके शरीर में प्रवेश कर जाती है और तब वे बड़े-बड़े अलौकिक कार्य किया करती है।” इस प्रकरण में उस दिव्य शक्ति द्वारा माँ के कई कम सम्पन्न करने की अनेक घटनाएँ वर्णित है। निश्चित ही इस स्तर का सहयोग मुक्त आत्माएँ करती हैं यद्यपि वे सहायता के लिए बाध्य नहीं है, फिर भी वे स्वेच्छा से करुणावश आध्यात्मिक मार्ग के पथिकों, सच्चे जिज्ञासुओं की सहायता के लिए सक्रिय होती है। थियोसोफिकल सोसायटी की जन्मदात्री मैडम ब्लेवटस्की को चार वर्ष की आयु में ही देव आत्माओं का सहयोग-सान्निध्य प्राप्त होने लगा था। वे अचानक आवेश में आकर ऐसी तथ्यपूर्ण बाते बता दिया करती थी, जिन्हें कर पाना किन्हीं विशेषज्ञों की लिए ही सम्भव था। परिवार के लोग तो उन्हें विक्षिप्त समझने लगे पर जब उनके साथ देवात्माओं के प्रत्यक्ष संपर्क के प्रमाण मिलने , देखे जाने लगे तो उन्हें यह तथ्य स्वीकार करना पड़ा । एक बार वे अपने संबंधियों से मिलने के लिए रूस गई । वहाँ उनके भाई के कानों तक भी यह चर्चा पहुंची कि उनकी बहिन का संपर्क किन्हीं दिव्य आत्माओं से है। जब इस विषय पर चर्चा चली तो उसने इतना ही कहा कि “मात्र मेरी बहिन होने के कारण मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं कर सकता। कोई प्रमाण दो।”मेडम ने अपने भाई को एक हल्की-सी मेज उठाकर लाने के लिए कहा, वह ले आया, अब उन्होंने फिर कहा कि इसे जहाँ से उठाकर लाए हो, वहाँ वापस ले जाकर रख आओ। भाई ने मेज को उठाने की कोशिश की , पर जोर लगाने के बाद भी नहीं उठ सकी। घर के अन्य लोगों ने भी मिलकर मेज उठाने की कोशिश की परन्तु कोई सफलता नहीं मिली। जब सब लोग थक-हार गए तो मैडम ने अपने सहयोगी प्रेतों से कहा कि वे हट जाएँ। तत्क्षण मेज पूर्ववत् हल्की हो गई । मैडम ब्लैवहल्की के कथनानुसार उनके अदृश्य सहयोगियों की एक पूरी मण्डली थी, जिसमें सात प्रेत थे। ये प्रेत थे ये प्रेत समय-समय पर उन्हें उपयोगी परामर्श दिया करते थे और मुक्त हस्त से उनकी सहायता किया करते थे । ऐसे भी उदाहरण है जिनमें दयालु प्रेतात्माओं ने लोगों के लौकिक जीवन में सहायता पहुंचाई और उनके उत्कर्ष में योगदान दिया। एक दरिद्र व्यक्ति आर्थर एडवर्ड के संबंध में विख्यात है। उसने 40 डालर प्रति मास पर कुलीगीरी की छोटी-सी नौकरी अपना जीवन प्रारंभ किया था। पन्द्रह वर्ष की आयु में उस पर कुछ प्रेत मेहरबान हो गए और उन्होंने आर्थर को नौकरी छोड़कर अपने बताए अनुसार काम करने का परामर्श दिया, साथ ही यह भी कहा कि हम तुम्हें बड़ा आदमी बनाएंगे । आर्थर के पास न तो ज्ञान था, न अनुभव और न ही व्यावसायिक बुद्धि । फिर भी उसने प्रेतों के परामर्श से रेलमार्ग बनाए अपनी नहरें खोदी तथा एक बन्दरगाह के निर्माण का भी काम हाथ में लिया। ये योजनाएँ जो प्रेतों के परामर्श से बनाई गई थी। जादुई ढंग से सफल हुई और वह कुछ ही वर्षों में अरबपति बन गया। अदृश्य और उदार आत्माएँ स्थूल सहायता भी पहुँचाती है। द्वितीय महायुद्ध के समय मोन्स की लड़ाई में ब्रिटिश सेना जर्मनों क्षरा बुरी तरह पिट गई केवल 500 सैनिक बचें थे। जर्मनों की संख्या 10 हजार थी। वे इन पाँच सौ सैनिकों का भी काम तमाम कर देना चाहते थे। सभी ब्रिटिश सैनिक बुरी तरह घिर गए थे तभी एक ब्रिटिश सेनाधिकारी को स्वर्गीय सेनानायक सेंट जार्ज का स्मरण आया। उसने आपने साथियों को इस महान सेनानायक का स्मरण कराया और भावनापूर्वक उनका स्मरण करने के लिए कहा। सभी सैनिकों ने तन्मय भाव से स्मरण किया, उसी समय एक बिजली-सी कौंधी। पाँच सौ सैनिकों के पीछे हजारों श्वेत वस्त्रधारी सैनिकों को आभा दृष्टिगोचर हुई और कुछ ही क्षणों बाद रणभूमि में भी जर्मन सैनिक मृत पड़े थे। ना गोला-बारूद छूटा, न किसी अस्त्र शास्त्र को उपयोग किया गया। फिर भी आश्चर्य था कि जर्मन शत्रु कैसे मर गए? अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को तो प्रेतात्माओं पर इतना विश्वास था कि वे अवसर एक प्रेत विद्या विशारद कुमारी नैटिकोसबर्म को व्हाइट हाउस में बुलाया करते थे और उसके माध्यम से प्रेतात्माओं से संपर्क कर महत्वपूर्ण निर्णय लेते थे। गृह युद्ध के दिनों में तो प्रेतात्माओं जैसी उनकी विश्वस्त सलाहकारी हो गई थी। उनकी मदद से लिंकन को उपद्रवियों के ऐसे-ऐसे रहस्यों को पता लगा जिन्हें जासूसों द्वारा प्राप्त करना सम्भव ही नहीं था। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि प्रेत बुरे और दुष्ट ही होते हैं। उनमें भी भले-बुरे व्यक्तियों की तरह भले-बुरे स्वभाव-चरित्र वाले होते है। आखिर मनुष्य हो तो मरकर प्रेत बनते हैं मरने के बाद भी वे अपना स्वभाव कहाँ छोड़ पाते हैं।? उसी स्वभाव के वशीभूत होकर भली आत्माएँ सत्पात्रों को सहायता किया करती है। ‘शिवोऽहम्’,’तत्वमसि’, आदि सूत्रों में जिस सत्ता को परमतत्व परमात्मा माना है वह परिष्कृत अंतःकरण ही हैं उसी को विज्ञान की भाषा में ‘सुपर चेतन’ कहते हैं। अंतःकरण की इसी गहन परत को विकसित करने के लिए भक्तियोग का आश्रय लिया जाता है। कर्म योग से शरीर, ज्ञान योग से मस्तिष्क और भक्ति योग से अंतःकरण की साधना की जाती है। अंतःकरण को ब्रह्म मनः संस्थान को विष्णु और कायकलेवर को रुद्र की उपमा दी गयी है। यही तीनों व्यक्तिगत त्रिदेव है जिनके वरदान-अभिशाप पर उत्थान पतन की सारी संभावनायें अवलंबित हैं अध्यात्मवेत्ता अंतःकरण को कही अधिक महत्व देते हैं और उसे मनःसंस्थान से कही अधिक उच्चस्तरीय मानते हैं। कार्य कौशल से लोक व्यवहार बनता है। बुद्धि वैभव से उपयुक्त निर्णय होते हैं, किंतु अंतःकरण तो समूचे व्यक्तित्व का ही अधिष्ठाता है उसकी परिष्कृत स्थिति ही सामान्य स्थिति के मनुष्य को महामानव , अतिमानव, कृष्,ि देवात्मा, देवदूत स्तर तक पहुँचाने में समर्थ होती हैं अपने ही भीतर विद्यमान इस देवलोक का माहात्म्य ऋषि -मनीषी सदा से ही बताते और उसकी अनुकंपा उपलब्ध करके जीवन लाभ लेने वाले विभिन्न प्रतिपादनों द्वारा समझाते रहे हैं । सिद्धान्त और प्रयोग दोनों ही इन प्रयोजनों के लिए उनने गढ़े - परखें और प्रचलित किये हैं। वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में अब भौतिकवादी, समाजशास्त्री, तत्वज्ञानी, नीतिशास्त्री, मनोविज्ञानी सभी इस मिले-जुले निष्कर्ष पर पहुँचे रहे है कि पतन पराभव से छूटने और वरिष्ठता उत्कृष्टता उपलब्ध करने के लिए सुपर चेतन की अर्थात् अंतःकरण की उच्चस्तरीय परतें खोदी कुरेदी जानी चाहिए। परामनोविज्ञान, मेटाफिजिक्स आदि माध्यमों से भी पिछले दिनों मनः संस्थान की अचेतन परतों की महत्ता बखानी जाती रही है और उसे जगाने उभारने के लिए तरह-तरह के प्रयोगों की चर्चा होती रही हैं दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार संचालन, प्राण−प्रत्यावर्तन, भविष्यज्ञान जैसी कितनी ही अतीन्द्रिय क्षमतायें इस संदर्भ में खोजी और परखी गयी हैं इस दिशा में प्रयास चालू रखते हुए भी मूर्धन्य स्तर के मनीषी इस बात पर जोर दे रहे है कि अचेतन से भी असंख्य गुनी उच्चस्तरीय संभावनाओं में भरे-पूरे ‘सुपरचेतन’ को नये सिरे से समझा -खोजा और उसके अभ्युदय का अभिनव प्रयास किया जाय। वे मानने लगे है कि अंतःक्षेत्र की उपलब्धियाँ व्यक्ति और समाज में उच्चस्तरीय परंपराओं का समावेश और नये युग का नया सूत्रपात कर सकने में समर्थ हो सकती हैं ‘साइकोलॉजी आफ इंट्यूशन’ नामक अपनी कृति में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक एमिली मारकाल्ट ने अंतःकरण की चर्चा करते हुए कहा हैं “यह शरीर एवं उच्चस्तरीय भाग हैं ज्ञानेन्द्रियों और तर्क बुद्धि से जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं उनसे भी कही अधिक महत्वपूर्ण समाधान उच्च चेतन मन की सहायता से मिल सकता है इस तंत्र को उजागर कर लेने का अर्थ है एक ऐसे देवता का साथ पा लेना जो उपयोगी सलाह ही नहीं देता, वरन् महत्वपूर्ण सहायता भी करता है यही वह क्षेत्र है जहाँ से आदर्शवादी प्रेरणा में एवं उमंगे उभारती और मानव को महामानव बनाने में सहायता करती है। सुप्रसिद्ध मनीषी मार्टिन ट्रिनबी ने लिखा है विचार बुद्धि की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो, पर वह रहेगी अपर्याप्त हो । चेतना की पूर्णता का केन्द्र मस्तिष्क नहीं, अंतःकरण हैं अब तक प्रकृति को खोजा पाया और उसका दोहन किया गया हैं परंतु अब परमात्मा की खोज और उसके पाने की बारी हैं ऐसा संपर्क साधने के लिए एक मात्र स्थान मानवी अंतःकरण है सहायता इसी के न्006म् मतें बसती हैं हेनरी गाल्डर ने अपने ग्रंथ “एवोल्युशन एण्ड मैन्स प्लेस इन नेचर “ में इसी केन्द्र की शीलता को और अधिक गहरा बनाने पर जोर दिया है। उनका कहना है कि वस्तुओं का लाभ जिसे उठाता है उसकी अंतःचेतना यदि निकृष्टता परायण रही तो संपदा का दुरुपयोग ही होगा। संपदा किसी ही क्यों न बढ़े पर यह ध्यान तो रहे कि उपभोक्ता की गरिमा ही साधनों का सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकती हैं जिस तरह परमाणु का ऊर्जा ‘नयुक्जियस’ को माना जाता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य की स्थिति और संभावनाओं का केन्द्र बिंदु उसके अंतःकरण अंतराल को समझा जा सकता है यही से मनः संस्थान को निर्देश मिलता है और वह एक अच्छे सेवक की तरह मिलता है और वह एक अच्छे सेवक की तरह वैसा ही सोचना आरंभ कर देता है जिससे कि आकाँक्षा की पूर्ति संभव हो सके। मन की सोचने की दिशाधारा पूर्णतया अंतःकरण के संकेतों के ऊपर निर्भर है। वह तर्क तथ्य, प्रमाण , उदाहरण इसी स्तर के ढूंढ़ता और क्रमबद्ध करता है जिससे अपने अधिष्ठाता अंतःकरण की इच्छापूर्ण हो सके। इसके लिए वह चिंतन तंत्र को ही नियोजित नहीं करता है, वरन् शरीर वाहन को भी इसी प्रयोजन के लिए नियोजित करता । अंतःकरण का आदेश मन मानता है और मन के इशारे पर चलने वाला शरीर स्वामिभक्त सेवक की भूमिका निभाने लगता है। इसमें उसे भला-बुरा सोचने या किसी प्रकार का ननुत्व करने की भी इच्छा नहीं होती। संक्षेप में अंतराल को ही मनः संस्थान और काय-कलेवर का सूत्रधार कह सकते हैं। जो किया और सोचा जाता है उस सुचे क्रिया तंत्र का अधिष्ठाता अंतःकरण को ही कहा जाना जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी मनोविज्ञान की भाषा में अंतःकरण को ही ‘सुपरचेतन’ कहा गया है। अध्यात्मशास्त्र में इसी अंतराल को जीवात्मा का निवास स्थान कहा गया हैं मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने और उस पर अनुग्रह बरसाने वाला-वरदान देने वाला जो ईश्वर है और जो हर व्यक्ति से साथ रहता है वह इसी अंतःकरण में बसता है उसी की अनुकूलता-अनुकंपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना, मतं जप, अनुष्ठान से लेकर तप एवं योग साधनाओं का सूजन हुआ है। अंतःकरण ही मनुष्य का भाग्य विधाता है इस क्षेत्र को उच्चस्तरीय भाव संवेदनाओं आस्थाओं आकाँक्षाओं से अनुप्राणित करने पर ही व्यक्ति और समाज को वर्तमान से उबारा और उज्ज्वल भविष्य के निकट पहुँचाया जा सकता है।

शताब्दी को जनसंख्या विस्फोट की शताब्दी कहा जा सकता है इतनी तेज रफ्तार से आबादी कभी नहीं बढ़ी । शताब्दी के आरम्भ में विश्व की आबादी लगभग डेढ़ अरब थी और अब इस सदी के अंत तक 6 अरब तक हो जाने की सम्भावना हैं लेकिन जनसांख्यिकी क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि अगले कुछ ही वर्षों में एक विशेष डेमीग्रैफिक रिवोल्युशन होगा, जिससे जन्म और मृत्यु दर में अप्रत्याशित रूप से कमी आयेगी और सर्वत्र एक स्थिरता परिलक्षित होगी। रूस का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए विस्नेवस्की ने बताया है कि इसे देश की महिलाओं की चेतना जगी है। और वे अपने भविष्य को सब प्रकार से उज्ज्वल एवं स्वस्थ-सुन्दर बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं बीस वर्ष की आयु के पश्चात ही वे दांपत्य सूत्र में बँधना पसंद करती हैं साथ ही संतति निर्माण में किसी तरह की कमी नहीं रहने देती । जापान जैसे अन्यान्य धनी देशों में भी इसी स्तर की मान्यता को बल मिल रहा है। फ्रांस , जर्मनी , स्कैन्डीनेवियन तथा पाश्चात्य योरोपीय देशों की गणना भी इस ‘जनसाँख्यिकी क्रांति में की जा सकती हैं इस क्रांति के फलस्वरूप ही मनुष्य की औसत आयु में 30-35 से लेकर 70-75 वर्ष तक की वृद्धि हो पायी हैं आर्थिक दृष्टि से विकसित राष्ट्रों की स्थिति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि वहाँ की महिलाएँ अपने जीवन-काल में दो बच्चों को ही जन्म देती है, उन्होंने भी शिशु को ही जन्म दर को कम करके दिखाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सर्वेक्षणकर्ताओं के अनुसार पूर्वी एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका जैसे देशों में सन् 1970 के दशक में जहाँ 100 महिलाओं ने 460 बच्चों को जन्म दिया, वही यह अनुपात बीसवीं शताब्दी के अन्त तक 320 तक तथा सन् 2025 तक 240 तक हो जाने की सुनिश्चित सम्भावना हैं इक्कीसवीं शताब्दी में समूचे विश्व में जनसंख्या अपने स्थिरता के बिन्दू पर जा पहुँचेगी तब जनसंख्या विस्फोट जैसी भयावह समस्या का समाधान सहज ही हो जावेगा। जनसंख्या अभिवृद्धि के संबंध में अपने अभिमत प्रेट करते हुए युनाइटेड किंगडम से प्रख्यात पर्यावरण एवं ‘एटेला ऑफ प्लेनेट मैनेजमेंट’ ‘दि सिंकिंग आर्क ‘ एवं ‘द प्राइमरी सोर्स ‘ ट्रौपीकल फाफरेस्ट एण्ड अवर फ्यूचर जैसी पुस्तकों के लेखक नौर्मन मायर ने बताया है। कि जनसंख्या के अंतिम स्वरूप का अनुमान वर्तमान की वृद्धि दर को देखकर नहीं लगाया जा सकता, वरन् जनसाँख्यिकी ‘वेग के दृश्य को दृष्टिगत रखते हुए ही इस तथ्य से भलीभाति अवगत हुआ जा सकता है। उन्होंने इस तथ्य की पुष्टि ‘फेनोमिनन ऑफ डेमोग्राफिक मूमेंटम’ के सिद्धान्त के आधार पर की हैं इसके अनुसार आज जितने अधिक बच्चे जन्म ले चुके हैं, वे भविष्य में अधिक अच्छे एवं सुसभ्य, सुसंस्कृत माता-पिता के रूप में भी सुविकसित हो सकते हैं और अच्छे एवं सीमित परिवार की आधारशिला रख सकते हैं इस तरह परिवार को समुन्नत एवं सुखी-सम्पन्न बनाने वाली भावनाओं के विकास के कारण साम्य संतुलन की स्थिति स्वतः ही स्थापित होने लगती हैं कोई समय था जब चीन की जनसंख्या बड़ी तेज रफ्तार के साथ बढ़ी थी, पर आज वैसी स्थिति कहाँ दिखाई पड़ती है। लोगों में नागरिक भावना का विकास हुआ है। परिवार को सुखी, समृद्ध और सुसम्पन्न बनाने वाले उत्तरदायित्व समझ में आने लगे हैं यही कारण है कि चीन के सत्तर प्रतिशत माता-पिता ‘वन चाइल्ड फैमिली’ अर्थात् एक बच्चे वाले परिवार से ही संतुष्ट हैं नियोजित परिवार की गति प्रगति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सन् 2000 तक चीन की आबादी अपने स्थिरता के बिन्दु पर जा पहुँचेगी और इक्कीसवीं सदी उसके लिए सुख्यात सम्भावनाओं का सपना साकार करेगी। नौर्मन मायर का कहना है कि अब विश्व की महिलाओं की चेतना जगी है और वे सीमित परिवार के पक्ष में है। यही कारण है कि प्रति वर्ष 6.5 प्रतिशत की बुद्धि संतति नियमन के उपाय-उपचारों को अपने में हो रही हैं इसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सन् 2025 तक संसार की जनसंख्या में स्थिरता आ जायेगी । उन निर्धन देशों में यह क्रांति विशेष रूप से परिलक्षित होगी जिन्होंने अपनी आर्थिक और सामाजिक प्रगति का मेरुदंड संतुलित आबादी को ही माना हैं इन देशों में जनसंख्या पर नियंत्रण पाकर अगली शताब्दी को उज्ज्वल भविष्य वाली सम्भावनाओं के रूप में दिखने की उत्कंठा जाग्रत होने लगी हैं इसका मूलभूत कारण शिक्षा के विकास-विस्तार को समझा जा सकता है इन देशों में महिलाओं का शैक्षणिक स्तर जैसे-जैसे ऊँचा उठता जा रहा है। वे पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों से भी अवगत होने लगी है। अब लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाने लगा है और संभावना व्यक्त की जा रही है कि इस शताब्दी के अंत तक अशिक्षा निवारण पर शत-प्रतिशत रूप से नियंत्रण पर लिया जायेगा। इक्कीसवीं शताब्दी में न केवल जनसंख्या विस्फोट पर रोक लगेगी, वरन् आवास, ऊर्जा एवं खाद्य जैसी विकट समस्याओं का भी समाधान ढूंढ़ लिया जायेगा। नये सेंचुरी’के नाम से लोग व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा दूसरों के हित साधन पर अधिक विकास होगा। एक दूसरे के साथ मिलजुल कर काम करने के वृत्ति का विस्तार होगा। उन्होंने इसे ‘कलेक्टिव ऐफटूर्स’ के नाम से पुकारा जाता है। निश्चय ही इक्कीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता, समानता, स्नेह और सौहार्द्र का वातावरण बनेगा और बढ़ती हुई आबादी पर अंकुश लगेगा।

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