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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मशोधन, आत्म परिष्कार एवं कायाकल्प-परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

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(कल्प साधना सत्र के दौरान शान्तिकुँज परिसर में दिया गया उद्बोधन-मई 1972)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों। आपको यह बताया गया है। कि अपने पापों का प्रायश्चित करना पड़ेगा। प्रायश्चित कैसे होगा? इसके लिए आपकी घटनाएँ सुनाता हूँ। आम्रपाली ने प्रायश्चित किया आम्रपाली ने सैकड़ों आदमियों की जिन्दगियाँ खराब कीं, सुमार्ग पर चलाया, बहुत सारा धन कमाया और उस पाप से निदान पाने के लिए भगवान बुद्ध की शरण ली। भगवान बुद्ध ने शरण में तो ले ली, किन्तु साथ-साथ यह भी कहा कि पिछले जो गुनाह हैं, उनकी भरपाई तो करनी ही पड़ेगी, आध्यात्मिक उन्नति का केवल मंत्र लेने से या जप करने से रास्ता थोड़े ही सुलझेगा? आम्रपाली ने कहा- “ठीक है, मैंने जो कुछ भी गुनाह किए हैं, जो कुछ भी पैसा मैंने गुनाहों के द्वारा कमाया है, उस समस्त सम्पदा को मैं दुनिया में ज्ञान के संवर्धन में खर्च कर दूँगी। उसके पास करोड़ों रुपये की सम्पत्ति थी, उसे लाकर वह भगवान बुद्ध के चरणों में से मैंने अनेकों को गुमराह किया है, आप अनेकों को अच्छे मार्ग में लगा देने के लिए इस पैसे को खर्च कर डालिए। बस ऐसा ही हुआ। भगवान बुद्ध ने आम्रपाली की करोड़ों रुपये की सम्पत्ति से बुद्ध विहार बनवा दिए, धर्म प्रचारकों के शिक्षण, का प्रबन्ध कर दिया। इस तरीके से जो अनीति का धन था वह सब उसमें लग गया, प्रायश्चित हो गया।

यही तरीका एक और व्यक्ति ने अपनाया, उसका नाम था अंगुलिमाल। अंगुलिमाल ने अपने जीवन में बहुत हत्याएँ की थीं, न जाने कितने कत्ल किए थे और कत्ल करने के बाद बहुत सारा धन कमा लिया। बहुत धन था उसके पास। वह भगवान बुद्ध का शिष्य बनने के लिए आया, मंत्र माँगने के लिए आया। भगवान बुद्ध ने मजाक में ही कहा-’ लगता है आप मंत्र जानकर बैकुण्ठ जाना चाहते हैं।”वह बोला- “हाँ प्रभु! मैंने सुना है। जो कोई मंत्र जप कर लेता है, राम नाम लेता है, बैकुंठ को जाता है। भगवान बुद्ध बहुत हँसे, उन्होंने कहा-जिस आदमी ने आपको ऐसी सलाह दी है, वह बहुत बड़ा पागल आदमी मालूम पड़ता है और आपने विश्वास कर लिया, आप उससे भी ज्यादा मालूम पड़ता है। केवल राम-राम का जप करने से अथवा उसके शब्द का उच्चारण करने से या देवी-देवता के आगे नाक रगड़ने से अथवा किसी क्रिया-कृत्य को पूरा करने से आप आध्यात्मिकता का लक्ष्य प्राप्त करने में कभी समर्थ नहीं हो सकते। रास्ता एक ही है- आपने जो गल्तियाँ की हैं, उसको बराबर कीजिए, खाइयों को पाटिए। कैसे पाटें? जो धन आपने अनीति से कमाया है, उसे खर्च कर डालिए। बस उन्होंने ऐसा ही किया। अंगुलिमाल ने करोड़ों ऐसा ही किया। भगवान बुद्ध ने सारे संसार में, उन्हीं की भाषा में बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को अनुवाद कराके और उन ग्रन्थों को दूसरे देशों में नाव में रखकर भेजने का प्रयत्न किया। अंगुलिमाल का सारा धन उसमें खर्च हो गया।

इन लोगों ने धन के अलावा भी तो अनेक गुनाह किये थे, लोगों का ईमान खराब किया था, चरित्र खराब किया था, दुःख और दारिद्रय की आग में उन्हें धकेल दिया था। इतने आदमियों का कत्ल करने के बाद में कितनी आत्माओं ने चीत्कार किया होगा, उसकी भरपाई केवल पैसे से कैसे हो सकती है? वह केवल पैसा ही तो चुका दिया और रूह का क्या हुआ? आम्रपाली ने अपने भावी जीवन को भूतकाल की खाई पाटने के लिए समर्पित कर दिया। वह सन्त हो गई और स्वामी विवेकानन्द की तरह सारे एशिया में और सारे हिन्दुस्तान में गाँव-गाँव घूमती फिरी, ज्ञान की शिक्षा देने के लिए, सत्कर्म की शिक्षा देने के लिए। इस तरह उन्होंने ने केवल अपने धन को उत्सर्ग कर दिया, बल्कि अपने समय को, उत्सर्ग कर दिया, बल्कि अपने समय को, अपने पसीने को भी उसी खर्च कर दिया। जो उत्साह उन्होंने बुरे कर्म करने में, गन्दी जिन्दगी जीने में लगायी था, वही उत्साह उन्होंने भावी जीवन को पुनीत और पवित्र करने में भी खर्च कर दिया जो श्रम और समय उन्होंने पाप कर्म कमाने में खर्च था, वही श्रम और समय उन्होंने पुण्य कमाने के लिए खर्च कर दिया। जब आम्रपाली सच्चे अर्थों में सन्त हो गई। अंगुलिमाल ने भी ऐसा ही किया। अंगुलिमाल के पास जो था, वह तो उन्होंने खर्च कर ही डाला, बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को सारे विश्व की भाषाओं में अनुवाद कराने है। उन्होंने केवल धन थोड़े ही अपहरण किया था, कई आत्माओं को दुखाया भी तो था। न जाने कितनों को कुमार्ग के रास्ते पर धकेला भी तो था। उसका प्रायश्चित यही हो सकता था। कि अपने समय, श्रम एवं बचे हुए जीवन को उचित कामों में खर्च कर दिया जाय। वैसा ही हुआ। अंगुलिमाल एक संत हो गये। संत के रूप में सारे संसार में काम करते रहे और बराबर प्रायश्चित के लिए चलते रहे। इससे बढ़िया प्रायश्चित का कोई तरीका नहीं हो सकता, इसलिए आप अपना समय-दान दे दें। समय न दें, क्षतिपूर्ति न करें। फिर क्या हुआ। यह तो प्रायश्चित का मखौल हुआ, दिल्लगी बाजी हुई और विधि की व्यवस्था के साथ में उपहास हुआ। भगवान के यहाँ अंधेर नहीं है। पाप करने वाले हाथ-पाँव जोड़ेंगे, नाक रगड़ेंगे, पूजा करेंगे, फिर भगवान की दुनिया में नियम कहाँ रहा, व्यवस्था कहाँ रही। फिर ऐसे ही लोग कर लिया करेंगे। पा कर लिया करेंगे और बस प्रार्थना कर लिया करेंगे, पंच कर्म कर लिया करेंगे, डुबकी मार लिया करेंगे। फिर पापों का डर तो कुछ है ही नहीं। तब संसार की व्यवस्थाओं को कौन कायम रखेगा? आप ऐसा मत सोचिए। आपको केवल यह सोचना चाहिए। कि यह चित्त भ्रम का एक ढंग है और कुछ नहीं।

यहाँ जो , कल्पसाधना आपको कराई जा रही है, इसमें भी अत्र को, आहार को कम करना पड़ता है, भोजन पर नियन्त्रण रखना पड़ता है, वही आपको करनी पड़ी । दोनों में एक ही बात है, इसलिए आपको यह प्रायश्चित करने के साथ में तितिक्षा करने के साथ-साथ में अब एक नया काम शुरू कर देना चाहिए-पापों का प्रायश्चित समयदान देकर।

समयदान के लिए क्या करना चाहिए? इन विषय में एक पुरानी परम्परा है, तीर्थयात्रा करनी चाहिए। पापों के लिए तीर्थयात्रा-तीर्थयात्रा आप कहीं भी पता कर लीजिए प्रायश्चितों में तीर्थयात्रा कहते हैं धर्म प्रचार की पदयात्रा को तीर्थयात्रा का अर्थ है- गाँव-गाँव घूमना, जगह-जगह जाना, लोगों को अच्छे-अच्छे उपदेश करना। प्राचीन कला में जो गौ हत्याएँ हो जाती थीं, तो लोग गायों की पूँछ लाठी से बाँधकर गाँव-गाँव घूमते थे, मुँह ढक करके, फिर कहते थे हमसे गाय की हत्या हो गई है और हम कलंकी हैं। हमको कलंक लग गया है। इस प्रकार अपने पापों को गाँव-गाँव बताते थे, लेकिन इसके साथ-साथ लोगों को यह भी कहते थे कि हमने गलती की है, लेकिन आप में से कोई मत करना। हमने गलती में, गुस्से में आ करके गया पर हमला किया और उसे मार डाला, आप ऐसा तम करना- यह उपदेश भी करता था और अपनी गलती को बताता भी था।

आपको यही करना चाहिए। आपको हर जगह जा करके तीर्थयात्रा। के रूप में पदयात्रा करनी चाहिए। पदयात्रा के रूप में, गाँव-गाँव घूमना चाहिए, पदयात्रा का एक रूप तीर्थयात्रा का एक रूप अभी भी विद्यमान है। आपने कभी वैद्यनाथ धाम जाने के बारे में सुना है? अपने यहाँ उत्तर प्रदेश में भी ऐसा रिवाज है कि शिवरात्रि के समय लोग गंगाजी से गंगाजल चढ़ाने के लिए लाते हैं और अपने यहाँ किसी देवालय पर चढ़ाने के लिए लाते हैं। काँवर लेकर चलने वाले रास्ते भर अच्छे-अच्छे गीत सुनाते जाते हैं। राहगीरों को हर वक्त अच्छी शिक्षा देते जाते हैं। जहाँ भी राहगीर मिलते हैं, जिस किसी भी गाँव में भी गाँव में प्रवेश करते हैं।वहाँ अच्छे दोहे ज्ञान के दोहे, भक्ति के दोहे वैराग्य के दोहे और कर्त्तव्य पालन के दोहे सुनाते चलते हैं। यह उनका धर्मोपदेश भी साथ-साथ चलता रहता है, पदयात्रा भी चलती रहती है और जनसंपर्क का कार्य भी पदयात्रा, दो, धर्मप्रचार भी। इन तीन बातोँ को कमला दें, तो आपकी सच्चे अर्थों में पदयात्रा हो जाएगी। जो इस समय चल रहा है। यह तो केवल भगदड़ है, पर्यटन है। पर्यटन के घुमक्कड़ लोग, देश-विदेश में घूमने के लिए जाते हैं। इसको देखते हैं, उसको देखते हैं। वे केवल देखने के लिए जाते हैं, दर्शन करने की बुद्धि कहाँ है उनमें, केवल देखने के लिए जाते हैं कि बद्रीनाथ कहाँ है, केदारनाथ कहाँ है? मंदिरों में रखे हुए खिलौनों को देखने के लिए जाते हैं। देखने की दृष्टि उनमें है कहाँ? दर्शन के लिए दृष्टि चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को देखने की दृष्टि दी थी। अर्जुन ने कहा था हमको भगवान का रूप दिखा दीजिए तो उन्होंने कहा-पहले दृष्टि तो ला, देख काहे से लेगा। देखने को हम हैं तो सही। नहीं साहब, आप भगवान नहीं है। हम तो भगवान देखना चाहते हैं, तो फिर दृष्टि विकसित कर दृष्टि से दर्शन होता है। जिनके पास दृष्टि नहीं है उनको खुलकर कह सकते हैं-यह तो घुमक्कड़? यह तो केवल मनोरंजन है। यह मान लीजिए कि कलकत्ता, बम्बई नहीं गए, बद्रीनाथ हो आए। इसमें बिल्कुल भी फर्क नहीं। दोनों से घूमने की ही आवश्यकता पूरी होती है, फिर तीर्थयात्रा के पीछे तो उद्देश्य जुड़ा हुआ है, क्रियाएँ जुड़ी हुई हैं। क्रियाओं का अर्थ यह है कि आपको धर्म प्रचार की पदयात्राओं में संलग्न होना चाहिए। धर्म प्रचार की पद-यात्रा में अगर आप संलग्न है तो आपकी तीर्थयात्रा फलदायी मानी जायेगी।

प्राचीनकाल के ऋषि भी यही करते थे। घर-घर अलख जगाते थे। अलख क्या? अलख ऐसे करते थे, घर-घर दरवाजे पर खड़े हो करके गीत गाते थे। एक हो तो अकेले-अगर दो आदमी हों तो साथ-साथ, इसे अलख जगाना कहते हैं। इस आदमी जो घर के निवासी थे, घर से निकलकर बाहर आते थे, गाना सुनाते थे, उपदेश सुनते थे। इसे अलख जगाना कहते हैं। घर-घर जाकर संपर्क बनाना कहते हैं। वे आपके पास आयेंगे? नहीं, आपके पास नहीं आयेंगे। बादलों के पास खेत कैसे आ पायेंगे? बताइए। खेतों के पास इतनी सामर्थ्य होती, तो फिर क्यों किसी का इन्तजार करते। मित्रो, घर-घर आपको ही जाना पड़ेगा। वे आपके पास नहीं आयेंगे। दुर्घटना से घिरे हुए आदमी किस तरह आपके पास आ पायेंगे। टाँग टूट गई है, ऐक्सीडेंट हो गया है और अप कह रहे हैं आइए साहब। हमारे यहाँ आइये, प्रार्थनापत्र लिखिए पैसे दीजिए, तब हम आपकी सहायता करेंगे। इतनी ही हैसियत होती तो बेचारा टाँग टूटा हुआ क्यों आता? तो फिर घुड़सवार न होता। घुड़सवार नहीं है, टाँग टूटा हुआ आदमी है, इसलिए चल नहीं सकता। जाना आपको ही पड़ेगा। बाढ़ें आती हैं, दुर्घटनाएँ होती है और भी मुसीबतें फैल जाती है, उसमें अधिकारी लोग यह इंतजार नहीं करते कि जो इंतजार नहीं करते कि जो दुःखी है, हमारे पास आयें। अर्जी दें और हमसे प्रार्थना करें। नहीं, आपको ही भागकर जाना पड़ेगा। हवा हर आदमी के पास भागकर जा पहुंचती है, नाक में घुस जाने के लिए। सूरज की रोशनी हर आदमी के पास अपने आप चली जाती है और उसे गर्मी देकर आती है, रोशनी देकर के आती है। आपको सूरज की तरह, हवा की तरह और बादलों की तरह उन सभी जगहों पर जाना चाहिए, जहाँ ज्ञान की आवश्यकता है।

यह आवश्यकता पिछड़े हुए आदमियों को भी है और पढ़े-लिखों को तो उससे भी ज्यादा है। पिछड़े हुए आदमी दूसरे ढंग के बेहूदे और पढ़े हुए आदमी दूसरे ढंग के बेहूदे हैं। उनमें कोई खास फर्क नहीं है। चरित्र की दृष्टि से, चिन्तन की दृष्टि से, आदर्शों की दृष्टि से, सारा समाज लगभग एक ही स्तर पर जा पहुँचा है। इसमें धनी और निर्धन का भेद करना बड़ा मुश्किल है, पढ़े और बिना पढ़े का भेद करना बड़ा मुश्किल है। जहाँ तक गफलत का सम्बन्ध है, दुर्भावनाओं का सम्बन्ध है, दोनों ही क्षेत्र एक-दूसरे से बाजी मारने पर तुले हुए हैं। पढ़े-लिखे कम कमा पाते हैं, यह बात अलग है। पढ़े - लिखे आदमी ज्यादा चालाक होते हैं, बिना पढ़े-लिखे कम चालक होते हैं, यह बात और है। पढ़े-लिखे आदमियों के पास अच्छे महल, मकान और पैसे होते हैं, गाँव वालों के पास फटे-पुराने कपड़े होते हैं, टूटी-फूटी झोंपड़ियाँ होती हैं, लेकिन जहाँ तक चरित्र का सम्बन्ध है, वहाँ तक दोनों एक ही स्तर के हैं, इसलिए हम और आप में करना हो, उसे तीर्थयात्रा की तैयारी करनी चाहिए, घर-घर जाना चाहिए और जनसंपर्क करना चाहिए।

जनसंपर्क किसके लिये? धर्म धारण जाग्रत करने के लिये, विचार क्रान्ति के लिये, जनमानस का परिष्कार करने के लिये, लोक मानस में आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना करने के लिये। यही उद्देश्य होना चाहिए। घर-घर आप जायेंगे, किसके लिये जायेंगे? भीख माँगने के लिये? नहीं साहब। भीख तो नहीं, ऐसे ही जायेंगे। गाँव-गाँव एक उद्देश्य के लिये जाइए, गाँव-गाँव एक उद्देश्य के लिये जाइए, कि हमको जन-जागरण की हवा पैदा करनी है। तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य है। इसमें पैदल चलना पड़ना है जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोग रास्ते में मिलें और उनसे संपर्क सधे।

आपको भी ऐसी ही तीर्थयात्रा की तैयारी करनी चाहिए। आप यहाँ से जायें, जब एक योजना बना करके जाइए कि किस तरीके से एक लम्बा सफर तय करेंगे और उसमें किस तरह अधिक से अधिक उपदेश देंगे? इसका एक ही तरीका है- आप साइकिल यात्रा करें। साइकिल चलाने को तो मैं पदयात्रा ही मानता हूँ। यह मानता हूँ कि इस यात्रा में आपको बिस्तर लेकर चलना पड़ेगा, कपड़े लेकर चलना पड़ेगा। उन्हें साइकिल पर लादकर चलिए, तो ज्यादा सुविधा रहेगी और आप यह कीजिए जगह-जगह शिक्षण देने के लिए, अलाव जगाने के लिये एक योजना बनाकर ले जाइए। दीवालों पर आदर्श वाक्य खड़िया, मिट्टी से लिखने की आप आदत डालिए। उससे आप असंख्यों आदमियों को, राहगीरों का प्रेरणा देने में समर्थ हो सकेंगे।

प्रायश्चित का यह भी एक तरीका है और क्या काम करें? यहाँ के शिविरों में ढपली बजाना सिखाया जाता है, सड़क पर खड़े होकर गाने वाले हस्टेजिसगरो की एक नई पीढ़ी और नई पौध हमने लगाई है। आप भी उसमें शामिल हों, तो एक दो आदमियों के साथ ढपली और खंजरी लेकर चले जायँ। किसी भी गाँव के लोगों को कहीं भी इकट्ठा कर लें, जहाँ प्याऊ है, ढपली बजाने लगें बस में सफर करना है तो आप बस में भी ऐसा कर सकते हैं। रास्ते में बैठे हुए हैं तो कोई अच्छा सा भजन गाना शुरू कर दीजिए। इससे लोगों के दिलों में एक नई जाग्रति पैदा होगी यह छोटी-छोटी बातें हैं। आप कहीं जाकर के प्रज्ञा पुराण की कथाएँ भी कह सकते हैं, रात को सत्संग कर सकते हैं इस तरह आप में से हर एक आदमी को, जहाँ भी, जिस भी क्षेत्र में ज्ञान, वहाँ ही जन-जागरण का काम आरम्भ कर दें। पढ़े और बिना पढ़े का फर्क मत कीजिए। इसलिए आपको शिक्षण करने में फर्क करने की जरूरत नहीं है। कि आप सभी से कहिए। हर आदमी इन मामलों में दरिद्र है। हर आदमी को आपके ज्ञान की आवश्यकता है। इसलिए आपको तीर्थयात्रा की योजना बना लेनी चाहिए। यह भी दो गायत्री के बड़े तीर्थ हैं। दर्शन करने के लिये तो तीर्थ बहुत सारे हैं, लेकिन ऐसे तीर्थ जिनमें प्रेरणा मिलती हो, कहीं नहीं है। तीर्थ बहुत सारे हैं, लेकिन ऐसे तीर्थ प्रेरणा मिलती हो, कहीं नहीं है। तीर्थों में जा करके तप करते हैं। लाखों आदमी अभी भी जाते हैं और प्रायश्चित की विधि पूरी करते हैं, मुँडन संस्कार कराते हैं, तीर्थ में नहाते हैं, वहाँ जा करके गऊदान करते हैं, ब्राह्मण भोजन कराते हैं- यह सब बातें यह बताती हैं कि तीर्थयात्रा का स्वरूप क्या होना चाहिए? तीर्थयात्रा से पाप कटते हैं अर्थात् पापों का खामियाजा पूरा होता है। कैसे? मैंने बताया न आपको कि जनसंपर्क साधना चाहिए और अलख जगाना चाहिए। इसके अलावा तीर्थयात्रा में और भी कई बातें बतायी गई हैं। आप उस समय एकाँत में रहकर अपने प्रायश्चित की साधनाएँ कीजिए, उपासनाएँ कीजिए, आत्म-परिष्कार के लिए पृष्ठ-भूमि बनाइए।

प्राचीनकाल में तीर्थों में दो तरह के लोगों के शिक्षण का प्रबंध था। एक बच्चों का शिक्षण जिनको गुरुकुल कहते थे। गुरुकुलों में जितने भी गुरुकुल थे। गुरुकुलों में जितने भी गुरुकुल थे, सब तीर्थ स्थानों में बने हुए थे। तीर्थ स्थानों की वजह से गुरुकुल बनाये गये अथवा गुरुकुलों की वजह से तीर्थ स्थान बन गए- यह समय इस तरह की बहस करने की नहीं है। दोनों एक ही बात हुई। प्राचीनकाल में जहाँ गुरुकुल थे, वहाँ स्कूल खुलवा दिये गये, वे तीर्थ बना दिए गये। राजस्थान का वनस्थली विद्यालय को हम तीर्थ कहते रहे हैं। बाबा साहब आमटे के अपंग चिकित्सालय को हम तीर्थ कहते रहे हैं। तीर्थ पहले थे? पहले तो नहीं थे, अब अच्छे व्यक्तियों से तैयार हो गए अथवा प्राचीनकाल में वे तीर्थ बने थे, तो किसी श्रेष्ठ कार्य से बने थे।

आप हरिद्वार की तैयारी कर सकते हैं, आप मथुरा की गायत्री तपोभूमि जाने की तैयारी कर सकते हैं। साइकिल से आप चलें, गाँव-गाँव जायें, घर-घर रुकें, दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखें, ढपली से गीत और संगीत सुनायें, रात को प्रवचन की व्यवस्था करें, यज्ञ आदि की बात सोचे, अच्छे साहित्य को लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न करें। अगर आप ऐसे कार्य करते हों, जिससे जन-जीवन में नव चेतना भरने का मौका मिलता हो और आपको सेवा करने का, श्रम करने का, त्याग करने का एवं रास्ता दिखाने का मौका मिलता हो तो समझना कि तीर्थयात्रा के पीछे का उद्देश्य सफल हुआ। मुँडन कराते थे तीर्थों में लोग। इसका यही मतलब था कि हमने पुराने विचारों को, बुरे विचारों को बदल दिया है। मस्तिष्क के ऊपर उग हुए बालों को पहले कुविचारों का प्रतीक मानते थे और प्रतीक मानकर ऐसा कहते थे, यही था जिसके लिए लोगों को अभी तक प्रोत्साहन मिलता है। शास्त्रों में तीर्थों का इतना ज्यादा माहात्म्य बताया गया है। कि शायद और किसी चीज और किसी पुण्य फल का न बताया हो। तीर्थ अवश्य जाना चाहिए। मुसलमान धर्म में भी ऐसी मान्यता है। मक्का एक जिन्दगी में वे अवश्य जाना पसंद करते हैं। हिन्दु धर्म में भी ऐसा ही मत है कि तीर्थयात्रा उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए तभी उसका लाभ है, अन्यथा नहीं।

आप जिस तीर्थ में जायँ, वहाँ कुछ दिन निवास कीजिए, साधना कीजिए, तपस्या कीजिए, उपासना कीजिए और ऐसे वातावरण और सत्संग में रहिए, जिससे कि आप पिछले वाले घिनौने भूतकाल को छोड़ करके उज्ज्वल भविष्य में प्रवेश करने में समर्थ हो सकें। यह कार्य वातावरण से ताल्लुक रखता है, यह कार्य उसकी सामग्री से ताल्लुक रखता है, यहाँ यह कार्य प्राणदायक प्रक्रिया से ताल्लुक रखता है। यहाँ यह कार्य प्राणदायक प्रक्रिया से ताल्लुक रखता है। तीर्थों में पहले सारी बातों की सुविधाएँ होती थीं। इसलिए लोग तीर्थों में जाते थे और वहीं निवास करते थे अनुष्ठान तो अपने घर रहकर भी किया जा सकता है, पर अच्छे वातावरण में रह करके अनुष्ठान करना एक बात है और घिनौने वातावरण में रह करके अनुष्ठान करना एक बात है और घिनौने वातावरण में, घिसे-पिटे वातावरण में, कामवासना के वातावरण में, लोभ और मोह के वातावरण में, लोभ और मोह के वातावरण में रहकर कर लें तो वह एक चिह्न-पूजा जैसी प्रक्रिया होगी। वातावरण का भी बड़ा महत्व था, इसलिए प्राचीनकाल में तीर्थयात्रा के लिए वातावरण को भी देखा जाता था। ऋषियों का सान्निध्य, तपश्चर्या का उपक्रम, यह मानकर चल सकते हैं कि आप यहाँ जो कल्प-साधना शिविर में आये हैं, वह वास्तव में एक महीने के तीर्थसेवन सत्र जैसा है। इसे तीर्थसत्र भी कह सकते हैं। तीर्थों में ऐसी ही परम्परा होती थी। अभी भी ऐसा होता है। प्रयाग में माघ के महीने में इससे ही मिलते-जुलते शिविर होते हैं, सत्र होते हैं, जैसे कि आप यहाँ रहकर कर रहे हैं। एक महीने तक त्रिवेणी में, बालू में झोंपड़ी डालकर रहते हैं। न कहीं बाहर जाते हैं, न बाहर आते हैं- न किसी के घर-गृहस्थी की चिन्ता करते हैं, न अपनी चिंता में डूबे रहते हैं। सिर्फ आत्म-कल्याण की चिंता करते हैं। आत्म कल्याण,लोक कल्याण की चिंता में डूबे रहने के कारण, घर-गृहस्थी से जुड़े हुए सम्बन्धों के बारे में एक महीने के लिए बैरागी हो जाते हैं। घर वालों से कह देते हैं। कि घर-गृहस्थी के समाचारों की चिट्ठी-पत्री मत डालना, हमें किसी लेन-देन की खबर मत देना, कोई विकट परेशानी आती हो तो अपने ढंग से हल करना, हम तक मत आना और हमारे सपने में विघ्न मत डालना। घर वाले भी इस बातों का ध्यान रखते हैं। जरूरत पड़ने पर सिर्फ इतना ही पूछते हैं कि किसी सामान की आवश्यकता तो नहीं है, कोई चीज तो नहीं चाहिए? बस जिस सामान की जरूरत होती है, लाकर दे देते हैं। बाकी एक-एक क्षण तीर्थयात्रा या कल्प साधक त्रिवेणी तट पर गुजारा करते हैं।

आप भी इसी तरह मानकर चलिए कि आपको अपने गुनाहों को ठीक करना है। अपने भावी कुसंस्कारों को धो करके साफ करना है तथा भावी जीवन के लिए कोई ऐसी रूपरेखा निर्धारित करनी है, जिसको इष्ट पूर्ति कहा जा सके, क्षतिपूर्ति कहा जा सके। इस कल्प साधना में आत्म परिष्कार, आत्म परिशोधन की प्रक्रिया उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है जैसा कि आपको पूजा, उपासना, जप और योग करने के लिए बताया गया है। यह बहुत ही मूल्यवान है, इसलिए आप इस ओर भी ध्यान रखें और ऐसी जिन्दगी प्राप्त करें जिस पर संतोष ही नहीं गर्व और गौरव भी अनुभव किया जा सके। बस आज की आज समाप्त ।

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