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Magazine - Year 1996 - Version 2

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आत्मिक बलिष्ठता हेतु प्राणों को साधिए

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आत्मपरिष्कार एवं आत्मविकास के लिए आत्म-बल अभिवर्द्धन की आवश्यकता पड़ती है। आत्मिक प्रगति इसी आधार पर सम्भव होती है। आत्मबल बढ़ाने के सम्भव होती है। आत्मबल बढ़ाने के लिए वैचारिक, भावनापरक और क्रियात्मक प्रखरता उत्पन्न करना आवश्यक है साथ ही इस प्रयोजन में असाधारण रूप से सहायता करने वाले प्राणायाम जैसे विशिष्ट क्रिया वाले प्राणायाम जैसे विशिष्ट क्रिया वाले प्राणायाम जैसे विशिष्ट क्रिया योगों की भी आवश्यकता रहती दुर्बलता निवारण के लिए आहर विहार की सुव्यवस्था तो होनी ही चाहिए, पर साथ ही चिकित्सा उपचार से साधन जुटाने से भी उस कार्य में सहायता मिलती है। प्राणायाम ऐसा ही विशेष उपचार है जिसके सहारे आत्मिक बलिष्ठता बढ़ने का पथ-प्रशस्त होता है। संध्या वन्दन के नित्यकर्म में उसका समावेश प्राणबल नित्यकर्म में उसका समावेश प्राणबल संवर्धन की आवश्यकता, उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए ही किया गया है।

प्राणायाम के दो उद्देश्य हैं, एक श्वास की गति का नियन्त्रण, दूसरा अखिल विश्व ब्रह्मांड में संव्याप्त प्राणचेतना को आकर्षित करके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को उस अद्भुत शक्ति से ओत-प्रोत करना। प्राण प्रखरता बढ़ाने के साथ ही मनोनिग्रह में भी प्राणायाम से आशाजनक सहायता मिलती है। चंचल और उच्छृंखल मन निर्दिष्ट केन्द्र पर स्थिर होता दीखता इतना ही नहीं मनोविकारों के निराकरण का भी पथ प्रशस्त होता । साधना जगत में प्राणायाम की महत्ता एक स्वर से स्वीकार की गयी है। शारीरिक और मानसिक आरोग्य की दृष्टि से उसे अतीव उपयोगी बताया गया है।

श्वास की गति में तीव्रता रहने से जीवन का शक्तिकोष जल्दी चुक जाता है ओर दीर्घजीवन संभव नहीं जाता है और दीर्घजीवन संभव नहीं रहता। श्वास की चाल जितनी धीमी होगी शरीर उतने ही चाल जितनी धीमी होगी शरीर उतने ही अधिक दिनों तक जीवित रह सकेगा। विभिन्न प्राणियों की श्वास-प्रश्वास का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है जैसे कबूतर एक मिनट में 37 बार साँस लेता है और 9 वर्ष जीवित रहता है। खरगोश भी प्रति मिनट 39 बार श्वास लेता है और उसकी आयु 9 वर्ष मानी गयी है। कुत्ता एक मिनट में 29 बार श्वास लेता है और 13 वर्ष तक जिन्दा रहता है। बकरी 24 बर साँस लेती है घोड़ा 50 वर्ष तक जीता है। हाथी एक मिनट में 11 बार साँस लेता है। और 100 साल तक जिन्दा रहता है। कछुआ भी एक मिनट में 4 बार साँस लेकर 150 वर्ष का दीर्घजीवन जीता है। पहले मनुष्य प्रति मिनट 11-12 बार साँस लेकर शतायु 25- बार साँस लेकर शतायु होता था, पर अब यह दर बढ़कर 25-26 बार प्रति मिनट हो गयी है और इसी अनुपात से उसकी आयु भी घटकर औसतन 60-65 वर्ष हो गयी है। जबकि सामान्यतः 15-16 हो गयी प्रति मिनट हो गयी तो भी नीरोग जीवन जी सकना संभव है।

श्वास की गति बढ़ने से तापमान बढ़ता है और बढ़ा हुआ तापमान आयु क्षय करता है। जो जानवर कुत्ते की तरह हांफते हैं-जिनकी हांफने की गति जितनी तीव्र होती है, वे उतनी जल्दी ही मरते हैं। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि हांफना और तापमान की वृद्धि दोनों एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। तीव्र ज्वर आने पर आदमी भी हांफने लगता है। क्रोध, आवेश एवं उत्तेजना की स्थिति में भी श्वास दर बढ़ जाती है और व्यक्ति काँपने लगता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि जिसकी साँस तेज चलेगी उसके शरीर की गर्मी बढ़ जायेगी। यह गर्मी की बढ़ोत्तरी और साँस की चाल में तीव्रता दोनों ही जीवन का जल्दी अन्त करने वाले हैं। इस संदर्भ में दीर्घायुष्य का रहस्य बताते हुए वैज्ञानिक जेक्टलूबे लिखते हैं कि इन दिनों मनुष्यों का शारीरिक ताप 19.6 रहता है। इसे अगर आधा घटाया जा सके अर्थात् 41 बना दिया जाय तो मनुष्य मजे से 1000 वर्ष जी सकता है।

प्राणायाम में गहरी श्वास लेने का अभ्यास किया जाता है। साधना के समय उसके लिए विशेष प्रयास किया जाता है कि सामान्य समय में भी उथले साँस लेने की आदत को बदला जाय और उसके स्थान पर गहरे साँस लेने का अभ्यास सदा के लिए डाला जाय इससे स्वास्थ्य संवर्द्धन और दीर्घ जीवन की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं।

साधारणतया एक मिनट में 19 बार हमारे फेफड़े फूलते-सिकुड़ते हैं। 4 घण्टे में इस प्रक्रिया की 251200 बार पुनरावृत्ति होती है। प्रति श्वास में प्रायः 500 सी.सी. वायु का प्रयोग होता है। क्योंकि लोग उथला श्वास लेते हैं। सामान्यतया एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता पूर्ति के लिए हर साँस से 12000 सी.सी. वायु का उपयोग होना चाहिए। लोग आवश्यकता को देखते हुए आधे से भी पेट भोजन या आधी प्यास पानी की तरह ही शरीर को दुर्बल ही बनाते रहे हैं और कहते रहे है। कि उथली साँस, सीने में दर्द जैसे अनेक रोगों का खतरा बना रहेगा।

गहरी साँस लेने का लाभ यह है कि फेफड़ों को जल्दबाजी की भगदड़ से थोड़ी राहत मिलती है और वह उस अवकाश का उपयोग रक्त को अधिक शुद्ध करने में कर सकता है। इससे हृदय कम बोझा पड़ेगा और वह अधिक नीरोग रह सकेगा। इंग्लैण्ड का विख्यात फुटबाल खिलाड़ी भिडलोथियन अपने गर्वीले मन और फुर्तीलेपन का कारण गहरी साँस लेने का अभ्यास ही बताया करता। वह प्रायः 2000 सी.सी. वायु हर श्वास में लेता था जबकि औसत व्यक्ति 500 सी.सी. वायु लेकर ही छुट्टी पा लेते हैं।

मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता डॉ0 मेकडावल का कहना है कि गहरी श्वास लेने का मतलब फेफड़ों को ही नहीं पेट के पाचन यन्त्रों को भी परिपुष्ट बनाना है। रक्त शुद्धि की दृष्टि से गहरी साँस बहुमूल्य दवादारु लेने से भी बढ़कर लाभदायक है। मूर्धन्य चिकित्सक डॉ0 नोल्स ने भी लिखा है- गहरी श्वास लेने की आदत मनुष्य को अधिक कार्य कर सकने की क्षमता और स्फूर्ति प्रदान करती है। श्रमजीवियों की शक्ति साधारणतया अधिक ही खर्च होती है, इससे उन्हें जल्दी थकना चाहिए, पर देखा इससे उलटा जाता है। उसका प्रधान कारण कठोर श्रम करने के साथ-साथ फेफड़ों का अधिक काम करना और उस आधार काम करना और उस आधार पर रक्त शुद्धि का अधिक अवसर मिलना ही होता है। डॉ0 मेटनो इससे भी आगे बढ़कर गहरी श्वसन क्रिया का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ना स्वीकार करते हैं। उन्होंने स्मरण शक्ति की वृद्धि से लेकर हर्षोल्लास-मगन रहने तक की विशेषता को इसी की लाभ परिधि में सम्मिलित किया है।

स्थूल शरीर में वायु संचार के लिए फेफड़े प्रधान रूप से काम करते हैं। सूक्ष्म शरीर में यह कार्य भी नाभि केन्द्र को ही करना पड़ता है। प्रत्यक्ष शरीर नासिका द्वारा वायु खींचता छोड़ता है, सूक्ष्म शरीर को प्राणवायु का संचार शरीर को प्राणवायु का संचार करना होता है। प्राण वस्तुतः एक विद्युत शक्ति है जो ऑक्सीजन की ही भाँति वायु में घुली रहती है। श्वास-प्रश्वास के साथ ही उसका आवागमन भी होता है। वैसे उसकी सत्ता वायु से सर्वथा भिन्न है। समुद्र के पानी नमक घुला रहता है। यह ठीक है पर वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे से भिन्न स्तर के ही है।

सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों में प्रवाहित होने वाले शक्ति प्रवाह को प्राण कह सकते हैं। जिस प्रकार रक्त ओर रक्तवाहिनी शिरा- इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रहने पर भी उनकी सत्ता सर्वथा स्वतन्त्र है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों और उनमें प्रवाहित होने वाले प्राणों को एक दूसरे से संबद्ध रहते हुए भी वह सत्ता की दृष्टि से पृथक् भी ठहराया जा सकता है।

यह एक तथ्य है कि प्राण सत्ता पर नियन्त्रण से ऐसी सिद्धियां उपलब्ध की जा सकती है। जहाँ तक पहुँचने में भौतिक विज्ञान को कई शताब्दियाँ लग सकती है। प्राणायाम, उसके द्वारा नियन्त्रण और नियन्त्रित प्राण का उपयोग विशुद्ध भौतिक विज्ञान हैं हठयोग में ऐसे प्राणायाम बहुत प्रचलित है और आये दिन इस तरह के चमत्कार देखे जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व एडमण्ड हिलेरी ने ‘समुद्र से आकाश’ अभियान संपन्न किया था। उस यात्रा के मध्य इलाहाबाद में एक रेशम का धागा बाँधकर एक हठयोगी वयोवृद्ध साधक ने उनके 10 अश्वशक्ति थी, किन्तु उस तरह के प्राणायाम की शक्ति थी, किन्तु उस तरह के प्राणायाम जितने शक्ति संवर्धन होते हैं, उतने ही भूल हो जाने पर अनिष्टकारक भी हो सकते हैं। परमाणु शक्ति का दुरुपयोग स्वतः के लिए उतना ही घातक होता है, जितना शत्रु के लिए। इसी तरह प्राण प्रक्रिया में आयी तकनीकी खराबी के कारण यही प्राण-विद्युत अनेकों के लिए प्राणघातक समस्या बन जाती है। इस समस्या से निदान पाने के लिए भारतीय योग तत्वेत्ताओं ने कुछ ऐसे प्राणायाम खोज निकाले जो काई भी, किसी भी शारीरिक, मानसिक स्थिति का व्यक्ति, कभी भी कर सकता है।

यों तो प्राणायामों के अनेकों भेद हैं। शीतली, शीतकारी, भ्रामरी, उज्जाई, लोम-विलोम सूर्यवेधन, प्राणाकर्षण तथा नाड़ी शोधन भारतीय अध्यात्म ग्रन्थों में भरी पड़ी हैं। पर जो सर्वसुलभ और सर्वथा हानि-रहित हैं, जिन्हें बालक, वृद्ध स्त्री व पुरुष कोई भी कर लें। ऐसे ही बहु उपयोगी प्राणाकर्षक प्राणायाम की विधि यहाँ दी जा रही है-

प्राणायाम के चार भाग हैं- (1) पूरक (2) अंतर कुम्भक (3) रेचक (4) बाह्य कुम्भक । साँस को खींचकर भीतर धारण करने को पूरक कहते हैं। यह क्रिया तेजी या झटके के साथ नहीं की जानी चाहिए। धीरे-धीरे फेफड़ों में जितना साँस भर सकें, इस क्रिया को पूरक कहते हैं। अंतर कुम्भक-वायु को भीतर रोके रहने को कहते हैं। जब तक सरलतापूर्वक रोके रख सकें। उतनी ही देर अंतर कुम्भक करें, जबर्दस्ती प्राण वायु को नहीं रोकना चाहिए, धीरे-धीरे समय बढ़ाने का अभ्यास किया जा सकता है। वायु को बहार निकालने को रेचक कहते हैं। पूरक के समान की यह क्रिया भी धीरे-धीरे करनी चाहिए।

साँस एकदम या झटके के साथ छोड़ना ठीक नहीं होता। इसके बाद बाहर भी साँस रोककर बाह्य कुम्भक करते हैं। अर्थात् कुछ देर बिना साँस के रहते हैं। पूरक और रेचक का समय बाह्य कुम्भक और अन्तर कुम्भक का समय समान होना चाहिए। यह एक प्राणायाम हुआ। आरम्भ में केवल पाँच बार ही इस पूर्ण प्रक्रिया को संपन्न करें। धीरे-धीरे आधा घण्टा तक समय बढ़ा सकते हैं। इसके लिए प्रातःकाल का समय सबसे उपयुक्त माना गया है। अभ्यास के लिए स्वच्छंद पवित्र, शाँत व खुला स्थान होना चाहिए।

या प्राणायाम स्वास्थ्य कि साथ-साथ आतोत्रति का भी एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी साधन है। इससे प्राण-साधना के साथ ही साथ चित्त की एकाग्रता, स्थिरता, दृढ़ता और मानसिक गुणों का विकास होता है।

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