
पुनर्प्रकाशित विशेष लेखमाला-12 - लोकसेवी की आचार संहिता (समापन किश्त)
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लोगों की बात न सुनकर लोकसेवी अपनी बात कहने का ही उतावलापन करता है, तो सुनने की भाव-स्थिति नहीं आ पाती। क्योंकि चित्त में तो वे समस्यायें घुमड़ रही होती हैं, जो व्यक्ति को आकुल व्याकुल बनाये हुए हैं। उन्हें तात्कालिक आवश्यकता उन समस्याओं के समाधान की है।
भगवान बुद्ध के शिष्य एक बार किसी व्यक्ति को धर्मोपदेश दे रहे थे। वह व्यक्ति को धर्मोपदेश दे रहे थे। वह व्यक्ति को धर्मोपदेश दे रहे थे। वह व्यक्ति उन उपदेशों को सुन तो रहा था पर उसका ध्यान कहीं और बँटा हुआ था। शिष्यों ने बार-बार उस व्यक्ति को ध्यान देने के लिए कहा पर वह ध्यान दे ही नहीं पाता। शिष्यों को लगा कि हमारी शिक्षण पद्धति में कहीं त्रुटि है। इसलिए वे उस व्यक्ति को महात्मा बुद्ध के पास ले गये और सारा विवरण कह दिया। बुद्ध ने उस व्यक्ति ने पूछा कि आपके शिष्य मुझे आपके पास क्यों लाये हैं? तब बुद्ध ने उसे धर्मोपदेश दिया।
जहाँ लोगों को लोकमंगल की दिशा देनी हो, किसी पुण्य अभियान में संलग्न करना हो या उस अभियान में संलग्न व्यक्तियों को अगले चरण का दिशा-बोध कराना हो तो आवश्यक है कि उन लोगों को पहले अपनी स्थिति बता लेने दी जाय, समस्याओं को शाँत चित्त से सुन लिया जाय। जब उसे आत्मीयता का बोध होने लगें तब अपनी बात कही जाय।
इस सम्बन्ध में कोई सुझाव देने की व्यावहारिक पद्धति भी यही है। कोई सुझाव देने से पहले अपनत्व के सम्बन्ध स्थापित किये जा किये जायँ, आत्मीयता की अनुभूति करायी जाय। तब कहीं कही गई बात का प्रभाव होगा। अन्यथा जो कुछ कहा गया है वह अपरिचितों से किये गये वार्तालाप की तरह ही प्रभावहीन होगा। परिवार में अपनत्व की भावना होने के कारण ही घर के सदस्य एक-दूसरे की छोटी से छोटी बात और छोटा से छोटा सुझाव मानते हैं, जबकि बाहर अपनत्व का संस्पर्श न मिलने के कारण महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण बात तक अस्वीकार कर दी जाती है। लोकसेवी को भी अपनत्व पैदा कर अपनी बात कहने का अभ्यास करना चाहिए। यह दृष्टिकोण नहीं बनाया जाय कि, राजनैतिक प्रत्याशी तो अपने स्वार्थ के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें बनाता है। हम तो उन लोगों के भले की बात ही करते हैं, वे सुने तो सुनें, समझे और मानें तो मानें, वे सुनें तो सुनें, समझे और मानें तो मानें, हमें क्या?
यह दृष्टिकोण अपनाया गया तो सेवा का साधना स्तर कहाँ रहा? फिर तो वह उन वेतनभोगी कर्मचारियों जैसा काम ही काम करते हैं और उस काम के सफल-असफल होने से अपना कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ते। सफलता-असफलता होने से अपना कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ते। सफलता-असफलता की चिन्ता तो लोकसेवी को भी नहीं करनी चाहिए लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सेवा के साथ अपना मनोयोग भी न जोड़ा जाय। मनोयोग इसी का नाम है कि आप अपने कार्य में कितनी दिलचस्पी ले रहे हैं।
स्थानीय कार्यकर्त्ताओं से बातचीत करते समय, मार्गदर्शन देते समय उनकी रुचि और क्षमता का ध्यान रखा जाय तो उनका सफल का ध्यान रखा जाय तो उनका सफल उपयोग हो सकता है । जैसे श्रमदान के द्वारा कहीं सड़क का निर्माण हो रहा है या कहीं सड़क का निर्माण हो रहा है या गाँव में सफाई के लिए नालियाँ खोदी जा रही हैं तो अनेकों स्वयं-सेवक उसमें जुटेंगे। किसी की रुचि खुदाई करने में है, शरीर भी अच्छा हट्टा कट्टा और मजबूत है तो उसे किसी दूसरे काम में न लगाया जाय। यदि उसे दूसरे काम में लगा दिया गया जो जिस काम में यह लगता था उस काम में उसकी क्षमता लगेगी नहीं और दूसरे काम में वह वाँछित मनोयोग जुटा नहीं पायेगा। किसी समारोह की ही बात लें। एक समारोह का आयोजन करने में बहुत से पक्षों से व्यवस्था और तैयारी करनी पड़ती है। अतिथियों को आमंत्रित करने, प्रचार करने, पाण्डाल बनाने और लोगों को बिठाने जैसे ढेरों काम करने पड़ते हैं। लोकसेवी को कभी यदि ऐसे कार्यों का नेतृत्व या संचालन करना पड़े तो उसे इतनी सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए। कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी रुचि और क्षमता के अनुसार काम मिले। यदि ऐसा नहीं होना चाहिए कि जो व्यक्ति की क्षमता और प्रतिभा का सही-सही उपयोग नहीं हो पाता।
कई अवसरों पर ऐसा होता है कि एक ही विषय को लेकर कार्यकर्त्ताओं में मतभेद होते हैं। उन मतभेदों का सद्भावनापूर्ण समाधान होना चाहिए। न तो जबर्दस्ती एक रहने के लिए आग्रह किया जाय और न ही विलगाव को प्रोत्साहन दिया जाय जबर्दस्ती एकता होने के आग्रह से होता यह है कि उस स्थिति में वह तथ्य उपेक्षित कर दिया जाता है जिसके कारण कि मतभेद उत्पन्न हुआ है। ऐसे कई प्रसंग हो सकते हैं। जिनमें मतभेदों का दूरदर्शितापूर्ण समाधान किया जाना चाहिए। स्वयं से किसी का मतभेद हो तो लोकसेवी को चाहिए कि वह सहनशीलता अपनायें। जो प्रभाव सहनशीलता का पड़ता है वह वह प्रतिवाद या विवाद का नहीं हो सकता।