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Magazine - Year 1996 - Version 2

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चेतना-विज्ञान की विश्व मनीषा से अपेक्षाएँ

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इस विश्व-ब्रह्माण्ड में दो शक्ति धारायें कार्यरत है- एक जड़ दूसरी चेतन की। इनमें से जड़ पदार्थ की क्षमताओं का स्वरूप और उपयोग समझने की विद्या को विज्ञान कहते हैं और चेतना को प्रगति एवं प्रसन्नता प्रदान करने वाली विद्या को अध्यात्म कहते हैं। मानवी - सत्ता को दोनोँ क्षेत्रों के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है। प्राण-चेतना का सुसंतुलन अध्यात्म तथ्यों पर अवलम्बित हैं। काया पदार्थ विनिर्मित होने से उसका काम जड़ वस्तुओं के सहारे चलता है। जीवन को सुखी समुन्नत रखने में दोनों की समान रूप से आवश्यकता पड़ती है। अतः अध्यात्म और विज्ञान का परस्पर सहयोग-समन्वय रहने पर ही व्यक्ति तथा समाज की सुविधा तथा प्रसन्नता को बनाये रहना तथा बढ़ाते चलना संभव हो सकता है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि पिछले दिनों से ही उपरोक्त दोनों महाशक्तियों में परस्पर सहयोग-समन्वय होने के स्थान पर अनबन चलती रही हैं। एक ने दूसरे पर आक्षेप करने और हेय ठहराने की प्रतिस्पर्धा खड़ी की हैं। विज्ञान ने ईश्वर को आत्मा, और कर्मफल के तत्वदर्शन को असामान्य ठहराया है। प्रत्यक्षवाद ने मत्स्यन्याय का पक्ष लिया है। और जिसकी लाठी उसकी भैंस का उपयोगितावाद सही ठहराया है। इन भौतिकवादी प्रतिपादनों ने मानवी चिन्तन को दिग्भ्रान्त करने में बहुत सफलता पायी है। स्वार्थपरता, उच्छृंखलता और आक्रामकता को बल मिला है। व्यक्तिगत चरित्र और भौतिक प्रगति में विज्ञान ने बहुत सहायता दी है, किन्तु उसके द्वारा चेतना क्षेत्र में जो विकृति उसके द्वारा चेतना क्षेत्र में जो विकृति उत्पन्न हुई है, उसकी हानि भी कम नहीं है। पतन-पराभव का घटाटोप अनेकानेक विभीषिकायें उत्पन्न कर रहा है। लगता है महाविनाश के दिन तेजी से निकट आते जा रहे हैं।

अध्यात्म ने भी विज्ञान के आक्षेपों का प्रामाणिक स्तर पर उत्तर नहीं दिया। खीज कर उसे गाली गलौज देना आरम्भ कर दिया और अपनी स्वप्निल दुनिया अलग बसाली। वह वाग्जंजाल और पूजा-पत्री के टंटघंट तक ही सिमटकर रह गया। इससे बुद्धिजीवी वर्ग पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा और उसे पराजित की खीज, मूढ़मान्यता का समर्थन तथा निहित स्वार्थों का कुचक्र ठहराकर भर्त्सना का भाजन बनाया। इस प्रकार अध्यात्म की व्यक्ति को उत्कृष्ट और समाज को समृद्ध बनाने की भौतिक क्षमता को भारी ठेस लगी। अध्यात्म और विज्ञान के विग्रह-असहयोग से समूची मानवता को भारी क्षति पहुँची है। व्यक्ति का पतन हुआ और समाज का संतुलन बिगड़ा। अध्यात्म, दर्शन क्षेत्र की इस विसंगति का जनजीवन पर लोक व्यवस्था पर जो घातक प्रभाव पड़ा है उसे सूक्ष्मदर्शी जानते हैं। उनकी चिन्ता और बेचैनी स्वाभाविक है।

समय की माँग है कि विज्ञान और अध्यात्म का पर्दा और चेतना का ऐसा तालमेल बैठे जिसके सहारे व्यक्ति की गरिमा और समाज की व्यवस्था को उच्चस्तरीय बनाया जा सकना संभव हो सके। यह एक सुखद संकेत है कि भौतिक विज्ञानियों का ध्यान अब इस ओर आकृष्ट हुआ है। इस सर्म्दभ में ‘मिस्टीरियस यूनीवर्स’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के रचयिता मूर्धन्य विज्ञानी सर जेम्स जीन्स ने लिखा है कि “विज्ञान जगत अब पदार्थ-सत्ता का नियंत्रण करने वाली चेतन-सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा है और यह सोचने में लगा है कि हर पदार्थ के गुण, धर्म की रीति-नीति से नियंत्रित रखने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है ?” पदार्थ को स्वसंचालित व अचेतन सत्ता समझने की प्रचलित मान्यता अब इतनी अपूर्ण है कि उस आधार पर प्राणियों की चिन्तन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता। अब वैज्ञानिक निष्कर्ष आणविक हलचलों के ऊपर शासन करने वाली एक अज्ञात चेतन-सत्ता को समझने का प्रयास गंभीरतापूर्वक कर रहे हैं।

वस्तुतः विज्ञान की जानकारियां बहुत सीमित हैं। वह आँशिक सत्य है। उसकी एक सीमा निर्धारित है। उसके आगे विज्ञान की नहीं ; विश्वास और श्रद्धा की आवश्यकता हो जाती है, जिसे अध्यात्म का प्राण कहा गया है। पदार्थ परमाणुओं से बने हैं और परमाणु इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रान, मेसान, पाजिट्रान और न्यूक्लियस से बने हैं - विज्ञान की इतनी ही जानकारी है। उसने यह भी पता लगा लिया है कि परमाणु में अकूत शक्ति भण्डार छिपा है। वह एक पूरा सौरमण्डल है। पर ऐसा क्यों हैं ? शक्ति कहाँ से आई ? परमाणु में गति क्यों है ? आदि बातें बताने में विज्ञान असमर्थ है। वह यह भी बता पाने में समर्थ नहीं हुआ है कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? आनन्द का वास्तविक स्रोत कहाँ है ? तभी तो सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ0 जे0 डब्ल्यू0 एन0 सुलीवान ने अपनी कृति ‘लिमिटेशन आफ साइन्स’ में लिखा है कि “मानव जीवन की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित डार्विन का विकासवाद - जिसके अनुसार मनुष्य अमीबा, अमीबा से दूसरे सर्पणशील जीवों से विकसित होता हुआ बन्दर बना और फिर बन्दर से विकसित होकर मनुष्य बन गया और रैन्डम के सिद्धान्तानुसार मनुष्य उसी प्रकार परिपूर्ण जन्मा जिस प्रकार अन्य जीव, में से कौन सत्य है, कौन असत्य है। इस संबंध में विज्ञान कुछ भी स्पष्ट करने में असमर्थ है।” इसी तरह ‘इन्ट्रोडक्शन टू साइन्स’ नामक पुस्तक में विज्ञानवेत्ता जे0 ए0 थामसन ने कहा है - “विश्व में जीवन कब और कैसे उत्पन्न हुआ, उसका विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं है। यहाँ बड़े से बड़े वैज्ञानिक को भी भ्रम हो जाता है कि वस्तुतः कोई ऐसी महान चेतन-सत्ता इस संसार में अवश्य काम कर रही हो सकती है जिसकी इच्छा से शक्तिमान और कोई शक्ति संसार में न हों।

विज्ञान पक्ष की मान्यता है कि जो प्रत्यक्ष है, उतना ही सत्य है। इसमें जो तुरन्त लाभ दीख सके, अपनी सत्ता का परिचय दे सके, वहीं मान्य है। चूँकि ईश्वर, धर्म और तत्वदर्शन के प्रतिपादन प्रत्यक्ष नहीं है, इसलिए उन्हें मान्यता क्यों दो जाय? पर यहाँ इस वास्तविकता को भुला दिया जाता है कि प्रत्यक्ष की क्षमता एवं उपयोगिता स्वल्प है। उसका वर्चस्व तो परोक्ष में छिपा हैं। उसे ही चेतना कहते हैं। उदाहरण के लिए जमीन पर बिखरी धूल की कोई कीमत नहीं, पर उसके छोटे से परमाणु की - परोक्ष शक्ति की जो जानकारी रहस्य का पर्दा उठने पर मिलती हैं। उसे देखकर आश्चर्य-चकित रह जाना पड़ता है। आकाश नीले शामियाने जैसा दीखता है, पर इस प्रत्यक्ष से आगे बढ़कर इन्द्रियातीत रहस्यों का पता चलता रहता है कि उस पोल में उससे भी अधिक सम्पदा भरी पड़ी है जितनी कि इस धरती पर बिखरी हुई दीखती है, यह रहस्यलोक ही है जिसे इन्द्रियातीत बुद्धिगम्य कहते हैं। परोक्ष भी प्रत्यक्ष के साथ ही गुंथा हुआ है, पर उसे जानने, पकड़ने और करतलगत करने के लिए इन्द्रियों की क्षमता से काम नहीं चलता। इसके लिए बुद्धि क्षेत्र की - अंतःकरण की प्रखरता उभार कर उसके सहारे गहराई में प्रवेश करने और मोती ढूँढ़ निकालने का पुरुषार्थ करना पड़ता है। महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में इस तथ्य को जान लिया था। उन्होंने परमाणु प्रक्रिया का विशद विवेचन करने के उपरान्त अपने निष्कर्ष घोषित करते हुए कहा है - “मुझे विश्वास को गया है कि जड़-प्रकृति के भीतर एक ज्ञानवान परोक्ष-चेतना भी काम कर रही है।”

भौतिक विज्ञानी सर ए0एस0 एडिंगटन का भी यही निष्कर्ष है कि भौतिक पदार्थों के भीतर एक सूक्ष्म चेतन-शक्ति काम कर रही है। जिसे अणु-प्रक्रिया का प्राण कहा जा सकता है। हम उसका सही स्वरूप और क्रियाकलाप अभी नहीं जानते, पर यह अनुभव करते हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है - वह अनायास, आकस्मिक या अविचार पूर्ण नहीं है। ‘इवोल्यूशन’ नामक अपनी पुस्तक में पी0 गेईडर्स ने भी कहा है कि सृष्टि का आरंभ जड़-परमाणुओं से हुआ और ज्ञान पीछे उपजा, यह मान्यता सही नहीं है। लगता है कि सृष्टि से भी पूर्व कोई चेतना मौजूद थी और उसी ने क्रमबद्ध एवं सोद्देश्य रीति-नीति के साथ इस विश्व ब्रह्माण्ड का सृजन किया।

विख्यात मनीषी हर्बर्ट स्पेन्सर ने अपनी कृति ‘फर्स्ट प्रिंसिपल’ में कहा है कि एक ऐसे विश्वव्यापी चेतन तत्व से इनकार नहीं किया जा सकता जो साधारणतया सभी प्राणियों में विशेषकर मानवजाति में जीवन की एक सुरम्य प्रक्रिया का निर्धारण करती है। प्राचीनकाल के धर्माचार्य या दार्शनिक जिस प्रकार उसका विवेचन करते रहे हैं, भले ही वह संदिग्ध हो पर उसका अस्तित्व असंदिग्ध रूप से है और वह ऐसा है जिसका गम्भीर रूप से अन्वेषण होना चाहिए। इसी तरह की मान्यता डॉ0 गार्ल की है वे कहते हैं कि संसार की मुख्य सत्ता जड़ पदार्थ, नहीं वरन् वह चेतन-सत्ता है जो समझती, अनुभव करती, सोचती, याद रखती और प्रेम करती है। मृत्यु के उपरान्त जीवन की पुनरावृत्ति का सनातन क्रम उसी के द्वारा गतिशील रहता चला आ रहा है।

संसार के चौदह मूर्धन्य विज्ञानवेत्ताओं के सम्मिलित निष्कर्ष व्यक्त करने वाले ग्रन्थ ‘दी ग्रेट डिजाइन’ में प्रतिपादन किया गया है कि यह संसार निर्जीव यंत्र मात्र नहीं है। यह सब अनायास अकस्मात् ही नहीं बन गया है। चेतन और अचेतन हर पदार्थ में एक ज्ञान-शक्ति काम कर रही है, उसका नाम भले ही कुछ भी दिया जाय यह चेतन - शक्ति की विश्व - ब्रह्माण्ड से समस्त क्रिया - कलापों का संचालन व नियमन कर रही है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्फ्रेड रसेल ने भी कहा है कि “मुझे विश्वास है कि चेतना ही जड़-पदार्थों को गति प्रदान करती हैं।”

वस्तुतः अब विज्ञान का जड़ पदार्थों से लगाव समाप्त हो गया है। चेतना, मन और आत्मा का अस्तित्व माना जाने लगा है। विज्ञान वेत्ता अब यह स्वीकारने लगे हैं, कि चेतन-सत्ता की जड़-जगत की उत्पत्ति का मूल कारण है ; अतः उसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती है। हम सम्बन्ध में ख्यातिप्राप्त ब्रिटिश वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स ने अपनी कृति ‘दि न्यू बैकग्राउण्ड आफ साइन्स’ में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि उन्नीसवीं शताब्दी में विज्ञान का मूल विषय भौतिक-जगत या जड़ पदार्थ था, लकिन अब प्रतीत हो रहा है कि विज्ञान जड़ पदार्थों से दूर होता जा रहा है और अनुसंधान का केन्द्र चेतन सत्ता बनती जा रही है। ‘द मिस्टीरियस यूनीवर्स’ में उन्होंने लिखा है कि वैज्ञानिक विषय के सम्बन्ध में हमने जो पूर्व मान्यता बना ली है, अब उसकी पुनः परीक्षण की आवश्यकता है। जड़ - जगत को जो प्रधानता दे बैठे थे - अब प्रतीत हो रहा है कि वह गौण है। जड़-जगत के पीछे एक नियामक - सत्ता काम कर रही है, खोज उसी की जानी चाहिए।

कहा जा चुका है कि अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही इस विश्व की महान शक्तियां हैं। दोनोँ के समर्थन-सहयोग से सत्य के अधिक समीप पहुँचने का अवसर मिलेगा, साथ ही दोनोँ के समर्थन से जो प्रतिपादन प्रस्तुत होगा, वह जनमानस में अपना स्थान भी सरलतापूर्वक बना सकेगा। अध्यात्म-विज्ञान से कनिष्ठ नहीं, वरिष्ठ है। आवश्यकता इस बात की है कि पदार्थ की तरह ही चेतना की भी शोध और साधना की जाय तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य इसी जीवन में देवताओं जैसा अन्तराल प्राप्त न कर सके और सामान्य परिस्थितियों एवं सीमित साधनों के सहारे ही देव-सुलभ वातावरण में रहने का आनन्द न ले सकें।

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