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Magazine - Year 1996 - Version 2

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शब्द ब्रह्म और उसकी सिद्धि

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First 19 21 Last
मुख से शब्द का उच्चारण न हो तो चेहरा कितना ही सुन्दर क्यों न हो, उसका कुछ महत्व नहीं रह जाता। गूँगा व्यक्ति संकेतों के बल पर कुछ काम चलाऊ इशारे भले ही कर ले मनोभावों का आदान-प्रदान करने में किसी प्रकार समर्थ नहीं हो सकता । वाणी भावनाओं का परिवहन करती है। दूसरा क्या कहता है इसे समझाती है और स्वयं क्या कहना चाहती है इसका प्रकटीकरण करती है। सूरदास अन्धे थे तो भी वाणी की दृष्टि से मुखर होने के कारण सूर-सागर लिख सके। नेत्रों की उपयोगिता अपने लिए जानकारियाँ एकत्रित कर देने के लिए है, पर वाणी का महत्व उससे अधिक है। उसके माध्यम से पढ़ा और पढ़ाया जा सकता है। स्वामी दयानन्द के गुरु विरजानन्द नेत्र विहीन थे तो भी वे चारों वेदों के ज्ञाता और उद्भट विद्वान थे। मनुष्य की काया में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्हें पाँच देवता कहते हैं इनमें वाणी प्रमुख है। उसे सरस्वती कहा जाता है। सब इन्द्रियाँ एक ओर और वाणी एक तुला पर रखी जा सकती है।

यह सामान्य व्यवहार की बात हुई। आध्यात्म प्रयोजनों में भी वाणी की महिला अगाध बताई गई हैं। सत्संग उसी के माध्यम से होता है। मन्त्र धारण की माध्यम जिव्हा ही है। प्रत्यक्ष ब्रह्म के दो स्वरूप है। एक शब्द-ब्रह्म दूसरा नाद ब्रह्म। वार्तालाप में शब्द ब्रह्म का प्रयोग होता है। संगीत में-गीत वाद्य में नाद-ब्रह्म का प्रयोग है। मन्त्र शब्द-ब्रह्म है। सत्संग शब्द-ब्रह्म है। शिक्षा का समस्त प्रयोजन इसी माध्यम से होता है। योगाभ्यास में नादयोग से परब्रह्म की परावाणी इसी माध्यम से सुनी जाती है। देवताओं की वाणी नाद माध्यम से ही प्रकट होती है। शिव का डमरू, कृष्ण की बंसी, नारद का तमूरा, चैतन्य की खरताल, मीरा के मजीरा, सरस्वती का सितार यह सभी दिव्य वाणी बोलते थे। कोकिल, भ्रमर आदि वाणी के माध्यम से ही प्रख्यात हुए हैं। जन-मानस को उद्वेलित करने में वाणी का ही प्रयोग होता है। इसे वशीकरण मन कहा गया है। मीठे वचनों की तुलना वशीकरण मन्त्र से की गई है। इसमें सहस्र तलवारें भी सन्निहित है। द्रौपदी के मुख्य से आठ अक्षर कड़ुए निकले थे कि उतने भर से महाभारत खड़ा हो गया और अक्षौहिणी सेना का सफाया हो गया।

सामान्य क्रिया-कलाप से लेकर आध्यात्मिक एवं उच्चस्तरीय प्रयोजनों में वाणी के माध्यम से व्यक्ति ज्ञानवान तो बनता ही है, शक्तिवान भी बनता है। वाणी में शक्ति की भी अवधारणा है। वचन देने और वचन निभाने में जीवन निछावर कर दिये जाते हैं। कन्यादान वाग्दान ही है। संकल्प करके राजा हरिश्चंद्र ने अपना राज्य और स्त्री बच्चे दान कर दिये थे। “भुज उठाय प्रण कीन्ह”। राम में असुर कुल का संहार करने में कितना बड़ा जोखिम उठाया, क्या नहीं किया। गुरु दीक्षा में गुरु अपनी शक्ति हस्तान्तरित करता है और गुरु दक्षिणा में शिष्य अपनी जीवन सम्पदा निछावर कर देता है। वाणी में विनोद, आक्रोश, स्नेह, समर्पण सब कुछ है। प्रयोग करते ही मनुष्य की मूर्खता, विद्वता, तत्काल प्रकट होती है। मित्रता और शत्रुता दोनों ही रंग बदलती हैं। जिव्हा से बढ़कर मनुष्य के पास दैवी वरदान और कुछ है नहीं। यह छिन गई हो तो समझना चाहिए कि जीवन का भयंकर अभिशाप हैं। गूंगा व्यक्ति न अपने मन की कह सकता है और न दूसरे की समझ सकता है। इस एक ही अभाव में सारे अभाव सन्निहित हैं। जिसे दिव्य वाणी मिली है उसे सब कुछ मिला है। इसलिए उसे मधुवती कहा गया है। जिव्हा को परिष्कृत करना सरस्वती की साधना कही जाती है।

शाप और वरदान इसी के द्वारा दिये जाते हैं। संयम में अस्वाद और मौन दो को उच्चस्तरीय साधना बताया हैं। आहार के संयम से आरोग्य और दीर्घ जीवन दोनों मिलते हैं। मौन धारण का अभ्यास समस्त तपों में उच्च कोटि का है। एकाग्रता और एकात्मा की दोनों ही साधनाएँ मौन धारण से बनी है जिससे जिव्हा की यह दोनों साधनाएँ करली समझना चाहिए, कि उसका इन्द्रिय संयम समग्र हो गया। जिसका इन्द्रिय संयम पूर्ण हो गया वह सच्चे अर्थों में तपस्वी है। तपस्वी की वाणी अमोध होती है। वह शब्द बेध-बोलता है। बैखरी वाणी रोकने पर मध्यमा परा और पश्यन्ती वाणियाँ भी वशवर्ती हो जाती है। उसमें मन्त्र सिद्ध होते ही उसके दिये हुए वरदान सफल होते हैं।

नाद ब्रह्म का सिद्ध पुरुष परमात्मा की वाणी सुनता है। दूर श्रवण और दूर विचार प्रेरणा नाद-योग की सिद्धियाँ है, विचारों को पढ़ाना इसी माध्यम से होता है। मन्त्र में स्वर प्राण है। केवल अक्षर मन्त्र नहीं है। सस्वर पाठ करने को ही मन्त्र पाठ कहते हैं। सामगान को सिद्धियों का स्त्रोत कहा गया है। सामगान सहित गाये हुए मंत्र नाद-ब्रह्म बनते हैं। मन्त्र का जो फल एवं माहात्म्य बताया गया है वह सस्वर उच्चारण कर्ता के लिए घातक बताया गया है।

उद्गाता जिन मन्त्रों का यजन एवं गायन करते हैं। उनके फल यथावत् प्राप्त होते हैं। रोग निवारण, मानसिक, संशोधन, वातावरण परिष्कार एवं अदृश्य जगत पर अधिकार यह प्रतिफल जिन मन्त्रों के बताये गये हैं वे यजन और स्वर से संयुक्त होने पर ही होते हैं।

भगवान मनु ने कहा है - “महायज्ञैश्य यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियतं तनुः।” अर्थात् यज्ञ तथा महायज्ञ का आश्रय लेने पर मनुष्य शरीर ब्राह्मण बनता है। इसके अभाव में याचक एवं उद्गाता मात्र बन कर रह जाता है। अध्वर्यु वह है जिसने मन्त्रों को सिद्ध किया है। सिद्ध मन अनायास नहीं हो जाता उसे स्वसार प्रवीण पारंगत करना पड़ता है। माली के संरक्षण में फूलने फलने वाले उद्यान की तरह मन्त्र की सफलता भी सिद्ध पुरुष के संरक्षण में होती हैं।

मन्त्र का शुद्ध उच्चारण, तपश्चर्या पूर्वक संयम साधना, गुरु के संरक्षण, अटूट श्रद्धा-यह सभी बातें जिस साधना में जुड़ जाती है, उसकी सफलता असंदिग्ध होती है जो ऐसे ही उलटे-सीधे अक्षर दुहराते रहते हैं। पुस्तक में लिखे हुए शब्दों को याद कर लेना मन्त्र नहीं है। उन्हें अक्षरों की पंक्ति कहना चाहिए। उसे याद कर लेना कविता याद कर लेने के सम्मान है। ऐसे मन्त्र का प्रयोग कौतूहल मनोरंजन के समान है। मंत्र को साधना और विचार और स्वर के साथ सिद्ध करना होता है। इसके लिए प्रवीण पारंगत का संरक्षण चाहिए।

‘श्री’ का माहात्म्य

‘श्री’ का व्यक्तिगत जीवन में क्या महत्व हैं ? गंभीर विचार-मंथन से इन संबंध में इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित, समृद्ध ओर कान्तिवान बनने का सम्पूर्ण तत्वज्ञान इस एक ही अक्षर में समाविष्ट है। इसकी उक्त उपादेयता को देखते हुए जो इस बारे में सोचते, विचारते और वैसा बनने के लिए तद्नुरूप कदम बढ़ाते हैं, वास्तव में वहीं ‘श्रीवान्”-श्रीमान्” कहलाने के अधिकारी हैं, शेष तो श्रीहीनों की तरह दुत्कारे जाते और विस्मृति के गर्त में तिरोहित हो जाते हैं।

शतपथ ब्राह्मण की एक गाथा में ‘श्री’ की उत्पत्ति का वर्णन है। वह प्रजापति के अन्तस् से आविर्भूत होती हैं। अपूर्व सौंदर्य एवं तेजस् से सम्पन्न हैं। प्रजापति उनका अभिनन्दन करते हैं और बदले में उस आद्य देवी से सृजन क्षमता का वरदान प्राप्त करते हैं।

ऋग्वेद में श्री आर लक्ष्मी को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में ‘श्री’ का अन्न, जल, गोरस एवं वस्त्र जैसी समृद्धियाँ प्रदान करने वाली आद्यशक्ति के रूप में उल्लेख है। गृह सूत्रों में उसे उत्पादन की उर्वरा शक्ति माना गया है। यजुर्वेद में ‘श्री’ और ‘लक्ष्मी’ को विष्णु की दो पत्नियाँ कह कर उल्लेख किया गया है। - “श्रीश्चते लक्ष्मीश्चते सपत्न्यौ”। श्री सूक्त में भी दोनों को भिन्न मानते हुए अभिन्न उद्देश्य पूरा कर सकने वाली बताया गया है - “श्रीश्च लक्ष्मीश्च”। इस निरूपण में ‘श्री’ को तेजस्विता और ‘लक्ष्मी’ को सम्पदा के अर्थ में लिया गया है।

शतपथ ब्राह्मण में ‘श्री’ की फलश्रुति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वह जिन दिव्यात्माओं में निवास करती हैं, वे तेजोमय हो जाते हैं। अथर्ववेद में पृथ्वी के अर्थ में ‘श्री’ प्रयोग अधिक हुआ है। धरती माता एवं मातृभूमि के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति करने के लिए ‘श्री’ का उच्चारण एवं लेखन होने का इन ऋचाओं में स्पष्ट संकेत हैं।

आरण्यकों में ‘श्री’ को सोम की प्रतिक्रिया अर्थात् आनन्दातिरेक कहा गया है। गोपथ ब्राह्मण में उसकी चर्चा शोभा-सुन्दरता के रूप में हुई है। श्री सूक्त में इसकी जितनी विशेषताएं बतायी गयी हैं, उनमें सुन्दरता सर्वोपरि है। वाजसनेयी आरण्यक में ‘श्री’ और लक्ष्मी की उत्पत्ति तो अलग-अलग कहीं गई हैं, पर पीछे दोनों के मिल कर एकात्म होने का कथानक है।

चित्रों में लक्ष्मी को कमलासन पर विराजमान हाथियों द्वारा स्वर्ण कलाओं से अभिषिक्त किये जाने का चित्रण मिलता है। कमल सौंदर्य का प्रतीक है, गज साहसिकता की निशानी है, स्वर्ण वैभव का चिन्ह है, जल शान्ति, शीतलता और संतोष का द्योतक है। इन विशेषताओं के समुच्चय, को ‘लक्ष्मी’ कह सकते हैं। कन्याओं को ‘गृह लक्ष्मी’ कहने का रिवाज है। यह व्यर्थ ही नहीं है। वास्तव में उनमें लक्ष्मी तत्व की अधिकाँश विशेषताएँ मौजूद होती है। ऐसे में उनका गृह लक्ष्मी कहलाना सार्थक ही है। ‘श्री’ शब्द में लक्ष्मी की उपरोक्त स्थिति को अपनाने का प्रोत्साहन है। पुराणों में ‘श्री’ की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई बतायी गई है। यहाँ इससे प्रबल पुरुषार्थ का संकेत है। अनुर्वर खारे जलागार से भी पुरुषार्थी लोग वैभव-वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं - इस तथ्य को लक्ष्मी - जन्म के उपाख्यान से महामनीषियों ने निरूपित किया है। कल्प सूत्र की एक था में भगवान महावीर के किसी पूर्व जन्म में उनकी माता त्रिशला होने का वर्णन है, जिसने दिव्रु स्वप्र में ‘श्री’ के दर्शन की प्रतिक्रिया अपनी गोद में भगवान को खिला सकने के रूप में प्राप्त हुईं।

‘श्री’ की प्रतिष्ठा जब किसी नाम के आगे होती है तो वह अपने दिव्य गुणों के कारण उसे भी गरिमावान बना देती है। इसी कारण किसी को गरिमा प्रदान करने और सम्मान देने के लिए उसके नाम के आगे ‘श्री’ लिखने का सामान्य प्रचलन है। आध्यात्मिक पुरुषों, राजनेताओं, सम्मानित व्यक्तियों के नाम के पूर्व ‘श्री’ लगाने का इतना ही तात्पर्य है कि वे प्रतिष्ठित व्यक्ति है। इसलिए ‘श्री’ का सम्पुट लगने मात्र से व्यक्तित्व की पदवी बहुत कुछ मानस में प्रतिभासित होने लगती है। चोरों, डकैतों, उठाईगीरों, लुटेरों, अपहर्त्ताओं, आतंकवादियों को इसी कारण ‘श्री’ लगाकर सम्बोधित करने का प्रचलन नहीं है ; क्योंकि वे श्री को अभिव्यक्त करने वाले गुणों को धारण नहीं करते और उनका सम्पूर्ण जीवन लोगों को सताने और उत्पीड़ित करने में ही बीतता है। यह ‘श्री’ में निहित तत्व दर्शन के विरुद्ध है।

‘श्री’ को भारतीय धर्म में इतना महत्व क्यों दिया गया है ? इस पर विचार करने से प्रतीत होता है कि व्यक्तित्व को आन्तरिक सौंदर्य, व्यावहारिक तेजस्विता और भौतिक समृद्धि के प्रति आस्थावान और प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत है। आत्मिक और भौतिक प्रगति के संतुलित और भौतिक प्रगति के संतुलित समन्वय से ही व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास होता है। ‘श्री’ को नाम के पहले जोड़ने में इसी सद्भावना एवं शुभकामना की अभिव्यंजना है कि श्रीवान् बनें - सर्वतोमुखी प्रगति की छिषा में अग्रसर हों।

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