
चाहिए एक अहिंसक आध्यात्मिक समाज
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हिंसा क्यों होती है ? इसका मूल कारण क्या है ? अहिंसक समाज की स्थापना के लिए किस तत्व की सर्वोपरि आवश्यकता है, आदि प्रश्नों पर समय-समय पर विचार होते रहे हैं। दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग से इसके कारण और निवारण सुझाये हैं, पर वास्तविक निमित्त फिर भी अछूता ही बना रहा है।
मार्कट्वेन अपनी पुस्तक ‘इनसेनिटी’ में लिखे हैं कि प्रगति की उद्दाम लिप्सा ही हिंसा का निमित्त कारण है। उनके अनुसार प्रगति यदि होगी, तो हिंसा भी अवश्यम्भावी है। संभव है। वर्तमान समाज और उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी मार-काट के आधार पर ही मार्कटवेन इस निष्कर्ष पर पहुँच हों। पर यदि हिंसा की भारतीय अवधारणा पर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यहाँ वह कहीं अधिक गहन और सूक्ष्म है। पश्चिम की हिंसा सिर्फ शरीर-आघात तक ही सीमित हैं ; पर भारतीय चिन्तन में वह सारे कार्य इसके अंतर्गत आते हैं, जिसमें किसी को मनसा - वाचा-कर्मणा चोट पहुँचायी गई हो। शारीरिक क्षति तो इसकी पराकाष्ठा मानी गई हैं। स्पष्ट है - पूर्व और पश्चिम की सोच में भारी अन्तर हैं, पर महत्वपूर्ण यहाँ वह व्यतिरेक नहीं। महत्व की बात तो यह है कि हम जिसे भी हिंसा मानते हैं, उसके औचित्य - अनौचित्य को किस सीमा तक स्वीकारते हैं। उदाहरण के लिए मार्क्स के साम्यवाद, हिटलर के नाजीवाद, मुसोलिनी के फासीवाद और आज के आतंकवाद को लिया जा सकता है। मजे की बात तो यह है कि इनमें से प्रत्येक की दृष्टि में अपने प्रयोजन की प्राप्ति के लिए बरती गई बर्बरता हिंसा नहीं है, भले ही उसमें निर्दोषों के रक्त की नदियाँ ही क्यों न बह गई हों ? सब उचित और जायज हैं। नाजीवाद का मानना था कि संसार में वही जाति रहने योग्य है, जो सर्वश्रेष्ठ हो। सके अतिरिक्त उसके समाज में और किसी को जीने का अधिकार नहीं। इस हेतु उसने जो कत्लेआम मचाया, वह उसकी दृष्टि में अनुचित नहीं था। मुसोलिनी के फासीवाद के अनुसार हिंसा प्रकृति का नैसर्गिक नियम है। यहाँ भी स्वार्थवश की गई, क्रूरता, अहिंसक मानी गई है। मार्क्स की साम्यवादी व्यवस्था में जिस आदर्श समाजवाद की कल्पना की गई है, वह भी बिना हिंसा के साकार कहाँ हो पायी है ? उसका तो यह सिद्धान्त ही है कि अपराधी को मार दो, अपराध समाप्त हो जायेंगे। वह अपराधियों के सुधार की तुलना में उनकी समाप्ति को अधिक कारगर मानता है। इस प्रकार ‘स्ट्रगल फार एक्जिस्टेंस’ एवं ‘सवाईअवल ऑफ दि फीटेस्ट’ के अस्तित्व के पश्चिमी सिद्धान्त हिंसा के संबंध में उनकी सोच को स्पष्ट करते हैं।
हिंसा को संबंध में भारतीय दृष्टिकोण कितना विराट् और व्यापक है, इसका अन्दाज श्रुति के उस वाक्य से लगता है, जिसमें कहा गया है - ‘न पापे प्रति पापः’ अर्थात् पाप का प्रतिकार पाप से नहीं लिया जा सकता। हिंसा पाप है, अतः हिंसा के बदले हिंसा को निषिद्ध घोषित किया गया है, किन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि लोकहित, समाजहित एवं राष्ट्रहित के निमित्त बरती गई हिंसा इस श्रेणी में नहीं आती। यदि ऐसा बात होती तो शत्रुओं से राष्ट्र की सुरक्षा ओर समाज की रक्षा खतरे में पड़ जाती और सर्वत्र चोर-उचक्कों, दुर्दान्त दस्युओं की ही तूती बोलती इसलिए नीतिकारों ने इस निर्धारण के समय उस बात का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा है, जिससे समाज सुव्यवस्थित बना रहे। छांदोग्यकार ने तप, दान एवं सत्य के साथ अहिंसा की महिला-बखान करते हुए कहा है - “अथ यत्तपों दानजामर्जवहिंसा सत्य वचनमिति या अस्य दक्षिणः।’ अष्टाँग योग का पहला अंग यम है और पाँच यमों में प्रथम ‘अहिंसा’ माना गया है। इस अहिंसा के प्रारम्भिक सोपान से चल कर ही व्यक्ति समाधि के सच्चिदानन्द की दर्शन-झाँकी कराती है। समाधि अहिंसा को महिमाँडित बनाती है, जबकि अहिंसा समाधि का प्रथम चरण - पहला कदम है। किस प्रकार यह कदम अवरुद्ध हो जाय, तो समाधि-सुख कल्पना लोक की उड़ान से बढ़कर और कुछ नहीं रह जाता। इसलिए योग विज्ञान में समाधि की कल्पना अहिंसा के बिना संभव नहीं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि चरम लक्ष्य की प्राप्ति अहिंसक हुए बिना संभव नहीं अध्यात्म विद्या के आचार्यों का मत है कि हर मनुष्य शनैः शनैः अपने चरम लक्ष्य ही ओर बढ़ रहा है, जबकि समाज और सभ्यता पर हम दृष्टिपात करें, तो पाते हैं कि उनकी उन्नति के साथ-साथ अराजकता और अव्यवस्था घटने के बजाय और बढ़ी ही हैं। ऐसा क्यों ? यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि जो लोग हिंसा को सभ्यता के विकास के साथ जोड़ते हैं, वह गलती करते हैं। यह सत्य है कि बुद्धिवाद के विकास के साथ-साथ तोड़-फोड़ जैसी गतिविधियां बढ़ी है, पर मूल कारण बौद्धिक प्रखरता नहीं, वरन् आत्मिक प्रखरता का अभाव ही है। प्राचीन काल के लोग बुद्धिहीन थे इसलिए हिंसा नहीं होती थी, यह कहना ठीक नहीं होगा। सत्य तो यह है कि उन दिनों बुद्धि के वास के साथ चेतना का परिष्कार भी उसी अनुपात में सम्पन्न हुआ था और बुद्धि पर विवेक का प्रज्ञा का सदा अंकुश लगा रहता था। इसलिए तक के समाज में आज जैसी अराजकता नहीं दिखाई पड़ती थी।
‘दिन सेन सोसायटी’ नामक ग्रन्थ में मूर्धन्य मनीषी एरिक फ्राँक ने भी इसी आशय का मंतव्य प्रकट करते हुए लिखा है कि सभ्य (सिविलाइज्ड) समाज स्वस्थ हो, यह जरूरी नहीं पर स्वस्थ समाज के लिए सभ्य अर्थात् सुसंस्कृत हुए बिना समाज स्वस्थ हो नहीं सकता। ज्ञातव्य है - जहाँ उन्होंने ‘सभ्य’ शब्द संस्कृति के अर्थ में प्रयुक्त किया है। संस्कृति अर्थात् चिन्तन शैली। भारत की विचार-पद्धति आत्मा और चेतनापरक है। यहाँ पहला स्थान आत्मा का है, उसके बाद पदार्थ का नम्बर आता है। आत्मा की प्रधानता को अभिव्यक्त करते हुए यहाँ के दार्शनिक कहते हैं - ‘देयर इज ए सोल विदिन दि बॉडी’ अर्थात् हर शरीर में एक आत्मा निवास करती हैं, जबकि इस संबंध में पाश्चात्य मान्यता पदार्थपरक है। वे कहते हैं - देयर इज ए बॉडी सराउण्डिंग ए सोल’ अर्थात् प्रत्येक शरीर अपने अन्दर के कारण ही दोनों संस्कृतियों में भारी अन्तर है, फलतः समाज - व्यवस्था में भी स्फुट अन्तर झलकता है। यह बात और है कि इन दिनों भारत जैसा पैर्वात्य देश भी पाश्चात्य साँचे में ढलता जा रहा है, इस कारण यहाँ के समाज में भी वैसे ही अवगुण, अराजकता पनपने लगी है, जो वहाँ के सामाजिक जीवन में दिखाई पड़ती है, किन्तु संतोष इस बात का है कि विरासत में जो आध्यात्मिकता उसे मिली है, उसके कारण यहाँ का समाज तुलनात्मक दृष्टि से अभी भी पाश्चात्य समाज से श्रेष्ठ कहा जा सकता है। पश्चिमी देशों में जिस प्रकार के जैसे और जितने अपराध इन दिनों हो रहे हैं, उसकी तुलना में भारत की स्थिति पर कुछ अधिक संतोष किया जा सकता है। इस दृष्टि से एरिक फ्रास का यह कथन सत्य ही है कि स्वस्थ समाज का सभ्य (कर्ल्चड) होना नितान्त आवश्यक है।
जहाँ तक दरिद्रता और हिंसा का संबंध है, तो इस बोर में यह तर्क अमान्य हो जाता है कि गरीबी बढ़ने से हिंसा बढ़ती है। अध्यात्म में तो भीतर की अमीरी का तुलना में बाहरी को गौण माना गया है कि आन्तरिक विभूति के आगे बाह्य वैभव नगण्य और तुच्छ है। यही कारण है कि आध्यात्मिक पुरुष सम्पदाहीन स्थिति में भी अद्भुत सुख और संतोष अनुभव करते हैं, बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि वे सुख-सुविधा को आत्मिक प्रगति की दिशा में भारी अवरोध और बन्धन का कारण मानते और स्वेच्छा से उसका परित्याग करते हैं।
विवेकानन्द जिन दिनों धर्म महासभा में भाग लेने अमेरिका गये हुए थे, उन दिनों वहाँ वे एक विशेष प्रकार के लिबास में रहते थे ।एक दिन कुछ अमेरिकी उनकी पोशाक को देखकर हँसने और उनका उपहास करने लगे। इस पर विवेकानन्द ने जवाब दिया कि आप अमेरिकनों को सभ्य बनाने वाला दर्जी होता है। आप लिबास के आधार पर किसी को सभ्य-असभ्य कहते हैं ; जबकि हम हिन्दुस्तानी अपनी आन्तरिक अमीरी के कारण सभ्य कहलाते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारा अंतःकरण यदि परिष्कृत विकसित हुआ, तो वह बाह्य दरिद्रता को मिटाने के लिए हिंसा का नहीं, अध्यवसाय का सहारा लेगा और जितना कुछ ईमानदारीपूर्वक उपार्जन हो सकेगा, उसी में वह स्वर्ग - सुख की अनुभूति करेगा। अपराध अपरिष्कृत अन्तराल का परिणाम है, जबकि शान्ति-सुव्यवस्था परिष्कृत चेतना को इंगित करती है। व्यष्टि चेतना जैसे-जैसे परिमार्जित होती जायेगी, वैसे ही वैसे समष्टि चेतना और उसके फलस्वरूप समाज अहिंसक और आध्यात्मिक समाज अहिंसक और आध्यात्मिक बनता चलेगा, ऐसा तत्व वेत्ताओं का मत हैं।