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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
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शक्तियों का भाण्डागार गायत्री-महामंत्र

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First 28 30 Last
गायत्री-महाशक्ति को मंत्रराज कहा गया है। इससे बढ़कर समूचे मंत्र-विज्ञान में कोई ऐसा मंत्र नहीं है जिसे मुकुटमणि की उपमा दी जा सके। उसका प्रादुर्भाव परब्रह्म द्वारा निस्सृत आकाशवाणी से हुआ है। ब्रह्माजी ने उसके तप से वह सामर्थ्य पाई जिससे वे जड़-चेतन सृष्टि का सृजन कर सके। भौतिक प्रयोजनों में उसे ‘सावित्री’ और अध्यात्म प्रगति के संदर्भ में ‘गायत्री’ कहा जाता है। एक ही तत्व के यह दोनों पक्ष हैं। उपयोग भेद से ही उसके दो नाम पड़े हैं। सावित्री के कल्पना चित्रों में उसके पाँच मुख बनाये जाते हैं। यह प्रकृति के पाँच तत्वों और चेतना की पाँच प्राण धाराओं का साँकेतिक उल्लेख है।

गायत्री महामंत्र में चौबीस अक्षर हैं, पर उसके साथ ही प्रणव और तीन व्याहृतियाँ लगी हुई हैं। प्रणव अर्थात् ओंकार-प्रत्येक वेदमंत्र से पूर्व लगाये जाने की सनातन परम्परा है। तीन चरण वाली गायत्री का एक-एक बीज तीन व्याहृतियों के रूप में सँजोया गया हैं । ईश्वर-जीव, प्रकृति-पुरुष, सत्-चित्-आनन्द, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, स्वर्ग-लोक, भूलोक एवं पाताल-लोक, सत, रज, तम् आदि का तत्वदर्शन इन व्याहृतियों में समाविष्ट है। यदि इनकी व्याख्या की जाय तो समूचा अध्यात्म दर्शन इन तीन व्याहृतियों की व्याख्या में ही निरूपित हो जाता है। जिस तीन चरण से महादानी बलि का समूचा साम्राज्य नाम लिया था, उन तीन को त्रिविध गायत्री के साथ जोड़ा जा सकता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का स्वरूप भी उस व्याहृति विवेचना के आधार पर समझा जा सकता है।

समस्त देवता गायत्री की उपासना करते थे। ऋषियों, अवतारी महामानवों का भी वही अवलम्बन रहा। मनुष्यों में शिखा और यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री को अपनी काया तथा बुद्धि में समाविष्ट होने की भावना रखना और उसकी यथासंभव नित्य नियमित उपासना करने का विधान है। इसमें सद्बुद्धि के लिए मात्र प्रार्थना ही नहीं है, वरन् यह तथ्य है कि इस उपासना से बुद्धि में प्रखरता का, सत्प्रेरणाओं का अभिवर्धन है। यह बात दूसरी है कि उसका प्रयोग किस काम के लिए किया जाय। देवता श्रेष्ठ के लिए और दैत्य निकृष्ट के लिए भी बुद्धि की प्रतिभा का प्रयोग करते रहे है।

जिस प्रकार पुष्प में रूप भी होता है, गंध भी, रस भी और पराग भी, उसी प्रकार गायत्री के प्रत्येक अक्षर में अनेकानेक प्रकार की विशेषतायें भरी हुई हैं। मस्तिष्क देखने में एक है, पर उसके भीतर अगणित क्षमताओं के स्थान और कोश हैं। उनमें से कुछ ही अभ्यास में आने पर जाग्रत रहते हैं, शेष निरर्थक पड़े रहने के कारण मूर्च्छित या प्रसुप्त स्थिति में चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार गायत्री महामंत्र का प्रत्येक अक्षर अपने-अपने परिसर में परिपूर्ण है। परमाणु प्रत्यक्ष में एक होता है, पर उसके तनिक से अन्तराल में इलेक्ट्रान , प्रोट्रान, न्यूट्रोन, पाजिट्रान, मेसाँन आदि अनेक सूक्ष्म घटक अपनी-अपनी कक्षाओं में बिना टकराये परिभ्रमण करते रहते हैं। सौर मण्डल के समस्त नियम-उपनियमों का उस छोटी सी परिधि में अपनी तद्रूप सत्ता के रूप में विवरण वहाँ देखा जा सकता है। इस संदर्भ में यथा संभव जानकारी ब्रह्मा जी ने अपने चार मुखों से चार वेदों का सृजन करते हुए दी है। उस जानकारी से मनीषियों का अवगत कराया है। उस कथन को और भी अधिक सुबोध बनाने के लिए ऋषियों ने उपनिषद्, ब्राह्मण , आरण्यक, सूत्र आदि में अधिक खुलासा करने का प्रयत्न किया है। पुराणकारों ने उन्हीं तथ्यों को अलंकार से जोड़ते हुए कथा-उपाख्यानों के रूप में गढ़ दिया है। इस प्रकार समूचे अध्यात्म वाङ्मय पर गायत्री का ही आलोक छाया हुआ देखा जा सकता है।

गायत्री के 24 अक्षर हैं। उनमें से प्रत्येक में अनेकानेक रहस्य भरी विभूतियों के भाण्डागार भरे पड़े हैं। अवतार चौबीस हुए हैं। देवताओं में प्रमुख चौबीस है। देवियाँ भी महाशक्ति के रूप में चौबीस ही गिनायी गयी हैं। ऋषियों में भी चौबीस की प्रमुखता है। यह आध्यात्मिक प्रकरण हुआ ! इसे देव पक्ष भी कह सकते हैं। संख्या में 24 होने के कारण इन सब को गायत्री की चूड़ामणि का ही एक-एक मणिमुक्तक कह सकते हैं।

चौबीस अक्षरों वाला गायत्री महामंत्र अपने आप में एक महाविद्या है- महाविज्ञान है। उसके एक-एक अक्षर में इतना ज्ञान-विज्ञान एवं दार्शनिक तत्वज्ञान सन्निहित है जिसका पूरी तरह पता लगाना कठिन है। आध्यात्मिक और भौतिक सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान उसके गर्म में मौजूद हैं। गायत्री के इन 24 अक्षरों में आयुर्वेद शास्त्र भरा हुआ है। ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप में मौजूद हैं, जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों में सोना बनाने की विद्या का संकेत है। इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य हथियार बनाने के विधान मौजूद है। प्रकृति की विलक्षण सूक्ष्म-शक्तियों, अनेक दिव्य-शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं। ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तर के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधि जानने तथा उन्हें प्रभावित कर अपने अनुकूल बनाने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्वों को हस्तामलकवत् देखने जैसे अनेकों, प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं जिनकी थोड़ी सी भी जानकारी यदि मनुष्य प्राप्त कर ले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य-शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है।

तंत्र-पक्ष बीजाक्षरों से आरम्भ होता है। उससे शक्ति विशेष का उद्भव होता है और उसके प्रतिफल आध्यात्मिक ऋद्धि और भौतिक सिद्धियों के रूप में परिलक्षित होते हैं। इस पक्ष का भी प्रत्येक घटक 24 की संख्या में ही है। इससे प्रकट है कि तंत्र परिकर का विज्ञान और विधान भी गायत्री का ही स्वरूप विस्तार है। तंत्र में यों शाबर मंत्रों का भी हलका-फुलका प्रयोग होता है, पर मूलतः वह गायत्री विज्ञान का विस्तार ही जब उस क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना पड़ता है तो सुदृढ़ और सुनिश्चित अवलम्बन के रूप में गायत्री ही दृष्टिगोचर होती है।

देवी-देवता के सम्बन्ध में किसी भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। वे ईश्वर से पृथक या प्रतिद्वन्द्वी नहीं। उनकी अलग सत्ता भी नहीं है। परब्रह्म इस विश्व-ब्रह्माण्ड की अनेकानेक गतिविधियों का सूत्र संचालन करता है। वे कार्य जिस रूप में क्रियान्वित होते हैं, तब उनको देखते हुए पृथक नाम दे दिया जाता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति वकील, चिकित्सक, गायक, लेखक, व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार भगवान को अनेक कार्य करते हुए देखकर समयानुसार अनेक कार्य करते हुए देखकर समयानुसार अनेक अलग-अलग संबोधन प्रयुक्त किये जा सकते हैं। वकालत करते समय वकील साहब और कुश्ती लड़ते समय पहलवान जी कहा जा सकता है। वही बात ईश्वर की देव-संज्ञाओं के सम्बन्ध में भी है।

परिस्थितियां मनुष्य बिगाड़ तो लेता है, पर उन्हें सँभालना नहीं बन पड़ता । ऐसे आड़े समय में भगवान अवतार लेते हैं, कोई तूफानी आन्दोलन खड़ा करते हैं। उसके प्रवाह में कितने ही पुराने पेड़ उखड़ जाते हैं। कितने ही तिनके और पत्ते आसमान चूमने लगते हैं। चक्रवात बनते और कौतूहल भरी घटनायें, परिस्थितियां प्रस्तुत करते हैं। यह अवतार सत्ता का स्वरूप हुआ। ब्रह्म एक जगह एकत्रित नहीं हो सकता। यदि उसकी समग्रता एक स्थान पर एकत्रित हो जावे तो फिर अन्यत्र जो कुछ हो रहा है, वह किस प्रकार हो सकेगा ? योगी, तपस्वियों और प्रतिभावान मनीषियों में उसका आवेश ही अधिक मात्रा में भर जाता है। उसके माध्यम से विचित्र क्रिया-कलापों की शृंखला चल पड़ती है। दृश्यमान अवतार उसी को समझा जाता है। भारतीय मान्यता के अनुसार अब तक चौबीस अवतार हुए हैं। उनमें से प्रत्येक गायत्री के एक-एक अक्षर के फलित होने के रूप में समझा जा सकता है।

देवताओं और देवियों के युग्म को इसी प्रकार समझा जाता है जैसे समुद्री ज्वार-भाटा एवं नदी की लहरें। जल का भाग ऊँचा उठने पर दूसरा भाग नीचा रह जाता है। इन दोनों के आधार पर ही प्रवाह में गतिशीलता दृष्टिगोचर होती है। बिजली की ऋण और धन दो धारायें साथ-साथ चलती हैं। देवी और देवता परस्पर अति निकट हैं। एक दूसरे के साथ शक्ति का आदान-प्रदान चलाते रहते हैं। प्रकृति की इसी विविध विलक्षणता को देवी-देवताओं के नाम से पुकारा जाता है। इन दोनों वर्गों में 24-24 की प्रधानता है। उतने ही गायत्री के अक्षर भी है।

योगी-तपस्वी तो साधारण शरीरधारी होते हैं और समयानुसार जन्मते-मरते रहते हैं, किन्तु ऋषि जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर अपनी सूक्ष्म सत्ता यथावत् बनाये रहते हैं। प्रत्यक्ष दीखते नहीं, तो भी इतना कर्तृत्व सम्पन्न करते हैं जितने अनेकों स्थूल शरीर मिलकर भी नहीं कर सकते। वे अदृश्य जगत पर छाये रहते हैं और ऐसी संभावनायें, परिस्थितियाँ विनिर्मित करते रहते हैं, जिन्हें समर्थ देहधारियों के अनेकानेक शरीर मिलकर भी नहीं कर सकते। सप्त ऋषियों के शरीरों को मरे तो युगों बीत गये, पर उनके शक्ति-केन्द्र अभी भी रात्रि के समय आकाश में चमकते हैं। इतना ही नहीं, वे व्यक्ति को ऊँचा उठाने और समाज के वातावरण को बदलने का भी परोक्षतः माहौल बनाते रहते हैं। इन महर्षिगणों की सत्ता भी सूक्ष्म शरीर धारी देवमानवों में गिनी जाती है। ऋषियों में से कितने ही किन्हीं सामान्य लोगों की व्यवस्था संभालने भेजे गये होंगे, पर पृथ्वी पर इन दिनों जिनका प्रभाव और दायित्व है, उनकी संख्या 24 में गिनी गयी है। इन्हें अदृश्य आदि मानव भी कह सकते हैं। जीवन मुक्त भी और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर्ता भी । यह भी गायत्री के 24 अक्षर ही हैं।

ब्राह्मी क्षेत्र के यह चार ही घटक हैं-अवतार, देवता, देवियाँ और ऋषि। भौतिक पक्ष प्रत्यक्ष भी है और पुरुषार्थ परायण भी। इन्हें दूसरे शब्दों में सामर्थ्य के धनी शक्ति पुँज या दैत्य कह सकते हैं। दैत्य का अर्थ है-विशाल, सशक्त, जाइण्ट। दैत्यों में से सभी बुरे नहीं होते। बलि, विभीषण, प्रहलाद आदि दैत्य कुल में ही उत्पन्न हुए थे। दैत्य वर्ग की साधना के भी चार चरण हैं- बीजाक्षर, शक्ति संचय की तप साधना, भौतिक क्षेत्र की चमत्कारी सिद्धियाँ तथा अंतिम हैं-ऋद्धियाँ।

बीजाक्षरों में स्वरों के साथ अनुस्वर जोड़ देने से वह मकारान्त हो जाता है। जैसे- क, ख, ग, घ को बीज मंत्र के रूप में प्रयुक्त करना हो तो उन्हें कं, खं, गं, घं- इस रूप में कहा जायगा। एक बार में एक ही अक्षर प्रयुक्त होगा। उन्हें नकारान्त, मकारान्त बोला जायेगा। अक्षरों का समन्वय न करने, समुच्चय गुच्छक न बनने से एकाकी रहने पर वह बीज मंत्र बन जाता है। इसका उच्चारण इस प्रकार होता है कि मुख, जिह्वा आदि में हलचल तो होती रहे, पर उच्चारण दूसरों को सुनाई न पड़े । मात्र अपने ही मस्तिष्क और हृदय में गूँजता रहे। इस प्रकार के उच्चारण की प्रतिक्रिया समस्त जीवकोशों में एक विशेष प्रकार का कम्पन-प्रवाह उत्पन्न करती है। यह कम्पन विशेष प्रकार की ऊर्जा का सृजन करता है जिसके आधार पर अपने तथा दूसरों के अनेकानेक कार्य सिद्ध किये जा सकते हैं।

‘शक्ति’ शब्द का संक्षिप्त उल्लेख करने का समग्र तात्पर्य है-शक्ति-संचय और आत्म-शक्ति संचय के दो ही मार्ग हैं- एक योग, दूसरा तप। तप द्वारा अपने आपको संयम-साधना की भट्टी में तपा कर खरे सोने की तरह बनाया जाता है। योग में ब्रह्माण्डीय चेतना की अजस्रता के साथ अपने आपको जोड़ा जाता है। ब्रह्म-चेतना, विश्व-चेतना, आत्मिक और भौतिक शक्तियों का भंडारण निवास हैं । योग द्वारा उसी के साथ जुड़ा पाता है। तप के द्वारा उसे उपयुक्त ढाँचे में ढाला जाता है। दक्षिण-मार्गी और वाम-मार्गी साधक अपने-अपने ढंग से अपना-अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए यह योग और तप की समन्वित शक्ति साधनायें करते हैं। दोनों पक्षों के लिए 24-24 साधनायें निर्धारित हैं। उन्हें गायत्री हिमगिरि से निस्सृत गंगा-यमुना के रूप में समझा जा सकता है।

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