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Magazine - Year 1996 - Version 2

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विश्व ब्रह्माण्ड की रहस्यमयी कृतियाँ : ब्लैक होल

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इक्कीसवीं सदी विकास की अनोखी और अनूठी सम्भावनाओं की दी है। इन सम्भावनाओं का जिक्र करते हुए एक प्रख्यात अन्तरिक्ष विज्ञानी का कहना है कि बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण प्रगति मनुष्य की अन्तर्ग्रही यात्रायें रही है। इसी सदी के मध्य के आस-पास धरती के निवासियों ने चन्द्रमा पर कदम रखे। अन्तरिक्ष यात्राओं के बढ़ते सिलसिले का दौर मंगल और शुक्र आदि अन्य ग्रहों पर जा पहुँचने के प्रयासों में परिणत हुआ। यहां तक कि अन्तरिक्ष में कालोनियाँ और नगर बनाए जाने की बात भी सोची जाने लगी। बहुत सम्भव है कि इक्कीसवीं सदी का इनसान अन्तर्ग्रही यात्राओं तक सीमित न रहकर अन्तर्ब्रह्माण्डीय यात्राओं पर निकल पड़े।

बहुत समय से यह सिद्धान्त विज्ञान क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करता रहा है कि प्रकाश की गति एक सेकिण्ड में 186000 मील है। इससे तीव्र और कोई गति नहीं। यदि ब्रह्माण्ड की यात्रा पर निकला जाय तो कहाँ कितने समय में पहुँचा जा सकेगा, इसका अनुमान इस आधार पर लगाया जाना चाहिए कि इस गति से चलने वाला कोई वाहन मिल जाएगा। लेकिन वर्तमान वैज्ञानिक विकास अभी इतना नहीं है कि प्रकाश की गति से अधिक चलने वाले किसी वाहन के निर्माण की कल्पना की जा सके।

दूसरा तथ्य इस संदर्भ में विचारणीय है कि ग्रहों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति उसे अपने दायरे से कितना किस प्रकार बढ़ने देगी। गुरुत्वाकर्षण ग्रह के भार और विस्तार से सम्बन्धित है। पृथ्वी की पकड़ के दायरे का कोई वस्तु तभी उल्लंघन कर सकती है, जबकि उसका वेग 11.2 किलोमीटर प्रति सेकेंड से अधिक हो। इसके अलावा अन्तरिक्ष में गतिशील ग्रह-गोलकों की स्थिति एवं उनके गुरुत्वाकर्षण के सम्बन्ध में समानता नहीं है। सूर्य का गुरुत्वाकर्षण प्रति सेकेंड 317 है कारण की पृथ्वी का व्यास मात्र 12700 किलोमीटर है, जबकि सूर्य का व्यास 14 लाख किलोमीटर है, कितने ही ग्रह इतने भारी एवं विस्तृत हैं कि उनकी गुरुत्वाकर्षण सीमा लाँघने के लिए प्रकाश के वेग से भी कहीं अधिक तीव्रगामी यान होना चाहिए।

ऐसे ग्रह-नक्षत्रों का अस्तित्व इस ब्रह्माण्ड में है जिनका गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश की गति से भी अधिक है। ऐसी दशा में उनकी रोशनी उसे ग्रह की पकड़ में ला सकती है और उसे परिधि से बाहर कहीं दीख भी न पड़ेगी। चमकदार होते हुए भी वह पिण्ड अन्धकारमय दिखाई देगा। फिर भी उसकी शक्ति और सत्ता तो बनी ही रहेगी। एक और सिद्धान्त ‘ग्रेविटेशन रिएक्शन’ का है। इस परिधि में आने वाला पिण्ड ‘सिगनल एक्स’ बन जाता है। यही बहुचर्चित ‘ब्लैक होल’ है। इसका आकर्षण और विस्तार इतना अधिक होता है कि उसकी पकड़ में आ जाने पर पृथ्वी जैसे विशाल पिण्ड भी खिंचते चले जा सकते हैं और इतनी तेजी से इतनी दूर पहुँच सकते हैं कि उसका कुछ अता-पता ही न चले।

अन्तरिक्ष विज्ञान में हुई नवीन शोधों के अनुसार ग्रह वृद्धता को प्राप्त होने पर अपने अंग-प्रत्यंग सिकुड़ना शुरू करते हैं। सिकुड़न बढ़ने किन्तु भार कम न होने की स्थिति में एक और विचित्रता उत्पन्न हो जाती है जिससे वह जीवित होते हुए भी मृतक की श्रेणी में जा पहुँचता है। ऐसी दशा में भी ऊर्जा उसके पास बनी रहती है। वह इतनी अधिक होती है कि संसार भर की समस्त मोटर गाड़ियाँ 100 मील प्रति घण्टे की चाल से 100 अरब वर्षों तक दौड़ती रहें। सभी ऊर्जाएँ शक्ति की प्रतीक तो होती हैं पर यह जरूरी नहीं कि वह अपने संपर्क में आने वाली वस्तु को चला ही दें। वह खींचते रहने के काम भी आ सकती हैं।

ऐसे में यदि किसी को ब्रह्माण्ड का दौरा करना हो तो उसे प्रकाश से अधिक गति वाले वाहन बनाकर हजारों सालों में दूरवर्ती ग्रह-गोलकों की यात्रा करने की आवश्यकता नहीं। वह इन ब्लैक होलों की आकर्षण शक्ति का सहारा लेकर थोड़े ही समय में अभीष्ट स्थान तक पहुँच सकता है।

बड़े रहस्यमय ढंग से एक ब्रह्माण्ड से दूसरे ब्रह्माण्ड की सैर कराने वाले इन ब्लैक होल के बारे में सुविख्यात वैज्ञानिक -’स्टीफेन हाकिंग’ ने अपनी पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम’ में विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार सूर्य से भी अनेकों गुने बड़े तारे जब प्रकृति की मार से सुपरनोवा विस्फोट के माध्यम से टूट कर बिखर जाते हैं, तो उनका चूरा फिर से एकत्रित-संगठित होकर प्रत्याक्रमण के भाव से पहले से भी कहीं मजबूत ‘ह्नाइट ड्वार्फ’ का निर्माण करता है। आकार में तो यह पहले से छोटा व सघन होता है मगर इसकी शक्ति बढ़ जाती है। इस शक्ति का अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी एक माचिस की डिबिया जितनी मिट्टी का भार 10 हजार किलोग्राम या एक डबल डेकर बस जितना होता है। इतने पर भी इसका सिकुड़ना रुकता नहीं, जारी रहता है, और अन्त में सूर्य से भी भारी भरकम तारा 10 मील त्रिज्या जितना रह जाता है। इस स्थिति में यह ‘न्यूट्रान स्टार’ कहलाता है। इसकी शक्ति ‘ह्नाइट ड्वार्फ’ से भी बढ़ी-चढ़ी होती है। इसका एक माचिस की डिबिया जितना पदार्थ 2फ्1013 किलोग्राम अर्थात् 20 अरब किलोग्राम के बराबर होता है। इस वक्त तक इसकी आन्तरिक-शक्ति (गुरुत्वाकर्षण-बल) इतनी बढ़-चढ़ जाती है कि वह स्वयं भी अपना बल बर्दाश्त नहीं कर पाता और निरन्तर घटते हुये छोटा होकर अदृश्य लेकिन अति समर्थ हो जाता है। इसका आकार जितना छोटा होता है - इसकी समर्थता उतनी ही बढ़ी-चढ़ी होती हैं।

‘ब्रह्माण्ड प्रतिबन्धित परिकल्पना’ के रूप में ‘ब्लैक होल’ को रोजर पेनरोज और स्टीफेन हाकिंग न व्याख्या की। इनके अनुसार ‘ब्लैक होल’ के सिंगुलेरिटी में प्रकाश या कोई संकेत तक प्रवेश नहीं कर समता है। ‘ब्लैक होल’ की बाहरी परत जिसे ‘इवेन्ट होराइजन’ कहते हैं, यह बाहरी पदार्थों को अन्दर प्रवेश तो करने देती है लेकिन अन्दर का पदार्थ किस तरह से बाहर निकलता है यह नहीं मालुम।

ब्रिटिश भौतिक विज्ञान एवं विख्यात गणितज्ञ प्रो0 जान टेलर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ब्लैक होल’ दि एण्ड आफ दि यूनीवर्स’ में ऐसे किसी स्पेसशिप के भाग्य के बारे में कई सम्भावनाओं का उल्लेख किया है- जो उसके गर्भ में समा चुका है। इनमें से एक सम्भावना के अनुसार ‘ब्लैक होल’ की लम्बी पतली गर्दन होती है, जो किसी अन्य ब्रह्माण्ड से जुड़ी होती है। यदि कोई अन्तरिक्ष यान इसके गले में समा जाय, तो वह किसी बिल्कुल ही नए ब्रह्माण्ड में जाकर निकलेगा। वे कहते हैं कि इस वक्त तक यदि यान यात्री किसी प्रकार जीवित भी बचे रहें, तो भी वे अपनी इस विलक्षण अनुभूति से हमें अवगत नहीं करा सकेंगे, क्योंकि पृथ्वी वासियों से संपर्क सूत्र स्थापित करने में वे सदा विफल रहेंगे। ऐसी स्थिति में उनका प्रयास पुनः अपने यान को ब्लैक होल के भीतर प्रवेश कराने का होगा। इस आशा में कि शायद वे इस प्रक्रिया के दौरान पुनः अपने ब्रह्माण्ड में निकल सकें, पर वास्तविकता यह होगी कि इस तरह के प्रत्येक प्रयास के बाद वे हमेशा किसी नूतन ब्रह्माण्ड में पहुँच जाएंगे और अपने मूल ब्रह्माण्ड में वापस लौटने का इनका स्वप्न कभी नहीं पूरा हो सकेगा।

प्रो0 टेलर अपनी उक्त पुस्तक में आगे लिखते हैं कि यद्यपि हमारी आकाश गंगा में ऐसा एक ही ब्लैक होल है, पर वह एक ही हम सबके लिए सर्वनाश उपस्थित कर सकता है। वे निराशा से अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि निश्चय ही हम सब उसके द्वारा एक न एक दिन निगल लिए जायेंगे। प्रो0 टेलर की यह सम्भावना कल्पनाओं और सिद्धान्तों पर आधारित है। यथार्थता तो सह है कि उसके भीतर किस प्रकार की प्रक्रिया चलती है और निगले गए पिण्ड का भाग्य क्या होता है ? इसे अब तक जाना नहीं जा सका है।

कनाडा के अन्तरिक्ष विज्ञानी वर्सर ने ‘ब्लैक होल’ की गतिविधियों का गहराई से अध्ययन किया है। उनके अनुसार इसका पता ‘क्वासार’ से लगाया जा सकता है। 1967 में कैंब्रिज के जोसलीन बेल ने एल॰ जी0 एम0- 14 के रूप में आकाश गंगा में ब्लैक होल का पता लगाया। उनके अनुसार ब्लैक होल की ओर गिरने वाली प्रकाश की किरणें समानान्तर नहीं चलतीं। ये किरणें बाहरी परत द्वारा सोख ली जाती हैं। दो ब्लैक होल के टकराने से इसका क्षेत्रफल बढ़ जाता है। सामान्य क्रम में ऐसी स्थिति में ऊष्मा का विकिरण भी होना चाहिए। परन्तु ऐसा हाता नहीं है।

इस उलझन को वैज्ञानिकों ने क्वाँटम सिद्धान्त के अनुसार सुलझाने की कोशिश की है। उनके अनुसार वास्तविक कण में सदैव धनात्मक ऊर्जा एवं एण्टी कणों में ऋणात्मक ऊर्जा होती है। प्रभाव से प्रत्येक कणों में ऋणात्मक ऊर्जा बन जाती है। इन ऋणात्मक कणों का प्रतिकण उतनी ही तीव्रता से बाहर निकलता है और यही वह कण है जो ब्लैक होल से बाहर निकलता है। अतएव यह कहना सरासर गलत है कि ब्लैक होल से कुछ बाहर नहीं निकलता है।

आइन्स्टाइन के प्रसिद्ध सूत्र श्व=द्वष्2 के अनुसार ज्यों-ज्यों ब्लैक होल का द्रव्यमान कम होगा, तापमान एवं उत्सर्जित ऊर्जा की दर भी बढ़ने लगेगी। द्रव्यमान के क्रमशः कम होते होते ऊर्जा लाखों ‘हाइड्रोजन बमों से भी अधिक शक्तिशाली हो जायगी। सबसे प्राचीन ब्लैक होल ब्रह्माण्ड के साथ रहा है। इसकी अगर कोई उम्र है तो ब्रह्माण्ड की उम्र की गणना की जा सकती है। इस ब्लैक होल से एक्सरे किरणों-गामा किरणों के रूप में ऊर्जा सतत् प्रवाहित होती रहती है। यों यह प्रकाश तरंग के समान होती है, लेकिन इनका वेवलेन्थ छोटा होता है, इनसे 10 हजार मेगावाट की दर से ऊर्जा निकलती है।

आकाश गंगा में ब्लैक होल की संख्या उसके द्वारा उत्सर्जित गामा किरणों से पता चलती है। इस हिसाब से एक धन प्रकाश वर्ष में 300 से अधिक प्राचीन ब्लैक होल नहीं हो सकते। अब तक खोजे गए सबसे बड़े ब्लैक होल का विवरण टाइम पत्रिका के जून, 94 के अंक में प्रकाशित हुआ था। एम0-87 नामक यह ब्लैक होल नासा के अत्याधुनिक हब्बल दूरबीन द्वारा खोजा गया। पृथ्वी से 50 लाख प्रकाश वर्ष दूर यह दैत्याकार ब्लैक होल दो करोड़ सूर्य जैसे तारों के आकार का है। इसके चारों ओर गैस 1.9 लाख कि0मी0 प्रति घण्टा की रफ्तार से चक्कर काटती है। यह पहला सुपरमैवि ब्लैक होल है।

अभी तक की गयी शोधों के अनुसार ब्लैक होल बड़े हैं और छोटे भी, दूर हैं और पास भी। भाँति-भाँति से किए गए अध्ययनों में प्रायः ज्यादातर वैज्ञानिकों ने इनके बारे में भयप्रद और निराशाजनक निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं। लेकिन विंसटन ह्यूरोज जैसे वैज्ञानिक इन कथनों से सहमत नहीं है। उनके अनुसार आज भूल भुलैया जैसे लगने वाले ये प्रकृति की रहस्यमयी रचनाएँ कल के मनुष्य के लिए न केवल अपरिमित ऊर्जा की स्त्रोत हो सकती हैं- बल्कि उसे ब्रह्माण्डों की सैर करा सकती है।

पृथ्वी पर भी फ्लोरिडा बरमूडा और कोस्टारीका के बीच एटलाण्टिक महासागर में बरमूडा त्रिकोण के रूप में ऐसा ही एक ब्लैक होल है, जो अपने अस्तित्व में आने के समय से लेकर अब तक अनगिनत जलयानों, वायुयानों को निगल चुका है। अब से कोई 14 साल पहले की घटना है, हालीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता पीटर सेलर्स एक बार अपना विमान उड़ाते - उड़ाते भटक गए और अमेरिका के पूर्वी तट पर स्थित इस रहस्यमय त्रिकोण में आ फंसे। उनका संपर्क यकायक कंट्रोल टावर से टूट गया। सारे यंत्र उपकरणों ने काम करना बन्द कर दिया। वायुयान नियन्त्रण से बाहर जाने लगा। उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा मानों जहाज किसी अदृश्य शक्ति के चंगुल में फंसकर खिंचा चला जा रहा हो। यान बड़ी तेजी से समुद्र की ओर नीचे खिंचने लगा। वह घबरा उठे तभी उन्हें भारत भ्रमण के दौरान एक भारतीय योगी द्वारा सिखाए गए गायत्री का स्मरण हो आया। वे मन ही मन उसका उच्चारण करते रहे और विमान पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश करने लगे। देखते-देखते उनका विमान उस जानलेवा त्रिभुज से सुरक्षित बाहर निकल आया एवं वे उसका ग्रास बनते-बनते बचे। इसका विवरण अमेरिका के तत्कालीन प्रमुख समाचार पत्रों में विस्तारपूर्वक छपा था।

महाभारत के वन पर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रा पर्व के एक सौ बत्तीसवें अध्याय में कहोड़ को जल समाधि दे दी गयी थी। बाद में मुनि पुत्र अष्टावक्र ने अपने पिता के अपराधी पण्डित वन्दी को पराजित कर उसे भी समुद्र में डुबोने की सजा दी, तो वरुण पुत्र वन्दी ने क्षमा याचना सहित कहा कि पण्डितों की जान से मारने का मेरा तनिक भी इरादा नहीं है। वस्तुतः मेरे पिता के राज्य में विशाल यज्ञ हो रहा है। यहाँ से विद्वान पण्डितों को चुन चुन कर मैं वहीं भेज रहा था। शास्त्रार्थ में हराकर जल में डुबाना तो एक निमित्त मात्र था। अब यज्ञ समाप्ति पर है और सभी ब्राह्मण लौटने वाले हैं। कुछ समय पश्चात् समस्त ऋषिगण सामने से आते दिखाई पड़े। इनमें कहोड़ भी थे।

सम्भव है उन्हें किसी समुद्री ब्लैक होल के माध्यम से वरुण के लोक भेजा गया हो और ज्ञान-विज्ञान के चरमोत्कर्ष के उस युग में वे कोई ऐसी रहस्य मय विद्या जानते हों, जिसके कारण उसके चंगुल से उनका सकुशल पृथ्वी लोक में पुनः वापस लौट सकना सम्भव हो सका। अन्यथा वे भी उसके गर्भ में समाकर अपनी जान गवाँ चुके होते।

इतना तो आधुनिक वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि ब्लैक होल के माध्यम से जाने पर समय लघुतम हो सकता है। यही नहीं इनका मार्ग एक ऐसी सड़क की तरह है, जिसमें स्थान-स्थान पर चौराहे फटते हैं। उनमें मुड़कर सीधे जाने की अपेक्षा तिरछा या दांया-बाँया भी जाया जा सकता है। इन ब्लैक होलों में छोटी - बड़ी पगडण्डियाँ भी हैं। वे राजमार्ग की तरह सीधी तो नहीं हैं, पर उनका सहारा पकड़कर यात्री अपनी दिशा बदल सकता है और चाल में धीमापन या तीव्रता ला सकता है। इस प्रकार लोक-लोकान्तरों की यात्रा सम्भव हो सकती है। ब्लैक होल पर सवार होकर ग्रहों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का बन्धन भी झंझट नहीं रहता ।

प्राचीन काल में अन्य लोकों के निवासी पृथ्वी पर आते रहे हैं और पृथ्वी निवासियों को भी अन्तर्ग्रही ही नहीं अन्तर निहारिकीय यात्रा की भी सुविधा मिली है। मार्ग की दूरी, उसे पूरी करने में लगने वाली लम्बी अवधि के कारण जीवन का अधिकाँश भाग यात्रा में ही व्यतीत हो जाने का खतरा भी नहीं रहता। अपना अभीष्ट काम पूरा करने में जितना समय लगाने की आवश्यकता है उसे लगाकर उतनी ही तेजी से वापस भी लौटा जा सकता है। इस प्रकार की यात्रा में आवश्यक साधन सामग्री साथ ले जाने या वहाँ की कोई वस्तु साथ लाने में भी कठिनाई नहीं पड़ती। मात्र उसे किसी मामूली धागे से शरीर के साथ बाँधे रहना पड़ता है ताकि वह साथ चलती रहे और अलग न होने पाए।

विज्ञान ने अभी पदार्थ की शक्ति का ही पता लगाया है। उसने सम्मिश्रण-विकर्षण की जो प्रतिक्रिया होती है उसे भी एक सीमा तक समझ लिया है। ग्रह-उपग्रह भी जो भेजे गए हैं वे सौरमण्डल के ग्रहों और चन्द्रमाओं के इर्द-गिर्द की पहुँच पाए हैं। इस परिधि का उल्लंघन करने के उपरान्त वे पृथ्वी के साथ किसी सम्बन्ध सूत्र से बंधे नहीं रहते और यह आशा नहीं की जा सकती कि वे फिर वापस लौट सकेंगे।

ब्लैक होलों के बारे में भी आज का विज्ञान कुछ इसी तरह भूला भटका हुआ है। क्योंकि विश्व-ब्रह्माण्ड में फैले हुए ब्लैक होलों के जाल और उनसे सम्बन्धित मार्गों एवं पगडण्डियों का कुछ पता नहीं लग सका है। इतना जान भी लिया जाय तो ज्ञातव्य लोक के बारे में यह समझना बाकी रह जाता है कि मनुष्य के जीवन यापन की सुविधा वहाँ है या नहीं। विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है या नहीं। इसके साथ ही जन संपर्क का परिणाम भी समझना है कि इतनी जोखिम उठाकर आने या जाने वाले प्राणी एक-दूसरे का कुछ हित साधन कर सकते हैं या नहीं।

जो आज सम्भव नहीं हो सका- उसे कल पूरा करने का दायित्व भौतिक-शक्तियों का भी है और आध्यात्मिक शक्तियों का भी ऋषि प्रणीत विधाओं के चमत्कार एवं भौतिक विज्ञान की सफलताएँ भविष्य की स्वर्णिम ऊषा में अन्तरिक्ष विज्ञान में एक नया अध्याय जोड़ दें तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए जिस दिन ऐसा हो सका, उस दिन धरती के इनसान को विश्व ब्रह्माण्ड की अनन्त विभूतियों के साथ जुड़ने का अवसर भी मिलेगा।

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