
सत, चित, आनन्द
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भगवान के अगणित नाम है ; पर उनमें से सबसे सुबोध और सार्थक नाम है ; सच्चिदानन्द। सत् का अर्थ है - शाश्वत, टिकाऊ, न बदलने वाला न समाप्त होने वाला।
इस कसौटी पर केवल परब्रह्म ही खरा उतरता है। उसका नियम, अनुशासन, विधान एवं प्रयास सुस्थिर है। सृष्टि के मूल में वहीं है। परिवर्तनों का सूत्र संचालक भी वहीं है। उसी के गर्भ में यह समूचा ब्रह्माण्ड पलता है। सृष्टि तो महाप्रलय की स्थिति में बदल भी जाती है और फिर कालान्तर में नया रूप लेकर प्रकट भी होती रहती है। किन्तु नियन्ता की सत्ता में इससे कोई अन्दर नहीं आता। इसलिए परब्रह्म को ‘सत्’ कहा गया है।
चित् का अर्थ है - चेतना, विचारणा। जानकारी, मान्यता, भावना आदि इसी के अनेकानेक स्वरूप है। मानवी अन्तःकरण में इसे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के रूप में देखा जाता है। मनोविज्ञानी इसका वर्गीकरण चेतन, अचेतन, सुपर चेतन के रूप में करते हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं में भी चेतना अपने मूल स्वरूप में यथावत् बनी रहती है। सत्, रज, तम् प्रकृति में भी वहीं चेतना प्रकट और प्रत्यक्ष होती रहती है। मृत्यु के बाद भी उसका अन्त नहीं होता। विद्वान और मूर्ख सभी में अपने विभिन्न स्तरोँ के अनुरूप वह विद्यमान रहती है।
जड़ पदार्थ और प्राणि समुदाय के बीच मौलिक अन्तर तक ही है - चेतना का न होना। जड़ पदार्थों के परमाणु भी गतिशील रहते हैं। उनमें भी उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है ; किन्तु निजी ज्ञान का सर्वथा अभाव रहता है। किसी प्रेरणा से प्रभावित होकर वे ग्रह-नक्षत्रों की तरह धुरी एवं कक्षा में घूमते तो रहते हैं ; पर संदर्भ में अपना कोई स्वयं का निर्धारण कर सकने की स्थिति में नहीं होते, जबकि प्राणि अपनी इच्छानुसार गतिविधियों का निर्धारण करते हैं।
प्राणियों की चेतना बृहत्तर चेतना का एक अंग अवयव मात्र है। इस ब्रह्माण्ड में अनन्त चेतना का भण्डार भरा पड़ा है। उसी के द्वारा पदार्थों को व्यवस्था का एवं प्राणियों को चेतना का अनुदान मिलता है। परम चेतना को ही परब्रह्म कहते हैं। अपनी योजना के अनुरूप वह सभी को दौड़ने एवं सोचने की क्षमता अर्थात् चेतन कहते हैं।
इस संसार का सबसे बड़ा आकर्षण ‘आनन्द’ है। आनन्द जिसमें जिसे प्रतीत होता है वह उसी ओर दौड़ता है। व्यभिचारियों को वेश्यालयों में ही स्वर्ग-सुख का आनन्द मिलता है। शराबी अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं। गरीब रूखे-सूखे भोजन में षट्-रस व्यंजनों जैसा स्वाद और आनन्द लेते हैं। मजदूरों का तो कहना ही क्या। दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद जब चारपाई पर पड़ते हैं, तो सुख की नींद में ऐसे खो जाते हैं, मानों उससे बढ़कर उनके लिए कदाचित् ही कोई दूसरा सुख हो। इसी प्रकार वैज्ञानिक, कलाकार, कृषक, संगीतकार सभी को अपने-अपने क्षेत्रों में अद्भुत रस मिलता है। यह प्रकारान्तर से आनन्द के मूल-स्रोत का ही एक अंश मात्र है। इसे अक्षय नहीं कहा जा सकता है। पानी के बबूले की तरह इसका सृजन और विसर्जन होता रहता है। देखा गया है किसी को किसी क्षेत्र में यदि सुख की अनुभूति हो रही है। तो कुछ ही काल पश्चात् वह उसे नीरस और निरानन्द प्रतीत होने लगता है और ‘रस’ की खोज उसकी अन्यत्र चल पड़ती है। मूल अथवा शाश्वत ‘आनन्द’ की प्रकृति ऐसी नहीं। उसमें नीरसता अथवा एकरसता जैसी शिकायत नहीं होती। उस परम आनन्द में मन नशे की भाँति डूबा रहता है और उससे वह बाहर आना नहीं चाहता ; किन्तु सांसारिक क्रिया-कलापों के निमित्त उसे हठपूर्वक बाहर जाना पड़ता है। यह अध्यात्म तत्वज्ञान वाला प्रसंग है और अन्तःकरण की उत्कृष्टता से संबंध रखता है। ऐसी स्थिति में आत्मा को स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वर-प्राप्ति, समाधि जैसे आनन्दों की अपेक्षा रहती है।
वस्तुतः आनन्द प्रकारान्तर से ‘प्रेम’ का दूसरा नाम है। जिस भी वस्तु व्यक्ति एवं प्रवृत्ति से प्रेम हो जाता है, वही प्रिय लगने लगती है। प्रेम घटते ही उपेक्षा चल पड़ती है और यदि उसका प्रतिपक्ष ‘द्वेष’ उभर पड़े, तो फिर वस्तु या व्यक्ति के रूपवान, गुणवान होने पर भी वे बुरे लगने लगते हैं। उनसे दूर हटने या हटा देने की इच्छा होती है।
अँधेरे में जितने स्थान पर टार्च की रोशनी पड़ती है। उतना ही प्रकाशवान होती है।
वहाँ का दृश्य परिलक्षित होने लगता है। प्रेम को ऐसा ही टार्च-प्रकाश कहना चाहिए, जिसे जहाँ भी फेंका जायेगा, वहीं सुन्दर, प्रिय एवं सुखद लगने लगेगा। वैसे इस संसार में कोई भी पदार्थ या प्राणी अपने मूल रूप में प्रिय या अप्रिय है नहीं। हमारे दृष्टिकोण, मूल्यांकन एवं रुझान की आनन्ददायक अथवा अप्रिय, कुरूप जैसी परिस्थितियाँ गढ़ते-बनाते रहते हैं।
आनन्द ईश्वर की विभूति है। प्रेम को परमेश्वर कहा गया है। प्रिय ही सुखद है अर्थात् ईश्वर ही आनन्द है। उसी के आरोपण से हम सुखानुभूति करते और प्रसन्न होते हैं। यह स्पष्टतः जानना चाहिए कि परब्रह्म के अनेकानेक नाम हैं। उनमें से उसके प्रमुख तीन गुणों को समन्वय जिसमें है, उसे ‘सच्चिदानन्द’ कहते हैं।
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