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Magazine - Year 1997 - Version 2

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व्रतशील जीवन की महिमा

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उथली और मजबूत किनारों से रहित नदियां तनिक-सौ वर्ष होने पर सब ओर बिखर पड़ती है और बाढ़ का रूप धारण कर पास-पड़ौस के खेतों, गाँवों को नष्ट-भ्रष्ट कर देती हैं। इसके विपरीत वे नदियाँ भी हैं, जिनमें प्रचंड वेगयुक्त जलधारा बहती है किन्तु उफनने की दुर्घटना उत्पन्न नहीं होती। कारण कि वे गहरी होती हैं और उनके किनारे मजबूत व सुदृढ़ होते हैं।

तनिक-से आकर्षण और भय का अवसर आते ही मनुष्य अपने चरित्र और ईमान को खो बैठता है। थोड़ी-सी प्रतिकूलता, तनिक-सी विरोधी परिस्थितियाँ उसे सहन नहीं होतीं और आवेशग्रस्त स्थिति उत्पन्न कर देती है।इसका कारण व्यक्ति का आंतरिक उथलापन हैं। व्रतशील जीवन की कमी है। ऐसे लोग तभी तक अच्छे लग सकते हैं, जब तक कि परीक्षा का अवसर नहीं आता। जैसे ही परीक्षा की घड़ी आयी, वैसे ही वे मर्यादाओं को तोड़-फोड़ कर उथले नालों की तरह बिखरते हैं और अपने पड़ौस, समाज व पूरी मनुष्यता के लिए बाढ़ का संकट उत्पन्न करते हैं।

मजबूत किनारों का तात्पर्य है-व्रतशील जीवन। व्रत आदर्शों के प्रति विश्वास है, निष्ठा है। व्रत के द्वारा मनुष्य लक्ष्य तक पहुँचने हेतु आत्मशक्ति सँजोने-अर्जित करने का प्रयत्न करता है। विश्वास जितना सशक्त होता है, निष्ठा जितनी अविचल होती , संकल्प जितना सुदृढ़ होता है व्यक्ति उतनी ही सुगमता से तथा सफलता से जीवन की पूर्णता प्राप्त करता है।, शक्ति, शक्ति है। इसका समुचित उपयोग तभी सम्भव है, जबकि यह एकत्रित हो और समुचित दिशा की ओर केन्द्रित हो। व्रत से यही असाधारण कार्य सम्पन्न होता है। इससे मानवीय जीवन की खोती-बिखरती शक्तियाँ एकत्रित-एकाग्र होकर जीवन-लक्ष्य की दिशा में प्रवाहित होने लगती है।

हर दिन व्रत है, दिन का हर पल व्रत है। सुख-समृद्धि, सन्तान-स्वास्थ्य आकाँक्षा में किया जाने वाला प्रयत्न भी व्रत है, तो सिद्ध-बुद्ध मुक्त अवस्था प्राप्त करने हेतु साधुता का साधते रहना भी व्रत है। खाना भी व्रत है, नहीं खाना भी व्रत है। जीवन संग्राम में जूझना भी व्रत है।, मौन-ध्यानी बनकर एकासन पर बैठे रहना भी व्रत है। जीवन का हर कर्म, जीवन का हर प्रयत्न व्रत हो सकता है, यदि उसमें ईश्वर से एकात्मता की आकाँक्षा और आत्मा की जागरुकता निहित हो। आत्मा-बल को जगाने-साधने का प्रयत्न ही व्रत है। व्रत में आत्मा, परमात्मा ही ओर उन्मुख होती है, यानि जीवन की परमात्मान्मुखता ही व्रत है।

व्रत के हजारों-हजारों नाम हैं। सातों वारों के व्रत हैं। पन्द्रहों तिथियों के व्रत हैं। बारह मासों के व्रत हैं। विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय अपने देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप इनका औचित्य समझाते हैं। परन्तु ये सभी जहाँ एकत्रित रूप से सम्मिलित हो ऊर्ध्वगामी प्रेरणाएं स्वतः उमँगने लगती हैं। जीवन की हर श्वास में परमात्मा की सुवास भर जाती है। इस व्रत सिद्धि के चमत्कार इतने हैं कि जिन्दगी का हर क्षण आश्चर्यजनक सफलता एवं आत्मिक प्रगति से भरापूरा लगने लगता है। इसको जिन्होंने अपनाया है- केवल उन्हीं के लिए सम्भव है कि महामानवों के लिए शोभनीय मार्ग पर अनवरत रूप से बढ़ सकें। व्रतशील जीवन का सार मर्म है- जीवनलक्ष्य की पूर्ति के लिए अभीष्ट साधन एवं साहस का सुसंचय।

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