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Magazine - Year 1997 - Version 2

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सुसंतति का सुनियोजन ही परिवार में स्वर्ग लाता है

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हम सब सामाजिक प्राणी है, समाज में रहते, उसकी सहायता, सहयोग तथा संपर्क से ही उचित विकास करते तथा उसी से अपनी जीविका कमाते और बच्चों की ब्याह-शादी करते हैं। समाज के सहयोग के बिना हमारी किसी की जिन्दगी दो कदम नहीं चल सकती। समाज का मनुष्य जीवन में बड़ा महत्त्व है।

किन्तु सामान्यतः लोग अपने को सामाजिक ने समझकर केवल पारिवारिक ही समझते हैं और उसी की अच्छाई-बुराई तथा सुख-दुख का विचार रखते हैं। उसी के लिए सब कुछ सोचना और उसी के लिए सब कुछ करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं, तथापि उन्हें समाज के साथ प्रतिकार के रूप में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कुछ-न-कुछ सेवा देनी ही होती है। ऐसा किए बिना काम नहीं चल सकता। परिवार की सेवा भी समाज की ही सेवा है। मनुष्यों का दृष्टिकोण ही केवल अहंपूर्ण होता है। यदि परिवार को भी समाज का ही एक अंग समझकर समुचित रूप से सेवाएँ दी जाएँ, तब भी वह एक प्रकार से समाज की प्रत्यक्ष सेवा हो जाये। किन्तु लोग परिवार को अपना व्यक्तिगत अनुबंध समझकर उसका पालन एवं संचालन मनमाने ढंग से करते हैं, इसलिये उनकी सेवा सामाजिक परिसर तक बढ़कर व्यापक नहीं बन पाती।

परिवार समाज की एक इकाई है, ऐसा मानकर चलने वाले लोग, उसका पालन, संचालन एवं निर्माण इस प्रकार से ही करते हैं, जिसमें समाज में सौंदर्य, स्वास्थ्य तथा सुविधा को वृद्धि हो। ऐसे लोग परिवार को संतुलित तथा सुव्यवस्थित रखने का बड़ा ध्यान रखते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि संतुलित परिवारों से जहाँ व्यक्तिगत सुख-शाँति तथा आत्म-विकास में सहायता मिलती है, वहाँ समाज की व्यवस्था पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अस्तु, प्रत्येक व्यक्ति को यथासंभव अपने परिवार को संतुलित तथा नियोजित रखने का प्रयत्न करना चाहिए। जहाँ असंतुलित तथा अनियोजित परिवार में अनेक प्रकार के कष्ट-क्लेशों का जन्म होता रहता है, संतुलित तथा नियोजित परिवार से सुख-सुविधा की कमी नहीं रहती। इस विषय में अपने अनुभव के आधार पर एक विद्वान ने इस प्रकार बतलाया है-”यदि आप मेरे सुखी परिवार का रहस्य जानना चाहते हैं तो मैं बतलाता हूँ कि इस सबका श्रेय मेरी बी0 ए॰ पास पत्नी को है। मैं तो वाणिज्य का एक अध्यापक मात्र हूँ। मैं परिवार नियोजन जैसी चीज क्या जानूँ? मेरी पत्नी संसार और विशेष रूप से हमारे देश में होने वाली अंधाधुँध जनवृद्धि से उत्पन्न होने वाली हानियों से पूर्णतया

स्विट्जरलैंड का एक 12 वर्षीय लड़का सड़क पर गेंद उछाल रहा था। गेंद दुकान के शीशे में लगी और वह टूट गया। भागने का अवसर था, पर लड़का भागा नहीं। जब शीशा तोड़ने वाले की तलाश हुई तो उसने अपना दोष बताया। शीशे का मूल्य चुकाने का प्रश्न आया, तो लड़के ने चार दिन तक उसके यहाँ मजूरी करने की बात कही। लड़के ने चार दिन तक इतनी मेहनत और मुस्तैदी से काम किया कि दुकान मालिक प्रसन्न हो गया। उसे अपने यहाँ स्थायी नौकर रख लिया। लड़का पढ़ता रहा, नौकरी करता रहा। अपने सद्गुणों से मालिक का मन इतना मोह लिया कि उस दुकान का पार्टनर बन गया और कुछ ही दिनों में सम्पन्नों में उसकी गणना होने लगी।

इसका श्रेय वह सदैव अपनी माँ को देता रहा, जिसने उसे सिखाया था-”हमेशा अंतःकरण की आवाज पर, विवेक की पुकार पर काम करना, नीति की कमाई खाना।”

परिचित है। वे इस समस्या पर पढ़ती और विचार करती रहती है। साथ ही उन परिवारों की दयनीय दशा भी देखती रहती है, जो बिना सोचे-समझे संतानों-पर-संतानें उत्पन्न किये जाते हैं इतना ही नहीं वे जो कुछ करती हैं, उसे जीवन में यथार्थ रूप से उतारती भी है। हमारे परिवार की सुख-शांति का आभार केवल दी श्रेष्ठ, विकसित, स्वस्थ तथा सुन्दर संतानें ही है। है। हमारी शिक्षित तथा यथार्थवादी पत्नी ने परिवार नियोजन के लिए प्राकृतिक से लेकर कृत्रिम तक सारे उपलब्ध साधनों तथा उपायों को काम में लाकर परिवार सीमा से बाहर बढ़ने नहीं दिया। उनके मस्तिष्क से कभी भी यह विचार तिरोहित नहीं किया जा सकता कि भारत की जनसंख्या यदि इसी गाँव इसी गति से प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों में बढ़ती रहे तो स्थिति कितनी भयानक हो जाएगी, हम सबको, देश की उस भयावह स्थिति से, जिसमें न भोजन मिले, न वस्त्र और न अपने घरों में परिवार नियोजन का काम प्रारम्भ कर ही देना चाहिए।” जनसंख्या की वृद्धि को इस अनियोजित गति को रोका ही जाना चाहिए

और यह काम तभी पूरा होगा जब उनके पालन-पोषण, रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा, प्रतिभा तथा विशेषताएँ विकसित करने पर पुरा-पूरा ध्यान दिया जाय। उसके लिये खर्च भी जुटाया जा सकता है। कितना ही हाथ तंग क्यों न हो फिर भी एक-दो बच्चों का पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध किया ही जा सकता है। ढेरों बच्चे होने से, उन पर जो, उनमें से अधिक होनहार तथा कुशाग्र बुद्धि होते हैं और जिन पर विशेष ध्यान की आवश्यकता है, समुचित ध्यान नहीं दिया जा पाता। अनेक बच्चों में किसी एक पर विशेष ध्यान पक्षपात जैसा होगा। जो माता-पिता के लिए कर सकना न तो संभव है और यदि कोई ऐसा करते हैं तो गृह-क्लेश बीज बोते हैं, जो जल्दी ही विष फल उत्पन्न करने लगते हैं। नियोजित परिवार में यह कठिनाई नहीं रहती। एक दो बच्चे होते हैं। उन पर पूरा-पूरा ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। पारस्परिक वैमनस्य अथवा ईर्ष्या,द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वे दोनों बच्चे कुशाग्र बुद्धि के हैं तब तो उन्हें हर प्रकार का प्रोत्साहन तथा प्रबन्ध देकर आगे बढ़ाया ही जा सकता है और यदि वे नहीं हैं तो प्रयत्नशीलता के बल पर उन्हें प्रतिभावान तथा होनहार बनाया जा सकता है। इस प्रकार समुचित रूप से पालित तथा विकसित किये गये बच्चे समाज के कितने सुन्दर नागरिक बन सकते हैं, इसका अनुमान भर हृदय में पुलक भर देता है, संतान सुयोग्य होकर समाज में प्रतिष्ठा पाये, यह गृहस्थ जीवन का ऐसा तीसरा सफल है जिसका सुख माता-पिता से सँभाले नहीं सँभलता।

एक दो बच्चे होने से माता-पिता न उन्हें केवल समुचित लालन-पालन ही दे सकते हैं, बल्कि अपना पूरा प्यार तथा वात्सल्य भी दे सकते हैं। उनकी स्नेह धारा अनेकधा न होकर उन दो बच्चों तक ही केन्द्रित रहकर उन्हें ओत-प्रोत कर देती है। उनके जीवन को संतुष्ट तथा शीतल रखती है। माता-पिता का स्नेह बच्चों के लिए किसी भी पौष्टिक पदार्थ से हजार गुणा गुणकारी होती है। जिन बच्चों को यह पूरी तरह मिलता रहता है वे यों ही स्वस्थ तथा विकसित होते चलते हैं। साथ केन्द्रित होकर उसके स्नेह तथा वात्सल्य का सुख उन्हें पी परितृप्त रखा करता है। प्रेम की अनुभूति ईश्वरीय प्रसाद है, किन्तु यह हर्ष एवं उल्लास का हेतु बनता तभी है जब कहीं पर केन्द्रित हो, अन्यथा कूट-कूटकर और जीर्ण-शीर्ण होकर निष्प्रभाव हो जाता है। माता-पिता से पूरा प्रेम पाकर बच्चे भी उन्हें अपना पूरा आदर तथा श्रद्धा देने लगते हैं। वे अधिकाधिक विनम्र तथा आज्ञाकारी बन जाते हैं। सुयोग्य संतानों का आज्ञाकारी बन जाते हैं। सुयोग्य संतानों का आज्ञाकारी होना गृहस्थ जीवन का चौथा सुफल है, जिसका सुख अनिवर्चनीय होता है। इसे कोई विरले बुद्धिमान माता-पिता ही पाते हैं।

इसके विपरीत जिन माता-पिता के अनेक बच्चे होते हैं, उनका प्रक किसी बच्चे पर भी केन्द्रित नहीं हो पाता। वह यों ही बूँद-बूँद इससे उस पर और उससे इस पर छितराता हुआ बेकार ही चला जाता है। न तो बच्चों को संतोष होता है और न माता-पिता को अनुभूत स्नेह के प्यासे रहकर बहुधा अविनम्र और अवज्ञाकारी हो जाते हैं। स्नेह न पाने से उनका हृदय भी कठोर तथा कर्कश बन जाता है। वे आपस में लड़ते-झगड़ते और बाहर जाकर दूसरों के साथ उपद्रव उत्पन्न करते हैं। रोज शिकवा शिकायत भिजवाते और माता-पिता को प्रतिष्ठा गिराते हैं। बच्चों की इन हरकतों के कारण माता-पिता को कितनी मानसिक पीड़ा होती होगी? इसे तो भुक्तभोगी ही बतला सकते हैं। इसी पीड़ा से कराहकर तो लोग कह उठते हैं कि नालायक बच्चे होने से कहीं अच्छा है कि परमात्मा बिना बच्चे का ही रखे।

इस प्रकार किसी दृष्टि से क्यों न देखा जाए, नियोजित परिवार हर प्रकार से सुख-शान्ति का हेतु तथा अनियंत्रित परिवार हर प्रकार से कष्ट-क्लेश का कारण होता है। एक दो अथवा अधिक से अधिक तीन बच्चों के नियोजित परिवार में माता-पिता अपना संपूर्ण समय शान्ति, उत्साह, प्रेम, पैसा आदि लगाकर उन्हें श्रेष्ठतम नागरिक बना सकते हैं। उनसे शारीरिक,बौद्धिक, आध्यात्मिक तथा शैक्षणिक हर प्रकार से विकास पर पूरा-पूरा ध्यान दे सकते हैं। इससे बच्चे सुयोग्य नागरिक बनकर समाज के सदस्य रत्न तो बनते ही हैं, साथ ही माता-पिता के लिए भी सुख-शान्ति तथा संतोष के बड़े आधार बनते हैं। जो बुद्धिमान दम्पत्ति यह बात ठीक से हृदयंगम करके तद्नुरूप व्यवस्था करते हैं वे जीवन में संतुष्ट और सुखी रहते हैं, इसमें न कोई बाधा है न कोई संदेह।

विश्वविख्यात संगीतज्ञ पाठलोकासाल कहा करते थे-”दुनिया को मरने से बचाने के लिए संगीत ही सबसे बड़ा संरक्षक हो सकता है।” मार्टिन लूथर का यह कथन भी प्रख्यात है कि मनुष्य जाति को भगवान द्वारा दिये गये सबसे भव्य वरदानों में से एक संगीत भी है।

ऐसे ही अनेक कथनों को जापान के एक संगीत विद्यार्थी शिनीची सुजुकी ने अपना जीवन दर्शन बनाया और वह उसी के लिए समर्पित हो गया। उसने न केवल संगीत विद्यालय खोलकर इस महाविज्ञान के जीवन उत्कर्षकारी पक्ष को विकसित किया, वरन् जनसाधारण को संगीत की आत्मा से परिचित कराने के लिए द्वार-द्वार पर अलख भी जगाया।

स्जुकी ने अपनी पत्नी ऐसी ढूंढ़ी, जो उसके मिशन में कंधे-से-कंधा लगाकर और कदम-से-कदम मिलाकर चल सके। पियानो वादन की मर्मज्ञ बाल्ट्राइड के साथ विवाह की शर्त इसी शर्त पर पक्की हुई, कि दोनों मिलकर संगीत की सेवा करेंगे। विवाह के बाद ही टैलेण्ट एजूकेशन इन्स्टीट्यूट की स्थापना हुई और बाल्ट्राइड सी में प्राणपण से निमग्न हो गयी। इस संस्था की 70 शाखाएँ सारे जापान में चलती है। इन विद्यालयों ने अब तक कोई डेढ़ हजार प्रख्यात संगीतज्ञों को विनिर्मित किया है।

स्जुकी कहते हैं-”शुद्ध संगीत मनुष्य में भव-संवेदना जगाता है, अनुशासन, सहिष्णुता और कोमलता जगाता है। हृदय को सुन्दर बनाने में संगीत की अपनी भूमिका है।” उनकी पत्नी कहती थीं-”हम लोग चाहते हैं कि जापान का बच्चा-बच्चा सहृदय और आदर्शवादी भावनाओं से सुसम्पन्न बने। इसी लक्ष्य के लिए हम लोगों ने अपने को एक सदुद्देश्य के लिए समर्पित किया है।”

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