
तनिक अपनी ओर भी देखिए
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दोषों को खोजना, दुर्गुणों को देखना, उनका विरोध करना अच्छा काम है, लेकिन तब जब यह काम अपने से शुरू किया जाय। हम खुद की बुराइयों की ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। दूसरों के बारे में पता लगाना काफी मुश्किल काम हैं उनके बारे में तो उतना ही पता चल सकता है जितना बाहर से दिखाई-सुनाई पड़ता है। प्रायः हर किसी के जीवन में लुका-छिपी का खेल चलता रहता है। जो दिखाई-सुनाई पड़ता है वह होता नहीं और जो असलियत होती है उसे देख-सुन समझ पाना मुश्किल है। यह सर्वमान्य तथ्य हमारे अपने जीवन में भी लागू होता है। जब हमारी अपनी असलियत को दूसरे नहीं जान पाते, तब हम भला औरों की सच्चाई कैसे जान सकते हैं। इसलिए दोषों की निन्दा और उनके उन्मूलन की कोशिश हमें खुद अपने आप से शुरू करनी चाहिए। दूसरों की बुराइयाँ हम जान भी जाएँ तो भी क्या फायदा? उन पर हमारा कोई दबाव तो है नहीं। वे हमारी बात मान ही लें, यह कोई आवश्यक नहीं। सबसे ज्यादा हमारा दबाव-प्रभाव अपने ऊपर ही है। इसलिए यदि सुधारने के काम की शुरुआत करनी हो तो इसे अपने आप से ही आरम्भ किया जाना चाहिए।
ऐसी शुरुआत बड़े हिम्मत का काम है। दूसरा कोई हमारी कमियाँ गिनाये भी और वे सच्ची भी हों, तो अपना अहंकार उसे मानने नहीं देगा। लेकिन जब हम अपना विश्लेषण स्वयं करते हैं, दोष-दुर्बलताओं का स्वयं खींचते हैं, तो बेचारे अहं की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। उसे सच्चाई स्वीकार करते ही बनता है। इस स्वीकृति के बाद अनुभव होता है कि जिसे दुर्गुणों से छुड़ाने और पापों से बचाने की जरूरत है - वह प्रथम व्यक्ति और कोई नहीं हम स्वयं है। अपनी कुरूपता स्वीकार करने में जिसे डर नहीं और उसमें उसके निवारण की हिम्मत है, वह किसी बड़-से-बड़े शूरवीर से कम नहीं।
सच तो यह है कि हम बाहर से अपने को कितना ही बड़ा बहादुर क्यों न मानें, पर शायद ही हमको अपने से बड़ा कोई दूसरा कायर मिले। इसी कायरता के कारण अपने दोषों-दुर्गुणों को छिपाने में अपना सारा मनोबल लगा देते हैं। इसका आधा भी यदि इनके निवारण में लगा दें, तो बड़ी सरलतापूर्वक निर्मल और निष्पाप हो जाएँ जो हमारे अन्दर की असंख्य सोई पड़ी गुप्त शक्तियों के जागरण में बाधक हैं। महापुरुषों का जीवन बुराइयों को देखना और उनका निवारण करना सीखा है। यदि हमें भी महानता की चाह है तो रास्ता वहीं है जिस पर सारे महापुरुष चले हैं। दूसरों को तुच्छ समझने और उनका छिद्रान्वेषण करने से भला क्या हासिल होगा? बल्कि ऐसा करके हम अपना मनुष्यत्व भी खो बैठेंगे।
जो इस काम में हमारे सहयोगी बन सकें, वही हमारे सच्चे मित्र हैं। उन्हें ही अपने मित्रों में सम्मिलित करना चाहिए जो हमारा दोष दर्शा सकें और कुमार्ग से हटाने का साहस उत्पन्न करें। आमतौर पर होता यही है कि चापलूसी भाती है और दोषों की चर्चा करने वाला शत्रु लगता है। हम चोरी का धन्धा करते हों और कोई चोर क दें, बेईमानी करते हों और कोई बेईमानी कह दे तो बहुत बुरा लगता है और इससे लड़ने-मरने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसे अपनी कायरता ही कहना चाहिए कि वस्तुस्थिति को बताने वाले दर्पण में अपनी कुरूपता देखना हमें सहन नहीं होता और अपने अपराध का दण्ड उस दर्पण को तोड़ने के रूप में देना चाहते हैं। कई बार ऐसे तर्क प्रस्तुत करके हम अपना बचाव करते हैं कि हमीं अकेले तो नहीं हैं, दुनिया में और तो बहुत लोग कर रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं लोग रोकते?
अपनी दुर्बलताओं के इसी बचाव के कारण हम और हमारा व्यक्तित्व सारी जिन्दगी अविकसित ही बने रहते हैं। वे जाने कौन-सी दुष्प्रवृत्ति हमारे न जाने किस प्रतिभा के अंकुर हो दबाए बैठी है, उसके पुष्पित-पल्लवित होने में अवरोध पैदा कर रही है। जरूरत सिर्फ उन अवरोधों को जानने और हटाने की है, जो हमारे अन्दर दोषों-दुर्गुणों के रूप में पल रहे हैं।
अच्छा यही है कि हम अपने दोषों की समीक्षा के लिए आज और अभी आगे बढ़ चलें। ताकि अपने व्यक्तित्व के विकास में रुकावट डालने वाले सारे अवरोध भी हट जाएँ और किसी दूसरे को अपने लिए निन्दा करने का दोष भी न सहना पड़े। फिर चर्चा या निन्दा उतनी आवश्यक भी नहीं है जितना कि अपने सुधार के लिए किया गया प्रयत्न। कोई हमारी निन्दा करे और हम किसी की निन्दा करें, इससे समस्या का समाधान नहीं हो जायेगा। बुराइयों का अन्त करने के लिए सिर्फ चीख-पुकार या नारे-बाजी पर्याप्त नहीं। उसके लिए तो ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इसमें सबसे पहला और सबसे प्रभावशाली कदम यह हो सकता है कि हम अपने दोषों को साहसपूर्वक स्वीकार करें। यह स्वीकारोक्ति हर किसी के सामने की जाय यह जरूरी नहीं। परन्तु हमें अपनी बुराइयों को स्वयं अपने सामने मानने में, आत्मीय गुरुजनों के समक्ष स्वीकारने और परमेश्वर की समर्थ सत्ता की साक्षी में कहने में तनिक-सी भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। हम यदि ऐसा कर सकें तो हमारी आत्मा, गुरुजनों का आशीष और भगवान का अनुग्रह हमारे अपने अन्दर अपूर्व साहस को जन्म देना। ऐसा साहस, जिसके बलबूते अपनी दुर्बलताओं को उखाड़ फेंकने के लिए वह पराक्रम-पुरुषार्थ दिखा सकेंगे जो सच्चे और बहादुर योद्धा ही दिखाया करते हैं। अपने आप से लड़ना और अपने आप को शुद्ध बना लेना बाहर की दुनिया को निर्मल-निष्पाप बना सकते की सबसे बड़ी योग्यता और वीरता की सबसे बड़ी निशानी है।
निर्मल-निष्पाप हृदय में ईश्वरीय विभूतियाँ पुष्पित-पल्लवित होती हैं। ऐसे ही व्यक्ति अपनी निष्कलुष भावनाओं से परमात्म-सत्ता से एकाकार होते हैं। महापुरुषों का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे पर दोष-दर्शन के स्थान पर सतत् आत्मनिरीक्षण करते रहें। अच्छा यही है अपनी त्रुटियाँ खोजें और उन्हें दूर करें। यही अपनी शक्तियों को पहचानने और उन्हें विकसित करने का राजमार्ग है।