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Magazine - Year 1997 - Version 2

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Language: HINDI
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या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता

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“माँ !” इसी सम्बोधन के साथ समूची मनुष्य जाति का नारी से प्रथम परिचय होता है। इस शब्द में समायी ईश्वरीय भावनाएं ही उसके जीवन के पालन-पोषण और संरक्षण का आधार बनती है। ईश्वरत्व उसके सामने माँ के रूप में साकार हो उठता है। भावनाओं की इसी सघनता की वजह से मानव ने अपनी सभ्यता का प्रथम पग रखते ही परमेश्वर को “माँ” कहकर नमन किया। उसके नारी रूप की प्रतिष्ठा और पूजा की। संसार की विभिन्न सभ्यताओं की जन्मदात्री वैदिक सभ्यता का बोध कराने वाले साहित्य में स्थान-स्थान पर इस सत्य के प्रमाण मिलते हैं।

क्तिपय मनीषी और विचारक वेदों में शक्ति उपासना की बात को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ऋग्वेद के 24 वे अध्याय में दी गई घोषा, गोधा, विश्ववारा आदि ऋषिकाओं की सूची सही हो सकती है, किन्तु इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि वैदिक भारत में परमात्मा की नारी रूप में उपासना करने का प्रचलन था। इन मनीषियों के मत से भारतवर्ष में शक्ति उपासना का प्रचलन तान्त्रिक पूजा-पद्धतियों समय से शुरू हुआ। तान्त्रिक प्रणाली में बहुतायत से प्रचलित शाक्तमत को वे अपने प्रमाण के रूप में उद्धृत करते हैं।

इन विचारशीलों की बातों में सत्य आधे-अधूरे रूप में ही प्रस्तुत हो सका है। तान्त्रिक पद्धतियों में प्रचलित शक्ति उपासना की बात से इन्कार नहीं किया जा सकता परन्तु तन्त्र के जन्मदाता वेद ही हैं। तन्त्र ने अपनी शक्ति उपासना वेदों से ही विरासत में पायी है। ऋषियों की मातृ भक्ति की परिचय इसी से हो जाता है कि उन्होंने समस्त ज्ञान के मूल कारण को वेदमाता के रूप में स्वीकारा। वेदों की अनेक ऋचाओं में इस बात का स्पष्ट विवरण मिलता है कि वैदिक संस्कृति में इन्द्र, अग्नि, वरुण, पूषा आदि पुरुष प्रधान नामों के साथ परमेश्वर की श्रद्धा, नद्य, राका, मही, ऊषा, सूर्या, सरस्वती आदि नारी प्रधान नाम, नामों से भी स्तुति की गई है। जहाँ तक प्रधानता और प्रमुखता का सवाल है, उसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राचीन ऋषिगण परमेश्वर के नारी रूप के प्रति सतत् श्रद्धा अर्पण करते रहे है।

परमात्मा के नारी रूप के प्रति अपनी गहरी आस्था के कारण ही उन्होंने “अदित” को श्रेष्ठतम देवता देवमाता के रूप में स्वीकार किया है। एक संदर्भ विशेष में उसे गौ रूप धारिणी भी कहा। वेदों ने परमात्मा के एक अन्य महत्वपूर्ण नारी रूप की सरस्वती रूप में अर्चना की है। सरस्वती यूँ तो एक नहीं भी थी किन्तु ऋग्वेद के मंत्र में उसे “अम्बितमे, नदीतम, देवितम।” अर्थात् श्रेष्ठतम माता, महानतम नदी तथा उच्चतम देवी के रूप में सम्बोधित किया गया है। सरस्वती को ज्योति का समुद्र तथा बुद्धि की अधिष्ठानी सत्ता के रूप में भी प्रार्थना की गयी है। उसे इला और भारती नाम की देवियों से भी संबद्ध बताया गया है। और इन तीनों को “तिस्नोदेवी” के रूप में संमुक्त बताया गया है। बाद के वैदिक साक्ष्यों में वाक् की अवधारणा का परिचय इन्हीं तीनों देवियों के रूप में मिलता है। ऋग्वेद के एक अन्य मंत्र (29.9.99) में अग्नि के अंतर्गत इला, सरस्वती एवं भारती को एकात्मता प्रतिपादित की है।

वेदों में नारी तत्व की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति वाक् के रूप में मिलती है। वाक् की परमात्मा का वह अचिन्तनीय, अदृश्यमान और सूक्ष्मतम स्वरूप है जो उसके मूल निर्गुण तत्व से सगुण की ओर उसके मूल निर्गुण तत्व से सगुण की ओर आने की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। यही शब्द ब्रह्म है इसीलिए कालान्तर में परमेश्वर के नारी रूप को शब्द ब्रह्ममयी, परात्परमयी, ज्योतिर्मयी और वाङ्मयी आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है। बाद के समय में विकसित शाक्तदर्शन एवं उससे जुड़ी साधना पद्धति का मूल आधार वाक् की ही अवधारणा है। इस संदर्भ में ऋग्वेद का देवी सूक्त या वागाम्भूण्ी सूक्त (मण्डल 10 सूक्त, सूक्त 125) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वैदिक इतिहास के अनुसार महर्षि अम्भूण की पुत्री वाक् इसकी मंत्रदृष्टा ऋषि थी। यह सूक्त पराशक्ति के विश्व रूप का दर्शन कराता है। सूक्त के कतिपय मंत्र दृष्टव्य हैं-

अर्थात् - मैं रुद्रों तथा वसुओं के साथ संचार करती हूँ। आदित्यों एवं देवताओं के साथ रहती हूँ। मैं मित्र एवं वरुण को धारण करती हूँ। मैं ही इन्द्र,अग्नि और आविष्वनों का अवलम्बन हूँ। मैं ही साम, त्वष्टा पूषा और भग को धारण करती हूँ और भली-भाँति यज्ञ करने वाले और सोम देने वाले यजमान को धन देती हूँ। मैं ही राष्ट्र की प्रभुसत्ता हूँ, वसु अर्थात् ऐश्वर्य या धन की कोष रूपा हूँ। ज्ञानमयी एवं यज्ञों से तुष्टि प्राप्त करने वाले देवों में प्रमुख हूँ। देवताओं ने मुझ अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित किया है और मैं अनेक लोकों और अनेक रूपों में रहती हूँ। जो भी जीव प्राण धारण करता है, देखता है, सुनता है, वह मेरे ही माध्यम से यह सब कर पाता है। जो मुझे नहीं पहचानते वे क्षीण हो जाते हैं। जिज्ञासुओं सुनो जो मैं कहती हूँ वह श्रद्धास्पद है। देवों और मनुष्यों (सुनो) ये मेरे ही शब्द हैं, मैं जिसे चाहूँ उसे ब्रह्मज्ञानी, ऋषि मेधावान बना सकती हूँ। पवित्रात्माओं के शत्रुओं का विनाश करने के लिए मैं ही रुद्र के धनुष की प्रत्यंचा को तानती हूँ। द्युलोक, पृथ्वीलोक को आविष्ट कर मनुष्यों के लिए युद्ध करती हूँ। मैं समुद्रवासिनी हूँ, किन्तु मैंने ही ब्रह्मा को उच्चतम स्थान पर प्रतिष्ठित किया है। मेरा विस्तार सभी लोकों में है और मैं ही अपने विस्तृत देह से द्युलोक को छूती हूँ। मैं ही वायु की तरह सब लोगों को गतिमान बनाती हूँ। मैं पृथ्वी, स्वर्ग से परे हूँ, यह मेरी महनीयता है।

इस सूक्त की अन्तर्भावना से ही बाद में समय में ताँत्रिक प्रणाली और उसकी शाक्त परंपरा में वागम्भृणी सूक्त की प्रतिष्ठा अन्य वैदिक मंत्रों की अपेक्षा कहीं अधिक है। बाद के शाक्त तन्त्रों की आधारशिला इसी पर रखी गयी। वाक् गूढ़तम अवस्था “परा” की है। पश्यंती के रूप में वह शब्दों को अन्तर्निहित रूप में स्पन्दित करती है। मध्यमा की अवस्था में शब्द छन्दात्मक होने लगते हैं और उनका प्रकटीकरण वैखरी स्थिति में होता है यही कारण है कि वाक् बीज से शाक्त दर्शन एवं पद्धतियों में षटचक्रांक में थिरकने वाले अक्षरमाला से माला से प्राणवाहा कुण्डलिनी शक्ति की अवधारणा का विकास हुआ है।

ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थान पर सुष्टि के नारी तत्व को रक्षत्र पुंजों से शोभायमान रात्रि के रूप में वर्णित किया गया है। इसीलिए इस दशम मण्डल के 127 वें सूक्त को रात्रि सूक्त भी कहा है। इसमें रात्रि के द्युतिमान अन्धकार को माँ की ऐसी गोद बताया है, जिसमें मानव रूपी शिशु निश्चिंत होकर सुख की नींद सो पाता है। काली, कालरात्रि अथवा तामसी के रूप में करुणामयी नारी शक्ति की परवर्ती कल्पना का मूलस्रोत यही सूक्त है। उत्तर वैदिक साहित्य से जुड़ा एक अन्य महत्वपूर्ण सूक्त और भी है-श्री सूक्त। इसमें ऐश्वर्य, सुवर्ण, रजत, समृद्धि से जुड़ी भक्तों पर अनुग्रह करने वाली श्री, श्रीमाँ अथवा लक्ष्मी का उल्लेख है। उसे सूर्य (द्युति) मयी या चन्द्र (द्युति) मयी, स्वर्णवर्णा हरिणी के रूप में स्मरण किया गया है। कमलवासिनी के रूप में भी देवी का उल्लेख आता है। इसी सूक्त में लक्ष्मी को स्वर्णामयष्टि के रूप में भी वर्णित किया गया है। यह रूप पौराणिक ज्योतिकूट से अपना पर्याप्त साम्य रखता है इस सूक्त में कमला या लक्ष्मी का जो स्वरूप प्रतिपादित है, उसे ही बाद में गजलक्ष्मी के रूप में अंकित किया गया । इसके प्रमाण मरहुत और साँची के बौद्ध शिल्प में देखे जा सकते हैं।

प्रवर्तीकाल में इसने मूर्ति का रूप ले लिया और लोक स्तर पर परमात्मा के नारी स्वरूप की मूर्तियां पूजी जाने लगी। वैदिक अदिति ओर सरस्वती मंत्र एवं यज्ञ के माध्यम से उपस्थित होती थी। इसे ही बाद में शाक्त उपासकों ने चक्रिका के रूप में पूजा। ये चक्र वस्तुतः एक प्रकार के प्रारम्भिक मंडल या यंत्र होते थे। जिनके बीच में ज्यादातर एक बड़ा छेद होता था और अन्दर की परिधि और किनारों पर वृक्ष विशेषकर ताल वृक्ष, देवी की रूढ़िबद्ध मूर्ति, पशु-पक्षी और मंगल चिन्ह भी उकेरे गए मिलते हैं। पुरातत्त्वविदों ने इन्हें तक्षशिला, रोपड़, दिल्ली, मथुरा वाराणसी, पटना आदि स्थानों से प्राप्त किया है और इनकी तिथि तीसरी शती पूर्व से लेकर पहली शती पूर्व तक आँकी है।

वेदों से विकसित हुए ताँत्रिक वाङ्मय की ही भाँति पौराणिक साहित्य में भी शक्ति उपासना का पर्याप्त निरूपण किया गया है। देवी भागवत, मार्कण्डेय और कलिका पुराण में नारी तत्त्व का माहात्म्य एवं उसकी दैवी सम्पदाओं का विवरण भरा पड़ा है। ब्रह्मवैवर्त में भी राधा का सृष्टि की आहृादिनी शक्ति के रूप में चित्रण किया गया है। वैदिक युग से पुराण युग तक परमात्मा के मातृ स्वरूप को पहुँचाने के लिए उपनिषदों का कम योगदान नहीं रहा। केनोपनिषद में उमा को वैदिक प्रधान देवता इन्द्र को ‘ब्रह्म’ का उपदेश देने का श्रेय दिया गया और गायत्री-सावित्री, सरस्वती आदि की उपासना का वृहदारण्यकोपनिषद में स्वतन्त्र रूप वर्णन करके इस भावना को बल दिया। इसे पौराणिक शक्ति उपासना की पृष्ठभूमि में भी स्वीकार किया जा सकता है, जहाँ देवी को सर्वस्व माना गया है। उदाहरण के लिए,सीतोपनिषद में सीता के सम्बन्ध में कहा गया है कि सीता ही विश्व का कल्याण करने वाली है। वे ही सब प्राणियों की उत्पत्ति एवं विनाश का कारण है। वे सर्वदेव स्वरूपा, सर्वलोकमयी, सर्व आश्रयभूता, सर्वकीर्ति सम्पन्न, सर्वधर्म सम्पन्न, सभी पदार्थों और जीवों की आत्मा, सर्वदेव गंधर्व, मनुष्य आदि प्राणियों की स्वरूपभूता है। वे सभी प्राणियों की देहरूपा और विश्वरूपा है।

जनमानस में परमात्मा के नारी रूप ने इस भावना का रूप लिया, तब इसकी उपासना व्यापक रूप से की जाने लगी। मातृ उपासना का निरूपण अधिकाँशतः इसके भयनिवारिणी व शत्रुविनाशिनी गुणों से हुआ है। वैदिक युग में जो स्थान अदिति को प्राप्त था, पौराणिक युग में वही स्थान आदि को मिला। देवों के सम्मिलित तेजाँश को धारण करने वाली दुर्गा को भी इसी का रूप माना गया। जिस शक्ति में समस्त देवताओं का तेज सम्मिलित हो, उसकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। अतः देवी को देवताओं की अपेक्षा अधिक सम्मानित स्थान दिया गया है।

प्रथम शती ईसवी में देवी के स्वरूपों का और अधिक विस्तार हुआ। इसी समय से फलकों पर द्विहस्ता, चतुहस्ता के रूप में महिषासुर को गला घोटकर मारती हुई महिष मर्दिनी के अंकन की प्रथा शुरू हुई। प्रारम्भिक मूर्तियां गठन में ग्राम्य रही, लेकिन बाद में इनमें परिष्कृति आ गयी और इसमें वाहन के साथ सिंह भी जुड़ गया। इसी के साथ सिंहवाहिनी दुर्गा पूजित हुई। सिंहवाहिनी दुर्गा एवं पुरुष देवताओं को शक्तियों के रूप में मातृकाओं की उपासना भी प्रचलित हुई। ये मातृकाएँ थी, ब्रह्माणी, महेष्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा। इस युग में यह विश्वास प्रचलित हो चुका था कि पुरुष देवताओं की क्षमता का मूल स्त्रोत उनकी शक्ति है, जो देवी तत्त्व या मातृतत्त्व से अभिन्न है। पुरुष का देवत्व पूर्णतः महाशक्ति की कृपा पर आधारित है।

इतिहासविदों का यह भी मानना है कि चतुर्थशती के आस-पास परात्पर परमेश्वर को ‘माँ’ के रूप में जन-जन में पूजा जाने लगा था। पौराणिक कथानक अब तक विधिवत शाक्त दर्शन का रूप ले चुके थे। यही नहीं शक्ति तत्त्व की रहस्यमयता एकेष्वरीवाद का रूप धारण कर चुकी थी। इसी महाशक्ति का दस भिन्न रुपों में दस महाविद्याओं के रूप में भी वर्णन हो चुका था। इन सभी महाविद्याओं की और उनकी नित्याअसें की कल्पना, मात्रा, वर्ण उनके आयुधों, मंत्रों तथा स्वरूप की प्रतीकात्मकता से जुड़े हुए है। षोडशी, त्रिपुरा, भुवनेश्वरी, मातंगी, लक्ष्मी एवं बगलामुखी श्रीविद्या समूह की देवियाँ है। जबकि काली, तारा, धूमावती तथा छित्रमस्ता काली कुल से सम्बद्ध है। इनमें प्रत्येक के अपने आवरण के देवी-देवता है। जिनका उपासक यंत्रादि पूजा में आह्वान करते हैं। इसके अलावा अनेक योगिनियों डाकनियों, यक्षिणियों, विद्याचारियों आदि अलग विद्याओं और समूहों से और तन्त्राचारों से ये साधनाएँ जुड़ी है।

यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि श्री विद्याकुल की देवियाँ-मनोहारी, सौंदर्य, तारुण्य एवं अनूठी कान्ति धारिणी है। जबकि काली कुल की देवियाँ तेजस्वी तथा द्युतिमान होने पर भी मानवीय कल्पना के सौंदर्य से परे है। उनमें भयावहता, अनन्तता, नग्नता है। पर उन सभी में निस्सीम करुणा भरी हुई है और अपनी सन्तानों के लिए अनुग्रह द्वार खले हुए है। उनके साधन का मुख्य स्त्रोत वैराग्य है, जिसका प्रतीक श्मशान है। त्रिपुरा,राजराजेश्वरी, भुवनेश्वरी आदि श्री कुल की देवियों या दुर्गा, सरस्वती आदि देवी स्वरूपों के लिए ऐसा साधना विधान नहीं है।

परमात्मा की मातृ रूप में उपासना की स्वीकारोक्ति बौद्धों में भी है। सेक्कोपदेश टीका में वाराही, नारायणी ब्राह्मी, परमेश्वरी आदि का नाम आता है। वज्रयान साहित्य को पढ़ने से लगता है कि इन देवियों की उपासना मंत्रों और मूर्ति सहित प्रचलित हो गयी थी। हृनसाँग ने लिखा ने लिखा है कि नालन्दा में तारा और हारीति की उपासना होती थी। बौद्ध धर्म में शाक्त तत्त्वों के प्रवेश का श्रेय ‘गह्मसमाज तन्त्र ग्रन्थ’ को है। जिसमें पाँच ध्यानी बुद्धों और उनकी शक्तियों का उल्लेख है। बौद्धों ने आदि शक्ति को ‘प्रज्ञा पारमिता’ का नाम दिया। ये ज्ञान और बुद्धि प्रदान करने वाली है।

हिन्दू और बौद्ध तन्त्रों में कोई विशेष भेद नहीं है। बस यूँ कह सकते हैं कि सिर्फ शब्दों का अन्तर है। धना पद्धति भी प्रायः एक जैसी है। हिन्दुओं में जैसे विश्व-शक्ति का जोड़ा है, वैसे ही बौद्धों में तार (बौद्ध ओंकार को तार भी कहते है) तारा का युग्म है। तारा के सम्बन्ध में 33 संस्कृत ग्रन्थ उपलब्ध बताए जाते हैं। ये तारा महायान सम्प्रदाय की है। हीनयान सम्प्रदाय में ‘मणिमेखला देवी’ की उपासना होती है। बौद्धों के वज्रयान सम्प्रदाय से विकसित हुए नाथ सम्प्रदाय ने भी शक्ति उपासना के महत्त्व को स्वीकारा है। मत्स्येन्द्र नापथ के ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रन्थ में इस सत्य के पर्याप्त संकेत मिलते हैं। इसके अतिरिक्त ‘सिद्ध सिद्धान्त पद्धति’ में पाँच शिव और पाँच उनकी शक्तियों का नाम आता है- अपरशिव परमशिव, शून्यशिव, निरन्जनशिव और परमात्मशिव की क्रमशः शक्तियाँ है, विजाशक्ति, पराशक्ति, अपराशक्ति, सूक्ष्माशक्ति और कुण्डलिनीशक्ति। नाथ पंथ में परमात्मा के मातृस्वरूप की कुण्डलिनी शक्ति के रूप में उपासना करने का विशेष प्रावधान है।

बौद्ध धर्म, नाथ पंथ की तरह ही जैन साधकों ने भी शक्ति उपासना को श्रद्धापूर्वक अपनाया। जैन धर्म में 24 तीर्थकर माने जाते हैं। उनके बायीं ओर शासन देवी का निवास है। इन शासन देवियों की संख्या भी 24 ही है। इनमें से चक्रेष्वरी, अम्बिका, पद्यावती 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की शासन देवी है। इनके स्वतन्त्र मन्दिर और पूजा विधान बताए गए है। इनको त्रिपूर, भैरवी, त्रिपुरा, नित्या, तोतला, त्वरिता और कामसाधिनी नाम से भी पुकारा जाता है। इनकी विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ मिलती है। जिनमें दो, चार, आठ, बारह, बाईस और चौबीस भुजाएँ प्रदर्शित की जाती है।

अम्बिका नेमिनाथ तीर्थंकर की शासन देवी है। जैन पुराणों में उनका विस्तृत वर्णन मिलता है इनके भी अलग मन्दिर, पूजा विधान और स्त्रोत आदि उपलब्ध हैं गौरी से इनकी तुलना की जाती है। गौरी के दो पुत्रों गणेश और कार्तिकेय की ही भाँति इनके भी दो पुत्र है। दोनों का वाहन सिंह है। चक्रष्वरी आदिनाथ ऋषभदेव की शासन देवी है। इनके वाहन स्वरूप व आयुध वैष्णवी और नारायणी और नारायणी से मिलते-जुलते हैं। सिद्धायिका चौबीसवें तीर्थकार भगवान महावीर शासन देवी है। अपराजिता और कामचण्डालिनी भी इनके नाम है। इनका वर्ण श्याम और दिगम्बरी है। जैन पुराणों में इन्हीं चार शासन देवियों को प्रमुखता दी गयी है।

जैनधर्म ईश्वर की सत्ता को भले प्रत्यक्षतः न माने, लेकिन उसके मातृ स्वरूप की किसी न किसी रूप में श्रद्धासिक्त हो उपासना करता है। जैन कवियों ने शक्ति सम्प्रदाय के ‘सारस्ववतकल्प’ को माना है। सिद्ध सारस्वताचार्य श्री बालचन्द्र सूरि ने अपने महाकाव्य बसन्त विलास के आरम्भ में शक्ति पद्धति को स्वीकार किया है। वह अपनी दिव्य कवित्व शक्ति का श्रेय सरस्वती देवी की उपासना को ही देते हैं। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों श्वेताम्बर और दिगम्बर में शक्ति की उपासना का प्रचलन है। उनकी मान्यताओं में भिन्नताएँ हो सकती है किन्तु भाव में भिन्नता नहीं है।

भावों की यह एकात्मता बताती है कि माँ की गोद में जन्में मनुष्य ने जब धरती पर अपने पहले पग रखे तो उसे भी माँ कहा। चतुर्दिक् दिखने वाली प्रकृति को भी उसने माँ कहकर ही पुकारा और समस्त सृष्टि के रचनाकार परमेश्वर को भी छलकती भावनाओं के साथ मातृ रूप में ही आह्वान किया। यही कारण है-वैदिक काल से प्रचलित मातृ उपासना पद्धति पौराणिक काल में फली-फूली। बौद्ध और जैन धर्मों ने भी इसे अपनाया। नाथ व सिद्ध सम्प्रदायों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और जब समूचा युग संकटापन्न हो जीवन-मरण के संघर्ष को झेल रहा, तब ऐसे में अनन्त करुणामय परमेश्वर माँ की ममता लेकर युग शक्ति गायत्री के रूप में अवतरित हुआ है। वेदमाता गायत्री अपनी सभी सन्तानों में मातृ शक्ति के प्रति श्रद्धा जाग्रत करने, नवयुग को नारी युग में बदलने के लिए संकल्पित हो उठी हैं उनके इस संकल्प में भागीदार बनने वाले ही उनके अनुदानों का मनचाहा लाभ उठा सकेंगे।

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