
वैज्ञानिक अध्यात्म पर आधारित होगा नव्य समाज
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सब ओर कुछ नया होने की अभिलाषा है। पुरानी विचारधाराओं जीवन-मूल्यों को भी अपने नवीनीकरण की प्रतीक्षा है। सुविख्यात विचारक प्रिंस क्रोपाटिकन के अनुसार यह प्रतीक्षा इस बात का द्योतक है कि पुरातन के गर्भ से नवीनता जन्म लेने जा रही है। उन्होंने अपनी पुस्तक क्रान्ति की भावना में क्रान्ति के तथ्यों का विश्लेषण करते हुए बताया है कि युग की प्राचीनता के दरकने-टूटने का अर्थ है-नवयुग के जन्म की घड़ी आ गयी। अब नए समाज का जन्म नक्षत्र उदित होने को है।
किसी भी समाज का जन्म भले ही किन्हीं स्थितियों-परिस्थितियों के कारण होता दिखाई दे। पर उसका वास्तविक गर्भाशय कोई न कोई विचारधारा अथवा चिन्तन प्रणाली होती है। इसी की ऊर्जा से नवसमाज के भ्रूण को पोषण मिलता है, उसमें परिपक्वता आती है। बाद में भी उसी विचार-प्रणाली से जन्मी प्रथा-परम्पराएँ इसका विस्तार करती हैं जन्म लेने वाले समाज के जीवन की दीर्घता, सबलता और सुदृढ़ता अपनी जन्मदात्री विचारधारा के अनुरूप ही होती है। समाज की व्यापकता एवं विस्तार भी इसे जन्म देने वाली चिन्तन प्रणाली की समग्रता के अनुरूप ही होती है।
संसार की प्राचीन सामाजिक समस्याओं का अवलोकन करें तो तथ्य खुद-ब-खुद स्पष्ट होते जाते हैं। यूनान की प्राचीन सामाजिक संरचना की बनावट में सुकरात, अरस्तू, डेमोकिक्रटस, हैराक्लाइटस की कारीगरी स्पष्टतया देखी जा सकती है। यही सत्य मिश्र एवं सुमेरियन सभ्यता में भी देखने को मिलते हैं। सप्त सिन्धु के किनारे उपजा भारतीय समाज भी अपने प्राचीन ऋषिगणों की विचारधारा के संरक्षण में पालित-पोषित हुआ है।
प्राचीन विचारधाराएँ विभिन्न भौगोलिक अंचलों में पनपी थी। यदि उन्हें एक स्थान से भी ले जाया गया हो, तो भी उन्होंने वहाँ पहुँचकर अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप स्वरूप धारण कर लिये। अभी दो हजार वर्षों पूर्व भारतवर्ष में जन्मी महात्मा बुद्ध की चिन्तन प्रणाली, यही से चीन, जापान, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया आदि अनेक देशों में गयी। और जाने के साथ ही अपनी मौलिक विशेषताओं को बनाए रखने के बावजूद वही के अनुरूप ढल-बन गयी। आज यदि विभिन्न देशों में फैले बौद्ध समाज की रीति-रिवाजों, प्रथा-परंपराएं, कर्मकाण्डों, पर्वों-त्यौहारों, का विवेचन-विश्लेषण करें, तो उनमें परस्पर काफी बड़ा फर्क देखने को मिलता है। ऐसा ही फर्क अन्य चिन्तन प्रणालियों से उपजी दूसरी सामाजिक संरचनाओं में भी है।
उन्नीसवीं सदी से प्रारम्भ हुई वैज्ञानिक क्रान्ति ने मनुष्य के चिन्तन और जीवन में भारी उलट-फेर कर दी। तर्क एवं प्रयोगों ने जहाँ भावुकता एवं आस्था परायण चिन्तन शैलियों को सकते में डाल दिया, वही द्रुतगामी संचार एवं परिवहन के साधनों में भौगोलिक सीमा रेखाओं को एक-दूसरे से मिला दिया। विचारों और साधनों के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित होने लगने से स्थितियाँ बदल गयी। ऐसे में प्राचीन मूल्यों एवं मानदंडों का टूटने-दरकने लगना स्वाभाविक है।
इसकी शुरुआत न्यूटन की याँत्रिक जीवन दृष्टि से हुई। यन्त्र विज्ञान की सबसे बड़ी विभूति सर आइजक न्यूटन ने यूँ तो अपनी खोजें यान्त्रिक जगत के लिए की थी। लेकिन इनका विश्वास था कि यान्त्रिकता के नियम, कानून चिन्तन एवं जीवन में भी लागू किए जा सकते हैं। और हुआ भी यही, जीवन और समाज धीरे-धीरे याँत्रिक व्यवस्था में ढलने लगा। वैसे सर न्यूटन की यह सोच कोई नई बात नहीं थी। पहले भी प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का विश्वास था कि सामाजिक एवं राजनैतिक सम्बन्धों तथा बाहरी दुनिया के बारे में सोचने के तौर-तरीकों में गहरा सम्बन्ध है। हइराक्लीइटस के संघर्ष एवं तनाव के सिद्धान्त समाज में लोगों पर भी लागू होते हैं। डेमोक्रिटस एवं एविक्यूरिस ने पृथ्वी को केन्द्र-बिन्दु के रूप में देखा, जिसके चारों ओर ग्रह-नक्षत्र, तारोँ को गतिमान बनाने वाले ईथर का भँवर है। उसने अपने तत्कालीन समाज में इसे सामाजिक परिवर्तन के लिए एक महत्त्वपूर्ण नियम की मान्यता दी।
हालाँकि बाद में हुई खोजें इन सिद्धान्तों को बदलती, सुधारती रही। लेकिन एक बड़े समय तक रहे इन प्रभावों से कोई इन्कार नहीं कर सकता है। बअब न्यूटन की ही खोज को ले लें, इन्हीं को अ धार बनाकर फ्राँसीसी चिन्तकों ने इतिहास और अध्यात्म के प्रश्नों के हल ढूँढ़ने के प्रयास किए। इसी वैज्ञानिक दृष्टि से धर्म को भी नए सिरे से प्रतिपादित करने की कोशिश चल पड़ी । इन कोशिशों को देखकर मधुर व्यंग्य करते हुए अमेरिकन दर्शनशास्त्री जियोरजियो डि सेन्टिलाना ने कहा था, “ये लोग इसी प्रकार एक धर्म बनाने की कोशिशें कर रहे है, जैसे इन्होंने इमारतें, पुल, एवं मशीन बनायी है।” कुछ भी हो, न्यूटन की याँत्रिक जीवन दृष्टि का असर काफी व्यापक रहा। उनके तीनों गति नियम-अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में लगभग प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चिन्तकों के लिए आदर्श बने रहे।
थामस हाब्स, जाँन स्टुअर्ट मिल, जानलाँक इन सभी ने नवीन याँत्रिक भौतिक शास्त्र से प्रेरित होकर अपने चिन्तन की कड़ियाँ जोड़ी और अपनी राजनैतिक एवं सामाजिक रचनाओं को प्रस्तुत किया। दर्शनशास्त्री लाँक तो न्यूटन से इतना प्रभावित थे कि स्वयं न्यूटन के आधीन काम करने वाला मजदूर बताने में गौरव अनुभव करते थे। उडम स्मिथ ने भी याँत्रिकी सिद्धान्तों से प्रभावित होकर स्वतन्त्र बाजार, वित्तीय व्यवस्था तथा श्रम विभाजन के सिद्धान्त बनाए है। ‘सोशियोलाँजी’ शब्द के जन्मदाता आगस्ट काँमटे ने भी इसी से प्रभावित होकर समाज विज्ञान को पहले-पहल सोशल फिजिक्स (समाज भौतिकी) कहा।
न्यूटन के अनुसार समूची दुनिया छोटे-छोटे अणुओं से बनी है। इनके बीच आकर्षण, विकर्षण का क्रम चलता रहता है राजनैतिक और सामाजिक चिन्तकों ने इसी सूत्र का छोर पकड़कर अपने विचारों में मनुष्यों के आपसी व्यवहार की व्याख्या कर डाली। उनके अनुसार, व्यक्ति सर्वथा अपने हितों की रक्षा करने वाली राह ही चुनता है और इसी के परिणामस्वरूप टकराहट या संघर्ष अथवा विकर्षण का जन्म होता है। आकर्षण तो तभी सम्भव है जब दो व्यक्ति अपने पारस्परिक हितों को पूरा करें, हालाँकि ऐसी स्थिति बहुत कम आती है।
न्यूटन के इसी याँत्रिक भौतिकवाद ने औद्योगिक एवं तकनीक संस्कृति को जन्म दिया। बदलते समय के अनुसार यान्त्रिक जीवन दृष्टि में जैसे-जैसे संशोधन और विकास होता रहा, औद्योगिक एवं लोकतान्त्रिक फलती-फूलती गयी। पश्चिमी व्यक्तिवाद एवं लोकतान्त्रिक संरचना दोनों ने ही इसी से अपने-अपने अस्तित्व को बनाए रखने के कारण ढूँढ़े। आज हमें जो सामाजिक संरचनाएँ दिखाई पड़ रही है, उसके पीछे यही रहस्य सक्रिय है।
यान्त्रिक जीवन दृष्टि ने मानव समाज को कतिपय सुविधाएँ पहुँचायी है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस व्यवस्था की सब से बड़ी खामी भावनाओं को सर्वथा इन्कार कर देती है। यन्त्रीकरण ने मनुष्य और प्राकृतिक जगत के बीच गहरी खाई खोद दी। प्रकृति को इंसान से बुरी तरह अलग मान लिया। प्रकृति पर विजय प्राप्त करना, उसका भरपूर उपभोग, उपयोग करना मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह गया। जिसके परिणामस्वरूप आज घोर प्राकृतिक असन्तुलन दिखाई पड़ने लगा। पर्यावरण चीत्कारने लगा और पूरी की पूरी प्राकृतिक व्यवस्था चरमरा उठी।
बात यहीं तक सीमित नहीं रही। यान्त्रिक दृष्टि से उपजी औद्योगिक सभ्यता में जीने वाला इंसान भी एक यन्त्र बन गया। उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्बन्धों तथा उसकी आध्यात्मिक पासा की अनगिनत यंत्रों के बीच पिसना पड़ता है। बस चारों ओर एक ही धुन रह गयी है अधिक से अधिक कमाई? क्यों और किसलिए? इसे सोचने को किसी को फुरसत नहीं है। तभी तो आज की इस सामाजिक दशा पर आश्चर्य एवं दुख प्रकट करते हुए सुविख्यात विचारक टामस बेरी को कहना पड़ा-”मानव मस्तिष्क इतने संकीर्ण दायरों में कभी नहीं रहा। सच तो यह है कि यान्त्रिक व्यवस्था में विचारशीलता एवं भाव प्रवणता का कोई स्थान ही नहीं है। उसे यह तक मालूम नहीं है कि मनुष्य का जीवन और विचार ब्रह्माण्ड में कहाँ और कैसे उत्पन्न हुए।”
लेकिन अचानक अपने विकास के चरम तक पहुँच चुकी इस यान्त्रिक जीवन व्यवस्था में चारों ओर से दरारें पड़नी शुरू हो गयी। सत्य के पीछे विज्ञान के वे नये अन्वेषण है जिन्होंने यान्त्रिक सिद्धान्तों को गया-गुजरा और बीते समय की बात करार दे दिया है। इन नए अन्वेषणों की पृष्ठभूमि तो उसी समय बन गयी जब युगाचार्य स्वामी विवेकानन्द ने मानव सभ्यता को भविष्य का बोध कराते हुए कहा था- “कि अब विज्ञान को आध्यात्मिक होना पड़ेगा और अध्यात्म को वैज्ञानिक। वेदान्त नए युग के समाज का वैचारिक आधार बनेगा।”
उनकी इस वक्तृता के कुछ ही दिनों बाद सुविख्यात भौतिकशास्त्री वारनर हाइजेनवर्ग भारत आए। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से वेदान्त के सूत्रों को समझना था, ताकि वे इसे अपनी अगली खोजों का आधार बना सकें। अपनी इस सफल यात्रा के बाद उन्होंने अनिश्चितता के सिद्धान्त की खोज की फिर तो समूचे विज्ञान जगत में क्रान्ति उठ खड़ी हुई। क्वाँटम आदि की नयी धारणाएँ प्रकाश में आयी। इन अन्वेषणों के प्रभाव से विश्व भर के विचारशील, साहित्यकार यह सोचने के लिए विवश हुए कि दुनिया के सारे भेद विवश हुए कि दुनिया के सारे भेद मिथ्या है। कोई भी वस्तु पदार्थ अथवा व्यक्ति एक-दूसरे से अलग नहीं है। समूचे विश्व में एक चेतन सत्ता की लहरें तरंगित हो रही है।
अपनी इस अनुभूति को शब्द देते हुए मनीषी एल्विन टाफ्लर ने भविष्यवाणी की, मशीनी युग अब समाप्ति की कगार पर है। इसकी छवि अब हमें आकर्षित नहीं कर सकती। न ही यह हमारी संस्कृति क्रान्ति उठ खड़ी होगी, जो मनुष्य को वैयक्तिक एवं सामाजिक स्तर पर जीने का तरीका सिखाएगी। इस तरह की क्रान्ति की आवश्यकता एवं उपयोगिता बताते हुए एडबर्ड डिबोरी का अपनी पुस्तक ‘हैण्डबुक फाँर द पाजिटिव रिवाँल्यूशन’ में कहना है कि सकारात्मक सामाजिक क्रान्ति के हथियार मशीनों की खड़-खड़ और बारूद के धमाके नहीं, मानव की मूल वृत्तियों एवं विचारों में बदलाव है। मशीनों की भौतिक शक्ति भी तभी कारगर साबित होगी, जब मानव अपने गुणों में परिवर्तन करे।
विज्ञान की क्वाँटम धारणा के आधार पर नये समाज की कल्पना करने वालों में दाना जोहर एवं इयान मार्शल मुख्य है। उन्होंने विचारों के प्रतिपादन में एक पुस्तक लिखी है ‘क्वाँटम सोसाइटी’। इसमें उन्होंने नवयुग के समाज की ऐसी कल्पना की है, जो वैज्ञानिक होते हुए आध्यात्मिक तत्व चिन्तन के प्रमुख सूत्र एकात्मकता, व्यापकता एवं सामंजस्य को अब विज्ञान ने भी खोज लिया है। भावी समाज में विज्ञान की उपलब्धियाँ मनुष्य में एक ऐसे चिन्तन को प्रदीप्त करेंगी जो आध्यात्मिक भावों से भरा होगा। आज की टूटती-दरकती व्यवस्था से सब और कुछ ऐसा नया जन्म लेगा जहाँ पराएपन की अनुभूति न होगी।
उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में स्वयं के विचारों की
अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि नवयुग के नये समाज के सदस्य एक नृत्य मण्डली की तरह रहेंगे। जो लय और ताल की तरह अपने विचारों और भावनाओं में पूर्ण सामंजस्य बरतेंगे। ऐसे समाज की जड़े गहराई तक समस्त प्रकृति, वृक्ष, वनस्पति, नदियां, पर्वत, सूर्य, चन्द्र समूचे भूमण्डल, तारा-मण्डल ही नहीं आत्मिक सत्य तक भी जुड़ी होगी। उनका मानना है कि जब न्यूटन की धारणाओं ने सब ओर समूची जीवन की व्यवस्था को बदलाव न ला दे। इक्कीसवीं सदी में वैज्ञानिक अध्यात्म पर आधारित नव्य समाज की भव्य संरचना सुनिश्चित है। इसका विस्तार सब ओर सब कही होगा। इसी के प्रभाव से जाति, वर्ग, प्रथा-परम्पराओं, रीति-रिवाजों, सामाजिक एवं राजनैतिक स्थितियों में नया ही नया नजर आएगा। अच्छा हो नवयुग के आगमन की इस सुनिश्चितता को समझकर हम भी अपना नवीनीकरण कर डालें। स्वयं में देवत्व एवं धरती पर स्वर्ग के विस्तार के प्रयत्नों में जुट जाएँ।