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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जागरुकता सदा अनिवार्य

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शत्रु प्रत्यक्ष हो और लड़ाई आमने-सामने लड़ी जा रही हो, तो उसमें समयानुसार रणनीति बदलने और प्रतिपक्ष से निपटने की सुविधा बनी रहती है, साथ ही समय-समय पर युद्ध का मूल्याँकन भी होता रहता है और यह पता चलता रहता है कि दोनों में से किसकी स्थिति कमजोर अथवा मजबूत है। किन्तु समर यदि परोक्ष ही और आक्रमण प्रच्छन्न, तो मुकाबला कठिन हो जाता है। उसमें पराजय एवं मृत्यु की शत-प्रतिशत संभावना बनी ही रहती है। यह युद्ध मनुष्य-मनुष्य अथवा मनुष्य-जन्तु के बीच हो सकता है, पर कई बार तत्परता के कारण सुनिश्चित मौत टल भी जाती है। इसे कहते हैं मौत के मुँह से वापस आना।

ऐसी ही एक घटना का विवरण अमेरिका के प्रसिद्ध शिकार कथा लेखक हेनरिक वून ने अपनी पुस्तक ‘मेमोयर्स ऑफ ए हण्टर’ में दिया है। प्रसंग उनके जीवन से संबंधित हैं उल्लेख के अनुसार वे स्वयं भी एक शिकारी थे और शिकार का उन्हें बड़ा शौक था। जंगलों में जाकर शेर-चीतों से आमना-सामना करना उन्हें बहुत भाता था। ऐसे अनेक रोमाँचकारी क्षण उनके जीवन में उपस्थित हुए थे, जब साक्षात् मृत्यु ही सामने आ खड़ी हो। पर हर बार वे अपनी अद्भुत साहसिकता और विलक्षण बुद्धि कुशलता से बचते रहे। इतने पर भी मौतें से खेलना छोड़ा नहीं।

उनने सुन रखा था कि श्रीलंका के सघन वनों में हाथी प्रचुर संख्या में है एवं वहाँ उनका आखेट सरलता से किया जा सकता है। यही लोभ उनकी वहाँ खींच ले गया। जब वे वहाँ पहुंचे, तो पहले तो वहाँ के निवासियों की धनलोलुपता से उनका पाला पड़ा। वे येन-केन प्रकारेण उन्हें ठग लेना चाहते थे। सबने उन्हें धनवान समझ रखा था, इसलिए उनके आगे-पीछे हर समय चक्कर काटते रहते। बड़ी मुश्किल से हेनरिक उन्हें यह समझाने ने सफल रहे कि वह एक निर्धन आदमी है और यहाँ हाथी के शिकार के निमित्त आये है। जब सभी को इस बात का विश्वास हो गया कि सचमुच वह एक गरीब व्यक्ति है, तो अधिकाँश समय वहाँ पड़े रहना सबने व्यर्थ समझा। इस प्रकार इन लोभियों से उनका पिण्ड छूटा।

अब वे अपनी शिकार की योजना बनाने लगे। उन्हें यह भलीभांति ज्ञात था कि लंका के जंगलों में शिकार करना कोई सामान्य बात नहीं है। वहाँ की अपनी असुविधाएँ और कठिनाइयाँ है। सभी को झेलने के लिए वे स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर चुके थे। वहाँ चीतों की चिंघाड़ इतनी भयानक होता कि निर्भीक व्यक्ति के प्राण जुबान तक आ जाते। वहाँ के भालू कदाचित सबसे खूँखार है। वे चीतों से भी टक्कर देने में नहीं हिचकते। अजगर तो जगह-जगह कुण्डली मारे दिखाई पड़ जाते हैं। घने वन में प्रवेश करने के उपरांत वृक्षों की डालियों से लम्बी-लम्बी हिलती-डुलती रस्सियाँ लटकती दीख जाएँ, तो यह सामान्य बात है। वास्तव में यह रस्सियाँ नहीं, 25-30 फुट लम्बे बोआ सर्प होते हैं। पर प्रथम दृष्टि में वे दर्शकों में रस्सी होने की भ्रान्ति पैदा करते हैं जंगली भैंसों और हाथियों की भी यहाँ कमी नहीं। इन सब से हेनरिक परिचित थे और किसने कहाँ सामना हो सकता है? यह भी मालूम था एवं ऐसे वक्त बचाव के क्या उपाय करने चाहिए? इसकी भी भली-भाँति जानकारी था। सिर्फ एक ही बात से वे अनभिज्ञ थे कि जिस क्षेत्र में वे शिकार हेतु जाना चाहते हैं, वहाँ जोंक बहुतायत में है और हाथी समेत दूसरे वन्य जन्तु भी उनके शिकार बन जाते हैं।

यात्रा आरम्भ हुई। कोलम्बो से रेल द्वारा सफर कर ओपानेक पहुँचे। वहाँ से बस द्वारा रत्नपुरा और फिर एक निकटवर्ती गाँव में। उक्त गाँव के लोगों द्वारा हेनरिक को समीपवर्ती जंगल में हाथियों के एक झुण्ड का पता चला। उनने निश्चय किया कि पहले उनका सही-सही स्थान पता लगा लिया जाय,फिर अभियान की तैयारी की जाय। यह विचार कर उसी गाँव के एक ग्रामीण को अपने साथ लेकर वह चल पड़े।?

बरसात का महीना था। पर उस दिन मौसम साफ था, अतः प्रातः ही निकलने का कार्यक्रम बना। हेनरिक, वहाँ का एक ग्रामवासी पूरन तथा उसका कुत्ता-मामूली सामान तथा बरसात में बचने के लिए तम्बू आदि लेकर निकल पड़े। हाथियों की खोज में वे घने जंगल में पहुँच गये। शाम हो चुकी थी, तभी घनघोर आरम्भ हो गई। निरुपाय हो उन्हें अपनी खोज-यात्रा स्थगित करनी पड़ी। वे सब जंगली झाड़ियों के नीचे आ गये और बरसात से बचने की कोशिश करने लगे। किन्तु वृष्टि इतनी तेज थी कि उनका वह प्रयास एकदम निरर्थक साबित हुआ। तमिस्रा भी गहरा गई थी। अब वहाँ से निकल पाना गया। थोड़ी देर पश्चात् बरसात कुछ धीमी पड़ी तो हेनरिक और पूरन ने मिल एक सघन वृक्ष के नीचे अपना तम्बू खड़ा किया और आग जलाकर सो गये।

प्रातः जब हेनरिक की आँखें खुली, तो उदयाचल से भगवान भास्कर झाँकने लगे थे। तम्बू पास ही उखड़ा पड़ा था। दिन-भर की थकान से उनको गहरी नींद आयी थी। आँखें अब भी बोझिल हो रही थी, अतः बन्द कर ली, किन्तु तभी पूरन का मन्द स्वर सुनायी पड़ा। वह सहायता की भावना कर रहा था। आवाज पुनः आयी। आँखें खोलकर उसको ओर देखा, तो आश्चर्यचकित रह गये। उसके शरीर से जगह-जगह से रक्त बह रहा था और वह सहाय-सा पड़ा-पड़ा कातर दृष्टि से उनकी ओर देख रहा था।

हेनरिक उड़ने का प्रयास कर रहे थे। पर न जाने क्यों आज उनका भी अंग-अवयव शिथिल पड़ गये थे। थोड़े प्रयत्न के उपरान्त वे उठ बैठे। दृष्टि जब अपने शरीर पर पड़ी, तो वहाँ भी स्थान-स्थान से रक्त-स्राव हो रहा था और जगह-जगह जोंकें चिपकी पड़ी थी, उन्हें एक-एक करके अलग किया। रात में जलायी लकड़ियों में से कुछ अब भी सुलग रही थी, उनमें से एक को उठाकर वे पूरन के शरीर में चिपकी जोंकों से स्पर्श करा-करा कर उन्हें शरीर से पृथक करने लगे। पूरन काफी कमजोरी महसूस कर रहा था। स्वयं उठने में भी कठिनाई हो रही थी। सहारा देकर हेनरिक ने उसको उठाकर बैठाया, फिर बगल में पड़े थैले से शराब की बोतल निकाल कर कुछ शराब उसके मुँह से उड़ेली। इसके बाद दोनों काक ध्यान कुत्ते की ओर गया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था और जीभ बाहर निकली पड़ी थी। उसका शरीर रक्तरंजित हो गया था। उससे भी जोंकें हटायी गयी। पीछे सबने मिलकर भोजन किया। इससे कुछ शक्ति मिली, तो सभी ने वहाँ से प्रस्थान किया।

जोंकों का आक्रमण अब भी जारी था। वे ऊपर-नीचे दोनों ओर से हमला कर रही थी। पेड़ों-झाड़ियों से गिर-गिरकर कमीज के अन्दर घुस पड़ती और चलते समय नीचे जमीन से जूतों और मोजों में प्रवेश कर जाती, जिसके कारण बीच-बीच में रुक-रुककर उन्हें हटाना और निकालना पड़ता। इस कारण भी जंगल से बाहर निकलने में विलम्ब हो रहा था। दूसरे, वे इतने शक्तिहीन अनुभव कर रहे थे कि दौड़ना तो क्या, चलना भी मुश्किल पड़ रहा था, फिर भी जान बचाने की खातिर से किसी प्रकार घिसटते चले आ रहे थे।

गाँव अब भी दूर था। वे उस जानलेवा परिधि से बाहर भी न हो सके थे कि वर्षा पुनः आरम्भ हो गई। उनके लिए यह एक प्रकार से ठीक ही हुआ, कारण कि पैरों की ओर से जो हमला हो रहा था, वह लगभग रुक गया। जोंक पानी के तेज प्रवाह में साथ-साथ बहने लगी। किन्तु ऊपर का आक्रमण अब भी जारी था। वहाँ पर रुकना एक प्रकार से मृत्यु को गले लगाने के समान था। इसलिए बरसात की परवाह किये बिना वे चलते रहे। थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि कुत्ता साथ नहीं है। पीछे मुड़कर देखा तो, वह एक स्थान पर निष्प्राण-सा पड़ा था। दोनों वापस लौटे। जाकर देखा, तो पाया कि उसके सम्पूर्ण शरीर में जोंकें बुरी तरह चिपकी हुई खून चूस रही थी। दोनों ने मिलकर उन्हें शरीर से हटाया, कुत्ते को कुछ खाना खिलाया, और इसके बाद पुनः तीनों चल पड़े। अब वे एकदम आश्वस्त थे कि उनकी जीवन रक्षा हो गयी। कुछ ही पल पश्चात उधर से शोर सुनायी पड़ा। संभवतः लोगों ने उन्हें आते हुए देख लिया था, अतः उस और उनका हाल जानने के लिए भागे चले आ रहे थे। पहली रात नहीं लौट पाने के कारण कदाचित् ग्रामवासी उनके जीवन के प्रति चिन्तित हो उठे थे और व्यग्रतापूर्वक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। अब उन्हें आते देख एकदम आनंद से उछल पड़े और उस ओर बढ़ चले।

आते ही सबने उनकी कुशलता पूछी और कहा कि वे जंगल के गलत दिशा वाले खण्ड में पहुँच गये थे। उसमें जोंकों की इतनी बहुलता है कि वहाँ कोई जीव-जन्तु जीवित रह ही नहीं पाता, सबको वे अपना आहार बना लेते हैं। इस वर्ष मानसून देर से आया है। अतः उनकी संख्या में दुगने की और वृद्धि हो गयी होगी। जहाँ इतनी बड़ी तादाद में जोंकें हो, वहाँ हाथी भला जिन्दा ही कैसे रह सकते हैं। यदि इस क्षेत्र में उन्हें किसी ने देखा भी होगा, तो शायद वे उनके शिकार हो गये। सभी गाँव लौट गये। हेनरिक ने एक सप्ताह के करीब वहाँ विश्राम किया और फिर अमेरिका वापिस चले गये।

एक लोकोक्ति है-”पिये रुधिर पय ना पिये, लगी पयोधर जोंक।” जोंकों को प्यपान प्रिय नहीं, वे रक्तपान ही पसन्द करती है। जिनमें यह जोंकें लग गई, उनका भगवान ही मालिक है। इन प्रत्यक्ष जोंकों को तो फिर भी हटाया-मिटाया जा सकता है, पर जो अप्रत्यक्ष जोंकें-वासना, तृष्णा, अहंता एवं ईर्ष्या, द्वेष के रूप में हमारे अन्दर प्रवेश करती और भीतर-ही-भीतर हमें खोखला बनाती रहती है, उनका क्या किया जाय? उनसे कैसे लोहा लिया जाय? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर हर एक को विचार करना चाहिए। बीच-बीच में तत्परतापूर्वक यदि आत्मा-निरीक्षण करते रहा जाय एवं साथ-साथ यह भी प्रयास जारी रखा जाय कि आत्मा कलुषित न होने पाये, तो काफी हद तक इन अदृश्य जोंकों के अगोचर आक्रमण से बचा जा सकता है। इनमें रक्षा का यही एकमात्र तरीका है। इतनी सतर्कता और जागरुकता में कमी न रह गई हो, तो कोई कारण नहीं कि इनमें बचाव का उपाय न हो तो सके। इसके विपरीत यदि ऐसा न हुआ, तो व्यक्ति का सर्वनाश सुनिश्चित है।

मंगोलिया वासी चाँमशेन नामक न्यायाधीश अफसर के पास उनका एक मित्र पहुँचा और अशर्फियों की थैली भेंट करते हुए बोला-”आप मेरा काम कर दें। इस लेन-देन की बात आपके और मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानेगा।”

चंगशेन कभी किसी से रिश्वत नहीं लेते थे। भले ही अपनी इस आदर्शवादिता के कारण उन्हें अभावग्रस्त जीवन जीना पड़ता था। उन्होंने अपने धनी मित्र को इस बात का उत्तर दिया-”मित्र! ऐसा न कहो कि कोई नहीं देखता। कोई मनुष्य नहीं देखता तो क्या? सर्वव्यापी परमेश्वर तो सब कुछ देखता है-उसकी नजरों से मेरा यह अनैतिक कर्म कहाँ छिपा रहेगा।”

अनीति का उपार्जन महामानव को कभी स्वीकार्य नहीं होता। यही परम्परा वे अपने परिवारों में डालते हैं।

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