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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रेतयोनि होती है, अब तो विश्वास करेंगे न

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First 10 12 Last
हिमालय के इस अंचल ने उनका मन मोह लिया था। कालका-शिमला मार्ग पर स्थित धर्मपुर से पाँच किलोमीटर दूर बसी यह जगह पर्वतीय सौंदर्य से घिरी थी। चीड़-देवारु के वृक्ष, हरियाली की मनोहारी सुषमा को वे अपलक देखते ही रह गए। कुछ पल ठहरने के बाद उनके पाँव छावनी की ओर बढ़ चले। बहुत थोड़ी-सी आबादी वाला यह गाँव उन दिनों पटियाला रियासत में आता था। अभी कुछ ही समय पहले पटियाला महाराज ने इसे अंग्रेजों को उपहार में दिया था। यह अनोखा उपहार देते समय उन्होंने इसका नाम रखा-दाग ए शाही।

इस स्थान की हैरतअंगेज सुंदरता पर मुग्ध होकर अँग्रेज हुक्मरानों ने यहाँ पर फौजी छावनी बनने से गाँव की आबादी में अच्छा-खासी बढ़ोत्तरी हुई, साथ ही गाँव को खूबसूरती के साथ साफ-सुथरा रूप दिया गया। पहाड़ी इलाका होने के कारण ठण्डी हवाओं की ताजगी यहाँ पहले से मौजूद थी। तिस पर सेना की सिलसिलेवार बैरकें, ऑफिसर्स बंगले और काँटेज बन जाने की वजह से जंगल में मंगल होने की उक्ति चरितार्थ हो गयी। यहाँ का पुराना किला अँग्रेजी सेना के अधिकारियों ने जेल में तब्दील कर दिया। यहाँ वे उन लोगों को बन्दी बनाकर रखते थे, जिन्हें राजनैतिक कारणों से या जासूसी करने के सन्देह में गिरफ्तार किया जाता था।

अँग्रेज सैनिक, सेनाधिकारी एवं अँग्रेजी शासन के आला हुकमरानों में इस स्थान की चर्चा सर्वाधिक थी। हर कोई अपना तबादला कर कुद दिनों के लिए यहा रहना चाहता था। दाग ए शाही अंग्रेजी संगति में डाग ए शाही ..................डाग शाही होता हुआ डगशाही और बाद में उगशाई होता गया। मि. वैस्टन भी सेना में उच्च अधिकारी। अभी हाल में ही उनका ट्रान्सफर हुआ था ओर आज ही वे अपनी पत्नी मिसेज रैलेका वैस्टन के साथ यहाँ ज्वाइन करने आए हुए थे। उनकी पत्नी रैलेका अद्भुत रुपसी थी। रूप की इस देवी में मानों सौंदर्य की देवी वीनस का सौंदर्य साकार हो उठा था। डगशाही का सौंदर्य उन्हें पाकर सहस्रगुणित हो गया और वे शाही की सुरम्यता को देखकर अभिभूत हो गयीं।

उन्होंने अपने पति को बाँह को हल्के से दबाते हुए कहा-”यहाँ आकर मुझे तो जैसे मनमाँगें मुराद मिल गयी। अब हम लोग यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य का आनन्द उठाएँगें।” मि. वैस्टन को पत्नी की इस सहज स्वीकारोक्ति पर भारी प्रसन्नता हुई। वे अपने कार्यालय को रवाना हो गए और इस तबादले को वरदान की तरह स्वीकार कर लिया।

दरअसल उन्हें यह ट्राँसफर तो पहले से ही स्वीकार था, परन्तु वे अपनी पत्नी से इस कदर प्यार करते थे कि उसकी इच्छा के बगैर एक कदम भी नहीं चलना चाहते थे। “रैलेका ‘ थी भी इसी लायक। रूप और सौंदर्य की ऐसी आकर्षक मूर्ति, कि जो भी देखे उसे देखता, उसकी सुन्दरता का बखान यशोगान करने लगता और आज जब रूप का सूर्य अपनी सूची आभा के साथ डगश्ज्ञज्ञही की पहाड़ियों पर निकला तो पूरे छावनी क्षेत्र में जैसे उसकी सौंदर्य की सुहानी धूप ही फैल गयी। हर हृदय उजास से भर गया। मि. वैस्टन जब किसी और के मुख से रैलेका के सौंदर्य की प्रशंसा सुनते तो उन्हें जरा भी ईर्ष्या न होती। क्योंकि उन्हें उस पर पूरा यकीन था।

आज यहाँ आकर उन दोनों की अपनी पहली मुलाकात याद आ गयी। जब वे लन्दन के एक रेस्तराँ में पहली बार मिले थे, उस दिन रैलेका अकेली बैठी हुई अपने ही ख्यालों में खोयी थी। उन्होंने बड़ी विनम्रतापूर्ण सादगी से उससे पूछा था, “मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ?”

“अवश्य !” सामने पड़ी एक दूसरी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए रैलेका ने कहा था। फिर कुछ ही देर में दोनों ने एक कुछ ही देर में दोनों ने एक दूसरे का परिचय प्राप्त कर लिया। यह परिचय फिर अनेकों मुलाकातों का स्रोत बन गया। वे एक दूसरे के नजदीक आते गए ओर एक दिन उन्होंने बड़ी ही सादगी पूर्ण भावुकता के साथ रैलेका से कहा-” मैं आपसे शादी करना चाहता हूँ।” उत्तर में रैलेका ने मुसकराकर अपनी मौन स्वीकृति दे दी। उसे भी मि. वैस्टन का भावुक एवं आकर्षक व्यक्तित्व पसन्द था। इस पारम्परिक स्वीकृति के बाद दोनों में वे दोनों विवाह सूत्र में बँध गए। उनके सपनों की दुनिया साकार हो गयी।

आज उनको शादी हुए दो साल से अधिक बीत गए थे। मगर मि. वैस्टन के प्यार में कहीं-कोई किसी तरह की राई-रत्ती कमी न आयी थी। उनका हृदय आज भी उतना ही तरोताजा उन्मादित और उमड़ता हुआ था, जितना पहले दिन अपनी प्रेयसी को देखकर रहा होगा। हिमालय की इस प्राकृतिक सुरम्यता ने तो उन प्रेमी युगल को गोया अपने आँचल की छाया में ले लिया था।

ठण्डा मौसम , चाँदनी रातें और वे दोनों । अँग्रेजी सेना के वरिष्ठ अधिकारी होने की वजह से उनकी आय भी भरपूर थी। सुख-सुविधाओं की कोई कमी न थी। तिस पर एक को चाँद-सी पत्नी हासिल थी, तो दूसरे को बेहद प्यार करने वाला पति। शादी के इतने समय बाद उनका प्यार ज्यों का त्यों बरकरार था। परस्पर आकर्षण में जरा भी कमी न आयी थी। यदा-कदा मि. वैस्टन को यह आशंका जरूर घेर लेती थी कही उनकी सुन्दर पत्नी को किसी की नजर न लग जाए। कहीं कोई उसे नुकसान न पहुँचा दे। यह ख्याल आते ही उनका हाथ स्वयमेव अपनी रिवाल्वर पर चला जाता, लेकिन भला किसकी मौत आयी थी जो अँग्रेजों के शासनकाल में किसी अँग्रेज अधिकारी की पत्नी पर बुरी नजर डालता।

लेकिन एक दिन तो गजब ही हो गया। रैलेका ने सुबी की चाय के वक्त मि. वैस्टन को बताया, “ कोई रात के वक्त बेडरुम की खिड़की से भीतर झाँक रहा था। जब मेरी नजर खिड़की पर पड़ी तो वह एकदम गायब हो गया।”

“असम्भव ! “तुम्हें जरूर धोखा हुआ होगा। बंगले में हर वक्त चार संतरी रहते हैं। इतने सख्त पहले में भला यह कैसे मुमकिन है कि लाँन में दाखिल होकर बेडरुम की खिड़की तक पहुँच जाए ?” मि. वैस्टन ने शान्त स्वर में कहा।

और रैलेका चुप रह गयी। मि. वैस्टन भी कहने को तो इतनी बातें कह गए, लेकिन वे सोच में पड़ गए, आखिर यह हिमाकत करने वाला कौन हो सकता है ?

“चुप क्यों हो गए ? “ रैलेका ने टोका-’कुछ नहीं, बस यूँ ही। तुम अपना ख्याल रखा करो। मैं ऑफिस जाते समय संतरियों को खबरदार करता जाऊँगा।” यह कहते हुए वे उठे और चुपचाप धीमे कदमों से बंगले के बाहर निकल गए।

दो-तीन दिन यूँ ही गुजर गए। हालाँकि श्रीमती वैस्टन यह सोचती रही कि आखिर वह कौन हो सकता है ? हो सकता है उन्हें भ्रम ही हुआ हो।

उस दिन मि. वैस्टन बोले, “मुझे एक-दो दिन के लिए दिल्ली जाना पड़ेगा, हेडक्वार्टर से आदेश आया है। तुम इस बीच अपना ठीक तरह से ख्याल रखना। तुम बिलकुल चिंता नहीं करना। मैं सन्तरियों को खबरदार करता जाऊँगा।”

श्रीमती वैस्टन ने मूक भाव से उनकी ओर देखा। उनके बेहद सुन्दर नेत्र आज उदासी से धूमिल थे। वे कर भी क्या सकती थीं। सेना की नौकरी और फिर मुख्यालय का आदेश । लेकिन अन्दर ही अन्दर किसी अज्ञात भय से वह आशंकित हो उठी। फिर भी घर से दूर जाते हुए पति को किसी भी प्रकार की उधेड़-बुन या चिन्ता में डालना उचित न लगा। उन्होंने हलकी-सी मुसकान के साथ पति को विदा कर दिया।

उसी रात, रैलेका अपने बिस्तर में लेटी कोई पुस्तक पढ़ रही थी। उन्हें झपकी-सी आने लगी। उन्होंने उठकर कमरे की खिड़की भीतर से बन्द कर ली और बत्ती बुझाकर बिस्तर पर आ लेटी। तभी उन्हें लगा, जैसे कोई बेहद प्यार से उनकी ओर देख रहा है। अँधेरे में वह सिहर उठी। भय को अधिकता से वह चीख भी न सकी। कुछ ही क्षण बीते होंगे। उन्हें लगा कि उनसे कोई कह रहा है ,”मैं हूँ तुम्हारा पूर्व जन्म का पति फिलिप। एक बार मैं तुम्हें पूर्व जनम में यहाँ लेकर आया था। यहाँ हुई एक वाहन दुर्घटना मेरी -तुम्हारी मृत्यु हो गयी थी। मैं तभी से यहाँ भटक रहा हूँ, जबकि तुम्हारी आत्मा ने एक अर्से बाद ब्रिटेन में पुनर्जन्म ले लिया है जब से तुम यहाँ आयी हो मुझे तुम्हारा आभास तभी से बराबर मिल रहा था।”

इन बातों से वह सोच में पड़ गयी। इसी बीच कमरे में एक विचित्र-सी सुगन्ध फैलने लगी। जिसका नशा उसके मन-मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। उसका लग रहा था, मानों वह विवश होती जा रही है। फिर भी हिम्मत करके वह बिस्तर से उठ बैठी और लगभग दौड़कर उसने कमरे की बत्ती जला दी ताकि देख सके कि यहाँ आने की हिमाकत करने वाला कौन व्यक्ति हो सकता है ?

लेकिन वहाँ तो कोई भी न था। दरवाजे की चिटकनी अन्दर से पूर्ववत् बन्द थी। खिड़की भी ज्यों की त्यों बन्द दिखाई दी। तब फिर ? क्या वह सचमुच कोई प्रेतात्मा थी ? यह विचार आते ही वह एक बार भय से काँप उठी। फिर बिस्तर पर लेकर सोचने लगी, पति की वापसी में तो अभी एक-दो रोज का समय है, तब तक वह अज्ञात व्यक्ति इसी तरह परेशान करता रहेगा। क्या यह बात किसी से बतानी चाहिए ? लेकिन सुनने वाले तो हमारी ही हँसी उड़ाएँगे। इसी सोच-विचार में डूबी वह न जाने कब सो गयी।

रोज की तरह वह इस सुबह भी अपने समय से उठ गयी। हालाँकि उस अनजाने व्यक्ति का ख्याल उन्हें रह-रह कर विस्मय के दरिया में डुबा देता था। इस बीच नौकरानी भी काम पर आ गयी थी। अपनी मालकिन को सोच में डूबी हुई देखकर उसकी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। चाय की ट्रे सामने रखकर उसने एक प्याला चाय रैलेका के हाथों में थमाते हुए बस इतना ही कहा, “मेम साहब चाय।”

मिसेज वैस्टन चाय का प्याला थामकर चुस्कियाँ लेने लगी। रात के अनुभव से जहाँ वह थकी व टूटी थी, वह एक अजीब-सा आनन्द भी अनुभव हो रहा था। नौकरानी के चले जाने के बाद वह दुबारा अपने बिस्तर पर आ लेटी। बिस्तर पर लेटने से पूर्व उन्होंने ध्यान से दरवाजे की चिटकनी लगा दी। लेटते समय रात के अज्ञात व्यक्ति की याद आते ही उन्होंने मन ही मन सोचा, यदि इस बार ऐसा हुआ तो वह निश्चय ही शोर मचाकर उसे पकड़वा देगी।

“लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती।” किसी ने उनके कानों के पास फुसफुसाते हुए कहा,” मैं एक सूक्ष्म प्राणी हूँ। तुम चाहो तो मुझे प्रेतात्मा कह सकती हो। मुझे पकड़वाने का दण्ड देने के लिए तुम शरीरधारियों के पास कोई साधन नहीं है और फिर मैंने तो तुम्हें को नुकसान भी नहीं पहुँचाया। मैं तो तुम्हारा सान्निध्य पाने के लिए लालायित हूँ।”

इस बार वह तनिक हिम्मत करके झटके के साथ अपने बिस्तर पर बैठ गयी। परन्तु थोड़ी भयभीत भी थी। हाँ फिर वहीं पहली वाली सुगन्ध उनके मस्तिष्क पर हावी होती चली जा रही थी। उन्हें लगा , कोई छाया-सी सिरहाने खड़ी उनसे कुछ कह रही है। वह सोचने लगी, शायद यही प्रेतात्मा हो, तभी तो इसे मेरे मन की बात पता चल गयी। खैर यह चाहें जो भी हो, लेकिन इसका सामीप्य न जाने क्यों उन्हें अजीब से आनन्द से भर देता है। धीर-धीरे उनका भय कम होता चला गया।

अभी भी वह छाया उनसे कह रही थीं, “आखिर मैं तुम्हारे ही मोह के कारण तो प्रेतयोनि में हूँ। फिर यह मोह कुछ गलत भी तो नहीं, मैं तुम्हारे पूर्वजन्म का पति जो हूँ।” अब वह छाया को अपने काफी नजदीक महसूस कर हरी थी। एक आनन्ददायी सुगंध उनके चारों ओर सघन प्रभाव से वह बेसुध हो गयी। जब उनकी चेतना लौटी तो उन्हें लगा, जैसे उनके कोई कर हरा हो “ मैं रात में फिर आऊँगा। इसकी चर्चा किसी से मत करना। तुम्हें कोई नुकसान न होगा और न किसी को पता चलेगा। अच्छा, गुडबाई।” कहकर छाया धीरे-धीर चलते हुए दरवाजे खोले बगैर ही कमरे से बाहर निकल गयी। वह अचरज से उसे देखती रहीं।

इसके बाद तो जैसे यह नियमित का क्रम बन गया। उन्हें उस अज्ञात छाया पुरुष के सान्निध्य की अनुभूति अक्सर होने लगी। जब कभी मि. वैस्टन बाहर होते,यह छाया उपस्थित हो जाती। समय बीतता गया। उन्होंने यह बात किसी को भी नहीं बतायी कि कोई पारलौकिक आत्मा उनसे प्रेम करती है। मि. वैस्टन भी इन दिनों सेना के कार्यों में कुछ अधिक ही मसरूफ रहने लगा। यदा-कदा इस अतिव्यस्तता के कारण उन्हें कुछ अपराधबोध -सा होता। इसी वजह से वह रैलेका से बीच-बीच में कहते रहते, “देखो, इन दिनों जरा अधिक काम रहता है, मैं कोशिश करूंगा कि जल्दी ही इन कामों से छुटकारा पा सकूँ।”

जवाब में रैलेका मुस्कुरा-कर चुप रह जाती। उसने मि. वैस्टन से अभी तक की किसी घटना का जिक्र नहीं किया था। हाँ वह अक्सर अपने जीवन के कई अनजाने पहलुओं पर सोचती जरूर रहती थी। उसे अब यह पता चला गया था कि ‘डगशाही‘ का यह इलाका क्यों पहली नजर में पहचाना-पहचाना सा लगा। उसे अपने पूर्वजन्म की यादें भी ताजा होने लगी थीं। फिलिप के साथ भारत आना, मोटर की दुर्घटना और फिर सब कुछ एक कुहासे में खो जाना।

और अब यह तो क्या पूर्वजन्म प्रेतयोनि, यह सब सच है ? यह सच तो अब उनका रोजमर्रा का अनुभव बन गया था। जिसे वह किसी भी तरह झुठला नहीं सकती थी। पूर्वजन्म की यादें ताजा होते ही वे भी फिलिप की प्रेतात्मा के प्रेम में खोने लगी थीं।

इसी दौरान श्रीमती वैस्टन गर्भवती हो गयी। इस बात का पता चलते ही मि. वैस्टन तो जैसे खुशी से पागल हो गए। वह स्वयं भी माँ बनने की खुशी को जल्द से जल्द हासिल कर लेना चाहती थी। मि. वैस्टन को भी पिता बनने का बेसब्री से इन्तजार था। इसी बीच उन्हें किसी सरकारी काम से ब्रिटेन जाने का हुक्म मिला। आखिर फौज की नौकरी थी, जिसमें आदेश को मानना ही होता है। न चाहते हुए उन्हें इंग्लैण्ड के लिए कूच करना पड़ा।

प्रेतात्मा उनकी अनुपस्थिति में कुछ ज्यादा ही आती थी। इन दिनों हर रात रैलेका के सान्निध्य में रहती और सुबह होने से पूर्व ही चल जाती। रैलेका को भी उसका इंतजार रहने लगा था। अब उसे अपनी नींद पूरी करने के लिए प्रायः दिन में भी सोना पड़ता था। एक रात फिलिप को प्रेतात्मा ने उनसे कहा, “ अब मैं तुम्हारे बगैर ज्यादा दिन नहीं रह सकता। इसलिए मैं तुमको हमेशा-हमेशा के लिए अपने साथ अपने लोक में ले जाना चाहता हूँ।”

“नहीं, अभी नहीं ।” रैलेका ने प्रतिवाद किया, “ जब तक मैं अपने बच्चे को जन्म नहीं दे देती। मैं कहीं भी नहीं जाना चाहूँगी। “ प्रेतात्मा चुप होकर हमेशा की भाँति चली गयी और रैलेका अपने गर्भस्थ शिशु के ख्यालों में खो गयी। लेकिन तभी उसे इस आशंका ने घेर लिया कि यदि फिलिप की प्रेतात्मा ने जबरदस्ती की तो फिर..........मेरा बच्चा। इस ख्याल में डरकर वह मि. वैस्टन को पत्र लिखने बैठ गयी।

“डियर वैस्टन ! मैं बेचैनी से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ। जल्दी वापस आ जाओ। जब तुम वापस आओगे, हमारा घर किलकारियों से गूँज रहा होगा। इधर मेरे सपनों में अकसर एक अज्ञात आत्मा आती है और मैं काफी अर्से से उससे मिलती रही हूँ। बहुत सम्भव है अपने घर के नए मेहमान का चेहरा उसी अलौकिक आत्मा से मिलता-जुलता हो।”

अपने पत्र में आखिर रैलेका ने अपने पति पर प्रेतात्मा के बारे में संकेत कर ही दिया। हालाँकि मि. वैस्टन इसका असली मतलब नहीं समझ पाए। उन्होंने केवल इतना ही समझा कि रैलेका को शायद गर्भावस्था में अजीबो-गरीब सपने आते हैं।

इधर चिट्ठी लिखकर जब वह पोस्ट ऑफिस भिजवा कर अपने बिस्तर पर लेटी। तो कुछ ही देर में फिलिप की प्रेतात्मा उनके कमरे में फिर से हाजिर हो गयी और एंठे स्वर में कहने लगी-”यह तुमने अच्छा नहीं किया। अब तो तुम्हें तुरन्त मेरे साथ चलना ही होगा। इस बार तुम्हारी कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी।”

रैलेका ने पीछे मुड़कर देखा, वहाँ कोई न था। वह घबराहट में पसीने से भीग गयी। थोड़ी ही देर में उनकी तबियत बिगड़ने लगी। पहले उन्हें लगा, जैसे सिर चकरा हरा है। फिर उन्हें साँस लेने में परेशानी होने लगी। उन्होंने बड़ी मुश्किल के साथ जैसे-जैसे कमरे का दरवाजा खोलकर नौकरानी को बुलाया । नौकरानी उनकी आवाज सुनकर जब वहाँ पहुँची , श्रीमती वैस्टन अपने बिस्तर पर लेटी थी। उनकी हालत काफी खराब थी। लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका। सेना के डाक्टर ने भी काफी कोशिशें कीं पर सफल न हो सका।

मि. वैस्टन को अपनी पत्नी की मृत्यु का समाचार जब मिला , तो वह स्तब्ध रह गए। उनके हृदय में पिता बनने की आशा का अंकुर विकसित हो पाने के पहले ही मुरझा गया। इंग्लैण्ड से वापस आने पर उन्हें रैलेका के बक्से में उसकी गोपनीय डायरी मिली। जिससे उन्हें सारी बातों का पता चला। सारी बातें जानकर वह अचरज से भर गए। उन्होंने रैलेका की स्मृति में एक आदमकद मूर्ति बनवायी। इसी के साथ उन्होंने एक चित्र अपने अजन्मे बच्चे का भी बनवाया और रैलेका की कब्र के पास डगशाई के कब्रिस्तान में स्थापित कर दिया। अपनी भवाँजलि अर्पित करते हुए उन्होंने रैलेका की कब्र पर लिखवाया श्रीमती रैलेका वैस्टन एवं अजन्मे पुत्र की स्मृति में जो 10 सितम्बर, 1901 को स्वर्गवासी हुए।

इसे देखने के लिए उगशाई में आज भी दूर-दूर से पर्यटक आते हैं और इस अद्भुत मूर्ति को देखकर सोचते रहते हैं कि अतृप्त कामनाओं को लेकर किस तरह मनुष्य प्रेतयोनि में भटकता रहता है। वासनाहीन हुए बिना न तो शान्ति है, न सद्गति और न ही मुक्ति ।

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