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Magazine - Year 1997 - Version 2

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Language: HINDI
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हमशक्लों के निर्माण की यह भेड़चाल क्या रुक पाएगी ?

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(समापन किश्त)

पौराणिक उपाख्यानों में रघुवंश के युवनाश्व नामक एक राजा का प्रसंग आरण्यकों में ऋषिगण यज्ञ-प्रक्रिया के द्वारा विविध प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोगों में निरत थे।एक ऐसा ही प्रयोग, वे विभिन्न रसायनों के सम्मिश्रण से यज्ञ द्वारा उन्हें पकाकर तथा अभिमंत्रित कर उस मिश्रण में प्राणतत्व पैदा करने के प्रयास के रूप में कर रहे थे। एक प्रकार से उसे अमैथुनी सृष्टि की दिशा में प्रयोगशाला में जीवन-तत्व के निर्माण की दिशा में किया जा रहा शोधकार्य कहा जा सकता है। ऐसे ही प्रयोगों के दौरान आखेट करते हुए राजा भटकते हुए ऋषियों के आश्रम में पहुँचे। विविध रसायनों से भरा एक घड़ा यज्ञ वेदी पर रखा था। प्रयोग अभी अधूरा था। रात्रि में ऋषिगण प्रयोग के बीच विश्राम करने हेतु वहीं सो गए। थके हुए युवनाश्व भी यज्ञमण्डप में वहीं जाकर सो गये। रात्रि में उन्हें प्यास लगी। नजदीक कहीं पानी ढूँढ़ने निकले तो उन्हें यज्ञ कुण्ड के समीप रखा घड़ा दिखाई पड़ा। प्यास रोकने की स्थिति में न होने व संकोचवश ऋषिगणों को न जगाने का विचार मन में रख उनने वही जल पी लिया। जल तो अभिमंत्रित रसायन था। उनकी सुप्तावस्था में वह उनके उदर में एक गाँठ के रूप में बढ़ता रहा। प्रातः उठते ही सबने युवनाश्व को देखा, घड़े के जल को कम पाया एवं युवनाश्व को पेट के दर्द से पीड़ित । वे समझ गए कि क्या हुआ।

ऋषिगणों ने युवनाश्व को प्रयोग की गहनता समझाई एवं उस गाँठ को जो निरन्तर बढ़ती जा रही थी ‘गर्भ’ बताया जो उनके उदर में पल रहा था। बाकाया रसायनों तथा जड़ी-बूटियों द्वारा चिकित्सा करते हुए वे उनकी देखभाल करते रहे। अन्त में पूर्ण विकास होने पर युवनाश्व की दाहिनी कोख की शल्य क्रिया कर एक बालक जीवित स्थिति में निकाला गया। यह बालक ही कालांतर में ‘मान्धाता’के नाम से प्रख्यात हुआ। इस कथा की प्रामाणिकता कितनी है, यह न देखकर यदि इसे आज के वैज्ञानिक प्रयोगों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो समझा जा सकता है कि हमारे ऋषिगणों ने अपनी अन्तर्प्रज्ञा के आधार पर वह ज्ञान प्राप्तकर लिया था, जिससे वे ‘पार्थिनोजेनेसीज’ प्रक्रिया द्वारा बिना निषेचन के भी संतति उत्पन्न कर सकते थे।

यह चर्चा विगत अंक में प्रकाशित ‘क्लोनिंग’ हमशक्ल निमार्ण की प्रक्रिया के संदर्भ में चल रही है, जिसमें ‘डॉली’ नामक एक भेड़ की चर्चा की गयी थी, जो वैज्ञानिकों ने एक वयस्क भेड़ की कोशिका से विनिर्मित करके दिखाई है। सामान्य स्थिति में जब प्रजनन की चर्चा होती है तो पुरुष की शुक्राणु कोशिका के 23 एवं स्त्री की डिम्ब कोशिका के 23 क्रोमोसोम के सेट्स के सम्मिश्रण से बने भ्रूण की चर्चा की जाती है, जिसमें 46 क्रोमोसोम होते हैं। यह भ्रूण जब गर्भाशय में स्थापित होता है तो स्त्री की डिंब कोशिका में विद्यमान स्वचालित व्यवस्थानुसार 46 क्रोमोसोम्स का जुगाड़ होते ही एक कोशिकीय भ्रूण कई कोशिकाओं में ‘माइटोसिस मीओसिस‘ प्रक्रिया द्वारा बहुगुणित होने लगता है। एक कोशिकीय भ्रूण की स्थिति से लेकर अपनी परिपक्वावस्था तक पहुँचने तक जीवन के हर काल में शरीर की शुक्र कोशिकाओं और डिम्ब कोशिकाओं के केन्द्रक (न्यूक्लियस) में 46 गुणसूत्र ही बने रहते हैं।पर प्रकृति की व्यवस्था इतनी विलक्षण है कि इन 46 गुणसूत्रों में मौजूद जीवन की समस्त क्रियाओं के लिए उत्तरदायी कोई एक लाख जीन्स में से बहुत से निष्क्रिय हो जाते हैं। यही वजह है कि लीवर कोशिका जब विभाजित होती है तो सिर्फ लीवर की कोशिकाओं का निर्माण कर लीवर रूपी अंग का ही निर्माण करती है। यह न्यूरान्स या स्नायु कोशिका नहीं बना सकती। न्यूरान कोशिका प्रगुणित होती है तो वह त्वचा नहीं बना सकती, यह एक अनिवार्यता है, जिसे भलीभाँति समझा जाना चाहिए। प्राकृतिक व्यवस्था ही कुछ समस्त कार्यों का निर्देश देने जीन्स मौजूद होते हैं। उन जीन्स की चाब कब किसे खोल दें, कब कौन-सा , क्या निर्माण आरम्भ कर दें, यही रहस्य पी. पी. एल. स्काटलैण्ड के वैज्ञानिक ने 75 लाख डालर (लगभग 30 करोड़ रुपये) खर्च कर तथा 278 भेड़ों के थन की एक कोशिका से दूसरी भेड़ ‘डॉली’ पैदा कर सके और इसके लिए शुक्राणु की आवश्यकता नहीं पड़ी।

बाये टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में ‘क्लोनिंग’-जिरॉक्स निर्माण की प्रक्रिया पर शोध कार्य तो बहुत दिनों से चल रहा था पर अभी-अभी मिली सफलता जो मनुष्य के समीपवर्ती कहे जाने वाले बन्दरों के क्लोन्स के निर्माण तक जा पहुँची है-कई प्रश्न-चिन्ह खड़े कर रही है। वैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुँच चुके है कि मानव ऐसी स्थिति में आ गया है कि विज्ञान की विकसित टेक्नोलॉजी के प्रयोगों द्वारा हो सकता है वह मानव की कोशिकाओं से उसी के हमशक्ल -क्लोन पैदा कर लेगा। कब कितने दिन में यह हो सकेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता, परन्तु जिस तेजी से 1950 में ब्रिग्स एवं क्रिग्स 1960 में जॉन वी. गार्डन, 1970 में लिमेन्से, 1984 में मैकग्रा एवं साल्टर 1993 में हाँल एवं स्टिलमैन, मार्च 1996 में राँसलिन इंस्टीट्यूट फरवरी 1997 में इंस्टीट्यूट तथा मार्च 1997 में आरेगाँन (ह्रक्रश्वत्रहृ) के डाँन वुल्फ को सफलता मिली है, यह कहा जा सकता है कि यदि रोक नहीं लगायी गयी तो पहला क्लोन 1999 में तैयार किया जा सकेगा। क्या यह नैतिक दृष्टि से सही है। उस पर बड़ी गरमागरम बहस जारी है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिलक्लिण्टन इस विषय पर 18 सदस्यों की समिति बना दिए जाने एवं उनके निष्कर्षों के विविध रूपों में आने के बाद जैव प्रौद्योगिकी की विधा के विशेषज्ञों पर सबका ध्यान केन्द्रित है।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी मेडिकल स्कूल के विकास जैविकीविद् डॉ. स्टुअर्ट आँरकिन का मत है कि ‘एनीमल क्लोनिंग’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं मितव्ययिता, पर आधारित शोधकार्य है, जिसे रोका नहीं जाना चाहिए। यदि ऐसा प्रयास किया गया तो जेनेटिक्स , वंशों की सुधार तकनीकों, मानवी अंग प्रत्यारोपण आदि विधाओं में विकास का पहिया जाम हो जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन ने ऐसे शोधकार्यों पर जब से सरकारी धन दिए जाने पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखा है अनेकानेक यूरोप के देशों व ब्रिटेन के वैज्ञानिकों पर यह प्रतिबन्ध पूर्व से लगा दिया गया है। आँरिकन के साथ-साथ टोरेण्टों यूनिवर्सिटी के मॉलीक्यूलर मेडिकल जेनेटिक्स के प्रोफेसर जेनेट रोजाँ कर कहना है कि मात्र इस भय से कि कोई इनसान का हमशक्ल न तैयार कर दें, ये प्रयोग जानवरों के स्तर पर भी रोक दिए जाने चाहिए , नहीं तो विज्ञान का विकास जो मानव सहित सारी जैविकी के हित में है, रुक जाएगा। इससे पूर्व वेटीकन सिटी से कर निर्मित चर्चा से विरोध के स्वर पहले ही मुखरित हो चुके है एवं धार्मिक आधारों पर भी इस प्रक्रिया पर ‘बैन’ लगाने की बात की जा चुकी है। किन्तु निजी स्तर पर किये जा चुकी है किन्तु निजी स्तर पर किये जा रहे शोध कार्यों कैसे रोक सकेगा, जैसी कि सम्भावना ‘बायज फ्राम ब्राजील ‘ नामक एक काल्पनिक फिल्म में आज से प्रायः चौदह वर्ष पूर्व व्यक्त की गयी थी, यह सबकी चिंता का कारण बना हुआ है।

‘डॉली’ भेड़ से सम्बन्धित रहस्योद्घाटन इतना सनसनीखेज होगा यह किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि ऐसे प्रयोग काफी वर्षों से चल ही रहे थे, किन्तु अब जैसे-जैसे और नतीजे सामने आ रहे है, सचमुच दिमाग चकराने लगा है। ताइवान के वैज्ञानिक डॉली की खबर के तुरन्त बाद घोषणा कर ही चुके है कि वहाँ के वैज्ञानिकों ने सुअर की एक लुप्त हो रही श्रेष्ठ प्रजाति को क्लोनिंग की कलम लगाने की तकनीक के जरिए बचाने में सफलता पा ली है। अमेरिका के बेवरटन स्थित-रीजनल प्राइवेट रिसर्च सेण्टर आरेगाँन की बन्दरों पर की गयी खोज से उत्साहित होकर सेनडियागो स्थित ‘न्यूरो साइंसेज इंस्टीट्यूट ‘ के डॉ. ईवान बालवान ने वेटर की स्नायु कोशिकाओं का हस्तान्तरण भ्रूणावस्था में करने के बाद उन्हें यह सफलता मिली है। आशय यह कि सभी तरह के प्रयोग जारी है एवं ह्यूमन जेनेटिक्स के वैज्ञानिक इससे काफी आशान्वित है कि सम्भवतः इस प्रक्रिया से हम चिकित्सा विज्ञान को कुछ उपयोगी उपलब्धियाँ दे सकते हैं, साथ ही ईश्वरवादी , समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक भयभीत है कि इससे बड़े पैमाने पर प्राकृतिक असंतुलन पैदा हो सकता है एवं इस तकनीक का दुरुपयोग होने पर लालची लोगों के हाथों में जाने पर विनाश की विभीषिका भी सामने आ सकती है । उनका यह कहना है कि तानाशाही वैज्ञानिक द्वारा नियंत्रित कार्बन काँपी की तरह तैयार मनुष्य फिर ‘एनीमल फार्म’ का एक पशु मात्र बनकर रह जाएगा। स्वाभाविक है हिटलर एवं स्टालिन जैसे व्यक्तियों का मुकाबला कर चुका विश्व अब सतर्कता से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करना चाहता है । एक और बात सामने आती है कि डॉली नामक मेमना जिस प्रकार बिना किसी नर की आवश्यकता के मात्र एक भेड़ के थन से निकाली गयी कोशिकाओं को अन्य भेड़ के अण्डाणु में प्रत्यारोपित कर तीसरी भेड़ के गर्भाशय में डाल कर पैदा कर दिया गया, अगले दिनों बिना किसी पुरुष की मदद लिए मात्र नारी गर्भाशय में अथवा प्रयोगशाला में भी जीन्स के प्रयोगों द्वारा मानव उत्पादन होने लगे, फिर स?परिवार संस्था अप्रासंगिक हो जाएगी एवं वर्चस्व मात्र विज्ञान या टेक्नोलॉजी का ही रहेगा। गनीमत है कि आदमी का हमशक्ल अभी गैर प्रजनन कोशिकाओं से विकसित करना मात्र सैद्धान्तिक रूप में ही सम्भव माना जा रहा है, व्यावहारिक दृष्टिकोण से अभी यह असम्भव माना जा रहा है।

जब सोनोग्राफी नामक आविष्कार के बाद, एनिक्नओं सेण्टेसिस की जानकारी के बाद बच्चों के लिंग निर्धारित करने का नतीजा दुनिया भर में स्त्री भ्रूणों की हत्या होने और नारी-नर अनुपात गड़बड़ाने के रूप में सामने आ रहा है, तो यह भी सम्भव है कि कल ‘जीरो फटभ्लिटी’ से पीड़ित पश्चिमी समुदाय अपनी ही नस्ल पैदा करने के चक्कर में ‘मानव क्लोन‘ कार्बन कापियाँ तैयार करने लगें, ऐसे सैनिक तैयार करने पर जुट जाएँ तो मात्र मरना-मारना जानते हो जिनके पास ताकत तो हाथी या चाल पर चलना सिखाता हो, जो राष्ट्रभक्ति-आदर्शवाद से प्रेरित न हो मात्र मर्सेनरी -भाड़े के सैनिक बनकर अपने तानाशाह की तरफ से लड़ना जाने।

खतरा तो है, पर जब यह प्रयोग सफल हो बंदर के हाथ तलवार लगने की तरह किसी शैतान के पास आ जाय। सम्भावना यही है कि सम्भवतः ऐसा नहीं होगा। किन्तु क्या इन आशंकाओं के चलते प्रयोगों की शृंखला बन्द कर दी जानी चाहिए। विवेक कहता है-नहीं । यदि दूरदर्शितापूर्वक विज्ञान की कलम में पैदा करने वाली इस विधा के मूल मर्म का अणु जैविकी का सदुपयोग किया जा सके, तो कई सम्भावनाएँ सामने दिखाई देती है। 10 मार्च , 1997 की ‘न्यूजवीक- साप्ताहिक पत्रिका ने इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन कर कुछ निष्कर्ष दिए है। जेफ्री क्लुगर एक उदाहरण देकर लिखते हैं -कल्पना कीजिए कि एक छल साल की लड़की, जो ल्यूकोमिया (ब्लड कैन्सर) से पीड़ित है एवे बोनमेरों ट्राँसप्लाण्ट की प्रतीक्षा कर हरी है ताकि वह स्वस्थ स्थिति में जी सके, इस स्थिति में प्रतीक्षा करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी क्योंकि उसके ऊतकों की टाइपिंग करने पर संगति वाली मेरो मुश्किल से मिल पाती है। उसके पिता-माता प्रतीक्षारत है- ‘क्लोन’ बनाने वाले एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में जो उसकी कोशिका से समरूप जुड़वा उसके लिए तैयार कर सके। उसकी बोनमेरी से पूरी संगति खाने वाली उसकी यह जुड़वा बहिन अपनी बीमार पैदा कर दी जाती है, तो न केवल यह जीवित रह सकती है, कभी आगे संकट आने पर वह सदा उनके पास बनी रह सकती। ऐसे में इस दंपत्ति को दो बच्चियों को जिनमें एक स्वाभाविक पैदा बालिका की कार्बन कापी है पालना पड़ेगा ताकि पहली जीवित रहे।

जेनेटिक पहली के पीछे नैतिकता से जुड़े कई सवाल उठ सकते हैं, किंतु यह एक सम्भावना आज वैज्ञानिकों द्वारा व्यक्त की जा रही है। एक और उदाहरण जो श्रही क्लुगर देते हैं, देखें। एक सुप्रसिद्ध भौतिकीविद् मृत्यु शैया पर है। उनकी मृत्यु के साथ उनके मस्तिष्क ने जो भी कुछ वैविध्यपूर्ण चिंतन भौतिकी अणु विज्ञान के क्षेत्र में किया था, समाप्त होने की आशा है। अन्य उनके खेमे के वैज्ञानिक चाहते हैं कि उनके प्रयोगों की शृंखला बन्द न हो एवं वे क्लोनिंग द्वारा एक नया वैज्ञानिक उनके ही जैसा है तैयार करके रख लेना चाहते हैं ताकि वह शोधकार्य को आगे बढ़ा सके। यह मात्र संभावना है , किन्तु क्या यह सही है। कहीं घातक चिंतन वाला, अणु विभीषिका से सारे संसार को नष्ट करने वाला मस्तिष्क जीवित रह गया तो ? फिर इसका तो कोई अंत नहीं।

हाँ! जेनेटिक इंजीनियरिंग से जीन्स में परिशोधन कर आने वाली संततियों में इन बॉर्न एरर्स ऑफ मेटाबोलिज्म’ से जुड़ी अनेकानेक बीमारियाँ, कैंसर घातक कोलेस्टरोल (एल. डी. एल.) पैदा करने के लिए उत्तरदायी कारकों को समाप्त किया जा सके तो यह शोध जो क्लोनिंग की दशा में की जा रही थी, हितकारी भी सिद्ध हो सकती है। किसी व्यक्ति को आनुवंशिक रोग मात्र जीन मशीनरी की गड़बड़ी के कारण चले आ रहे हों, तो इस विधा का प्रयोग उसे ठीक कर आगे इस प्रक्रिया को सही बनाए रखने के लिए किया जाता है, तो यह एक सकारात्मक पक्ष है । बागी बन जाने वाली कोशिकाओं को प्रयोग शाला में पृथक् कर उनकी जीन्स संरचना में परिवर्तन कर उनसे लड़ने हेतु उन्हें पुनः प्रत्यारोपित कर कैंसर जैसे घातक रोगों का उपचार खोजा जाय तो कुछ बात है। आज अनेकानेक व्याधियाँ समाज में नयी-नयी औषधियों की खोज के बावजूद विद्यमान है। उनका उपचार यदि ‘क्लोनिंग ‘ के लिए आरम्भ हुई जैव प्रौद्योगिकी की इस शोध से होता है तो किसे इनकार हो सकता है।

किंतु यदि मात्र अंग प्रत्यारोपण हेतु यदि एक जुड़वा तैयार कर उससे जीवनभर गुर्दे, हृदय , लीवर आदि लेते रह उसे अपंग बनाकर रख देना ही प्रयोगों का लक्ष्य है, तो फिर समाज में एक नैतिक संकट खड़ा हो जाएगा। मनुष्य तो कसाई से भी बदतर होता चला जाएगा एवं यदि प्राइवेट लैबोरेटरी इन कामों को करने लगीं तो पैसे वालों की बन निकलेगी व न जाने कितने विकलाँग जापान की हिरोशिमा विभीषिका की तरह कहीं कोठरियों के अंधेरों में सिसक रहे होंगे।

10 मार्च की ही ‘टाइम’पत्रिका में एक लेख और छपा है-”केन सोल्स बि जिराक्स्ड “ (क्या आत्माओं की फोटोकॉपी हो सकती है।) रॉबर्ट राइट इस लेख में लिखते हैं कि क्लोनिंग की इस सफलता की कहानी ने एक बड़ा ही हैरतअंगेज चित्र सामने लाकर खड़ा कर दिया है। वे लिखते हैं कि व्यवहार, मनोभाव, संवेदना, आकाँक्षाओं की दृष्टि से जरूरी नहीं कि जो कार्बनकॉपी की जा रही है, वह आपकी ही हो, उनका कहना है कि इवॉल्युशनरी साइकोलॉजी एवं विहेवियल जेनेटिक्स के सिद्धान्तों के अनुसार जीन्स हमारे व्यक्तित्व की संरचना का नियंत्रण कर पारिवारिक वातावरण में हमारी स्थिति तय करते हैं। इसी से मानव के आध्यात्मिक विकास संस्कारगत नैतिक मूल्यों के समावेश का क्रम चलता है। यही प्रक्रिया यदि अस्वाभाविक ‘क्लोन’ के रूप में देखी गयी तो पूरे सामाजिक ढाँचे को गड़बड़ा देगी।

वैज्ञानिक प्रयोगों का यदि लक्ष्य सही है तो कुछ भी बुरा नहीं है। गुणसूत्रों में हेरफेर करके यदि सशक्त समर्थ, नीरोग पीढ़ियों उत्पन्न करने की दिशा में प्रयास किया जा रहा है, तो वह किसी सीमा तक उचित है। किन्तु यह सदा याद रखा जाना चाहिए कि मानवी रसायनशास्त्र से हस्तक्षेप एक सीमा तक ही किया जा सकता है। दूसरों मनुष्य मात्र रसायनों का समुच्चय ही नहीं, इससे भी कुछ ऊपर उठकर है। अब तक जितने भी यंत्र-उपकरण संसार में है, उन सबकी तुलना में स्रष्टा की अनुपम संरचना मानवी काया-मस्तिष्क हर दृष्टि से अत्यधिक अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है। इसी यंत्र को आध्यात्मिक उपायों द्वारा साध लिया जाय तो इसी के माध्यम से असम्भव कार्य उत्पन्न किये जा सकते हैं। जड़ व चेतन के सम्मिश्रण से भी मानवी काया को अपने अंतिम लक्ष्य ‘ततवमसि’ ‘जीवों ब्रह्योव नापरः’ तक ले जाने वाला अध्यात्म विज्ञान आज की ‘क्लोनिंग कला’ के आविष्कारकर्ताओं से एक ही बात कहता है। कि मनुष्य को मात्र गाजर, मूली या भेड़ न समझा जाय। उसे जड़ पिण्ड तक सीमित न रख उसे सर्वांगीण स्वरूप की प्रगति का पथ प्रशस्त करने वाले अध्यात्म विज्ञान को भी साथ लेकर चला जाय, तो जिन नैतिक प्रतिबन्धों की बात आज कानून द्वारा की जाने की चर्चा हो रही है, वे स्वतः आते चले जायेंगे एवं विज्ञान की इस विधा का सृजनात्मक नियोजन ही होगा। आशा तो यही की जानी चाहिए, कि ‘डॉली- नामक मेमने से आरम्भ हुई यह प्रक्रिया भेड़चाल की तरह चलकर विनाश की ओर न जाकर मानवजाति के समग्र विकास की ओर ही मुड़ेगी। इसी आशावाद पर मानवजाति का भविष्य टिका हुआ है।

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