
दुर्भाग्य ! कि हम अपने ही ज्ञान के भण्डार को पहचान न पाए
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धर्मपाद की पुस्तक ‘बोधि राजकुमार वृत्थु’ में एक आख्यायिका आती है। बोधि राजकुमार ने एक कारीगर से महल बनवाया। इस महल की डिजाइन और बनावट इतनी आकर्षक और सुदृढ़ थी कि उस समय के सारे राजा बोधि राजकुमार से ईर्ष्या करने लगे। स्थापत्य और वास्तुकला की दृष्टि से गत शताब्दी तक भारतीय परम्पराएँ बेजोड़ रही है। उस जमाने का तो कहना ही क्या
वह हमारी कला प्रगति का चरम-विकास युग था। पाश्चात्य सभ्यता की आँधी को इस देश में घुसने न दिया जाता, तो आज भी हम कला के क्षेत्र में विश्व -शिरोमणि रहे होते। दुनिया हमारे पाँव पूजती, जबकि आज हमारे देश का शिक्षित नेतृत्व खुद ही अपना गौरव भुलाकर विदेशियों की ओर ताकता है।
बोधिक राजकुमार ने सोचा कहीं ऐसा न हो कि यह कारीगर कहीं और जाकर इससे भी अच्छा महल तैयार कर दें, इसलिये उन्होंने उसे वहाँ बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया और निश्चय किया कि उसके हाथ कटवा दिये जायें। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं ही इस राष्ट्र के लिये घातक बनी, यदि उसे रोका गया होता तो सम्भवतः इस राष्ट्र को पराधीनता का मुँह देखना न पड़ता। दुःख है कि राजनीति की जिन भूलों के कारण यह देश पहले गुलाम बना था वह महत्वाकांक्षा आज भी शासन-तन्त्र को गुमराह कर रही है। उसे रोकने का साहस हमारी स्वाभिमानी प्रजा को करना ही पड़ेगा।
कारीगर ने अपने एक मित्र के द्वारा अपनी स्त्री के पास खबर भेजी कि वह अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर पुत्रों सहित मिलने के लिए राजा से विनय करे। इस बीच उसने स्वयं बन्दी होकर भी राजा से प्रार्थना की कि यदि उसे यन्त्र दिये जाये तो वह हाथ कटाने से पूर्व राजा को एक अद्भुत वस्तु भेंट कर सकता है। राजा ने बात मान ली। इस बीच उसने एक सुन्दर गरुड़ यन्त्र (हैलिकाप्टर) तैयार किया। उधर उसकी पत्नी ने पति की आज्ञानुसार स्थायी सम्पत्ति बेच दी और अपने पुत्रों को लेकर राजा के पास गई और अपने पति से बन्दीगृह में ही भेंट करने की प्रार्थना की। राजा ने स्वीकृति दे दी। इसके बाद ‘बोधि राजकुमार वत्थु के अनुसार-
“पुत्र दारुमरुस सकुनस्य कुच्छियं निसीदयित्व
बातपातेन निवसनित्वा पलायि”
अर्थात् कारीगर ने अपनी धर्म-पत्नी और बच्चों को उस गरुड़ यन्त्र में बैठाया और बन्दीगृह से पलायन कर गया। राजा के सिपाही देखते ही रह गये, वह जाकर नेपाल में रहने लगा।सम्भवतः हमारे यहाँ से प्रतिभा-पलायन इसी तरह होता रहा होगा।
भारद्वाज ऋषि कृत, ‘अंशु-बोधिनी’ पुस्तक के 28वें प्रकरण ‘वैमानिकी पगकरण’ में विमान विद्या से सम्बन्धित अनेक सूक्ष्म और प्रामाणिक तथ्यों का उल्लेख है। यदि प्राचीन संस्कृत वाङ्मय पर शोध की जाये और इन सूत्रों के आधार पर विज्ञान को एक नई दिशा दी जाए तो हमारे देश के वैज्ञानिक आज जो विदेशियों के ज्ञान के आधार पर अपनी जानकारियाँ बढ़ाते हैं, वह कुछ ही समय में विज्ञान के आश्चर्यजनक रहस्यों की खोज करके भारत को महान् , वैज्ञानिक प्रतिष्ठा प्रदान कर सकते हैं। इस पुस्तक के यहाँ उद्धृत किये जा रहे अंशों उसी का प्रमाण है-
“शक्त्युग्मों भूतवाहो धूमयानिश्शखेदगमः अंशुवाहस्तारामुखों मणिवाही मरुत्सखः
इत्पष्टकाधिकरणे वर्गाष्युक्तानि शास्त्रतः।
आठ प्रकार से चलने वाले विमान आकाश में चलते थे (1) शक्त्युदफगमौ अर्थात् विद्युत से चलने वाले। (2) भूतवाह अर्थात् जो अग्नि, वायु, जल आदि ईंधनों से चलते थे। (3) धूमयान अर्थात् भाप से चलने वाले। (4) शिखोद्गम अर्थात् पंचशिखी तेल से चलने वाले। (5) अंशुवाह अर्थात् तारामुखी या जो विभिन्न ताराओं में जाया करते थे, वह सूर्य की ऊर्जा से संचालित होते थे। (6) उल्कारस अर्थात् चुम्बक शक्ति। (7) मणियों की शक्ति से चलने वाले मणिवाह तथा (8) जो केवल वायु को शक्ति से चलते थे ऐसे मस्त्सखा आठ प्रकार के विमान थे। इस प्रकरण में विमानों को ऊपर किस गति से ले जाना चाहिए, आकाश के अवरोध अर्थात् बादल, बिजली उल्का आदि से किस प्रकार किन यन्त्रों से रक्षा की जानी चाहिए, इन सब बातों के साथ-साथ यह भी बताया है कि किसी भी ग्रह में उतरने से पूर्व पहले उसकी परिक्रमा की जाये फिर उतरते समय अमुक सावधानी रखी जाये आदि-आदि। यह सब पढ़ने से यही लगता है कि आज जो जर्मनी, अमेरिका और रूस वैज्ञानिक उन्नति कर रहे है। उस सबका आधार हमारे यहाँ से चुराकर जर्मनी ले जाया गया अथर्ववेद ही है। हमारे सूत्र संस्कृत में होने के कारण अभी पाश्चात्य देशवासी सारे रहस्य जान नहीं पाते, इसीलिए उन्हें लम्बे परीक्षणों के दौर से गुजरना पड़ता है। हमारे ये तो वह सारा मसाला तैयार है, साधारण से साधारण यन्त्रों, उनकी बनावट आदि के विस्तृत उल्लेखों वाला साहित्य हमारे यहाँ अभी भी सुरक्षित है, आवश्यकता केवल उसको इकट्ठा करने और उस पर शोध करने की है। कुछ समय पूर्व अमृत बाजार पत्रिका ने इसी आशय का एक लेख छापकर बताया था कि हैदराबाद के पत्थर घाटी नामक ग्राम में डॉ. सैयद मुहम्मद कासिम जिनके पुरखे कभी बीजापुर के मौलवी रहे है, कि पास इस तरह के साहित्य का विशाल भण्डार सुरक्षित है । खोज की जाये तो सारे देश में ऐसी पाण्डुलिपियाँ आज भी सुरक्षित मिल सकती है।
विमान ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी भारत का विज्ञान उल्लेखनीय प्रगति पर था। ब्रह्मांड विकास की जानकारी के लेख हमारी पत्रिका में पहले भी छपते रहे है। प्रकाश की गति की जानकारी सर्वप्रथम 1625 में रोमर ने की थी। इसके बाद 1925 में ‘माइकल सन’ ने गणितीय सूत्रों के आधार पर प्रकाश की गति 186864 मील प्रति सेकेण्ड का सूत्र निकाला। यह जानकारियाँ बहुत हाल की है। भारतीय शास्त्र ग्रन्थों का अवलोकन करते हुए हम मुनि आन्नेय की भगवत् पढ़ते हैं तो उसमें प्रकाश की गति का मान निकालने वाली इकाइयाँ मिलती है। उनसे प्रकाश की गति 187670 मील प्रति सेकेण्ड निकलती है। इस मान में और आज के मान में कोई बड़ा अंतर नहीं है। सम्भव है आज के वैज्ञानिक कई ऐसी भूलें करते हों जो तब भी हमारे यहाँ के आचार्यों को ज्ञात रही हों और हमारे मानक ही सही हों जो भी हो इतना तो निश्चित ही है कि हमारी पहले की जानकारियाँ अत्याधुनिक थीं। इन सारी जानकारियाँ अत्याधुनिक थी। इन सारी जानकारियों के आधार पर ही हमारे यहाँ ‘आत्मा’ और ब्रह्म’ जैसे सूक्ष्म तत्वों का ज्ञान प्राप्त किया गया है, जबकि आज का विज्ञान इनका उपयोग इन्द्रिय सुख और भौतिक महत्वाकाँक्षाओं में नियोजित करके मानवी-चिंतन को दिग्भ्रमित करने में लगा हुआ है। विज्ञान का सर्वोत्तम उपयोग लौकिक सुखों की अभिवृद्धि नहीं, अपितु अमरत्व प्रदान करना और साँसारिक भयो से मुक्ति प्रदान करना है।
पार्के डेविस कम्पनी की पाँच पीढ़ियों ने केवल चिकित्साशास्त्र पर क्रमबद्ध अनुसन्धान किये है। उसने भारतीय चिकित्सा पद्धति को आधुनिकतम बताते हुए लिखा है कि यहाँ शल्य चिकित्सा (सर्जरी) तक का अच्छा ज्ञान था। सुश्रुत को इस देश का महान् सर्जन मानकर उनका एक कल्पना चित्र बनाकर इस कम्पनी ने प्रसारित भी किया। ऐसे चित्रों की एक शृंखला छापी गयी है। पार्के डेविस ने आचार्य सुश्रुत को न केवल एक महान् डाक्टर माना, वरन् यह भी स्वीकार किया है कि उनकी औषधियों और चिकित्सा पद्धति ने सारे विश्व को प्रभावित किया है।
यह सुश्रुत ही है जिन्होंने सर्वप्रथम शरीर के भीतरी अंगों की बनावट का वर्णन किया हैं सुश्रुत संहिता में उन्होंने बताया है-शरीर में 900 संधियाँ, 700 रक्त वाहनियाँ, 500 माँसपेशियाँ, 300 हड्डियाँ है। 300 लिम्फ ग्रन्थियाँ जो आधुनिक चिकित्सा जगत में पूर्ण रूप से खोजी भी नहीं जा सकी थी। उनका ज्ञान सुश्रुत को था। उन्होंने इनके लिए ‘रसकुल्पा’ अर्थात् ‘रस स्रवित करने वाली’ नाम दिया है। सुश्रुत संहिता में 101 अस्त्रों का भी उल्लेख है और उन औषधियों का भी वर्णन है जो किसी अंग को सुत्र करने और आपरेशन के बाद ‘एण्टीसेप्टिक’ के रूप में दी जाने में प्रयुक्त होती थी। ऐसी ही वृणों के उपचार हेतु वनौषधियों के पेस्ट का भी वर्णन पढ़ने को मिलता है।
एक बार एक आश्रम के किसी लड़के ने खेलते समय धातु का कोई टुकड़ा आँतों में जाकर अटक गया और कष्ट देने लगा। टुकड़े को आपरेशन करके निकालने में चुम्बक का प्रयोग करके उसे बाहर निकाला गया। यह घटना इस बात की प्रमाण है कि उस समय चिकित्सा पद्धति में चुम्बक का भी प्रयोग होता था जैसा कि आज मैग्नेटिक रेजोनेन्स या लिथोटिक्सी में प्रयुक्त होता है।
कर्नल अल्काट ने भारतीय ग्रन्थों का अवलोकन करने के बाद लिखा है कि आज जिन बातों की हमारे वैज्ञानिक कल्पना भी नहीं कर सकते, ऐसी अस्त्र विद्या भारतीयों के पास थी। उन्हें विभिन्न गैसों का ज्ञान था। हाइड्रोजन बमों का निर्माण भारतवर्ष में हुआ है। प्रोफेसर विल्सन ने तो यहाँ तक लिखा है-राकेट भारतीयों के पास थी। उन्हें विभिन्न गैसों का ज्ञान था। हाइड्रोजन बमों का निर्माण भारतवर्ष में हुआ है। प्रोफेसर विलसन ने तो यहाँ तक लिखा हैं आज उनकी केवल नकल हो रही है।”
शुक्रनीति में जिस बन्दूक और उसमें गोला भरकर दागने का उल्लेख है, वह आजकल की बन्दूकों से किसी भी स्थिति में खराब न रही होगी उसका प्रमाण-
“नालीके द्विविध ज्ञेयं वृहत्क्षृद्रविभेदतः।
तिर्यगूर्ध्वयुतं छ्रिं नालं पंचवितस्तिकम्॥
मूलाग्रयों लक्ष्याभेदि तिल बिन्दु युतं सदा।
यन्त्राघाताग्नि कृदग्राव चूर्णं धृर्क्कण मूलकम्॥
-शुक्रनीति
इन पंक्तियों में बन्दूक की सारी रचना व बारूद का वर्णन हैं कई बनावटें तो ऐसी मिलती-जुलती है जैसा कि ऊपर बन्दूक की ‘आईसाइट’ का वर्णन है यह आज की बन्दूक से हू-ब-हू मिलता है। इससे लगता है आज का विज्ञान हमारे यहाँ से ले जाये गये ग्रन्थों का ही परिणाम है। आज जबकि अपना सारा देश दूसरों के प्रयोगों की नकल करके आगे बढ़ना चाहता है। तब यह कहना भूल नहीं होगी कि यदि हम अपने ही उपलब्ध ज्ञान को एक नई दिशा दे सके होते तो अध्यात्म ही नहीं भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उन्नति के पथ पर तेजी से अग्रसर हो गये होते। अब हमें आगे यही करना है। अपने देश की वैज्ञानिक प्रतिभाओं को शोध के लिये अपनी ही तरह का ज्ञान प्रस्तुत करना है, ताकि हम विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया के देशों को पछाड़ सकें और यह बता सके कि हम भारतीय मात्र पूजा-उपासना करना ही नहीं जानते, वरन् आर्थिक, औद्योगिक व वैज्ञानिक क्षेत्र में आगे बढ़कर सर्वशक्तिमत्ता की अभिव्यक्ति करना भी अच्छी तरह जानते हैं।