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Magazine - Year 1997 - Version 2

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गौ सेवा से ग्रामोत्थान एवं सम्पूर्ण क्रान्ति

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भारत एक ग्रामीण प्रधान देश है। यहाँ की बहुसंख्य जनता गाँवों, छोटे कस्बों में बसती आयी है एवं कृषि पर उनकी जीवन-व्यवस्था आधारित रही है। कृषि पूर्णतः पशुधन पर टिकी रही है। जब तक पशुधन, उपलब्ध उर्वर भूमि एवं उपयुक्त पर्यावरण का संतुलन बैठा रहा, तब तक भारत का औसत व्यक्ति ग्राम छोड़कर शहरों की ओर जाने की नहीं सोचता था, किंतु जब से यह असंतुलन बढ़ा है, गाँवों से पलायन भी तेजी से बढ़ा है। गाँवों बड़े कस्बों में एवं कस्बे बड़े शहरों में बदलते चले गए। नतीजा सामने है कि आज बहुसंख्य समस्वरता का, सरलता का जीवन बिताने वाले ग्रामवासी शहरों में बड़ी निम्नस्तरीय परिस्थितियों में जीते देखे जाते हैं। शहरी जनसंख्या विगत तीस वर्षों में तेजी से बढ़ी है, साथ ही साथ इनके कारण कोढ़ के दागों की तरह मलिन गंदी बस्तियों की संख्या में अभिवृद्धि हुई है। नवीन भारत का आजादी के पचास वर्षों बाद पुनर्निर्माण एक संपूर्ण क्रांति के रूप में ग्रामोत्थान के माध्यम से ही संभव है एवं वही कार्य आज की सर्वोपरि आवश्यकता माना जाना चाहिए, युगधर्म के रूप में समझा जाना चाहिए।

आज गाँवों में डीजल चालित ट्रेर्क्टस से खेती होने लगी है। देहाती क्षेत्रों में इन दिनों बैलों द्वारा उपलब्ध ऊर्जा अनुमानतः लगभग 40,000 मेगावाट के बराबर है। इस ऊर्जा का लाभ और अधिक लिया जा सकता था। यदि पशुओं की नस्ल सुधार की नीति चालू रहती एवं गोधन विकास पर चिन्तन किया जाता। केवल दुग्ध उत्पादन को ही बढ़ावा देने के कारण भैंस प्रजाति को ही बढ़ावा देने के कारण भैंस प्रजाति को ही प्रोत्साहन मिला है , क्योंकि ये दूध अधिक देती है और इनके दूध में वसा की मात्रा ज्यादा होती है। गाय का दूध गुणात्मक दृष्टि से अच्छा होने के बावजूद भैंस के दूध से कम खपने लगा, क्योंकि इसमें घी कम मात्रा में होता है।

ट्रैक्टरों के बढ़ते उपयोग एवं बैलों की उपेक्षा के कारण बचपन से ही नर-प्रजाति-गाय और भैंस दोनों में ही उपेक्षित होकर माँस के व्यापार को बढ़ावा मिला है। निर्यात अत्यधिक होने के कारण इस प्रक्रिया को और भी विशेष प्रोत्साहन मिलता चला गया है।

दूध अधिक से अधिक मिले, इसके लिए गाय और भैंस का दूध निकालने की प्रक्रिया भी बड़ी क्रूर और अमानवीय हो गयी है। परम्परागत विधि से पहले बच्चे को दूध पिलाया जाता था, उसके पश्चात् गाय अथवा भैंस का दूध दुहा जाता था ताकि ममता प्रेरित प्राकृतिक हारमोनों के स्राव के फलस्वरूप गाय और भैंस स्वाभाविक स्थिति में दूध दे सकें। अब याँत्रिक विधि से वैक्यूम पम्प जैसे यंत्रों द्वारा एवं इंजेक्शन (ऑक्सीटोसिन जैसे प्रसव वेदना पैदा करने वाले) देकर अधिक से अधिक दूध प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। गम्भीर पीड़ा का परिस्थिति में निकला दूध हमारी उपभोगवादी, बाजारी मानसिकता के फलस्वरूप आज सारे देश में जहाँ भी दिया जाता है- चिंतन में हिंसात्मक क्रूरता के संस्कार ही लाता है। हमारे शिशु - शावकों एवं पोषण के नाम पर दूध पीने वालों के जनमानस में ये संस्कार तेजी से घुलते चले जा रहे है। इसी कारण आज तनाव, वर्ग संघर्ष संक्षोभ-विक्षोभ तेजी से बढ़ते दिखाई देते हैं। हर कोई झल्लाता अथवा ऐसे कृत्य करता देखा जाता है, जो कि मानवीय गरिमा के अनुरूप नहीं है। दूसरी ओर नर-प्रजाति का माँस व्यापार तु हनन होते रहने से ग्रामीण ऊर्जा के स्रोत बड़ी तेजी से सूखते चले जा रहे है। डीजल के दाम बढ़ते चले जाने से जिसे कि हम विदेशी पूँजी की कीमत पर आयात करते हैं, याँत्रिक निर्भरता बढ़ती जा रही है-खर्च बढ़ रहा है-पैट्रोल पम्पों पर डीजल के लिए लम्बी लाइनें देखी जा सकती है और इस सबका परिणाम समग्र अर्थव्यवस्था का ढाँचा चरमराने के रूप में सामने आ रहा है सर्वनाश का एक खेल हम सबकी आँखों के सामने बड़े सुनियोजित ढंग से बहुत बड़े पैमाने पर एक सोची-समझी नीति के अनुसार होता प्रतीत हो रहा है।

भारतीय कृषि-व्यवस्था जो परम्परागत वेग से चली आ रही थी, इस देश की संस्कृति के अनुरूप गोवंश पर गाय और बैल पर केन्द्रित थी। गौवध निषेध के अनेकानेक आध्यात्मिक कारण है, इनके अतिरिक्त सामाजिक कारण होने से भी हमारे ऋषियों ने स्थान-स्थान पर गोवंश के संरक्षण की बात कहीं है। ग्रामीण ऊर्जा के स्रोत बैल जिन्दा रहें

उनका सतत् संवर्धन होता रहे ताकि उनकी ऊर्जा से कृषि का विस्तार सम्भव हो सके और कभी अकाल जैसी स्थितियाँ देश में उत्पन्न न हो पायें, यह निषेध ऋचाओं के माध्यम से ऋषि अपने संदेशों में दे गए है। प्राचीनकाल में गाय का दूध परिवार की आवश्यकता मात्र के लिए ही होता था बिक्री के लिए नहीं। इसी कारण महिलाएँ एवं बच्चे स्वास्थ्य बने रहते थे। गौ सेवा महिलाएँ तथा बच्चे किया करते थे, पुरुष कृषि कार्य के साथ चरागाहों में उन्हें चराने तथा उनके व्यापार में अपना समय लगाते थे, ताकि गोवंश का प्रसार हो। भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यकाल गोप-गोपियों, ग्वाल-बालों के साथ व्रज में यों ही नहीं बीता था। यह उनकी गोवंश प्रसार की सुनिश्चित योजनानुसार था। भारत को महाभारत बनाने की उनकी योजना के अनुरूप था। प्राचीनकाल में गायों को चराने के लिए गाँवों में गोचर हुआ करते थे, जो स्थानीय भूमिहीन कृषक -मजदूरों की पीने का पानी, जलावन की लकड़ी पशुओं को चारा मुफ्त उपलब्ध कराते थे। परिवारों में पल रही गायें जब दूध देना बन्द कर देती थी, तब उन्हें गौ शाला को दान दे दिया जाता था। गौ शाला और गोचर क्रमशः ग्रामोद्योग और कृषि के केंद्रबिंदु थे।

आज गाय की अवज्ञा और भैंस के दूध के फलते-फूलते व्यापार ने गौ सेवा, गौ शाला और गोचरों की धज्जियाँ उड़ा दी है। परिणामस्वरूप भारत की टिकाऊ कृषि-व्यवस्था, खेती−बाड़ी आज खतरे में पड़ गयी है। टिकाऊ कृषि व्यवस्था के कारण ही हर गाँव के तालाब और कुएँ वर्ष भर आदमियों और पशुओं को पर्याप्त पीने का पानी उपलब्ध कराते थे। खेतों में उत्तम प्रकार की प्राकृतिक खाद, जो गोबर से बनती थी, प्रयुक्त होती थी, तथा भूमि एक औषधि माना जाता था। गोबर के उपले जलते रहने के कारण वातावरण सुवासित एवं बीमारी पैदा करने वाले मच्छरों से रहित होता था। दही, दूध, गौमूत्र, घी के साथ मधु मिलाकर पंचगव्य बनाया जाता था, जो कि आयुर्वेद के विद्वानों के अनुसार एक आध्यात्मिक उपचार हेतु प्रयुक्त द्रव्य ही नहीं, मानसोपचार एवं काया के रोगों के लिए एक समग्र औषधि माना जाता रहा है। इसका भी अब क्रमशः आज की पाश्चात्य अंधानुकरण वाले सभ्य-समाज में लोप होता जा रहा है, क्योंकि मूल घटकों की उपलब्धि ही नहीं हो पा रही है।

आज की टिकाऊ खेती रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के आधार पर सिंचाई हेतु पानी अत्यधिक माँगती है। साथ ही साथ खेतों की उर्वरा शक्ति भी गिरती देखी जा रही है। गाँवों के तालाब और कुएँ जो कभी भरे रहते थे, पानी की अत्यधिक खिंचाई के कारण सूख गए है। आदमी तो क्या पशु के लिए भी पीने का पानी आज देहातों में नहीं है। इस घटनाक्रम के लिए भैंस के दूध के व्यापार को दोष नहीं दिया जा रहा, वरन् उसके फलस्वरूप नासमझी में छोड़ी गयी तो गौ सेवा वाली मानसिकता को इसके लिए जिम्मेदार बताने का प्रयास यहाँ किया जा रहा है। इस नासमझी के दृष्टिकोण का एक उदाहरण पर्याप्त है-”जब बाजार में दूध मिल जाता है तो घर में गाय पालने की क्या जरूरत है। “ अब वह चाहें भैंस का हो, पाउडर दूध या सिन्थेटिक दूध, जो अपराधी समाज की हम सबको एक घातक भेंट है।

आधुनिक अर्थशास्त्रियों का यह तर्क कि देश की बढ़ती जनसंख्या को भरपेट भोजन देने के लिए पशुओं की संख्या कम कर माँस के निर्यात को बढ़ावा देना चाहिए, त्रुटिपूर्ण चिंतन का परिचायक है। भरपेट भोजन जिस अन्नाहार-शाकाहार पर निर्भर होना चाहिए, वह संतुलित पर्यावरण पर टिका हुआ है। गोचर क्षेत्र की सूखी घास, कृषि कार्य से उपजे वेस्ट प्रोडक्ट्स को खाकर यों पशु उपयोगी गोबर व गो-मूत्र किसानों को देते थे। उपले ही गाँवों में ऊर्जा के स्रोत थे। आज गोबर गैस तैयार करने के आधुनिक तरीके भी निकल आए है। अर्थात् गो-वंश के गोबर, गो-मूत्र के अतिरिक्त कोई और विश्वसनीय वैकल्पिक ऊर्जा का स्रोत आज देहात में नहीं है। वृक्षों को काटकर ईंधन की आपूर्ति लम्बे समय तक न तो सम्भव है और न ही सुझायी जानी चाहिए। आज देहातों में गोवंश की कमी के कारण वृक्ष अंधाधुन्ध कटे हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषण का एकमात्र समाधान , वृक्षों द्वारा दी जा रही ऑक्सीजन में भारी कमी आयी है, वर्षा में कमी आयी है एवं अपराध तेजी से बढ़े है वृक्षारोपण के निमित्त सरकारी प्रयास कितने कागजी रहे, यह सभी जानते हैं।

गो-सेवा की उपेक्षा से देहात में गोचर निबट गए है एवं भूमिहीन कृषक मजदूर शहरों को पलायन हेतु विवश हो गए है। देहातों से शहरों में पलायन के कारण आज देश की लगभग 10 करोड़ जनसंख्या अनुमानतः पाँच हजार उपनगरों में नगरीय जीवन जीती देखी जा सकती है गाँव इनने छोड़ दिए है, शहर इन्हें रोज दुत्कारता है। ये कहीं के नहीं रह गए। धरती पर साक्षात नरक के रूप में गंदी बस्तियों में रहना इनकी नियति बन गयी है। महिलाओं और बच्चों की दशा इन उपनगरों में विशेष रूप से दयनीय है। शराब के नशे में धुत अपने पति से और बच्चों का पिता से पिटना इनका रोजमर्रा का अनुभव है। एड्स जैसी महामारी से लेकर अन्य छूत की बीमारियाँ फैलने के ये उपनगर केन्द्र बन गए है। मुम्बई की आधी से अधिक आबादी इसके उपनगरों में बसती है। इसी प्रकार दिल्ली की 40 प्रतिशत आबादी उपनगरों में रहती है। आर्थिक असमानताजन्य विद्वेष कब इन महानगरों में फूट पड़े, कहा नहीं जा सकता। उपचार एक ही है-ग्रामोत्थान एवं शहरों की बड़ी आबादी को वापस वहीं भेजना जहाँ से वे आए थे।

हमारे देश में प्रायः पन्द्रह ऐसे महानगर है। जिनकी आबादी आस-पास के गाँवों को लीलकर उपनगरों को बढ़ती जनसंख्या की कीमत पर बढ़ी है। उपनगरों में यदि बुराइयाँ है तो एक अच्छाई भी कि देहात से आए इन व्यक्तियों ने शहरी संस्कृति के उन्मुक्त जाति विहीन संस्कारों का अनुभव अपने रोजमर्रा के जीवन से लिया है। इसके विपरीत देहातों में आज जातिवाद के दुराग्रहों से सभी ग्रसित दिखाई देते हैं। यदि उपनगर वासी परिजनों को गाँवों के जातिवादी पूर्वाग्रहों से मोर्चा लेने के लिए तैयार किया जा सके, तो आज की घृणित राजनीतिक का केन्द्र बिन्दु बनी जातिवादी मानसिकता से जूझा जा सकता है। यदि पाँच हजार महानगरों से 100-100 युवक भी चयनित किए जा सकें, इनकी मनोभूमि ऐसी बनाई जा सके कि ये वापस गाँवों में जाकर उनके उत्थान का बीड़ा उठायेंगे तो इन पाँच लाख व्यक्तियों के द्वारा एक माहौल फूलते शहरों की सघनता कम करने, प्रदूषण मिटाने एवं जातिगत विद्वेष से लड़ने के अलावा ग्रामोत्थान के माध्यम के रूप में बन सकता है।

ग्रामों की ओर ये युवा या अन्य कोई तब ही लौट पायेंगे, जब वहाँ ग्रामोद्योगों को बढ़ावा देने के स्थान पर उनकी उपेक्षा ही हुई है। ग्रामोद्योग टिक नहीं पाए, अधिकतर उनकी ओर हम सबकी संवेदना सतही ही रही है। उनके लिए बाजारों की भी कोई व्यवस्था नहीं बन पाई, जहाँ उनकी खपत हो सके। ग्रामोत्थान-ग्रामोद्योग को ‘ग्रासरुट’ स्तर पर विकसित किए बिना सम्भव नहीं। ग्रामोद्योग टिकेगा तब जब उसके लिए गाँवों में कोई खूँटा हो। वह खूँटा बन सकता है गौ शाला , जहाँ परिवारों में पल रही वे गायें और भैंसें एकत्र की जा सकती हैं, जिनने दूध देना बन्द कर दिया है। उनके गोबर, गो-मूत्र से उत्तम प्रकार की आर्गेनिक खाद और कीटनाशक दवा के साथ-साथ रसोई गैस भी पैदा की जा सकती है, जो सीधे ग्रामवासी भाइयों के घरों में पाइपों द्वारा पहुँचायी जा सके। उससे प्रकाश की भी व्यवस्था हो सकती है, ईंधन की भी। इन पशुओं के कटने पर पूर्णायु प्राप्त करने पर उनके चमड़े, हड्डी आदि की सुव्यवस्था वे लोग कर सकते हैं जो आज केवल बूचड़खानों पर आश्रित है। इससे उन्हें रोजगार मिलेगा एवं पारस्परिक सद्भाव का प्रचार-प्रसार भी सम्भव हो सकेगा। इन गो-शालाओं द्वारा क्षेत्र के पशुओं की नस्ल सुधार का काम भी किसानों की आवश्यकतानुसार हाथ में लिया जा सकता है। तरह-तरह के ग्रामोद्योग इन गोशालाओं से कच्चे माल की उपलब्धि के आधार पर चलाए जा सकते हैं। गोसेवा के लौटने और गौदुग्ध की सर्वत्र उपलब्धि से महिलाओं और बच्चों का पोषण भी ठीक से हो सकेगा। इन दोनों के कुपोषण से ही जनसंख्या विस्फोट की समस्या सुलझेगी, क्योंकि माता का स्वास्थ्य ठीक न होने, जल्दी-जल्दी बच्चे होने और असमय बच्चों के मरते चले जाने के कारण दंपत्ति वंशवृद्धि-व्यवसाय-व्यापार आदि के लिए अधिक बच्चे पैदा करते हैं ताकि उनमें से दो तो जीवित रहें। इस चक्र को तोड़ा जा सकता है, यदि पोषण सही ढंग से गोपालन प्रक्रिया द्वारा उपलब्ध कराया जा सके। गाय और गौ सेवा के लौटने पर निश्चय ही महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है।

एक दुर्भाग्य इस देश का यह है कि आज गाय हमारे देश में सांप्रदायिक तनाव का एक मुद्दा बन गयी है। भारत में मात्र जम्मू एवं कश्मीर ही एक ऐसा राज्य है जहाँ सदियों से गौवध पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित है। कभी भी इस राज्य में साँप्रदायिक तनाव की परम्परा नहीं रही। हमारी दूरदर्शिता के अभाव ने यदि पिछले कुछ वर्षों में कुछ प्रतिकूलताएँ पैदा की हों तो हम स्वयं उसके लिए जिम्मेदार है। गाय किसकी है ? इस सवाल ने गाय का सर्वाधिक नुकसान किया है। आज परिस्थितियाँ ऐसी बन गयी है। कि गाय जो हमारी माता कहीं जाती थी, किसी की नहीं रही। मुसलमान गौ हत्या की तोहमत से बचने के लिए इससे दूर रहते हैं और हिन्दू ने मात्र इसकी पूजा की है अथवा उपेक्षित करके आवारा पशु के रूप में कस्बों-शहरों में घूमने के लिए छोड़ दिया है। आधुनिकता की दौड़ ने गाय को,हमारी संस्कृति की महत्वपूर्ण प्रतीक को हम सबसे अलग-थलग कर दिया है। इसको मारने वाला न हिन्दू है, न मुसलमान आज की जीवन पद्धति ने इसे प्रायः मार ही दिया है। अतः पुनः गोसेवा केन्द्रित जीवन पद्धति को हमारे समाज में वापस लाना होगा। इससे न केवल बचपन से ही परिवारों में जीवनमात्र के प्रतिनिधि के रूप में गाय के प्रति संवेदना जागेगी, अपितु महिलाओं और बच्चों को पर्याप्त पोषण भी मिलेगा। घरों में गायें पुनः पलने लगेगी एवं जब ये दूध देना बन्द कर देंगी, तब उनकी देखभाल गाम की गोशाला कर लिया करेगी।

गौशाला की स्थापना के कार्य को गोसंवर्धन हेतु एक आन्दोलन के रूप में चलाने की आज अत्यधिक आवश्यकता है। ये गौशालाएँ ही ग्रामोद्योग का केन्द्र बनेंगी और देहात में गोचर व्यवस्था से लेकर पर्यावरण संतुलन स्थापित करने की दिशा में फिर सक्रिय होंगी। स्वैच्छिकसेवियों के बचत समूहों के माध्यम से यह कार्य सम्भव है एवं फिर आगे इसे शहर से वापस आने वाले युवक-युवतियाँ गति देने का कार्य करते रह सकते हैं। नाबार्ड (नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एण्ड रुरल डेव्हलपमेण्ट) जैसी संस्था ‘ऋचा’ जैसे बहुमुखी, बहुउद्देश्यीय जल व भूमि संरक्षण को समर्पित संगठन के साथ आज पूरे देश में कार्य कर स्वयंसेवी बचत समूहों के द्वारा राष्ट्र का खोया वैभव, सुसंस्कारिता वापस लौटाने का प्रयास कर रहे है। इस आँदोलन के साथ गोशाला आँदोलन जुड़ने पर आर्थिक आधार भी सशक्त बनेगा एवं फिर गोचर केन्द्रित कृषि व्यवस्था की पुनर्स्थापना सुनिश्चित रूप से हो सकेगी। यही व्यवस्था भारत की टिकाऊ खेती-बाड़ी का मेरुदण्ड रही है। तब ही सम्भव हो पाएगी गोसेवा से ग्रामोत्थान, ग्रामोत्थान से समानता-सद्भावना की सम्पूर्ण क्रान्ति।

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