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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवन-सम्पदा का सही सुनियोजन

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First 18 20 Last
इस विश्व-ब्रह्मांड की अजस्र शक्ति और सम्पदाओं में से जीवात्मा हिस्से में जो सर्वोपरि उपहार आता है। उस वैभव को मनुष्य जीवन कहा जा सकता है। दृष्टि पसार कर देखने पर प्राणी के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और कुछ हो ही नहीं सकती। अन्य जीवधारियों को जा काय-कलेवर मिला है, उससे प्रकृति की इच्छा ही पूरी होती है। आत्मा या परमात्मा को कोई प्रसन्नता या सम्भावना की आशा नहीं रहती। क्योंकि उन शरीरों की क्षमता मात्र इतनी ही है कि निर्धारित आयुष्य को पूरा करने के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भर करते रह सके।

शरीर के लिए आहार, आहार के लिए श्रम, श्रम की प्रेरणा भूख से। यह प्राणि-जगत की हलचलों का एक प्रयोजन है। दूसरा है-वंश रक्षा। प्रकृति चाहती है-धरती प्राणियों से रहित न रहे। इस कष्ट -साध्य कार्य का दबाव पड़ता है। इस व्यर्थ के कष्टकर झंझट को कोई क्यों वहन करें? इस उलझन को सुलझाने के लिए मनःक्षेत्र में एक ऐसी उमंग उत्पन्न की गई , जिससे प्रेरित होकर प्राणी यौन-कर्म की ओर आकर्षित हो और परिवार बढ़ाये। यही है दो प्रयोजन, जिनमें हर वर्ग और स्तर के प्राणी निरत पाये जाते हैं। इन्हीं दो उपक्रमों में उनकी जीवनचर्या घड़ी के पेण्डुलम की तरह झूले-झूलती रहती है। इन दोनों प्रयोजनों के लिए हर प्राणी में सामर्थ्य एवं कुशलता है। न इससे कम न अधिक।

मनुष्य जीवन इस सामान्य की तुलना में कहीं अधिक असामान्य है। उसे ऐसी काय-संरचना तथा बुद्धि सम्पदा उपलब्ध है, जिसके सहारे वह आगे की सोच सकता है और ऊँचा उठ सकता है काया-संरचना भी ऐसी है जिसे न केवल असामान्य प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जा सके वरन् कला-कौशल के ऐसे भाव-सम्वेदना भी हस्तगत कर सके, जिसमें अन्तः करण प्रफुल्लता से भर सके। अपना बहुमुखी हित-साधना हो सके और उपलब्धियों का लाभ असंख्यों को वितरण करके कृत-कृत्य हो सकें।

मनुष्य ही है जिसने भाव-सम्वेदना, वारणा एवं निर्धारण की क्षमता को सुसंस्कृत-सुनियोजित बनाकर अपनी आंतरिक गरिमा को उच्चस्तरीय बनाया है। महामानव से लेकर नी-नारायण बन सकने जैसी विभूतियों को करतल किया है। प्रसुप्त क्षमताओँ को जाना, उभारा और लाभ उठाया है। शरीर की इन्द्रिय-तृप्ति सर्वविदित है, किन्तु मनुष्य ही है जिसने भाव-सम्वेदना को परिष्कृत करके संतोष , आनन्द, उत्साह, उमंग जैसी अदृश्य भाव-सम्वेदनाओं से अपने आपको देवोपम बनाया है। स्वर्ग और मुक्ति उसकी अपनी उपलब्धियाँ हैं तृप्ति, पुष्टि और शान्ति का आनन्द वही लेता है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के कारण भाव-विभोर रहने और गर्व-गौरव अनुभव करने का अवसर उसी को मिला है, जबकि अन्यान्य प्राणी मात्र पेट प्रजनन के निमित्त कुछ करने और कुछ पाने का ही उथला-सा आनन्द ले सके।

मनुष्य ही है जिसने प्रकृति को मथ डाला और उसके अंतराल में गहरी डुबकी लगाकर रहस्यमयी रत्न-राशि पर कब्जा जमाया। प्रकृति ने हर प्राणी को उसके निर्वाह भर के अनुदान दिये है। शेष को किन्हीं अविज्ञात प्रयोजनों के लिए अपनी रहस्य भरी तिजोरी में सात तालों के भीतर छिपा रखा है। मनुष्य ने चाबी ढूँढ़ी और रहस्य भरे वैभव का भारी मात्रा में माल-असबाब अपने कब्जे में कर लिया। अभी भी उसका प्रयास यह है कि प्रकृति को नंगी करके छोड़े और उसकी समूची सम्पदा हस्तगत करके स्रष्टा न सही अधिष्ठाता अधिकारी कहाने का श्रेय तो प्राप्त कर ही ले। पौराणिक युग के रावण, वृत्तासुर , हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, मारीच, सहस्रार्जुन आदि आज के मनुष्य की तुलना में बहुत पीछे रह गये है।

यह हैं मानवी उपलब्धियाँ । आत्मिक क्षेत्र का उसे बृहस्पति और भौतिक क्षेत्र का शुक्राचार्य दोनों का समन्वय कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। यह उस विश्वमानव का समष्टि मानव का स्वरूप है, जिसकी उपलब्धियों की मुक्त कण्ठ से सराहना करनी पड़ेगी। यों उसका एक विनाशकारी पक्ष भी है, जिसमें उपलब्धियों के दुरुपयोग की दुःखद दुर्घटना भी सम्मिलित है। ऐसी दुर्घटना जिसके कारण वह स्वयं पिछड़ी , पतित और कष्टकर स्थिति में फँसा और समूचा वातावरण विषाक्त बनाकर रख दिया। अवाँछनीय आकाँक्षा और आदतों को अपनाकर जिस दुर्गति का वरण किया है। उसे देखते हुए कई बार आश्चर्य होता है कि क्या यहीं मनुष्य है जिसने आत्मिक विभूतियों और भौतिक सिद्धियों का आश्चर्यजनक वैभव अर्जित करने में सफलता पाई।

ऊपर की पंक्तियों में जो कुछ भी ऊहापोह किया जा रहा वह मनुष्य जीवन की समर्थता एवं सम्भावना की एक उथली-सी झाँकी है। मनुष्य जन्म सचमुच ही इतना बड़ा दैवी उपहार है, जिसकी तुलना में अधिक मूल्यवान इस समूचे संसार में और कुछ मिल सकना कठिन है। मानवी सत्ता की वरिष्ठता को खोजने में यदि बढ़ते ही चला जाय तो वहाँ पहुँचना पड़ेगा जहाँ उसने ईश्वर की, देवताओं की तत्वदर्शन की कला-कौशल की, धर्म-शासन की, भौतिक आत्मिक की, शिक्षा, चिकित्सा की तथा और न जाने किस-किस की सृष्टि की है। ब्रह्मांड का स्रष्टा तो परमात्मा ही है, पर इस सृष्टि में जो कुछ भी शोभा-सज्जा, प्रगति एवं प्रसन्नता दिखाई पड़ती है, उसे प्रकारांतर से मनुष्य का ही अर्जन, उपार्जन कहना चाहिए। इस सबका श्रेय मनुष्य के सर्व-समर्थ जीवन को है। उसकी अनंत सम्भावनाओं में से अभी कुछ ही चरितार्थ हुई है, जिनका प्रकटीकरण शेष है उनकी तो कल्पना करने भर से रोमाँच हो उठता है।

असमंजस इस बात का है कि इतना समर्थ , इतना विशिष्ट होते हुए भी मनुष्य को इन दिनों ऐसी दुर्गति का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें उसका शरीर दुर्बलता-रुग्णता से ग्रसित होकर आमतौर से अकाल मृत्यु का वरण करता है। मानसिक दृष्टि से तनाव, असंतोष खीज, भय, आशंका, चिन्ता, आक्रोश जैसी उद्विग्नताओं के कढ़ाव में उबलता रहता है। जिस उद्भूत मनः संस्थान से हर घड़ी प्रसन्नता -प्रफुल्लता झरती रहनी चाहिए, उस पर श्मशान जैसी वीभत्स जुगुप्सा छाई रहे तो उसे दुर्भाग्य-दुर्विपाक ही कहना चाहिए। अन्य प्राणियों की तुलना में निर्वाह स्वल्प एवं सरल, उपार्जन की क्षमता अत्यधिक -इस स्थिति में उसे साधनों के सम्बन्ध में हर घड़ी प्रसन्न-सन्तुष्ट रहना चाहिए। इतने पर भी यदि आर्थिक तंगी छा रहे, दरिद्रता और कंगाली का अभिशाप लदा रहे तो समझना चाहिए, कि कहीं न कहीं भयानक गलती हो रही है। पारिवारिक जीवन को धरती का स्वर्ग और भाव-सम्वेदनाओं से भरा-पूरा नन्दन वन कहा गया है। उसमें रहने वाले हर व्यक्ति को हर घड़ी मनोमालिन्य, असन्तोष, असहयोग का सामना करना पड़े, विरोध-विग्रह बना रहे और भटियारों की सराय जैसा-कैदखाने जैसा वातावरण बना रहे तो समझना चाहिए कि परिवार तन्त्र की गरिमा, उपयोगिता, व्यवस्था एवं आचार-संहिता समझी समझायी ही नहीं गई, अन्यथा हर घर-घरौंदे में स्नेह-सहयोग का वातावरण होता और गरीबी में भी अमीरी से बढ़कर प्रसन्नता का रसास्वादन उस समुदाय का हर सदस्य करता रहता।

कहाँ तो मनुष्य की विशिष्टता, वरिष्ठता और कहाँ पशु-पक्षियों से भी गई-बीती हेय-हीनता। आखिर यह आकाश-पाताल जैसा अभ्यन्तर बना कैसे ? आया कहाँ से ? लद पड़ा क्यों कर ? इन अनबूझ पहेलियों को सुलझाते-सुलझाते ओर-छोर ढूंढ़ते -ढूँढ़ते वहाँ पहुँचना पड़ता है, जहाँ विडम्बना के उद्गम केन्द्र को जाना-पहचाना जा सके। असमंजसों की जन्मदात्री है- मानवी की गरिमा के प्रति छाई हुई अनभिज्ञता। इस विभूति का सही मूल्यांकन न कर सकने और उसके सदुपयोग से अपरिचित होने की मूढ़ता।

समर्थता से-सम्पन्नता से लाभान्वित होने की बात तभी बनती है जब उसकी उपयोगिता समझी जा सके। साथ ही विभूतियों का सदुपयोग करा सकने वाली दूरदर्शिता उभरे, अन्यथा सामर्थ्य दुधारी तलवार हैं वह वहाँ सुरक्षा का उद्देश्य पूरा करती है, आततायी आक्रमणों को रोकती है, वह वहाँ उलटकर आत्मघात का भी निमित्त कारण बनती है। ईश्वरप्रदत्त सर्वोपरि अनुकम्पा की प्रतीक जीवन -सम्पदा है। इससे बढ़कर जीव को देने योग्य ईश्वर के खजाने में और कोई रत्न-राशि है नहीं साथ ही यह भी निश्चित है कि प्राणी के समस्त अभावों को पूर्ण कर सकने में सर्वसमर्थ उपान प्राप्त करने के उपरान्त और कोई आवश्यकता रह भी नहीं जाती।

प्रश्न सदुपयोग कर सकने की क्षमता का है वह न बन पड़े तो हर महत्वपूर्ण व्यक्ति पर उलट कर उतनी ही घातक भी सिद्ध होती है। आग, बिजली, बारूद, औषधि , अस्त्र की तरह ही वैभव की भी गरिमा है, किंतु सर्वविदित है कि यदि इनका दुरुपयोग होने लगे तो कोई व्यक्ति देखते-देखते अपना और अपने परिवार का सर्वनाश कर सकता है। विभूतियाँ जितनी महत्वपूर्ण हैं, उनसे भी अधिक उस विवेक -बुद्धि की गरिमा है, जो उनके सदुपयोग की पृष्ठभूमि बनाती, व्यवस्था जुटाती और अग्रगमन की साहसिक मनोभूमि उत्पन्न करती है। वह न हो तो समझना चाहिए, उपलब्धियाँ उलटकर विपत्ति ही बनेगी।

परिस्थितियों और सुविधाओं की न्यूनता-प्रतिकूलता को आमतौर से प्रगतिपथ का व्यवधान कहा जाता है, किन्तु वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। इतिहास साक्षी है कि अभावग्रस्त, गई-गुजरी परिस्थितियों में जन्मे-पले व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजनों की दिशा में बढ़े और व्यवधानों को चीरते हुए सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचे है। मोटी बुद्धि कुछ भी समझती रहे, दुनिया कुछ भी कहती रहे पर यह तथ्य अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग है कि मनः स्थिति ही परिस्थितियों को बनाती, सुधारती है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता इसी कारण है कि वह अपने दृष्टिकोण-स्वभाव एवं पराक्रम को उपयोगी बनाकर व्यक्तित्व की प्रचण्ड सृजनात्मक शक्ति का प्रमाण परिचय दे सकता ।

मनुष्य की उपलब्धियाँ महान है, पर भ्रांतियां, अवांछनीयताएं भी इतनी है जिन्हें किसी अभिशाप जैसी कहा जाना चाहिए। अभिशापों में सबसे दुरूह, सबसे दुस्तर-सबसे कष्टकारक है जीवन को गरिमा न समझ पाना और उसका स्तर उभरने के सम्बन्ध में अन्यमनस्क रहना। इस एक गलती को सुधारा जा सके और किसी प्रकार यह हृदयंगम कराया जा सके कि -”लोक-प्रचलन एवं अभ्यस्त ढर्रा जीवन-सम्पदा के सदुपयोग में सहायक नहीं है। उसका नये सिरे से पर्यवेक्षण एवं निर्धारण की आवश्यकता समझी जानी चाहिए।” तो समझना चाहिए कि व्यक्ति और समाज को संत्रस्त करने वाली समस्याओं में से आधी को अनायास ही सुलझाने का सूत्र हस्तगत हो गया। जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण एवं सदुपयोग की सही विधा की जानकारी यदि हो तो समझना चाहिए कि हँसती-हँसाती, खिलती-खिलाती जिन्दगी जीने का एक महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग गया। यही सफलता की कुँजी भी है।

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