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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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विज्ञान और अध्यात्म अब और निकट आ रहे हैं।

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बाइबिल में कहा गया है कि हे परमेश्वर! तू मेरी आँखें खोल दें, ताकि तेरी कुदरत को- अजीब क्यों रहस्यों को देख सकूँ।

चमड़े की आँखों से तो केवल सामने की वस्तुएँ देखी जा सकती है। उनमें कर्म-अकर्म और दूरगामी हित-अनहित का पता लगाना कठिन है। जो आज के लिए, अभी के लिए रुचिकर है, उसी माँग इन्द्रियाँ करती हैं। जिसमें तात्कालिक प्रसन्नता मिलती है। व्यक्ति ओर समाज का दूरगामी हित जिस विचारणा और क्रियाशीलता के साथ जुड़ा हुआ है, उसका बोध दिव्यदृष्टि ही कराती है और उसी की प्रेरणा से मनुष्य संयम परमार्थ जैसे प्रत्यक्ष हानिकारक दिखने वाले कर्मों को दूरवर्ती हितसाधन की दृष्टि से करता है। मानवी महानता को समझने और तद्नुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए हम केवल दिव्यदर्शन के आधार पर ही समर्थन देते हैं। बाइबिल के उपर्युक्त कथन में इन्हीं विशिष्ट आँखों को खोलने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।

ईश्वर चमड़े से बानी आँखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। वह इन्द्रियगम्य नहीं है। उस तो सूक्ष्म अनुभूतियों और संवेदनाओं द्वारा जाना जा सकता है। विज्ञान की पहुँच स्थूल जगत तक है। सूक्ष्मजगत का अन्वेषण-विश्लेषण चेतनसत्ता की पृष्ठभूमि पर ही संभव होता है। प्रसन्नता की बात है कि पिछली दशाब्दियों में विज्ञान स्थूलजगत को ही सब कुछ मानने की बात पर जितना दुराग्रही था, पर अब उतना नहीं रहा। चेतना की सत्ता को जैसे-जैसे समझ सकना संभव होता जा रहा है। वैसे- विज्ञान भी ईश्वर की सत्ता, गरिमा और उपयोगिता को स्वीकार करने के लिए क्रमशः अधिक लचीला होता जा रहा है। उच्चतर के वैज्ञानिकों ने ईश्वर की सत्ता और महत्ता को अपने ढंग और क्रम से स्वीकार -अंगीकार करना आरंभ कर दिया है।

इंग्लैण्ड की रॉयल सोसायटी के प्रमुख एवं प्रसिद्ध वैज्ञानिक-दार्शनिक सर जेम्स जीन्स ने लिखा है कि विज्ञान के आरम्भिक विकास के समय यह माना गया था कि यह दुनिया जड़-पदार्थों की ही एक तरंग है। पर अब जैसे -जैसे प्रगति के पथ पर विज्ञान कुछ आगे बढ़ा है तब से यह समझा जा रहा है कि बात कुछ ओर ही है। अब हम सोचते हैं कि कोई समष्टि चेतना इस दुनिया का संचालन करती है और जड़-पदार्थ उसके संकेतों - निर्देशों का अनुसरण करते हैं। इस तथ्य पर उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द न्यू बैकग्राउण्ड ऑफ साइन्स’ और ‘ मिस्टीरियस यूनिवर्स’ में अधिक विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है।

ए. एच. क्राॅम्पटन का कथन है- पूरी तरह आज भले ही साबित न हो सके, पर कल जरूर इस नतीजे पर पहुँचाना पड़ेगा कि विश्वचेतना की शक्ति का अस्तित्व मौजूद है और वही इस संसार को किसी खास मतलब के लिए चलाता हों।

रॉबर्ट ए. मिल्लीकान का यह है विकासवाद का इतिहास यह बताता है कि पदार्थों और प्राणियों की क्रमबद्ध और व्यवस्थित प्रगति होती है और वह क्रम ऐसा है मानो कोई बुजुर्ग किसी छोटे बच्चे को अंगुली पकड़कर चलना सिखा रहा है।

जे वी एस हाल्डेन ने लिखा है - अब हम इस दुनिया को अंधी मशीन नहीं कहेंगे। यों अभी प्रकृति के बारे में बहुत कम जाना जा सका है, पर जितना जान लिया गया है वह इस नतीजे पर पहुँचता है कि दुनिया पदार्थ मात्र ही नहीं है, उसके ऊपर किसी ऐसी शक्ति का शासन है जिसे मन, बुद्धि या चेतना नाम दिया जा सकता है।

सर आर्थर एस. एडिंग्टन के अनुसार - यह मान्यता अब बहुत पुरानी पड़ गयी है कि ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं है और दुनिया अपने आप ही अपने ढर्रे पर चल रही है। व्यवस्था - बुद्धि वाली चेतना का इस जगत पर कितना नियन्त्रण है, इस तथ्य को हम प्रकृति की प्रत्येक हलचल में भली-भाँति देख सकते हैं।

हरवर्ट स्पेन्सर कहते थे - विज्ञान जिस चीज को हमारे जानने की पहुँच से बाहर (अननोएविल) कहता है, वह अध्यात्म के सिद्धान्तों को काटती नहीं, वरन् यह कहती है कि उस सम्बन्ध में गहरी खोज की जानी चाहिए।

अलफ्रेड रसल वैलेस ने अपने ग्रन्थ’ सोशल इनवायरमेन्ट एण्ड मॉरल प्रोग्रेस ‘ में लिखा है - यह विश्वास करने का पर्याप्त आधार मिल गया है किस चेतना द्वारा ही इस जड़जगत का संचालन किया जा रहा है। इसी तरह मूर्धन्य वैज्ञानिक सर ए. एस. एडिंगटन का कथन है कि हम विज्ञानी अब यह सोचने लगे हैं कि कोई असाधारण शक्ति इस संसार को एक सोची-समझी व्यवस्था के अनुसार चला रही है। वह शक्ति क्या है? और किसलिए? क्या करती है? इसे अभी नहीं जाना जा सकता तो भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर एक नियामक सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है।

जड़ को प्रधान और चेतना को उसकी प्रतिक्रिया, कभी माना जाता था, पर अब ऐसे आधार सामने आ गये हैं, जिनके कारण चेतना को ही बुनियादी चीज मानकर चलना पड़ेगा। इस संदर्भ में सर ओलीवरलॉज ने व्रिस्टल में एक भाषण देते हुए कहा था- “ वह दिन दूर नहीं जब विज्ञान नये क्षेत्र में प्रवेश करेगा और यह स्वीकार करेगा कि चेतन शक्तियाँ ही जड़शक्तियों का संचालन करती हैं। अभी रूप सिर्फ जड़जगत के बारे में जानते हैं और उसके अंतर्गत चल रही हलचलों से परिचित हैं। पर अगले दिनों यह स्पष्ट हो जाएगा कि चेतना की शक्तियाँ ही प्रमुख हैं, वे ही जड़ - जगत को चलाती हैं। जड़ शक्तियों पर यदि प्रेम और भलाई की शक्तियों का शासन न रहे तो वे इतनी अधिक भयंकर हैं कि उन्हें छूना तक डरावना प्रतीत होगा।

संसार भर के चौदह बड़े वैज्ञानिकों द्वारा मिल - जुलकर लिखी गयी पुस्तक ‘द् ग्रेट डिजाइन में लिखा है कि यह दुनिया बिना रूह की मशीन नहीं है। यह अकस्मात् ही नहीं बन गयी है। जड़ - पदार्थ के पीछे एक दिमाग, एक चेतना कम रही है। उसे भले ही कुछ भी नाम दिया जाए।

अलबर्टआइन्स्टीन ने लिखा है कि इस दुनिया में जैसी क्रम - व्यवस्था सुरीले ताल-मेल के साथ बनी हुई है, उससे स्पष्ट है कि प्रकृति के ऊपर कोई बुद्धिमान चेतना काम रही है। तरकीब और उद्देश्य के बिना यहाँ कुछ भी नहीं है। ऐसी दिशा में विज्ञान को अपना विचार यह बनाना पड़ रहा है कि यह दुनिया इत्तफाक से नहीं बन गयी है। इसके पीछे कोई गहरा उद्देश्य काम कर रहा है।

वैज्ञानिक दार्शनिकता के आधार पर विचार करने से यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि इस ब्रह्माण्ड के अनेक घटकों, ग्रहपिण्डों को परस्पर एक चेतना सुव्यवस्थित सूत्र में बाँधकर रखने वाली एक सत्ता है। उसके कुछ नियम हैं। इनमें मानवी-चेतना को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा नियम है - पारस्परिक सहयोग। परमाणु के अवयव प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन अथवा इससे भी सूक्ष्मतर घटक परस्पर एक क्रमबद्ध व्यवस्था के अंतर्गत घनिष्ठ रहकर अणुसत्ता का सृजन करते हैं। अणुओं का समन्वय पदार्थों के विभिन्न रूप प्रस्तुत करता है। यह पदार्थ स्वतंत्र इकाई के रूप में काम नहीं कर सकते हैं। उनका अस्तित्व एवं क्रिया−कलाप अन्यान्य पदार्थों की सत्ता द्वारा आदान-प्रदान मिलने पर ही बना रहता है। हमारी पृथ्वी का भी एकाकी जीवन संभव नहीं, उसे अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों से जो अनुदान मिलते हैं, उसी में उसका जीवन -शकल आगे लुढ़कता है। धरती भी दूसरे ग्रहों को देती है। इसी प्रकार अनेक सौरमण्डल और उनके निहारिका केन्द्र एक अत्यंत सुदृढ़ श्रृंखला में बंधे हुए परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। प्राणधारियों का जीवन भी परस्पर सहयोग से ही चलता है। मनुष्य की जितनी अधिक आवश्यकताएँ हैं, उनकी पूर्ति तो संगठित समाज में सहयोग श्रृंखला गतिशील रहे बिना हो ही नहीं सकती। दूसरे प्राणी एकाकी भी जी सकते हैं और प्रकृति के अंचल से अपने आहार - आधार की उपलब्धि कर सकते हैं, किन्तु मनुष्य के लिए सहयोग ही जीवन-प्राण है। इसके बिना उसका निर्वाह एक दिन भी नहीं हो सकता।

प्रत्येक ग्रह - पिण्डों के अणु-परमाणु में अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की सत्ता का समावेश है। यह अत्यन्त सूक्ष्म होते हुए भी एक तथ्य है। धरती के परमाणुओं का मध्यवर्ती नाभिक अपने में शक्ति भरे बैठा है, उसका मूलस्रोत धरती पर पाये जाने वाले तत्व नहीं, वरन् सूर्य-ताप से अवतरित होने वाला अदृश्य प्रवाह है। सूर्य-ताप के रूप में हम जिस शक्ति की व्याख्या करते हैं, वह भी अकेले सूर्य की नहीं है। गोमुख गंगोत्री में गंगा में गंगा की धार तनिक-सी निकलती है, पीछे उसमें नदी-नालों का जल मिलकर गंगा की विशाल धारा बनता है। ठीक इसी प्रकार सूर्यताप के साथ अन्य ग्रह-नक्षत्रों की शक्ति - धाराएँ मिलती चली आती हैं। श्रेय भले ही सूर्य को मिले, पर वस्तुतः वह एक समन्वित अनुदान ही है।

जड़-जगत की तरह ही चेतन जगत की स्थिति है। हमारी बुद्धि, अभिरुचि, निष्ठा, मान्यता, अनुभूति, मनःस्थिति, प्रतिभा आदि अपनी लगती भले ही है। पर वस्तुतः वह भी समष्टि की ही देन हैं। हमें असंख्य लोगों की चेतना प्रभावित करती है और उस बाहरी दबाव से ही हमारा चेतनात्मक स्तर ढलता है। जिसे मौलिकता कहते हैं अथवा व्यक्तिगत प्रतीक समझते हैं, वस्तुतः वह भी समूहगत चेतना का ही प्रतिफल है। आमतौर से निकटवर्ती एवं सम्बद्ध वातावरण ही हमें बनाता और बदलता रहता है। विश्वव्यापी इसी एकता की सुनिश्चित अनुभूति का नाम आध्यात्मिकता है।

आन्तरिकता के सिद्धान्त अब क्रमशः विज्ञान के साथ अपना मतभेद समाप्त करके एक ही लक्ष्य पर पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं। विश्वव्यापी चेतना प्राणिमात्र में क्रीड़ा -कल्लोल कर रही है और हर एक को विश्व-व्यवस्था की मर्यादाओं में रहने के लिए बाध्य कर रही है। परस्पर मिल- जुलकर स्नेह-सौजन्य से रहें, बिना दूसरों से टकराये निर्वाह करें और आपसी सहयोग से सर्वतोमुखी सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त करें। इस निष्कर्ष पर अध्यात्मवादी दर्शन ही हमें पहुँचाता है। आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता को एक-दूसरे से विलग नहीं किया जा सकता है। जैसे-जैसे हम सर्वव्यापी और नियामक सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करते जाएँगे, वैसे-वैसे यह भी अनिवार्य प्रतीत होता जाएगा कि व्यक्ति का वास्तविक हित यही समन्वित आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर चलने में ही है।

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