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Magazine - Year 1998 - Version 2

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दीर्घजीवन एक सहज उपहारः एक दिव्य वरदान

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रूस के शरीरविज्ञानी इवान पन्नोविच पावलोव लंबे और स्वस्थ जीवन की संभावनाओं पर तीस वर्षों तक शोध - प्रयास में निरत रहे और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कार्यव्यस्त दिनचर्या आदमी को सक्रिय और निरोग बनाये रहती है। उद्योगी मनुष्य सत्तर वर्ष की आयु तक भली प्रकार कार्यक्षम रह सकता है, किन्तु यदि उसे पचपन वर्ष की आयु में निवृत्त होकर ऐसे ही बैठे - ठाले दिन बिताने पड़े तो उसका स्वास्थ्य तेजी से गिरना शुरू हो जाएगा। कई तरह की बीमारियाँ उपजेंगी और मस्तिष्क में बेसिर-पैर की सनकें उठने लगेंगी। बुढ़ापा जरा - जीर्ण अवस्था का नाम नहीं वरन् उस मनः स्थिति का नाम है, जिसमें भविष्य के सम्बन्ध में उत्साहवर्द्धक सपने देखना बन्द हो जाता है और निराशा आकर घेरने लगती है। बुढ़ापे के सम्बन्ध में अक्सर हम यह सोचते हैं कि बुढ़ापा जीवन का एक ऐसा समय है जबकि मनुष्य आलसी, निष्क्रिय तथा अनुत्पादक हो जाता है। पर सत्य तो यह है कि संसार के कुछ सर्वोत्तम काम मनुष्य ने बुढ़ापे के उपद्रवों के बावजूद अपनी ढलती उम्र में ही सफलता के साथ किये हैं। इतिहास से उन सब बड़ी उपलब्धियों को यदि निकाल दिया जाए जो कि, मनुष्य ने साठ - सत्तर या अस्सी वर्ष की अवस्था में प्राप्त की तो दुनिया की इतनी बड़ी क्षति होगी, जिसकी पूर्ति नहीं हो सकेगी।

इस सन्दर्भ में पश्चिम एवं भारत के वे कुछ महान पुरुष उल्लेखनीय है, जिनकी रचनात्मक शक्ति का ह्रास उनकी ढलती उम्र के कारण कतई नहीं हुआ था और जिन्होंने अपने बुढ़ापे में बड़े महत्वपूर्ण एवं उपयोगी काम करके मानवता की अपूर्व सेवा की।

ऐसे महान पुरुषों में कुछ ये हैं -

महान दार्शनिक सन्त सुकरात, प्लेटो, पाइथागोरस, होमर, खगोल शास्त्री गैलीलियो, प्रसिद्ध कवि हेनरी, एडीसन, लेकर निकोलस कोपरनिकस, विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, सिसरोख्, अलबर्ट आइन्स्टीन, टेनसिन, बेंजामिन फ्रेंकलिन, महात्मा टॉलस्टाय, महात्मा गाँधी तथा जवाहर लाल नेहरू।

महात्मा सुकरात सत्तर वर्ष की उम्र में अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्त्वदर्शन की विशद व्याख्या करने में जुटे हुए थे। यही बात प्लेटों के सम्बन्ध में भी थी। वे अपनी अस्सी वर्ष की आयु तक बराबर कठोर परिश्रम करते रहे। इक्यासी वर्ष की अवस्था में हाथ में कलम पकड़े हुए उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया।

सिसरो ने अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व तिरेसठ वर्ष की आयु में अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘ ट्रीटजि आन ओल्ड एज’ की रचना की। केरो ने अस्सी साल की उम्र में ग्रीक भाषा सीखी कवि गोथे ने अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि के रूप में अपनी महान रचना ‘ फास्ट’ के लिखने का कार्य तिरासी वर्ष की उम्र में मृत्यु के कुछ समय पहले ही पूरा किया था।

अलबर्ट आइन्स्टीन की तरह ही जो कि अन्तिम दिन तक बराबर काम करते रहे, सेमुअलमॉर्स ने टेलीग्राफ आविष्कार की अपनी प्रसिद्धि के बाद अपने को व्यस्त रखने के लिए अनेक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यों में लगाए रखा। बर्नार्डशा अपनी अन्तिम बीमारी तक लेखक के रूप में बहुत सक्रिय बने रहे। महात्मा टालस्टाय अस्सी वर्ष की अवस्था के बाद भी इतनी चुस्ती - गहराई और प्रभावशील ढंग से लिखते रहे कि उसकी बराबरी आधुनिक यूरोप के किसी लेखक द्वारा नहीं हो सकती। जेम्स माररिनिमू नब्बे वर्ष की आयु के बाद भी साहित्य रचना का कार्य करते हुए अपनी बड़ी पुस्तकों की भेंट दुनिया को दे गये।

व्हिक्टर ह्यूगो तिरासी वर्ष की अवधि में अपनी मृत्यु तक बराबर लिखते रहे। वृद्धावस्था उनकी अद्भुत शक्ति तथा ताजगी में कोई फर्क नहीं कर सकी।

टेनसिन ने अस्सी वर्ष की परिपक्व अवस्था में अपनी सुन्दर रचना ‘ क्रासिंग दी वार ‘ दुनिया को प्रदान की। रॉबर्ट ब्राउनिंग अपने जीवन के संध्याकाल में बहुत सक्रिय बने रहे। उन्होंने सतहत्तर साल की उम्र में मृत्यु के कुछ पहिले ही दो सर्वसुन्दर कविताएँ ‘रेभरी’ और ‘एपीलाग टू आसलेण्डो’ लिखी।

एच. जी. वेल्स ने सत्तर वर्ष की अपनी वर्षगाँठ के उपरांत भी पूरे भी पूरे चुस्त और कर्मठ रहते हुए एक दर्ज से ऊपर पुस्तकों की रचना की।

राजनीति के क्षेत्र में विन्सटन चर्चिल, बेंजामिन फ्रेंकलिन, डिजरैली, ग्लेड्स्टन आदि ऐतिहासिक पुरुष अपनी वृद्धावस्था की चुनौतियों के बावजूद बहुत सक्रिय बने हुए अपने देश की अमूल्य सेवा में अनवरत रूप से लगे रहे।

अभी हाल के इतिहास में महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू ऐसे महान पुरुष भारतवर्ष में हो गये हैं, जो अपनी वृद्धावस्था में अंतिम समय तक देश और पीड़ित मानवता की अटूट सेवा पूरी चुस्ती एवं शक्ति के साथ बराबर करते रहे।

ढलती उम्र की विशिष्ट उपलब्धियों एवं रचनात्मक कार्यों का श्रेय केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं है। महिलाओं का भी इसमें अपना पूरा हक है।

महारानी विक्टोरिया ने अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारियों को ब्यासी वर्ष की अवस्था तक कुशलता के साथ निभाया। मेरी समरभिले ने ब्यासी साल की आयु में परमाणु (मॉलेक्यूलर) तथा अणुवीक्षण यंत्र सम्बन्धी (माइक्रासकोपिकल) विज्ञान पर अपनी उपयोगी एवं बहुमूल्य रचना प्रकाशित की। मिसेज लूक्रेरिया मार सत्तासी वर्ष की उम्र तक महिलाओं को ऊपर उठाने तथा विश्वशान्ति के लिए अथक रूप में निस्वार्थ सेवाकार्यों में जुटी रहीं।

भारतवर्ष में श्रीमती सरोजिनी नायडू एवं मिसेज ऐनी बिसेन्ट ने अपनी वृद्धावस्था तक देश तथा मानवता की अमूल्य सेवाएं की, जलो कि चिरस्मरणीय रहेंगी।

इस तरह से सैकड़ों अन्य उदाहरण दुनिया के इतिहास से दिये जा सकते हैं, जिनसे यह विचार बिलकुल ही खोखला एवं तथ्यहीन साबित होता है जीवन के काम समाप्त हो जाते हैं और उसके बाद का समय अपने तथा समाज के हित में कोई उपयोगी एवं महत्वपूर्ण काम करने के लिए सक्षम नहीं होता है।

पैरिस की ८. वर्षीय महिला सान्द्रेवच्की पिछले दिनों सारवोन विश्वविद्यालय की विशिष्ट छात्रा थीं। उन्होंने ६. वर्ष पूर्व छोड़ी हुई अपनी कक्षा की पढ़ाई पर फिर आरम्भ की इस महिला के तीन पुत्र और सात नाती–नातिन और एक परनाती था। इस प्रकार वह परदादी बन गई थी, तो भी उसने जर्मन और अंग्रेजी भाषा पढ़ने के लिए उत्साह प्रदर्शित किया और विश्वविद्यालय में भरती हो गई। प्राचार्य को उसने भर्ती का कारण बताते हुए कहा - लंबे जीवन के अनुभवों के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि आदमी की मशीन लगातार चलते रहने पर ही वह काम करने लायक रह सकती है। उपयोगी काम में लगे रहने पर ही सामान्य स्वास्थ्य को स्थिर रखा जा सकता है। अध्ययन से मेरा मस्तिष्क और शरीर दोनों ही निरोग एवं उत्साह की स्थिति में रह सकेंगे।

बड़ी उम्र हो जाने पर भी मनुष्य के अरमान यदि मरे न हों तो वह बहुत कुछ कर सकता है। डारलिंगटन आइजक ब्रुक ७४ साल की उम्र में फौज में भरती हुआ और कई लड़ाइयाँ लड़ने पर भी सकुशल बचा रहा। अन्ततः वह ११२ वर्ष की उम्र में मरा।

अमेरिकन मेडिकल ऐसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. फ्रेडरिक श्वार्टज ने एक शोध प्रबन्ध प्रकाशित करते हुए कहा है - मनुष्य आयु या परिश्रम के कारण बूढ़े नहीं होते वरन् अपनी अन्यमनस्क, असामाजिक एवं एकाकी मनोवृत्ति के कारण टूटने और मरते हैं। आमतौर से लोग जब तक काम - धन्धे से लगे रहते हैं, तब तक स्वस्थ रहते हैं, किन्तु जैसे ही वे ठाली हो जाते हैं और निष्प्रयोजन दिन काटना आरंभ करते हैं, वैसे ही उन्हें सौ बीमारियाँ धर दबोचती हैं।

डॉ. फ्रेडरिक ने एक ८४ वर्ष के व्यापारी का विवरण लिखा है कि वह अपने कारोबार में सदा व्यस्त रहा और यह पता भी न चला कि उसे कोई बीमारी है, पर जब वह रिटायर हुआ तो डॉक्टरों ने बताया कि उसके शरीर में मुद्दतों पुरानी दसियों बीमारियाँ घुसी पड़ी हैं। जिनकी तरफ कभी उनका ध्यान तक नहीं गया था।

संसार के सबसे अधिक दीर्घजीवी मनुष्यों के सम्बन्ध में अनुसंधान करने वाले इतालवी विशेषज्ञ कार्लोसरतोरी का कथन है कि इस समय संसार में सबसे अधिक आयु वाली बोलोविया निवासी एक महिला है, जिसकी उम्र २.३ वर्ष है। इसके बाद एक सोवियत नागरिक का दूसरा नम्बर है - वह १९५ वर्ष का है। तीसरे नंबर पर ईरान का एक बूढ़ा है, जिसने १९. वर्ष पार कर लिये।

उपर्युक्त विशेषज्ञों ने दीर्घजीवन के अनेक कारणों में से प्रमुख संतुलित और निरंतर श्रम को बताया है। उसका कहना है कि लोग अधिक मेहनत के कारण उत्पन्न थकान से उतने नहीं मरते जितने कि हरामखोरी और कामचोरी कारण अल्प-आयु में मौत के शिकार होते हैं।

कार्नेल विश्वविद्यालय के प्राणिशास्त्री डॉ. एम. मैकके ने कुछ चूहों को भरपेट भोजन दिया और निश्चित रहने की सुविधा दी। वे तीव्र गति से वयस्क ओर मोटे - तगड़े तो हुए, पर ७३. दिन से अधिक न जी सके। इसके विपरीत उन्होंने कुछ चूहे ऐसे ही पाले, जिन्हें मात्रा कम, किन्तु पौष्टिक तत्व की दृष्टि से उपयुक्त भोजन दिया जाता था। वे उतने तगड़े तो नहीं हुए, पर फुर्तीले भी अधिक थे और जीवित भी प्रायः ड्योढ़े समय तक रहे, अपने प्रयोगों के आधार पर उनका निष्कर्ष मनुष्यों के सम्बन्ध में यह है कि कम कैलोरी का सादा और कम भोजन किया जाए तो मनुष्य आसानी से २५. वर्ष जीवित रह सकता है। इसी प्रकार विज्ञानी जॉर्ज आयसन का कथन है - आहार - विहार सम्बन्धी आदतों को सुधार लिया जाए तो सहज ही चिरस्थाई यौवन का आनन्द लिया जा सकता है।

अमेरिकी वैज्ञानिकों ने ५. वर्षों की आयु से अधिक व्यक्तियों पर परीक्षण किये और यह पाया कि जब मनुष्य का सारा शरीर थक जाता है, तब भी मस्तिष्क नहीं थकता। दूषित जीवन - पद्धति के कारण किसी की ज्ञानशक्ति विक्षिप्त हो गई हो, वैसे थोड़े ही लोग पाये गये अधिकांश परीक्षणों से मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आयु बढ़ने के साथ मानसिक शक्ति में किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता, यदि होता है, तो वह कम मानसिक कार्य करने से होता है। मस्तिष्क को अधिक क्रियाशील रखने वालों की बौद्धिक शक्ति में अन्तर नहीं आता, शरीर भले ही थक जाता हो।

दीर्घजीवन सरल है ओर स्वाभाविक। उसके लिए किसी विशेष प्रयत्न या उपचार की आवश्यकता नहीं है। सुसंतुलित स्वास्थ्य और निरोग लंबे जीवन के लिए इतना ही पर्याप्त है कि मनुष्य अपने रहन - सहन और आहार - विहार को प्रकृति के अनुकूल, नियमित और व्यवस्थित रखे। मस्तिष्क को उद्विग्नता एवं आवेशों की आग से बचाये रहे। हँसता - हँसाता, हलका - फुलका और सीधा सरल जीवनक्रम जिसने अपनाया, उसे प्रकृति का सहज उपहार दीर्घजीवन - अनायास ही मिला है, हमें भी मिल सकता है।

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