• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • मनुष्य की जीवन की सच्ची शोभा
    • जीता-जागता स्वर्ग है फूलों की घाटी
    • धर्मः एक आध्यात्मिक भूख
    • तीर्थंकर की जन्मगाथा
    • Quotation
    • साधना के तीन चरणः भजन, मनन, और चिन्तन
    • शिवत्व एवं उसके साथ जुड़ी प्रेरणाएँ
    • प्रेम अमृत है तो मोह विष
    • कुण्डलिनी शक्ति और उसके दो अग्नितत्त्व
    • करम का लेख मिटे ना रे भाई
    • मनोबल ही विजयी बनाता है
    • कैसे जूझे हृदय रोगों से
    • स्नेहमयी माँ एवं उनका रक्षा-कवच
    • विज्ञान और अध्यात्म अब और निकट आ रहे हैं।
    • पूर्णता की प्राप्ति (Information)
    • जीवन - तत्व की गंगोत्री - प्राणशक्ति
    • व्रतेन प्राप्यते दीक्षा
    • श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रसः
    • राजसूय में श्रीकृष्ण का गुप्तदान
    • सन्त, ऋषि एवं पारखी
    • विलक्षण है इस जीव जीवन-यात्रा का हर पड़ाव
    • युगपरिवर्तन एक सुनिश्चित भवितव्यता
    • ज्ञान ही जाता है आत्मा के साथ
    • प्रसन्न रहना एक अच्छी आदत
    • दीर्घजीवन एक सहज उपहारः एक दिव्य वरदान
    • समाज का ऋण सभी को चुकाना होगा।
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - II
    • पूर्णता की प्राप्ति पात्रता एवं नम्रता से होती है (Kahani)
    • प्रज्ञा - पुराण कथा धर्मानुष्ठान के साथ पुण्यार्जन भी
    • गोरस बेचन हरि मिलन - एक पंथ दो काज
    • अपनों से अपनी बात - - युग प्रत्यावर्तन की दिशा में कुछ स्पष्ट संकेत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • मनुष्य की जीवन की सच्ची शोभा
    • जीता-जागता स्वर्ग है फूलों की घाटी
    • धर्मः एक आध्यात्मिक भूख
    • तीर्थंकर की जन्मगाथा
    • Quotation
    • साधना के तीन चरणः भजन, मनन, और चिन्तन
    • शिवत्व एवं उसके साथ जुड़ी प्रेरणाएँ
    • प्रेम अमृत है तो मोह विष
    • कुण्डलिनी शक्ति और उसके दो अग्नितत्त्व
    • करम का लेख मिटे ना रे भाई
    • मनोबल ही विजयी बनाता है
    • कैसे जूझे हृदय रोगों से
    • स्नेहमयी माँ एवं उनका रक्षा-कवच
    • विज्ञान और अध्यात्म अब और निकट आ रहे हैं।
    • पूर्णता की प्राप्ति (Information)
    • जीवन - तत्व की गंगोत्री - प्राणशक्ति
    • व्रतेन प्राप्यते दीक्षा
    • श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रसः
    • राजसूय में श्रीकृष्ण का गुप्तदान
    • सन्त, ऋषि एवं पारखी
    • विलक्षण है इस जीव जीवन-यात्रा का हर पड़ाव
    • युगपरिवर्तन एक सुनिश्चित भवितव्यता
    • ज्ञान ही जाता है आत्मा के साथ
    • प्रसन्न रहना एक अच्छी आदत
    • दीर्घजीवन एक सहज उपहारः एक दिव्य वरदान
    • समाज का ऋण सभी को चुकाना होगा।
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - II
    • पूर्णता की प्राप्ति पात्रता एवं नम्रता से होती है (Kahani)
    • प्रज्ञा - पुराण कथा धर्मानुष्ठान के साथ पुण्यार्जन भी
    • गोरस बेचन हरि मिलन - एक पंथ दो काज
    • अपनों से अपनी बात - - युग प्रत्यावर्तन की दिशा में कुछ स्पष्ट संकेत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रसः

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 17 19 Last
पिता के वंश, ऐश्वर्य, गुण, शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप बालक अपने जीवनस्तर का निर्माण प्रारंभ करता है। उसके स्वाभिमान, रहन-सहन-खान-पा-वेश-भूषा में पिता की आत्म-स्थिति का अधिकांश प्रभाव होता है। धनी पिता का पुत्र सुंदर वस्त्र पहनता है, अच्छा खाता है, चलने, यात्रा करने में भी उसकी शान-शौकत अन्यों से भिन्न होती हैं। जैसा बाप करता है प्रायः उसी का अनुकरण बेटे की स्थिति भिखारी जैसी होती है। फटे कपड़े अस्त्र-व्यस्त, बाल, रूखा शरीर सब कुछ ठीक भिखारियों जैसा। उससे अधिक शान का जीवन बिताना भला वह भिखारी का बालक क्या जान सकता है, जिसने जीवन में न अच्छा भोजन देख हो, न अच्छे वस्त्र देखा हो, न अच्छे वस्त्र पहने हों और न आलीशान मकान में रहने का सौभाग्य ही मिला हो। शील, गुण और आचरण अधिकांश व्यक्तियों को पैतृक संपत्ति के रूप में ही मिला करते है।

यह उत्तराधिकार मनुष्य को भी ठीक इसी रूप में मिला है परमात्मा का पुत्र होने के नाते उसे वह सारी निधियाँ मिली हैं, जिससे वह सांसारिक जीवन सुविधा और शान के साथ बिता सकता है। परमात्मा के जो गुण और शक्तियाँ बताई जाती है, वह मनुष्य-आत्मा में भी ठीक उसी तरह सन्निहित है। ऐसे कोई अधिकार शेष नहीं जो ईश्वर ने अपने युवराज को न दिये हो। वह अपने बेटों को निराश्रित, निरीह और निर्बल कैसे देख सकता था। अपनी संपूर्ण शक्तियों का अनुदान उसने अपने बेटे मनुष्य को दिया, ताकि व इस संसार में उल्लास का जीवन जी सके। स्वयं सुख भोगकर आने वालों को भी वैसा ही उत्तराधिकार सौंपता हुआ जा सके।

आत्मदर्शी ऋषियों की लेखनी आत्मा का महत्ता प्रतिपादित करते हुए थक गई, पर कथानक पूरा न हो पाया। शक्तियों की सीमा को नेति-नेति कहकर पुकारना पड़ा क्योंकि वे वर्णन भी कब तक करते। १.. वर्षों के जीवन में ये हजार दो हजार पुस्तकों में आत्मसत्ता की महत्ता लिख जाते इससे अधिक और हो भी क्या सकता था, अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा का गुणानुवाद आखिर कब तक गाया जाता।

किन्तु आज के मनुष्य की दीन-हीन स्थिति देखकर लगता है शास्त्रकार अतिशयोक्ति कर गये हैं-कुछ-का-कुछ लिख गये हैं। परमात्मा पूर्ण वैभव सम्पन्न है, पर मनुष्य के पास पेट भरने के और सुख से रहने के भी साधन नहीं। परमात्मा विश्वदर्शी है, पर मनुष्य अपने आपको भी नहीं जानता। परमात्मा असीम शक्तिशाली है, पर मनुष्य तो छोटे-छोटे कार्यों के लिये भी औरों का मुँह ताकता है। किसी भी गुण राशि में तो उसका और परमात्मा का पुत्र है-अमृत-तत्व का उत्तराधिकारी युवराज है।

वस्तुतः मनुष्य की शक्ति अपार है, उसके गुण अनन्त है, उसकी क्षमता असीम है, पर यह है उत्तराधिकार रूप में ही। परमात्मा संपूर्ण विश्व का पालनकर्ता, सर्वरक्षक, सबका भरण-पोषण करने वाला है, इसलिये उसे भी यह सतर्कता बरतनी पड़ी कि वह अपनी शक्तियाँ योग्य हाथों में सौंपे और उसे भले कार्यों में प्रयुक्त हुआ देखे। जब कोई ऐसा उत्तराधिकारी व्यक्ति उसे दिखाई दे जाता है, तो अपनी तिजोरी की चाबी भी उसे सौंप देता है। अयोग्य व्यक्तियों को वह अपनी शक्तियों देकर उनका दुरुपयोग होता कैसे देख सकता था? उत्तराधिकार तो किसी अच्छे व्यक्ति को ही दिया जाता है।

एक पिता की कई संतानें होती हैं। कोई कपटी, कोई चोर, कोई लवार। कई उनमें से शील-स्वभाव-गुणवान और आज्ञाकारी भी होते है। पिता बड़ी सावधानी से उन सबका निरीक्षण करता रहता है और जिसे योग्य समझता है उसे गृहस्थी का थाल सौंपने, सारा धन दे जाने में प्रसन्नता अनुभव करता है। जो उसकी शान,ऐश्वर्य और वंश-परम्परा से विमुख होकर अकृत्य करता है, उसे देता तो कुछ नहीं, उल्टे उसे दण्ड और भुगतना पड़ता है।

साधारण मनुष्य की जब यह दशा होती है, तो परमात्मा को अधिक कड़ाई अधिक सावधानी रखनी आवश्यक थी, क्योंकि उसका कार्यक्षेत्र भी तो बहुत बड़ा है, सारे संसार में उसी के बेटे तो विचरण कर रहे है।

साधारण मनुष्य का बेटा जब अपने पिता की सम्पत्ति का स्वामित्व पाता है, तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। सब के सामने अकड़कर शान के साथ चलता है। न उसे किसी का भय होता है और न कोई अभाव। तो फिर जिसे परमात्मा का उत्तराधिकार मिल जाए तो उसकी प्रसन्नता, निर्भयता, वैभव तथा ऐश्वर्य का तो कहना ही क्या? वह चाहे तो सारे संसार के सामने ऐंठकर-अकड़कर चल सकता है। उसे भय और अभाव हो भी कहाँ सकता है।

मनुष्य स्वभावतः अधोगामी है, इस दृष्टि से यह नियंत्रण रखना जरूरी भी था। पर ईश्वर न्यायकारी भी है, उसने आत्मकल्याण का मार्ग किसी के लिये भी अवरुद्ध नहीं किया। वह साधन सबको समान रूप से मिले, जिनके माध्यम से मनुष्य अपने लौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के उद्देश्य पूरे लेता।

वायु, जल, प्रकाश, मेघ आदि का उपभोग सब समान रूप से करते हैं विचार, अनुभव, स्मृति, दर्शन, श्रवण आदि के साधन भी प्रायः सभी को एक समान ही मिल हैं इनके द्वारा मनुष्य यदि चाहता तो आत्मविकास कर सकता था, पर उसने किया कहाँ? सब कुछ देखते हुए भी मनुष्य अज्ञानी ही बना रहा। घटनाएँ कई बार घटी, घटती रहती हैं, पर उसने कभी विचार करना नहीं चाहा। इसी कारण वह अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर उठ भी नहीं सका।

लोग कहा करते हैं कि जीव जब माता के गर्भ में बन्दी की सी स्थिति में पड़ा होता है, तब वह परमात्मा से अनेक प्रकार की विनती करता है। वह चाहता है कि इस जन्म-मरण के फन्दे से जितनी जल्दी छुटकारा मिले, बंधनमुक्ति मिले उतना ही अच्छा है। इसके लिए वह तरह-तरह की प्रार्थनाएँ करता है, किन्तु जन्म लेने के बाद इस संसार की हवा लगते ही वह सब भूल जाता है और फिर वही शिश्नोदर परायण जीवन जीने में लग जाता है।

लोगों की भूल यह है कि वे अपने आप को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार करना नहीं चाहते। विज्ञान का सहारा लेकर लोग प्रत्यक्षवाद की दुहाई देते है, किन्तु यह खुला हुआ संसार क्या कम प्रत्यक्ष है जन्म, जरा और यौवन का पाना और खो देना भी किसी को विचार प्रदान नहीं कर सकता क्या?

ईश्वर का पुत्र होने के नाते मनुष्य असीम आध्यात्मिक शक्तियों और दैवी संपदाओं का स्वामी बन सकता है, किन्तु वह अपने को इस स्थिति वाला मानता कब है? अपनी इस धृष्टता के कारण वह मनुष्योचित आचार से भी पतित होकर दुष्कर्म करता है। अपने स्वार्थ के लिए औरों के अधिकारों का अपहरण करता है। खुद का पेट भरे, दूसरा चाहे भूखों से मर जाए, अपना घर भर जाए, दूसरे चाहे कानी कौड़ी के लिये तरसते रहें। इतना ही नहीं वह अपने से गई-गुजरी स्थिति वालों के साथ पैशाचिक उत्पीड़न करता है, दूसरों का खून पीता और अट्टहास करता है। ऐसे दुष्ट पुत्र को परमात्मा अपनी शक्तियाँ देता कैसे? उसे तो दण्ड ही मिलना चाहिए था और यही मिलता भी है।

स्वार्थ और संकीर्णता की दुष्प्रवृत्तियों के रहते हुए मनुष्य परमात्मा का उत्तराधिकारी कैसे बन सकता है उसे चाहिए था कि वह पैतृक गुणों का आधार मानकर चलता और अपने आप को ईश्वर आदेशों का पालन करता। ईश्वर शक्ति का स्रोत हैं, उससे संबंध स्थापित करता तो मनुष्य का जीवन शक्तिसम्पन्न हो जाता। परमात्मा की विशेषताएँ उसमें भी परिलक्षित होती।

हमारा शाश्वत स्वरूप पीछे पड़ गया है और हम अपने आपको मनुष्य का शरीर मान बैठे है, इसीलिए शारीरिक सुखों तक ही सीमित भी है। शरीर में इन्द्रियों के सुख है, सो मनुष्य उन्हें ही भोगने का हर घड़ी इच्छुक बना रहता है। सुख की इस इच्छा में वह अपने विज्ञानमय स्वरूप को भूल जाता है। जब तक शरीर रूपी साधन अपनी प्रौढ़ अवस्था में रहता है, तब तक भोगों की आसक्ति में पड़े रहते हैं और इस बीच अपनी असफलता का दोष औरों के मत्थे मढ़ना सीख जाते है और इस तरह संतोष करना चाहते हैं पर शाश्वत नियम कभी बदलते नहीं। समय पर वृद्धावस्था अपनी ही थी, शरीर दुर्बल पड़ना ही था, मौत को आना ही था, उस समय न किसी को दोष देते बनता है, न कुछ किये होता है। दुख की स्थिति में, अज्ञान की स्थिति में वह मर जाता है और बार-बार इसी चक्कर में पड़ा दुख भोगता रहता है

परमात्मा की सृष्टि में सुख ही सुख हैं। दुःख का नाम भी नहीं है, पर सारे वास्तविक स्वरूप का पहचानना नहीं चाहते। बेटा अपने धनी बाप से बिछुड़ गया है और अपने आप को निर्धन की-सी स्थिति में पड़ा हुआ अनुभव करता है उसका शरीर,प्राण और मन सब अस्त-व्यस्त है, क्योंकि वह जानता भी नहीं कि उसका बाप कितना विशाल है। अपने अमर स्वरूप को मनुष्य पहचान जाए तो यह विशेषताएँ उसमें भी तत्काल परिलक्षित होने लगे।

दुधारू गाय की बछिया भी दुधारू होती है। मीठे आम की नस्ल में उत्पन्न किया हुआ आम भी उसी गुण वाला होता है। संतरे के पेड़ में नीबू के फल नहीं लगते। अपने अमर स्वरूप में मनुष्य भी ईश्वरीय गुणों से ओत−प्रोत है, किन्तु उसकी वह महानता अज्ञानता के अंधकार में छिपी हुई है। मनुष्य अपने पिता परमात्मा के गुण,ऐश्वर्य और वैभव के अनुरूप अपना जीवन-क्रम बनाता तो उसकी शक्तियाँ भी छिपी हुई न रहतीं और वह भी अपने आप को आपने पिता के सदृश ही सत-चित और आनन्द रूप में पाता। हम सभी अपने आप को रक्त, माँस अस्थि मज्जा, मैदे आदि से बना हुआ क्षुद्र शरीर में अवतरित हुई है उसे इस उद्देश्य के लिये वह अग्रसर हो तो सचमुच उसका यह अलभ्य अवसर पाना भी सार्थक हो।

First 17 19 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • मनुष्य की जीवन की सच्ची शोभा
  • जीता-जागता स्वर्ग है फूलों की घाटी
  • धर्मः एक आध्यात्मिक भूख
  • तीर्थंकर की जन्मगाथा
  • Quotation
  • साधना के तीन चरणः भजन, मनन, और चिन्तन
  • शिवत्व एवं उसके साथ जुड़ी प्रेरणाएँ
  • प्रेम अमृत है तो मोह विष
  • कुण्डलिनी शक्ति और उसके दो अग्नितत्त्व
  • करम का लेख मिटे ना रे भाई
  • मनोबल ही विजयी बनाता है
  • कैसे जूझे हृदय रोगों से
  • स्नेहमयी माँ एवं उनका रक्षा-कवच
  • विज्ञान और अध्यात्म अब और निकट आ रहे हैं।
  • पूर्णता की प्राप्ति (Information)
  • जीवन - तत्व की गंगोत्री - प्राणशक्ति
  • व्रतेन प्राप्यते दीक्षा
  • श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रसः
  • राजसूय में श्रीकृष्ण का गुप्तदान
  • सन्त, ऋषि एवं पारखी
  • विलक्षण है इस जीव जीवन-यात्रा का हर पड़ाव
  • युगपरिवर्तन एक सुनिश्चित भवितव्यता
  • ज्ञान ही जाता है आत्मा के साथ
  • प्रसन्न रहना एक अच्छी आदत
  • दीर्घजीवन एक सहज उपहारः एक दिव्य वरदान
  • समाज का ऋण सभी को चुकाना होगा।
  • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - II
  • पूर्णता की प्राप्ति पात्रता एवं नम्रता से होती है (Kahani)
  • प्रज्ञा - पुराण कथा धर्मानुष्ठान के साथ पुण्यार्जन भी
  • गोरस बेचन हरि मिलन - एक पंथ दो काज
  • अपनों से अपनी बात - - युग प्रत्यावर्तन की दिशा में कुछ स्पष्ट संकेत
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj