
जीता-जागता स्वर्ग है फूलों की घाटी
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कामना तो आखिर कामना ही है। अर्जुन ने हठ किया तो द्रौपदी ने कह दिया- आप ला सकते हैं तो मेरे लिए नन्दनवन के वह परिजात ला दें जो जल में नहीं, पत्थरों में पैदा होते हैं, जिनकी सुगन्ध कस्तूरी-मृग से भी मादक होती है, जिसका सौंदर्य दिव्य सौंदर्य की अनुभूति करा देता है।
अर्जुन चले और नन्दनवन पहुँचे। वहाँ के रक्षक से उन्हें युद्ध करना पड़ा। तब कहीं एक फूल द्रौपदी के लिए ला सके।
महाभारत की इस कथा में सम्भवतः कल्पना अधिक, तथ्य कम जान पड़ता हो, किन्तु यह कल्पना नहीं आश्चर्यजनक रहस्य ही है कि ऐसा नन्दनवन आज भी इसी भारतभूमि में वैसे ही विद्यमान है, जैसी महाभारत में कथा आती है। समुद्र-तल से १३२.. फुट ऊँचा हिमालय की गोद में स्थित स्थान आज भी,’फूल घाटी’ के नाम से विख्यात है। प्रति वर्ष हजारों विदेशी पर्यटक यहाँ पहुँचते और जहाँ, वहाँ की मादक छटा को देखकर मुग्ध होते हैं, वहीं यह आश्चर्य भी है कि १.-१५ मील क्षेत्र में प्राकृतिक तौर पर उगते आ रहे इन हजारों प्रकार के चित्र-विचित्र पुष्पों को किसने रोपा? सारे संसार में ऐसा कोई भी स्थान नहीं, जहाँ प्राकृतिक तौर पर इतने अधिक, इतने सुन्दर, इतने वर्ण के पुष्प और कहीं खिलते हों।
विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह फूल प्रकृति की उतनी अधिक देन नहीं है। जितनी इस बात की संभावना कि यह पौधे अतीत काल में सुनियोजित ढंग से विकसित किये गये हों। सम्भव है यह कोई राज्योद्यान रहा हो, यह भी सम्भव है कि यहीं कभी किसी महर्षि का तपोवन-आश्रम रहा हो। जो भी हो महाभारत काल के बाद तो यह स्थान सैकड़ों रहस्यों की तरह छुपा ही रहा, जिनके लिए प्रतिवर्ष देश-विदेश के सैकड़ों पर्वतारोही भारत आते और हिमालय के आश्चर्य खोजने का प्रयत्न करते हैं।
जहाँ अनेक धार्मिक व्यक्तियों का यह विश्वास है कि हिमालय में राजाओं द्वारा छिपाये हुए खजाने हैं, यज्ञों के बहुमूल्य पात्र, आभूषण और अस्त्र हैं, वहाँ पर्वतारोहियों का यह कथन है कि हिमालय के प्रत्येक वनस्पति, औषधि है। जहाँ धार्मिक लोग विश्वास करते हैं कि वहाँ अभी भी अखण्ड अग्नियाँ स्थापित हैं, ऐसे ऐसे गुप्त आश्रम हैं जहाँ अर्द्धसहस्र आयु के भी सन्त महात्मा समाधिस्थ हैं, वहाँ पर्वतारोहियों ने हिमालय की कल्पना ही हिमालय में नहीं की, उनके पद चिह्न भी देखें हैं। आदि साधना-भूमि होने के कारण हमारा भी विश्वास है कि हिमालय में अध्यात्म-विज्ञान की वह अदृश्य तरंगें, वह ज्ञान अब भी विद्यमान है जिसे प्राप्त कर इस भौतिक युग की सम्पूर्ण जड़वादी मान्यताओं, परम्पराओं, सिद्धान्तों को बालू की दीवार की तरह बदला जा सकता है। पुष्प घाटी ऐसे-ऐसे रहस्यों की ही पुष्टि का एक प्रमाण है।
तीर्थयात्रा और आत्मकल्याण के लिए साधनाओं की दृष्टि से अब हिमालय ही एक पुण्य स्थान बचा है। वहाँ चित्ताकर्षक शान्ति है, अतुलित प्राण और सौंदर्य भरा है, उसमें। जो एक बार इस पुष्प घाटी को ही देख आता है, वह हिमालय का सौंदर्य भूलता नहीं। वह वहाँ बार-बार जाता है। पुष्पघाटी तक पहुँचने के लिए जोशीमठ पहुँचना पड़ता है। वहाँ से बद्रीनाथ को जाने वाली सड़क पर मध्य में गोविन्दघाट स्थान पर उतरना पड़ता है। यहाँ से पैदल चढ़ाई है और आगे घाघरिया तक की ७ मील की दूरी को पार करने के लिए पूरा एक दिन लग जाता है।
घाघरिया से कुल एक घण्टे में मुख्य घाटी पहुँच जाते हैं। उसकी दाहिनी ओर कुबेर भण्डार पर्वत और आगे ‘कामेट चोटी’ हैं। बायीं ओर सप्राष्टंग पर्वतों की चोटियाँ हैं। कामेट झरना सामने ही बहता हुआ आ रहा है। म्यूडार ग्राम पर पहुँचते ही यह पुष्पघाटी मिल जाती है और अनेक प्रकार के गुलाब, कुमुदिनी, गुल्दावदी, सिल्पाड़ा, जंगली गुलाब, चम्पा, जुही, बेला, और कुछ फूल तो ऐसे हैं, जिनके नाम वैदिक साहित्य में हैं पर अब उनकी सही जानकारी करना कठिन है। अंग्रेजों ने इनके नाम वड़ ऑफ पमडाइज, ग्लाडेओली, हिमालयन, आरकिड, हिविस्टकम आदि रख लिये हैं। कथींड के सफेद व बैगनी फूलों के गुच्छे बड़े मोहक लगते हैं। बुराँस फूल तो गुलाब के सौंदर्य को भी मात देता है। जब यह बुराँस पूरी तरह अपनी ऋतु में फूलता है, तो यह वन नन्दनवन या स्वर्ग से भी सुहावना प्रतीत होता है। कितना ही देखो न तो आँखें थकती है और न वहाँ से हटने का जी करता है।
ब्रह्म-कमल यहीं पाया जाता है। कमल जल में ही हो सकता है पर प्रकृति के संसार में क्या बन्धन? उसने यहाँ पत्थरों में कमल उगा कर यह दिखा दिया कि उसकी सत्ता सर्वशक्तिमान है। यह कमल श्वेत रंग का होता है, इसकी सुगन्ध ऐसी जादूभरी होती है कि हल्की-सी महक से ही अनन्त सुख और शान्ति का आभास होता है, इसलिए इसका नाम ब्रह्म-कमल पड़ा है। इसे पाकर ही द्रौपदी की इच्छा पूर्ण हुई थी।
फूल कहीं भी हो, वह तो प्रकृति का उन्मुक्त सौंदर्य है। जो लोग अपने घरों के आस-पास थोड़े से भी फूलों के पौधे लगा देते हैं, तो वह स्थान इतना अच्छा और आकर्षक लगने लगता है कि बार-बार वहाँ जाने का मन करता है, फिर एक ऐसे प्रदेश में पहुँच कर जहाँ १. इंच से लेकर २८ इंच ऊँचाई के पौधे केवल फूलों से ही आच्छादित हों, उस स्थान के सौंदर्य का तो वर्णन ही क्या किया जा सकता है, यह स्थान तो ईश्वर या उस दिव्य आत्मा के समान है, जिसके इस सौंदर्य और आनन्द की अनुभूति ही हो सकती है, अभिव्यक्ति नहीं।