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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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राजसूय में श्रीकृष्ण का गुप्तदान

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First 18 20 Last
महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ चल रहा था। धरा के कोने-कोने से जन-समुदाय इन्द्रप्रस्थ में एकत्र हो चुका था। नरेशों की सेनाएँ ऋषियों के समूह वणिकवर्ग के वाहनों की पंक्तियाँ-इन्द्रप्रस्थ मानव -महासागर हो रहा था। मनुष्यों के प्रवाह चले आ रहे थे वहाँ। संसार के सभी भागो के लोग-विभिन्न वेश, विभिन्न भाषा और सबके-सब अपने पूरे साज से आए थे। ऐश्वर्य साकार होकर उतर आया था-इस धरा पर, सबमें अपने ढंग की अनूठी उत्सुकता थी। कोई इधर-उधर नहीं देख रहा था। किसी को तनिक भी अवकाश नहीं था।

वैसे भी यज्ञ अपने आप में एक महान आयोजन है। इससे जुड़े हुए अनेक कार्य चलते हैं। यों कहिए कि अनजाने और अनचाहे विघ्न भी आ उपस्थित होते हैं। भक्तों साधकों ऋषि-मनीषियों की भीड़ को सम्हालना कठिन हो जाता है। अनेक बन्धु-बान्धवों इष्ट-मित्रों सेवकों के सहयोग से यह कार्य सफल हो जाता है। एक व्यक्ति के सामर्थ्य की तो बात ही नहीं।

फिर यह तो विशेष परिस्थितियों में किया जा रहा विशेष यज्ञ था। राजसूय यज्ञ की महिमा के वर्णन से तो शास्त्रों के पन्ने भरे पड़े है ऋषिगण जिसकी कथा-गाथा कहते अघाते नहीं। ऐसे महान यज्ञ के लिए महाराज युधिष्ठिर संकल्पित हुए थे। इसके पीछे महर्षि वेदव्यास की प्रेरणा थी, तो साथ में थी भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण की सहायता। भाइयों सहित महाराज युधिष्ठिर इस समय स्वयं को धन्य एवं कृतकृत्य मान रहे थे।

जो भी सुनता, अपने मन की शान्ति और आत्मा की शुद्धि के लिए राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने में अपना सौभाग्य समझता। भोजन करने वालों की भी बहुत बड़ी संख्या थी। न जाने कितने ब्राह्मण, तपस्वी,महायोगी एवं धार्मिक वृत्ति के महापुरुष आकर अपनी पूजा-आराधना से उस धार्मिक उत्सव को पवित्र कर रहे थे।

यदि महायज्ञ में आने वाले सभी लोग सहयोग करें, सभी कार्यों में तन्मयता से हाथ बंटाएँ और उन्हें मन लगाकर पूरा करें तो सफलता अवश्य मिलती है।

धर्मराज युधिष्ठिर सहयोग की दृष्टि से सभी मित्र और सम्बन्धियों से उनका मनचाहा कार्य पूछ रहे थे। कौन किस कार्य को करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है, यही देखने की बात थी। प्रायः सभी ने अपने -अपने जिम्मे कोई-न-कोई सेवाकार्य ले लिया था।

अब धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से संकोच एवं विनय के साथ पूछा-भगवान अपने अभी तक अपना इच्छित कार्य नहीं चुना है। राजसूय यज्ञ आपकी कृपा एवं सहयोग के बिना कैसे पूरा होगा?

श्रीकृष्ण मन्द-मन्द मुसकाए, फिर इष्ट दृष्टि निक्षेप करते हुए बोले-मेरी बारी तो सबक अन्त में आएगी। पहले कार्य चुन लेने दीजिए।

फिर तो अप्रिय एवं कठोर कार्य ही बचेंगे, भगवन्!

कोई हर्ज नहीं। वासुदेव कृष्ण ने बड़ी निश्चिन्तता से कहा। और इस प्रकार सबने राजसूय यज्ञ में अपने-अपने मनपसंद कार्य चुन लिए। सभी खुशी -खुशी अपना इच्छित कार्य चुन रहे थे, जिसमें श्रम तो कुछ भी न करना पड़े लेकिन वे काम में अधिकाधिक तत्पर दिखाई दे, लेकिन वे काम में अधिकाधिक तत्पर दिखाई दें, यज्ञ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति माने जाएँ। सभी प्रायः ऐसा कार्य लेना चाहते थे, जो महज दिखावटी हों और वे अधिकाधिक काम करते दिखाई दें। जिसमें वाहवाही और प्रशंसा प्राप्त हो तथा महत्वपूर्ण कार्यों के सम्पादन का श्रेय भी उन्हें मिल जाए।

आखिर सभी ने अपनी -अपनी रुचि के अनुसार यज्ञ में सहयोग देना स्वीकार कर मनपसंद कार्य चुन लिया। अपने निन्यानवे भाइयों सहित दुर्योधन ने ईर्ष्यापूर्ण मन के साथ कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। कर्ण, द्रुपद आदि सभी नरेश महारथी वीर कार्य में संलग्न हो गए। आयु से वृद्ध होने पर पितामह भीष्म भी जिम्मेदारियों को वहन करने में पीछे न रहे। उन्हें सर्वाधिक हार्दिक प्रसन्नता थी। पाण्डुपुत्रों के सम्मान, प्रगति, उत्कर्ष को देखकर वे फूले नहीं समा रहे है।

परन्तु अभी भगवान कृष्ण ने कोई दायित्व नहीं सँभाला था। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके पास जाकर फिर दोहराया -भगवन्! आपकी पुण्य प्रेरणा और सहज सहयोग के बल पर हज तो राजसूय यज्ञ का महाआयोजन शुरू हुआ है। इसमें असंख्य अतिथि आए है, भजन-पूजन और यज्ञकार्य में आए असंख्य अतिथियों के भोजन का प्रबंध भी करना होगा। सभी ने अपना-अपना उत्तरदायित्व स्वयं अपने ऊपर ले लिया है, किन्तु आपने अभी तक चुनाव नहीं किया है।

ठीक है धर्मराज! मैं आपको अपनी रुचि का कार्य बतलाए देता हूँ।

वह कौन-सा कार्य है भगवन्?

श्रीकृष्ण उन्हें समझाते हुए कहने लगे, महाराज! आज हम मात्र दिखावे और औपचारिकता में फँस गए है। हम वे दिखावटी काम करने की जिम्मेदारी लेते हैं, जिसमें वास्तविक श्रम बहुत कम, दिखावा ही अधिक होता है। मिथ्या, प्रदर्शन की थोथी भावना ने हमें जिन्दगी के यथार्थ से दूर ला पटका है। यदि व्यक्ति केवल अनावश्यक दिखावे में ही फँसा रहा, प्रदर्शन से दूर किन्तु अनावश्यक, शुष्क कठोर व नीरस श्रमसाध्य कार्यों की उपेक्षा करता रहा, तो किसी भी महान कार्य में उसे सफलता कैसे प्राप्त होगी।

युधिष्ठिर कुछ समझे नहीं।

श्रीकृष्ण ने आगे कहा- यज्ञ का बाह्य दिखने वाला रूप तो देवपूजन एवं आहुतियों का हवन है। वह निश्चय ही महत्वपूर्ण है, किन्तु यज्ञ का आन्तरिक और अधिक आवश्यक रूप भी है।

वह क्या है भगवन्? यह मर्म स्पष्ट कीजिए।

निष्काम सेवा, ऐसा कार्य करना जो ऊपरी निगाह से नजर न आये, पर हो सर्वाधिक महत्वपूर्ण! इस पर भी कभी चिन्तन किया है आपने?

कृपया कर अपना दृष्टिकोण और स्पष्ट कीजिए भगवन्!

धर्मराज धर्मक्षेत्र में गुप्तदान का सर्वाधिक महत्व है, क्योंकि उसमें दिखावा तनिक भी नहीं, गिरे पड़े पीड़ित लोगों की सहायता ही प्रधान लक्ष्य है। यदि धर्म में मात्र प्रदर्शन का भाव आ गया तो उसका लक्ष्य तो केवल आत्म विज्ञापन ही रहा।

भगवन्! आपने अपनी रुचि स्पष्ट नहीं की अभी तक।

तो सुनो, महाराज मैं आपके राजसूय यज्ञ में अतिथियों के भोजनोपरान्त झूठी पत्तलों का उठाने वहाँ की भूमि साफ करने और स्वच्छता बनाए रखने का कार्य करूँगा। यही होगा मेरा गुप्तदान।

ये शब्द थे या तीक्ष्ण बाण! सुनकर धर्मराज चकित विस्मित हो उठे। उनकी कल्पना हतप्रभ हो उठी। ऐसा वे भला सोच भी कैसे सकते थे। जिन्होंने अपने बचपन में इन्द्र को भी हतप्रभ कर दिया। जिनकी बालक्रीड़ा ने कंस जैसे महाबली असुर को धराशायी कर दिया। जिनके पराक्रम कूटनीति, रणकौशल से सारा आर्यावर्त परिचित है। पितामह भीष्म, महर्षि व्यास जैसे अध्यात्म वेत्ता जिन्हें ईश्वर का अवतार मानते हैं। युधिष्ठिर को सूझ ही नहीं रहा था, वे क्या कहें।

डंके संकोल को भाँपकर श्रीकृष्ण चन्द्र स्वयं उन्हें आश्वस्त करते हुए बोले हाँ मैं सही कह रहा हूँ, जूठन साफ करने और पत्र उठाने का कार्य मैं अपने ऊपर लेता हूँ। उनकी ये बातें सुनकर युधिष्ठिर कहने लगे आप मुझे धर्मसंकट में डाल रहे हैं। मैं किस जिह्वा से ऐसा छोटा काम करने की स्वीकृत दूँ? क्या कहूँ आपसे। आप फिर विचार कर कोई सुन्दर काम चुने। मेरे विचार में तो नये आकर्षक परिधान में बाहर से आने वाले गणमान्य अतिथियों के स्वागत सत्कार का प्रतिष्ठित-सुसंस्कृत कार्य ही आपके उपयुक्त होगा।

धर्मराज यह तो अत्याधिक सरल कार्य है। इसे तो कोई मामूली आदमी आसानी से कर सकता है। महत्व तो उस कार्य को करने में है, जो कठिन है और जिस पर सम्पूर्ण व्यवस्था टिकी हुई है। पर उसमें प्रदर्शन तनिक भी नहीं है। जूठन उठाने ओर झूठे बर्तन माँजने का काम छोटा समझा जाता है, पर व्यवस्था की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस कठोर कार्य को बाहर से आने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं करना चाहेगा। यज्ञ का असली मतलब तो बाहरी और आन्तरिक स्वच्छता है। छोटे कहलाने वाले कार्य हमारे अहंकार को दूर कर आत्मा के मैल को दूर करते हैं। ‘छोटा’ कहलाने वाले कार्यों को न करना मनुष्य की संकीर्ण विचार धारा के परिणाम हैं। समाज का हर एक कार्य चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, अपना महत्व रखता है। हर कार्य फेर-बदल का हर व्यक्ति के जिम्मे होना चाहिए। जिसे ऊँचा उठने और उन्नति के अवसर हर वर्ग को समान रूप से मिल सकें।

मन्दिर का चमकता हुआ स्वर्णकलश इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि उसकी नींव का पत्थर- आन्तरिक स्वच्छता। आप तो तत्त्वज्ञ हैं धर्मराज! फिर ऐसा क्यों कहते हैं कि यह काम छोटा है?

भगवन्! तब तो धर्म का क्षेत्र बड़ा व्यापक मालूम पड़ता है?

हाँ महाराज! धर्म का लक्ष्य तो बाह्य और आन्तरिक शुद्धि है। यह स्वच्छता केवल स्नान, नये वस्त्र धारण, ध्यान, पूजन, अर्चन मात्र से पूरी नहीं होती। इसके लिए पास-पड़ोस की स्वच्छता, नालियों, शौचालयों की सफाई, अंधकार दूर करना प्रकाश का प्रबन्ध, वृक्षारोपण, अपना कार्य स्वयं करना, श्रमदान, बीमारों की सेवा आदि अनेक ऐसे कार्य है, जो मानव की उन्नति में सहायक हैं और इसीलिए धर्म के अंतर्गत आते हैं। सभी के सहयोग से यह शुष्क और गन्दे कहे जाने वाले काम आसानी से सम्पन्न कराये जाते हैं। छोटे कहे जाने वाले कार्यों को पूर्ण करने से अहंकार, आलस्य एवं क्रोध जैसी वृत्तियाँ स्वयमेव नष्ट हो जाती हैं। हम मनुष्यत्व की ओर अग्रसर होते हैं। अज्ञान, मूढ़ता, दुराग्रह, हिंसा, आलस्य, रूढ़िवादिता आदि मानसिक विकारों को दूर करने के लिए ऐसे ही छोटे कहलाने वाले काम आवश्यक हैं। वैसे भी कार्य का स्वरूप नहीं, उसकी पृष्ठभूमि में निहित भावना महत्वपूर्ण होती है।

और लोकविख्यात है, समस्त शास्त्र, पुराण एक स्वर से कहते है- महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में झूठी पत्तलों को उठाने का काम श्रीकृष्ण ने किया था।

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