
अपनों से अपनी बात - - युग प्रत्यावर्तन की दिशा में कुछ स्पष्ट संकेत
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कभी - कभी हम पशोपेश में पड़ जाते हैं कि युगपरिवर्तन होगा कि नहीं? होगा तो कब? परिस्थितियों जो आज घनघोर घटाटोप के रूप में घुमड़ती दिखाई दे रही है। विषम होती चली जा रही हैं। असुरता जीवन मन के संघर्ष में बढ़-चढ़ दस ढोकती नजर आ रही है। देवतत्व की पक्षधर सत्ताएँ कभी - कभी यह सब देखकर व्यथित हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों में जब हम युग -संधिकाल में एक विलक्षण मोड़ पर खड़े युग बदलते देख रहें हैं। परमपूज्य गुरुदेव के कुछ कथनों को उद्धृत करने का मन कर रहा है। पूज्यवर ने मई ७१ की अखण्ड-ज्योति में लिखा है- “ अगले दिनों बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की त्रिवेणी किस तरह उद्भूत होती है, उसे लोग आश्चर्य भरी आँखों से देखेंगे। भावी भारत का संचालन करने के लिए कितने ही कर्मनिष्ठ महामानव अपनी वर्तमान मूर्च्छना को छोड़कर आगे आने हैं। इस चमत्कार को छोड़कर आगे आने हैं। इस चमत्कार को अगले ही दिनों प्रत्यक्ष देखने के लिए हममें से हर किसी को प्रतीक्षा करनी चाहिए। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना जो असम्भव को सम्भव बना दें, हमारे ज्वलन्त जीवन का अन्तिम चमत्कार अब तक के जिन छिटपुट कामों को देखकर लोग हमें सिद्धपुरुष कहने लगे। उन्हें अगल दिनों के परोक्ष तत्त्व का लेखा-जोखा यदि सूझ पड़े तो वे इससे भी आगे बढ़कर न जाने क्या-क्या कह सकते हैं। निश्चित रूप से हमारी भावी परोक्ष साधना कुछ ऐसा अनुदान विश्वमानव के सम्मुख प्रस्तुत करेगी, जो इसके भाग्य और भविष्य की दिशा मोड़ दे।
हम सभी छोटे-छोटे चमत्कारों से संतुष्ट हो जाने वाले जीव हैं। ये तो तंत्र के टोने-टोटके हैं, जो गाँव -खलिहान के व्यक्ति भी कर लेते हैं। सिद्ध लोग कुछ चमत्कार ऐसा दिखा तो देते हैं, जिनसे जनमानस अचम्भित हो उठता है, पर उससे लोकहित नहीं सधता। जो उच्चस्तरीय सिद्ध महान संत होते हैं, वे पात्रता के अनुरूप अनुदान देते हैं, देने के बदले मिलने का सिद्धान्त चरितार्थ कर स्रष्टा के अनुशासन को बनाए रखकर यह परंपरा चलाते हैं। परमपूज्य गुरुदेव उससे भी ऊँची स्तर की अवतारी सत्ता में गिने जाने चाहिए, जो कभी - कभी मानव-जाति के भाग्य व भविष्य को नए सिरे से लिखने के लिए अवतरित होती है। होती रही है! आत्मिक प्रगति की उछाल असंख्यों में पैदाकर एक प्रचण्ड झंझावात सारी, विश्वचेतना में पैदाकर बदलाव का माहौल बना देना व आशीर्वाद की उमंगें जन-जन में प्रवाहित कर देने का कार्य और कौन कर सकता है? दिक्कत यही आ जाती है कि हम परिवर्तनकारी सत्ता को व उनके अभियान की प्रचण्डता को समझ पाने में विफल रहते हैं एवं बाद में सिर धुन-धुनकर पछताते हैं। आर्तनाद बाद में करना ही क्यों पड़े, छाती पीटने की जरूरत ही क्यों पड़ें, जब परिवर्तन सामने प्रत्यक्ष दीख पड़ रहा हो।
पूज्यवर पुनः अखण्ड-ज्योति के इसी अंक में एक स्थान पर लिखते हैं। “जिस शक्ति सहारे यह प्रबल प्रयास अब तक चलता रहा है, वह आगे भी स्वयं ही उस चलाएगी। माताजी माध्यम रहें तो भी उनके पीछे वही समर्थसत्ता रहेगी, जो हमारे पीछे रही है। उनके बाद भी यह आन्दोलन घटने की अपेक्षा बढ़ेगा ही। यदि घटने की आशंका होती तो काम बढ़ाने और वर्ग विभाजन की जरूरत क्यों पड़ती है। हमें काम को अधूरा छोड़ने या चलती गाड़ी को ठप्प करने की सूझ क्यों पड़ती? हर किसी को यह परिपूर्ण विश्वास रखना चाहिए कि अगले दिनों अभियान की गति और अधिक बढ़ जाएगी और वह मानवीय भविष्य के निर्माण में अपनी भूमिका अबकी अपेक्षा अगले दिनों हजार गुना तेजी के साथ सम्पन्न कतरा चला जाएगा। “ पूज्यवर के ये उद्गार १९७१ के हैं जब वे मथुरा स्थायी रूप से छोड़कर हिमालय प्रस्थान कर रहे थे। विदाई की पूर्व बेला में उनकी लिखी ये पँक्तियाँ कितनी अंतश्चेतना को झकझोरती हैं, सहज ही समझा जा सकता है। तब और भी जब पूज्यवर के उत्तरार्द्ध रूप में ऋषि परम्परा के बीजारोपण हेतु विनियमित स्थापित महाकाल के घोंसले शान्तिकुञ्ज से उनने महाप्रयाण से पूर्व ठीक इसी प्रकार की घोषणा भविष्य के विषय में बड़ी निश्चिंततापूर्वक की इसी बीच २. वर्ष के अन्तराल में मिशन कहाँ से कहा पहुँच चुका था। पूज्यवर के सामने ही विस्तार ही विस्तार की सभी को झलकियाँ दिखाई देने लगी थी, पर संशय वही था। पूज्यवर के बाद क्या होगा? सशरीर न रहने पर यह मिशन कहीं और संस्थाओं की तरह पिछड़ तो नहीं जाएगा। परमपूज्य गुरुदेव सतत् यही कहते व लिखते थे कि हम अपने परिजनों से बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं। “ अखंड-ज्योति अप्रैल १९९. उनने इस शीर्षक से लिखे एक लेख में अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये-
दृश्यशरीर रूपी गोबर की मशक चर्मचक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिए नियुक्ति किया गया प्रहरी अगली शताब्दी एक पूरी जागरूकता के साथ अपनी जिम्मेदारी वहन करता रहेगा। आगे यह भी लिखते हैं कि हमसे जुड़े परिजनों में से जो अभी कोई प्रमाद या उपेक्षा बरतेगा उसे शान्तिकुञ्ज की संचालक शक्ति झकझोरेगी- कान उमेठेगी और बाधित करती रहेगी। वही संचालक शक्ति आज परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीय माताजी की सूक्ष्म व कारणसत्ता के रूप में हम सभी शान्तिकुञ्ज-गायत्री तीर्थ में विद्यमान हो सतत् झकझोर रही है। हम सभी को युगधर्म को युगधर्म की ओर उन्मुख होने का संकेत कर रही है। अब परिवर्तन की वेला आ पहुँची। मात्र डेढ़ दो वर्ष-कुछ ही माह रह गये हैं हमारी तत्परता कर्मठता ऐसी मतें और बढ़ चढ़कर पूज्यवर के चिन्तन के विस्तार में नियोजित होनी चाहिए। यही इस श्रावणी पर्व पर आत्मसमीक्षा हम सभी को करनी है।
*समाप्त*